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क्यों ये तीन विधेयक कुछ के लिए किसानों की आजादी हैं तो बाकियों के लिए उनकी मौत के फरमान

भारतीय किसान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन्हें किसानों के लिए रक्षा कवच [1] कह रहे हैं. उधर, कांग्रेस नेता राहुल गांधी के लिए ये किसानों की मौत का फरमान [2] हैं. इससे भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि कृषि से जुड़े और संसद से पारित हो चुके तीन विधेयकों पर राय के जो दो छोर हैं उनके बीच कितना फासला है. देश के कई राज्यों में किसान इन विधेयकों पर गुस्से का इजहार करते हुए सड़क पर हैं और कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी पार्टियां उनके साथ खड़ी हैं. दूसरी तरफ सरकार का कहना है कि विधेयकों में किसानों का बेहतर भविष्य छिपा है और विपक्ष उन्हें बहका रहा है.

आगे बढ़ने से पहले इन तीनों विधेयकों के बारे में जानते हैं. संसद के दोनों सदनों से पारित हो चुके ये तीनों विधेयक राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून बनने वाले हैं. इनमें पहला है कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक [3]. इसमें प्रावधान है कि किसान अपनी उपज को मंडी के बाहर देश में कहीं भी बेच सकता है. इस विधेयक के अध्याय दो के तीसरे बिंदु में कहा गया है, ‘किसी भी किसान, व्यापारी या इलेक्ट्रॉनिक ट्रेडिंग एंड ट्रांज़ैक्शन प्लेटफॉर्म को राज्य के भीतर या बाहर किसी भी व्यापार क्षेत्र में उपज का व्यापार करने की आजादी होगी.’ व्यापार क्षेत्र का मतलब खेत से लेकर वेयर हाउस, कोल्ड स्टोरेज और प्रोसेसिंग यूनिटों सहित तमाम ऐसी जगहों से है जहां फसल की खरीद-बिक्री हो सकती है. विधेयक के मुताबिक खरीदार को किसान को सौदे के दिन ही या फिर अधिकतम तीन दिन के भीतर भुगतान करना होगा. सरकार के मुताबिक इलेक्‍ट्रॉनिक व्‍यापार और इससे जुड़े मामलों के लिए एक सुविधाजनक ढांचा भी उपलब्‍ध कराया जाएगा.

कृषि से जुड़ा दूसरा विधेयक है कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक [4]. इसमें अनुबंध पर खेती यानी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से जुड़े प्रावधान हैं. कहा जा रहा है कि इनसे किसानों को व्यापारियों, कंपनियों, प्रसंस्करण इकाइयों और निर्यातकों से सीधे जोड़ने का रास्ता बनेगा. इस विधेयक के दूसरे अध्याय की बिंदु संख्या 3(1) में कहा गया है कि ‘कोई भी किसान अपनी उपज के सिलसिले में एक लिखित समझौता कर सकता है जिसमें इस उपज की आपूर्ति के लिए शर्तें तय की जा सकती हैं जिनमें आपूर्ति का समय, उसकी गुणवत्ता, ग्रेड, मानक, कीमत और ऐसी दूसरी चीजें शामिल हैं.’ यह समझौता एक फसली सीजन से लेकर अधिकतम पांच साल तक के लिए किया जा सकता है. सरकार के मुताबिक देश में 10 हजार कृषक उत्पादक समूह (एफपीओ) बनाए जा रहे हैं जो छोटे किसानों को आपस में जोड़कर उनकी फसल को बाजार में उचित लाभ दिलाने की दिशा में कार्य करेंगे. खेती से जुड़े इन दोनों विधेयकों में विवाद की स्थिति में निपटारे की व्यवस्था का भी प्रावधान है.

