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जिस टेलिकॉम ने मुकेश अंबानी को नई बुलंदियां दी हैं उसी ने अनिल अंबानी को सड़क पर कैसे ला दिया?

अनिल अंबानी

1920 के दशक में शुरू हुई डासलर ब्रदर्स शू फैक्ट्री नाम की एक कंपनी ने कुछ ही साल में जर्मनी में धूम मचा दी थी. खिलाड़ियों के लिए जूते बनाने वाली इस कंपनी को एडोल्फ और रुडोल्फ नाम के दो भाई चलाते थे. एडोल्फ ने कंपनी शुरू की थी और बाद में उनके बड़े भाई रुडोल्फ भी उनके साथ आ गए. सब बढ़िया चल रहा था. लेकिन दूसरे विश्व युद्ध के बाद मामला बिगड़ गया. हुआ यह [1] कि युद्ध खत्म होने पर रुडोल्फ को अमेरिकी सैनिकों ने हिरासत में ले लिया. उन पर आरोप लगाया गया कि वे नाजी पार्टी की हथियारबंद इकाई के सदस्य थे. लेकिन यह सच नहीं था. हालांकि दोनों भाई नाज़ी पार्टी के सदस्य जरूर रहे थे.

रूडोल्फ को शक था कि उनके भाई ने उन्हें फंसाया है. रिश्ते में आई खटास बढ़ती गई और आखिर में भाइयों के रास्ते अलग हो गए. दोनों ने अपनी अलग-अलग कंपनियां बना लीं. रुडोल्फ ने अपने नाम के आधार पर कंपनी का नाम रखा रूडा. बाद में इसका नाम बदला गया और आज हम इसे प्यूमा के नाम से जानते हैं. उधर एडोल्फ ने अपने नाम के आधार पर जो कंपनी बनाई उसे दुनिया एडिडास के नाम से जानती है.

करीब एक दशक पहले जब आपसी झगड़े के बाद मुकेश और अनिल अंबानी ने अपनी राहें अलग कीं तो कुछ समय तक ऐसा ही लगा कि वे एडोल्फ और रुडोल्फ डासलर की राह पर हैं. विश्लेषक मान रहे थे कि यह झगड़ा कारोबार की दुनिया के लिए फायदेमंद होने वाला है. आंकड़े भी इसका इशारा कर रहे थे. 2007 में प्रतिष्ठित पत्रिका फोर्ब्स की धनकुबेरों की सूची [2] में 43 अरब डॉलर की संपत्ति के साथ मुकेश पांचवें स्थान पर थे तो 42 अरब डॉलर के आंकड़े का साथ अनिल छठे. दोनों की कंपनियां तरक्की की गाड़ी पर सवार दिख रही थीं.

लेकिन जल्द ही हालात बदलने लगे. मुकेश अंबानी तो मजबूती से आगे बढ़ रहे थे लेकिन अनिल अंबानी की नाव हिचकोले खाने लगी. छोटे भाई के लिए हालात लगातार बद से बदतर होते गए और आज आलम यह है कि कुछ ही दिन पहले लंदन की एक अदालत में अनिल अंबानी ने कहा [3] है कि उन्हें वकीलों की फीस देने के लिए घर के गहने बेचने पड़े हैं. मामला तीन चीनी बैंकों द्वारा अनिल अंबानी की कंपनियों को दिए गए करीब पांच हजार करोड़ रुपये के कर्ज का था जो नहीं चुकाया गया है. ये कंपनियां अब अनिल अंबानी की परिसंपत्तियां जब्त कर और उन्हें बेचकर अपना पैसा वसूलना चाहती हैं. हालांकि गहने बेचने वाली बातें तो उन्होंने अपने बचाव में कही होंगी लेकिन, यह तो साफ है कि अब वे 2007 वाले अनिल अंबानी की छाया मात्र भी नहीं हैं.