संसद द्वारा पारित तीसरा विधेयक है आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक. इसके तहत सरकार ने अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्‍याज और आलू को आवश्‍यक वस्‍तुओं की सूची से हटा दिया है. यानी युद्ध और अकाल जैसे कुछ असाधारण हालात को छोड़कर इन चीजों के उत्पादन और बिक्री में सरकार का कोई दखल नहीं रहेगा. साथ ही पहले की तरह इनके भंडारण यानी स्टॉक की कोई सीमा भी नहीं होगी. यानी कोई भी व्यापारी इनका जितना चाहे स्टॉक कर सकता है. आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में बना था. तब से सरकार इस कानून की मदद से ‘आवश्यक वस्तुओं’ का उत्पादन, आपूर्ति और वितरण नियंत्रित करती रही है. इसके पीछे सोच यह है कि इससे जमाखोरी पर लगाम लगती है और लोगों को जरूरी चीजें ठीक दाम पर उपलब्ध होती हैं. 

इन तीनों विधेयकों को सरकार ऐतिहासिक बता रही है. मसलन कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना [5] है कि यह किसानों के लिए बंधनों से मुक्ति है. सरकार के मुताबिक यह कानून किसानों के लिए अधिक विकल्‍प खोलेगा, उनकी विपणन यानी बेचने की लागत कम करेगा और अपनी फसल की बेहतर कीमत वसूलने में उनकी मदद करेगा.

उधर, कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार विधेयक के बारे में सरकार का कहना है कि यह कानून भी विपणन की लागत कम करेगा और किसानों की आय में सुधार करेगा. इसे लेकर जारी विज्ञप्ति [6] में कहा गया है, ‘किसान सीधे विपणन में शामिल होंगे जिससे बिचौलियों का सफाया होगा और किसानों को पूरा मूल्‍य प्राप्‍त होगा.’ सरकार का यह भी कहना है कि इस विधेयक से किसान के लिए एक तरफ जोखिम कम होगा तो दूसरी तरफ उस तक आधुनिक तकनीक और बेहतर बीज-खाद जैसी चीजें भी पहुंचेंगी.

तो कुल मिलाकर तीनों विधेयकों से होने वाले बदलाव का जो सार है वह यह है कि किसान अब अपनी उपज कहीं भी बेच सकता है, फसल उगाने से पहले ही वह व्यापारी के साथ समझौता कर सकता है और अनाज, दलहन या तिलहन के भंडारण पर अब कोई सीमा नहीं है.

कई जानकार इन्हें सही दिशा में उठाए गए कदम मानते हैं. इंडिया टुडे के साथ बातचीत [7] में कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी कहते हैं, ‘ये ऐसे ही है जैसे 1991 में लाइसेंस-परमिट राज खत्म हुआ था क्योंकि आप बेहतर विकल्प दे रहे हैं. बाजार खोल रहे हैं जहां व्यापारी, निर्यातक और किसान एक साथ पहुंच सकते हैं और सीधे व्यापार कर सकते हैं. इसके चलते बीच के लोगों को जो पैसा देना पड़ता है वह कम होगा.’ उड्डयन क्षेत्र का उदाहरण देते हुए वे आगे जोड़ते हैं, ‘अभी की स्थिति को देखकर मुझे इंडियन एयरलाइंस वाला वक्त ध्यान में आता है. तब एक ही हवाई सेवा थी. यात्रा की कीमत ज्यादा थी और गुणवत्ता कम. फिर जब आपने प्रतिस्पर्धा का माहौल बनाया और तीन या पांच और एयरलाइंस को आने की इजाजत दी तो उपभोक्ता को फायदा हुआ. किसान को भी फायदा होगा.’

लेकिन अगर ऐसा है तो कई राज्यों में किसान इन तीनों विधेयकों का विरोध करते हुए सड़क पर क्यों उतरे हुए हैं? सरकार और इन विधेयकों के समर्थकों का तर्क है कि विपक्षी दल किसानों को भ्रमित कर रहे हैं. अशोक गुलाटी भी मानते हैं कि इन विरोध प्रदर्शनों का संबंध राजनीति से भी जुड़ता है. वे कहते हैं, ‘कुछ राज्य नाराज हैं क्योंकि उन्हें डर है कि मंडी शुल्क जैसे राजस्वों से मिलने वाली उनकी कमाई कम हो सकती है.’ अशोक गुलाटी के मुताबिक यह डर बेबुनियाद है क्योंकि सरकारी मंडियां खत्म नहीं की जा रही हैं और जो वहां अपनी फसल बेचना चाहते हैं उन्हें कोई नहीं रोक रहा.

सरकार द्वारा बनाई गई ‘डबलिंग फार्मर्स इनकम’ (डीएफआई) कमेटी के अध्यक्ष डॉ. अशोक दलवई भी कुछ ऐसा ही मानते [8] हैं. उनके मुताबिक सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर उपज खरीदती है और यह प्रक्रिया जारी रहेगी. अशोक दलवई कहते हैं, ‘किसान को जहां भी उसकी फसल का सही रेट मिलेगा वह वहां पर उसे बेचेगा. उसे मंडी से अच्छा रेट बाहर मिलेगा तो वो बाहर बेचेगा और मंडी में अच्छा रेट मिलेगा तो मंडी में बेचेगा. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मामले में स्थिति साफ करने की कोशिश की है. अपने एक ट्टीट [9] में उनका कहना है, ‘पहले भी कह चुका हूं और एक बार फिर कहता हूं: MSP की व्यवस्था जारी रहेगी. सरकारी खरीद जारी रहेगी.’

आगे बढ़ने से पहले पहले मंडी और सरकारी खरीद की इस व्यवस्था को समझते हैं. आजादी के पहले भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में साहूकारों का बोलबाला था. ये साहूकार पशुधन और शादी-ब्याह जैसे तमाम खर्चं के लिए किसानों को ऊंचे सूद पर पैसा उधार देते थे और इसका फायदा उठाकर उनकी फसल औने-पौने दाम पर खरीद लिया करते थे. आजादी के बाद किसानों को इस शोषण से आजादी दिलाने की कवायदें शुरू हुईं. इनका नतीजा यह हुआ कि 1950 के दशक से राज्य अपने-अपने कानून बनाकर कृषि उपज वितरण समितियों (एपीएमसी) और इनके तहत चलने वाली मंडियों की स्थापना करने लगे. किसान इन मंडियों में जाकर अपनी फसल बेच सकता था. यहां बिचौलिए या आढ़तिये होते थे जिन्हें सरकार कुछ शुल्क वसूलकर लाइसेंस देती थी. ये आढ़तिए किसान से उपज लेकर खरीदार को बेच देते थे. इसमें उनका एक निश्चित कमीशन बनता था. उधर, खरीदार को हर सौदे के लिए एक तय मंडी शुल्क चुकाना पड़ता था.

1960 के दशक में सरकार ने फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी घोषित कर मंडियों में सरकारी खरीद केंद्र खोलने भी शुरू कर दिए. एमसपी का निर्धारण कृषि लागत और मूल्य आयोग करता था. इसमें खेती की लागत, उपज की मांग और आपूर्ति की स्थिति आदि कारकों का ध्यान रखा जाता था. लागत में बीज-सिंचाई-खाद ही नहीं, खेत और परिवार के श्रम का खर्च भी शामिल होता था. एमएसपी के पीछे की सोच यह थी कि एक तो किसान को किसी भी हालत में नुकसान न हो और दूसरे, खाद्यान्न वितरण से जुड़ी सरकारी योजनाओं के लिए अनाज भी जुट जाए. अभी एमएसपी के तहत 23 फसलें आती हैं. इनमें फल और सब्जियां शामिल नहीं हैं.

लेकिन इन तमाम कवायदों के बावजूद सच यह है कि आज भी एमएसपी के तहत होने वाली सरकारी खरीद तक महज छह फीसदी किसानों की ही पहुंच है. यह बात 2015 में भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के पुनर्गठन का सुझाव देने के लिए बनी शांता कुमार समिति ने अपनी रिपोर्ट में कही थी. यानी बाकी किसान दूसरे खरीदारों के भरोसे हैं. जानकारों के मुताबिक उन्हें अपनी फसल उसी दाम पर बेचनी होती है जिस पर बिचौलिये चाहते हैं क्योंकि उनका गठजोड़ एक कीमत तय कर देता है और किसान मजबूर हो जाता है. जैसा कि उत्तर प्रदेश के गौतम बुद्ध नगर जिले में अपनी चार एकड़ जमीन पर गेहूं और धान की खेती करने वाले सुरेंद्र भाटी कहते हैं, ‘जो किसान ट्रैक्टर पर अपनी फसल लादकर मंडी आया है वह बार-बार घर तो नहीं लौट सकता. आने-जाने में डीजल लगता है और खर्च बढ़ता है. इसलिए मंडी गए तो फसल बेचकर ही घर जाना होता है.’