उधर, मुकेश अंबानी की कहानी बिल्कुल अलग है. करीब 89 अरब डॉलर की संपत्ति के साथ वे आज भी दुनिया के पांचवें [4] सबसे अमीर शख्स हैं. इस साल उनकी दौलत में 22 अरब डॉलर से भी ज्यादा का इजाफा हुआ है. कुछ समय पहले उन्होंने करीब 453 करोड़ रु एरिक्सन को देकर अपने छोटे भाई को जेल जाने से बचाया [5] था.

दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों भाइयों के उतार और चढ़ाव के कारणों में एक कारक साझा रहा है और वह है दूरसंचार यानी टेलिकॉम. करीब एक साल तक चले तनाव के बाद जब मुकेश और अनिल अंबानी के बीच 2005 में रिलायंस का बंटवारा हुआ तो समूह का इंजन यानी रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड यानी आरआईएल मुकेश अंबानी के हिस्से में आया था. उधर, जिस रिलायंस इन्फोकॉम को समूह के भविष्य का इंजन माना जा रहा था वह अनिल अंबानी के पास गया जिसे उन्होंने रिलायंस कम्यूनिकेशंस यानी आरकॉम नाम दिया. इस समझौते [6] की रूपरेखा मां कोकिला बेन और अंबानी परिवार के कुछ अन्य शुभचिंतकों की निगरानी में बनी थी. जानकारों के मुताबिक उस समय मुकेश अंबानी ने बड़े भारी मन से रिलायंस इन्फोकॉम को छोड़ा था. इसकी वजह यह थी कि यह उनकी प्रिय परियोजना थी.

अनिल अंबानी की रिलायंस इन्फोकॉम में कितनी कम अहमियत थी यह इससे भी समझा जा सकता है कि इसका स्वामित्व रिलांयस कम्युनिकेशंस इन्फ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड नाम की जिस कंपनी के पास था उसमें 50.50 फीसदी हिस्सेदारी मुकेश और उनकी पत्नी नीता अंबानी की थी. इसके अलावा कंपनी में 45 फीसदी शेयर आरआईएल के थे जिसके बोर्ड में मुकेश अंबानी का प्रभुत्व था. दिसंबर 2003 में रिलायंस इन्फोकॉम के उद्घाटन के मौके पर अनिल अंबानी को तो बुलाया भी नहीं गया था. लेकिन यही रिलायंस इन्फोकॉम उनके पास चली गई और मुकेश मन मसोसकर रह गए.

खैर, उस समय के हालात के हिसाब से देखें तो लग रहा था कि अनिल अंबानी बड़े भाई को पीछे छोड़ देंगे. वह दूरसंचार के क्षेत्र में नई क्रांति का समय था. स्मार्टफोन और इसके नतीजे में इंटरनेट यानी मोबाइल डेटा का इस्तेमाल बढ़ रहा था. माना जा रहा था कि इस कारोबार की तूती बोलने वाली है. इस लिहाद से उस समय अनिल अंबानी का भविष्य ज्यादा चमकदार दिख रहा था.

इस सिलसिले में मैक्सिको के कारोबारी कार्लोस स्लिम का जिक्र किया जा सकता है जो लैटिन अमेरिका की सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी अमेरिका मोबिल के भी मालिक हैं. अपनी कंपनी की दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की के चलते कार्लोस 2010 में दुनिया के सबसे अमीर शख्स बन गए थे और वे 2013 तक इस जगह पर कायम रहे. आज भी 50 अरब डॉलर की संपत्ति के साथ वे और उनका परिवार दुनिया के शीर्ष धनकुबेरों की सूची में 12वें नंबर [7] पर है.

तो सवाल उठता है कि अनिल अंबानी इस कारोबार का फायदा क्यों नहीं उठा सके. उन्होंने दूरसंचार नाम की इस पारसमणि को डुबो कैसे दिया? 2008 में जिस आरकॉम का बाजार पूंजीकरण डेढ़ लाख करोड़ रु से ज्यादा था वह ढेर कैसे हो गई?