कई बार ऐसा भी देखा गया है कि बिचौलिये किसान से औने-पौने दाम पर माल उठाकर उसे स्टोर कर लेते हैं और फिर बाद में उसे एमएसपी पर बेच देते हैं. यानी एमएसपी का फायदा किसानों के बजाय उन्हें मिलता है. आर्थिक सहयोग विकास संगठन और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की एक रिपोर्ट बताती है कि 2000 से 2017 के बीच किसानों को उत्पाद का सही मूल्य न मिल पाने के कारण 45 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ.

यही वजह है कि इन तीनों विधेयकों के समर्थक इन्हें सही दिशा में सही कदम करार देते हैं. वे यह तो मानते हैं कि कृषि क्षेत्र में अब भी बहुत सी चीजें हैं जिन्हें दुरुस्त किए जाने की जरूरत है, लेकिन उनके मुताबिक सबसे पहले इस क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा के लिए दरवाजे खोलना जरूरी है. अशोक गुलाटी कहते हैं, ‘सरकार हर किसान का सारा अनाज तो नहीं खरीद सकती. इसके अलावा फल और सब्जियों के मामले में न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी व्यवस्था भी नहीं है.’ उनके मुताबिक इसीलिए ये तीनों कानून सही दिशा में सही कदम हैं.

लेकिन बहुत से लोग इससे इत्तेफाक नहीं रखते. सत्याग्रह से बातचीत में मुंबई स्थित इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवेलपमेन्ट रिसर्च की कृषि अर्थशास्त्री सुधा नारायणन का मानना है कि सरकार भले ही आश्वासन दे रही हो कि मंडियों की व्यवस्था जारी रहेगी, लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता. वे कहती हैं, ‘अगर आप मंडी में टैक्स ले रहे हैं और मंडी के बाहर कोई टैक्स नहीं लग रहा है तो क्या होगा? लोग बाहर ही व्यापार करना पसंद करेंगे. आढ़तिये और व्यापारी मंडी में क्यों बैठेंगे जब वहां उन्हें शुल्क देना पड़ेगा? वे अपना स्टॉल बाहर लगाएंगे. व्यापार बाहर होने लगेगा तो मंडियां धीरे-धीरे अपने आप खत्म हो जाएंगी.’

इस मुददे को लेकर विरोध प्रदर्शनों में सक्रिय और स्वराज इंडिया पार्टी के मुखिया योगेंद्र यादव भी इन विधेयकों को किसानों के हितों के उलट बताते हैं. एनडीटीवी के साथ बातचीत [10] में वे कहते हैं, ‘ये कितना भद्दा मजाक देश में चल रहा है. किसान के नाम पर कहा जा रहा है कि हम तुम्हें ऐतिहासिक गिफ्ट दे रहे हैं. लेकिन वो किसान हाथ जोड़ रहा है कि भैय्या मुझे गिफ्ट मत दो. मैंने ये चीज कभी नहीं मांगी. जो चीज मैंने मांगी है मुझे वो दे दो.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘किसानों की सिर्फ इतनी सी मांग है कि एमएसपी को सरकार कानून बना दे, कि वो जो भी रेट तय करेगी, देश भर में मंडी या उससे बाहर कहीं पर भी उसके नीचे खरीद नहीं होगी.’

कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा भी इससे इत्तेफाक रखते हैं. अपने एक एक लेख [11] में वे कहते हैं, ‘नए प्रावधानों के बाद सब बोल रहे हैं कि किसानों को अच्छा दाम मिलेगा. अच्छा दाम तो न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा ही होना चाहिए, तो फिर समर्थन मूल्य को पूरे देश में वैध क्यों न कर दिया जाए?’ भारतीय किसान यूनियन (हरियाणा) के अध्यक्ष और राज्य में इन कानूनों के खिलाफ हो रहे विरोध प्रदर्शन में अहम भूमिका निभा रहे गुरनाम सिंह चढ़ूनी भी यह बात दोहराते हैं. दैनिक भास्कर के साथ बातचीत [12] में वे कहते हैं, ‘अगर ये एमएसपी नहीं खत्म कर रहे तो हमारी छोटी-सी मांग मान लें और एमएसपी की गारंटी का कानून बना दें. कानून में बस इतना लिख दें कि एमएसपी से कम दाम पर फसल खरीदना अपराध होगा, हम लोग कल ही अपना आंदोलन वापस ले लेंगे.’

कई जानकार मानते हैं कि इन विधेयकों को लेकर सरकार जो तर्क दे रही है उनमें झूठ और विरोधाभासों की भरमार है. मसलन सरकार का कहना है कि वह एक देश एक बाजार वाली व्यवस्था की तरफ बढ़ना चाहती है. लेकिन देविंदर शर्मा कहते हैं, ‘अब जब वैध रूप से मंडी के बाहर भी अनाज बिकेगा, तो एक देश दो बाजार हो जाएगा.’ उधर, योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘पहला झूठ है ये कहना कि किसान अब कहीं पर भी बेच सकता है. इसका मतलब है कि पहले नहीं बेच सकता था. ये एकदम झूठ है. आप मुझे एक भी कानून बता दीजिए जिसमें ऐसी पाबंदी हो. मैं आज भी चाहूं तो अपने खेत का बाजरा कलकत्ता में जाकर बेच सकता हूं. पाबंदी केवल आढ़तिए पर थी, व्यापारी पर थी.’

सुधा नारायणन की बात को आगे बढ़ाते हुए योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘दूसरा झूठ है ये कहना कि अब मंडी में आने से किसान को ज्यादा ऑप्शंस मिल जाएंगे. ये बात इसलिए झूठ है कि क्यों सरकारी मंडी के बाहर जो मंडी अब लगा करेगी उस मंडी में टैक्स नहीं लगा करेगा. वहां रजिस्ट्रेशन नहीं होगा, रिकॉर्डिंग नहीं होगी. इसका मतलब है कि दो तीन साल में सरकारी मंडी ध्वस्त हो जाएगी. ये जो सरकारी मंडी है वो किसान के ऊपर एक छत है. कच्ची छत है. टूटी हुई छत है. इसमें से पानी भी चूता है. और बीजेपी और सरकार कहती है कि देखो कितनी खराब छत है. हम ऐसा करते हैं तुम्हें आजादी दे देते हैं. छत ही हटा देते हैं.’

मंडियों के खत्म होने के जो कई प्रभाव होंगे उनके बारे में गुरनाम सिंह कहते हैं, ‘अभी सारा व्यापार मंडियों के जरिए होता है. वहां एक टैक्स व्यापारी को चुकाना होता है जो आखिरकार किसानों के ही काम आता है. पंजाब, हरियाणा के खेतों से गुजरने वाली बेहतरीन पक्की सड़कें जो आपको दिखती हैं वह इसी टैक्स से बन सकी हैं. अब सरकार मंडियों से बाहर व्यापार की छूट दे रही है तो इससे किसानों को कोई फायदा नहीं होगा, बल्कि बड़े व्यापारियों को फायदा होगा, क्योंकि वे लोग बिना टैक्स चुकाए बाहर से खरीद कर सकेंगे.’ उनके मुताबिक जब मंडियों से सस्ता माल व्यापारी को बाहर मिलेगा तो वह क्यों टैक्स चुकाकर मंडी में माल खरीदेगा.

इस बारे में सुधा नारायणन कहती हैं, ‘तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र जैसे जिन राज्यों में मंडियां उतनी अहम नहीं हैं और जहां रिलायंस जैसी कंपनियां सीधे किसानों से खरीद करती हैं वहां इसके लिए मंडी की कीमत को ही आधार बनाया जाता है. लेकिन अगर मंडियां ही नहीं रहती हैं तो कीमत कैसे तय होगी? किसान को कैसे पता चलेगा कि उसे सही कीमत मिल रही है या नहीं? विधेयकों में पारदर्शिता की बात कई बार कही गई है लेकिन वह पारदर्शिता कहीं नहीं दिखती.’