इसका प्रमुख कारण रही गलाकाट प्रतिस्पर्धा जो अनिल अंबानी पर भारी पड़ गई. 1990 के दशक में जब भारत में मोबाइल सेवाएं शुरू हुईं तो पूरे देश को मेट्रो, ए, बी और सी जैसे 23 सर्कलों में बांटा गया था. यह वर्गीकरण राजस्व की संभावनाओं के लिहाज से किया गया था. मेट्रो और ए श्रेणी के सर्कलों में ये संभावनाएं सबसे ज्यादा थीं. 2008 तक हर सर्कल में पांच से छह कंपनियां सेवाएं देने लगी थीं. उसी साल सरकार ने आठ नए ऑपरेटरों को लाइसेंस दे दिए जिससे यह आंकड़ा 13-14 तक पहुंच गया. असल में दूरसंचार क्षेत्र में उस समय तेजी से विस्तार हो रहा था. 2008 की कारोबारी मंदी के दिनों में भी यह क्षेत्र लगातार तरक्की कर रहा था. सरकार भी मुनाफे की इस गाय को भरसक दुहना चाहती थी. नए ऑपरेटरों को लाइसेंस मिलना उसकी इस चाह का ही नतीजा था.

लेकिन इसका नतीजा उल्टा रहा. असल में ग्राहकों को अपने साथ जोड़ने के लिए नए ऑपरेटरों के पास यही रास्ता था कि वे कॉल रेट कम करें. एक बार यह हुआ तो इसकी होड़ सी शुरू हो गई. आरकॉम को भी कॉल रेट को 50 पैसे प्रति मिनट तक लाना पड़ा. इससे ग्राहकों को तो बहुत फायदा हुआ लेकिन कंपनियों का बैंड बजने लगा क्योंकि प्रति ग्राहक कॉल के मिनट का औसत आंकड़ा नहीं बढ़ रहा था. इससे कंपनियों की कमाई गिरनी शुरू हो गई. ग्राहकों की संख्या बढ़ने का भी वैसा फायदा नहीं हुआ जैसा सोचा गया था. जैसा कि अपने एक लेख [8] में इस क्षेत्र के जानकार मोहित अग्रवाल कहते हैं, ‘असल में जो नए ग्राहक जुड़ रहे थे वे निम्न आय वर्ग के थे जो फोन को ज्यादातर इनकमिंग कॉल के लिए इस्तेमाल कर रहे थे. इससे प्रति ग्राहक राजस्व यानी एवरेज रेवेन्यू पर यूजर गिरने लगा.’

एयरटेल और बाजार के दूसरे खिलाड़ियों सहित अनिल अंबानी की आरकॉम पर भी इसकी चोट पड़ी. खर्च बढ़ रहा हो और कमाई नहीं तो कारोबारी अक्सर कर्ज जुटाकर व्यापार चलाने की कवायद करता है. अनिल अंबानी ने भी यही किया. बाजार से कर्ज उठाया जाने लगा. लेकिन इस कर्ज को चुकाना भी होता है जो तभी हो सकता है जब राजस्व और कमाई बढ़े. समस्या इसी मोर्चे पर थे. कॉल रेट और नतीतजन कमाई बढ़ने के कोई आसार नहीं दिख रहे थे क्योंकि ऐसा करने वाली कंपनियों को ग्राहक खोने पड़ते.

हालात नहीं सुधरे और माली हालत और खराब हुई तो आरकॉम कर्ज चुकाने के लिए भी कर्ज लेने लगी. धीरे-धीरे आलम यह हो गया कि उसके लिए पुराने कर्ज का ब्याज चुकाना भी दूभर हो गया. 2018 में जब उसने नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल के सामने कर्ज की समस्या का समाधान करने की अर्जी लगाई तो उस पर स्टेट बैंक सहित तमाम बैंकों और वित्तीय संस्थानों का करीब 50 हजार करोड़ रुपया बकाया [9] था.