तो फिर क्या किया जाए? क्या कई खामियों वाली मौजूदा व्यवस्था ही चलने दी जाए? जानकारों की मानें तो सही विकल्प मौजूदा व्यवस्था की खामियां दूर करना है. योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘किसान कह रहा है कि मेरी छत को आप मजबूत करो. छत को मेरे सिर पर से हटाओ मत. यह सही है कि आढ़ती कई जगहों पर किसानों का शोषण कर रहे हैं जिसके लिए एपीएमसी एक्ट में सुधार की जरूरत है.’ कई दूसरे जानकारों के मुताबिक भी मंडियों की व्यवस्था में सुधार किया जाना चाहिए. मसलन सुधा नारायणन का मानना है कि मंडियों में सरकारी खरीद की व्यवस्था का विकेंद्रीकरण होना चाहिए क्योंकि इसका ज्यादातर हिस्सा पंजाब और हरियाणा केंद्रित रहा है. ‘इस मामले में बीते कुछ समय के दौरान ओडिशा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने बढ़िया काम किया है और वहां सरकारी खरीद के दायरे में आने वाले छोटे किसानों की संख्या बढ़ी है’ सुधा कहती हैं.

देविंदर शर्मा का भी मानना है कि देश में मंडियों की संख्या में अभी काफी बढ़ोत्तरी की गुंजाइश है. उनके मुताबिक अभी देश में करीब सात हजार मंडियां हैं और यह संख्या 42 हजार तक होनी चाहिए. वे यह भी कहते हैं कि भारत को अमेरिका और यूरोप का मॉडल सीखने की जरूरत नहीं है. देविंदर शर्मा के मुताबिक ‘गांवों-किसानों के हित में हमारा मॉडल अच्छा है एपीएमसी मंडियों और न्यूनतम समर्थन मूल्य का, जो हमने कहीं से उधार नहीं लिया… किसान की आजादी तो तब होगी, जब उसे विश्वास होगा कि मैं कहीं भी अनाज बेचूं, मुझे न्यूनतम समर्थन मूल्य तो मिलेगा ही. हमारा मॉडल दुनिया के लिए मॉडल बन सकता है.’ उनके मुताबिक एक किसान आय और कल्याण आयोग भी बनना चाहिए जो तय करे कि किसानों के लिए एक सरकारी कर्मचारी के न्यूनतम वेतन के बराबर आय कैसे सुनिश्चित हो.

ये सभी जानकार मानते हैं कि नए कानूनों से सिर्फ नुकसान ही होना है. योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘ये तो ऐसा हुआ कि चूहे कुछ समस्या कर रहे हैं तो अब मैं भालू ले आता हूं. नए कानून से क्या होगा? आढ़ती हटेगा नहीं इस सिस्टम से. अगर अडानी या अंबानी कोई प्राइवेट मंडी स्थापित करेंगे तो वो आढ़ती के बगैर नहीं होगा. तब भी मिडिलमैन होगा. जो मंडी के अंदर आढ़ती बैठा हुआ है वही अपनी एक डेस्क बाहर भी लगा लेगा. तो किसानों को मिडिलमैन से मुक्ति नहीं मिलेगी. छोटे मिडिलमैन की जगह बड़ा मिडिलमैन आ जाएगा. आज तक जो मिडिलमैन था वो आढ़ती कहलाता था. अब अंग्रेजी बोलने वाले सुपर मिडिलमैन आया करेंगे.’

सुधा नारायणन के मुताबिक कृषि क्षेत्र को बाजार के लिए खोलने के नतीजे देखने हों तो अमेरिका जैसे देशों की तरफ नजर घुमानी चाहिए जहां सब कुछ बाजार के हवाले है. वे कहती हैं, ‘अमेरिका में किसानों पर कर्ज बढ़ा है. उनकी आत्महत्याएं भी बढ़ी हैं और इसके नतीजे में हर साल सरकार द्वारा उन्हें दिया जाना संरक्षण (सब्सिडी) भी बढ़ा है.’ कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग का उदाहरण देते हुए वे आगे जोड़ती हैं, ‘अमेरिका में शुरुआत में कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग का मॉडल बहुत सफल हुआ. लेकिन फिर उद्योग जगत ने पोल्ट्री किसानों पर नई और बेहतर तकनीकों में निवेश का दबाव बनाया. इसके लिए किसान कर्ज लेते गए. उधर, पोल्ट्री उत्पादों की कीमतें गिरती गईं और कर्ज न चुका पाने के चलते किसानों को अपने पोल्ट्री फार्मों से हाथ धोना पड़ा. अब वहां पोल्ट्री और डेयरी क्षेत्र में सिर्फ बड़े-बड़े फार्म बचे हैं.’

यह उस अमेरिका का हाल है जहां वे प्रावधान पहले से वजूद में हैं जो भारतीय संसद द्वारा पारित तीनों विधेयकों में किए गए हैं. मतलब यह है कि जिन छोटे किसानों के हितों का हवाला देकर सरकार इन कानूनों को जरूरी बता रही है, उन्हीं को इनसे सबसे ज्यादा खतरा हो सकता है.

इस बात को आंकड़ों से भी समझने की कोशिश करते हैं. जैसा कि जिक्र हुआ, अमेरिका में खेती के क्षेत्र में वायदा बाजार और अनुबंध खेती जैसी व्यवस्थाएं करीब सात दशक से हैं. वहां वालमार्ट जैसी बड़ी कंपनियां हैं जिनके भंडारण की कोई सीमा नहीं है. लेकिन वहां का किसान अगर आज बचा हुआ है तो यह सब्सिडी की वजह से ही है. अमेरिका में किसानों को मिल रही सालाना औसत सब्सिडी 7,000 डॉलर है. यही नहीं, इस साल अमेरिका के किसानों पर कुल मिलाकर 425 अरब डॉलर का कर्ज हो गया है. इसके अलावा 1970 से लेकर अब तक वहां 93 प्रतिशत डेयरी फार्म बंद हो चुके हैं. और यहां के ग्रामीण इलाकों में आत्महत्या की दर शहरों से 45 प्रतिशत ज्यादा है.

यूरोप का भी हाल अमेरिका से जुदा नहीं है. इंग्लैंड में बीते तीन साल में 3,000 डेयरी फार्म बंद हुए हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक अमेरिका, यूरोप और कनाडा में खेती ही नहीं बल्कि कृषि निर्यात भी सब्सिडी पर टिका है. ताजा आंकड़ों के अनुसार अमीर देश अपने किसानों को हर साल लगभग 246 अरब डॉलर की सब्सिडी देते हैं. इन सारे आंकड़ों का जिक्र करते हुए देविंदर शर्मा सवाल करते हैं, ‘बाजार अगर वहां कृषि की मदद करने की स्थिति में होता तो इतनी सब्सिडी की जरूरत क्यों पड़ती? हमें सोचना चाहिए कि खुले बाजार का यह पश्चिमी मॉडल हमारे लिए कितना कारगर रहेगा?’

योगेंद्र यादव कहते हैं, ‘आज की व्यवस्था में सौ दोष हों लेकिन वो किसान की व्यवस्था है. अगर कंपनियों की खेती होगी तो ये अमेरिका के स्टाइल की खेती भारत में नहीं चल सकती. अमेरिका में 100 में से सिर्फ पांच लोग खेती करते हैं. हमारे यहां 100 में से 45 लोग सीधे खेती कर रहे हैं और 100 में से 60 लोग खेती पर निर्भर हैं. अमेरिका की नकल करके भारत का किसान बर्बाद हो जाएगा. हमारा कृषि उत्पादन भले ही बढ़ जाए, किसान की आमदनी नहीं बढ़ेगी. किसान की खुशहाली नहीं बढ़ेगी. यह कानून नहीं किसान की बर्बादी का पूरा ब्लूप्रिंट है.’ गुरनाम सिंह भी कहते हैं कि ये कानून खेती और किसानी की कब्र खोदने के लिए बनाए गए हैं.