ऐसा नहीं है कि अनिल अंबानी ने इस संकट से पार पाने की कोशिशें नहीं कीं. 2016 में आरकॉम के एयरसेल के साथ विलय की कोशिशें हुईं. कंपनी का टॉवर कारोबार बेचने की भी कवायद चली. कहा गया कि अगर ये दोनों रणनीतियां अंजाम तक पहुंच जाएं तो आरकॉम का 60 फीसदी कर्ज खत्म हो जाएगा. लेकिन मामला नहीं जम सका [10]. इससे पहले 2013 में अनिल अंबानी ने आरकॉम के डीटीएच कारोबार बिग टीवी का विलय सन डाइरेक्ट के साथ करने की कोशिश की. लेकिन यहां भी बात नहीं बनी. आखिर में बिग टीवी को वीकॉन मीडिया के रूप में एक खरीदार मिला [11] जिसने इसे सिर्फ इस शर्त पर खरीदा कि कंपनी पर जो कर्ज है वह अब उसकी जिम्मेदारी है. यानी अनिल अंबानी को अलग से कुछ नहीं मिला.

वैसे, भविष्य को बदलने की संभावनाओं के लिहाज से अनिल अंबानी के हाथ सबसे बड़ा मौका 2008 में आया था. तब ऑरकॉम और दक्षिण अफ्रीका की दिग्गज दूरसंचार कंपनी एमटीएन के बीच विलय की बातचीत चल रही थी. अगर यह विलय हो जाता तो इसका नतीजा करीब 70 अरब डॉलर की एक विशाल कंपनी के रूप में सामने आता. लेकिन यहीं मुकेश अंबानी ने एक ऐसा दांव [12] खेला कि अनिल अंबानी बस देखते रह गए. बात चल रही थी कि अनिल अंबानी ऑरकॉम में अपने शेयरों का एक बड़ा हिस्सा एमटीएन को दे देंगे और इसके बदले उन्हें इस दिग्गज कंपनी में कुछ हिस्सेदारी मिल जाएगी. लेकिन मुकेश अंबानी ने यह कहकर मामला अड़ा दिया कि भाइयों में हुए समझौते के मुताबिक आरकॉम के शेयरों पर पहला हक उनका है. अंदरखाने यह बात भी उड़ी कि मुकेश ने आरकॉम की डांवाडोल हालत की जानकारी एमटीएन तक पहुंचा दी है.

देखा जाए तो अनिल अंबानी के पतन की इस कथा के समानांतर मुकेश अंबानी स्पष्ट योजना के साथ और पूरा जोर लगाकर अपनी गोटियां चल रहे थे. वे उस समझौते के खत्म होने का इंतजार कर रहे थे जो 2005 में दोनों भाइयों के बीच हुआ था और जिसके तहत उन्हें 10 साल तक एक-दूसरे के कारोबार में दखल नहीं देना था. बंटवारे के वक्त हुए समझौते में यह बात भी थी कि दोनों में से कोई भी अगर अपने हिस्से की कोई कंपनी या उसमें हिस्सेदारी बेचने का फैसला करता है तो उसे खरीदने का पहला अधिकार दूसरे भाई के समूह को होगा.

आरकॉम-एमटीएस की बातचीत खत्म होने के दो साल बाद मुकेश अंबानी ने एक और बड़ा कदम उठाया. 2010 में उन्होंने एक अरब डॉलर में इंफोटेल नाम की एक कंपनी को खरीद [13] लिया. यह अकेली कंपनी थी जिसने देश के सभी सर्कलों के लिए ब्रॉडबैंड स्पेक्ट्रम हासिल किया था. उसने इसके लिए हुई सरकारी नीलामी में 12,848 करोड़ रु की बोली लगाकर बाकी सबको पछाड़ दिया था. यानी अब आरआईएल एक अकेली कंपनी थी जो देश में हर जगह 4जी सेवा दे सकती थी. इससे करीब महीना भर पहले ही यह खबर भी आई थी कि दोनों भाइयों के बीच 10 साल के लिए एक-दूसरे के कारोबारी क्षेत्र में न आने वाला करार टूट गया है.

अब साफ होने लगा था कि मुकेश अंबानी एक बार फिर अपने ड्रीम प्रोजेक्ट यानी टेलिकॉम में वापसी की तरफ बढ़ रहे हैं. 2011 में खबरें [14] आने लगीं कि रिलायंस इंडस्ट्रीज न सिर्फ कम कीमत पर हाई स्पीड डेटा देने की तैयारी कर रही है बल्कि उसने यूटीवी जैसी कई कंपनियों से कॉन्टेंट को लेकर बातचीत भी शुरू कर दी है. 2013 में खबर [15] आई कि मुकेश अंबानी और उस समय देश की सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी एयरटेल के मुखिया सुनील मित्तल के बीच एक समझौता हो गया है. इसके तहत दोनों ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क सहित दूरसंचार से जुड़ा ढांचा साझा करेंगी. इससे कुछ महीने पहले मुकेश अंबानी अपने छोटे भाई के साथ भी एक ऐसा ही समझौता [16] कर चुके थे. इसके तहत तय हुआ था कि आरकॉम का फाइबर ऑप्टिक नेटवर्क इस्तेमाल करने के एवज में आरआईएल उसे करीब 1200 करोड़ रु देगी. इससे अपनी दूरसंचार कंपनी लॉन्च करने की तैयारी में लगी आरआईएल को संसाधनों के मोर्चे पर भारी बचत होनी थी. इसके साथ ही वह अपना ऑप्टिकल फाइबर नेटवर्क भी बिछाने लगी थी. इसी साल इंफोटेल का नाम बदलकर रिलायंस जियो कर दिया गया.

अब कहानी की सारी कड़ियां जुड़ चुकी थीं. स्पेक्ट्रम भी हाथ में था, इंफ्रास्ट्रक्चर भी और कंपनी का नाम भी रखा जा चुका चुका था. और भाई के साथ समझौते को भी 10 साल होने वाले थे. आखिरकार 27 दिसंबर 2015 को मुकेश अंबानी ने अपना सपना साकार कर दिया. इस दिन रिलायंस जियो को लॉन्च [17] कर दिया गया. यह सॉफ्ट लॉन्च था. यानी अभी जियो की सेवाओं का फायदा सिर्फ इसके कर्मचारी और कारोबारी सहयोगी उठा सकते थे. सितंबर 2016 में इसे आम ग्राहकों के लिए भी उपलब्ध करा दिया गया.

जियो के शुरुआती ऑफर ने ही पहले ही कराह रहे बाजार के दूसरे खिलाड़ियों को अधमरा कर दिया. मुकेश अंबानी ने पहले तीन महीने के लिए जियो की सेवाएं मुफ्त देने का ऐलान किया और इस छूट को तीन और महीनों के लिए बढ़ा दिया गया. अनिल अंबानी की आरकॉम के लिए जियो ताबूत में आखिरी कील जैसी साबित हुई. इसके बाद उसके पास खुद को दिवालिया घोषित करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचा.

उधर 37 करोड़ से भी ज्यादा ग्राहकों के साथ आज रिलायंस जियो भारतीय दूरसंचार बाजार की सबसे बड़ी कंपनी है और इस मामले में दुनिया में उसका तीसरा स्थान है. अप्रैल 2020 से अब तक जियो में करीब 33 फीसदी हिस्सेदारी बेचकर आरआईएल ने डेढ़ लाख करोड़ रु से ज्यादा की रकम जुटा ली है. इसे खरीदने वालों में फेसबुक भी शामिल है जिसने करीब 45 हजार करोड़ रु में जियो की 10 फीसदी हिस्सेदारी ली है. यह विराट निवेश उस अवधि में हुआ है जब कोरोना वायरस ने दुनिया की अर्थव्यवस्था के चक्के थाम दिए थे. इससे भी मुकेश अंबानी की कारोबारी कुशलता का अंदाजा लगाया जा सकता है.

यानी मुकेश अंबानी के हाथ से एक पारसमणि चली गई तो उन्होंने दूसरी पारसमणि बना दी. उधर, अनिल अंबानी ने हाथ आई पारसमणि को भी डुबो दिया. मैराथन का शौक भले ही अनिल अंबानी को रहा हो, लेकिन कारोबार के ट्रैक पर मुकेश अंबानी उनसे कहीं बेहतर धावक साबित हुए.