दुनिया ही क्यों, भारत में भी जहां किसान को बाजार का विकल्प दिया गया है वहां हाल खराब हुआ है. देविंदर शर्मा लिखते हैं, ‘2006 में बिहार में अनाज मंडियों वाले एपीएमसी एक्ट को हटा दिया गया. कहा गया कि इससे निजी निवेश बढ़ेगा, निजी मंडियां होंगी, किसानों को अच्छी कीमत मिलेगी. आज बिहार में किसान बहुत मेहनत करता है, लेकिन उसे जिस अनाज के लिए 1,300 रुपये प्रति क्विंटल मिलते हैं, उसी अनाज की कीमत पंजाब की मंडी में 1,925 रुपये है. पंजाब और हरियाणा में मंडियों और ग्रामीण सड़कों का मजबूत नेटवर्क है. इसी वजह से पंजाब और हरियाणा की देश की खाद्य सुरक्षा में अहम भूमिका है.’

गुरनाम सिंह के अलावा कई जानकार हैं जो यह मानते हैं कि ये तीनों कानून किसानों के लिए नहीं बल्कि कॉरपोरेट कंपनियों के लिए बने हैं. योगेंद्र यादव कहते हैं, आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम एक्ट को जमाखोरी अनुमति कानून बोलना चाहिए. वो स्टॉकिस्टों के लिए बना है. जो कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग एक्ट है वो कंपनी के लिए बना है. और जो एपीएमसी को बाइपास करने का एक्ट है उसमें ट्रेडिंग जोन बनाने की बात है. ट्रेडिंग जोन आप और हम तो बना नहीं सकते. वो तो कोई बड़ी कंपनी ही बनाएगी न! आप अर्थशास्त्रियों से पूछेंगे तो वो खुलकर बताएंगे कि भारत के कृषि क्षेत्र में कंपनियों की जरूरत है. क्योंकि वहां निवेश बहुत कम है. और वो तो कंपनियां ही करेंगी. सरकार तो करेगी नहीं. तो कुल मिलाकर यह भारत के कृषि क्षेत्र में कंपनी राज लाने की कोशिश है. इसीलिए किसान इसका विरोध कर रहा है.’

उधर, सुधा नारायणन कहती हैं, ‘इन तीनों कानूनों के पीछे अगर यह दृष्टि होती कि किसानों का भला करना है तो फिर आपकी रणनीति कुछ अलग होती. आप पहले कृषक उत्पादक समूह खड़े करते. ऐसी व्यवस्थाएं बनाते कि किसान इन कानूनों का लाभ लेने की स्थिति में होते. अभी की स्थिति में तो ऐसा नहीं है.’

इस मुद्दे पर सरकार के विरोध में खड़ी कांग्रेस पर भी सवाल उठ रहे हैं. कहा जा रहा है कि 2019 के आम चुनाव के लिए जारी घोषणापत्र में कांग्रेस ने कृषि क्षेत्र में वही सब करने का वादा किया था जो एनडीए सरकार कर रही है. इसके पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता और अब पार्टी से निष्कासित किए जा चुके संजय झा ने बीते दिनों एक ट्वीट [13] में कहा, ‘हमने खुद कहा था कि सत्ता में आने पर हम एपीएमसी एक्ट खत्म करेंगे और कृषि उत्पादों को प्रतिबंधों से मुक्त किया जाएगा. कृषि विधेयकों में मोदी सरकार ने यही किया है. इस मामले में भाजपा और कांग्रेस एक ही तरफ हैं.’ इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी यही बात कही थी. उनका कहना था, ‘चुनाव के समय किसानों को लुभाने के लिए ये बड़ी-बड़ी बातें करते थे, लिखित में करते थे, अपने घोषणापत्र में डालते थे और चुनाव के बाद भूल जाते थे. और आज जब वही चीजें एनडीए सरकार कर रही है, किसानों को समर्पित हमारी सरकार कर रही है, तो ये भांति-भांति के भ्रम फैला रहे हैं.’