नये श्रम कानूनों ने कामगारों की कुछ लोकप्रिय मांगें पूरी की हैं पर यह आरोप भी लग रहा है कि इन्होंने उनके सबसे जरूरी अधिकार छीनकर कंपनियों को दे दिये हैं
अभय शर्मा | 06 अक्टूबर 2020 | फोटो: फ्लिकर
संसद में 23 सितंबर को श्रम कानून से जुड़े तीन अहम कोड बिल पास हो गए. सरकार ने बीते साल श्रम सुधार की बात कहते हुए 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को मिलाकर चार कोड बिल तैयार किये थे. इनमें से तीन कोड बिल – औद्योगिक संबंध कोड बिल, सामाजिक सुरक्षा कोड बिल और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा कोड बिल – पिछले महीने के अंत में पास हुए. चौथे कोड बिल – मजदूरी कोड विधेयक – को मोदी सरकार बीते साल ही पारित करा चुकी है. श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने राज्यसभा में बिलों को पेश करते हुए इसे ऐतिहासिक करार दिया और कहा कि ‘श्रमिक कल्याण में यह मील का पत्थर साबित होगा. देश की आजादी के 73 साल बाद जटिल श्रम कानून सरल, ज्यादा प्रभावी और पारदर्शी कानून में बदल जाएंगे.’ संतोष गंगवार के मुताबिक लेबर कोड श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करेगा और यह उद्योगों को आसानी से चलाने में मदद करेगा.
हालांकि, सरकार के दावे से अलग श्रमिक संगठन श्रम कानूनों में हुए बदलाव को मजदूरों और कर्मचारियों के हक में नहीं बताते हैं. ये संगठन विशेष रूप से औद्योगिक संबंध कोड बिल से नाराज हैं और पूरे देश में इसका विरोध कर रहे हैं. देश की सबसे बड़ी दस ट्रेड यूनियन मोदी सरकार से श्रम कानूनों में किये गए बदलावों को वापस लेने की मांग कर रही हैं.
कोड बिल पर नाराजगी क्यों?
मजदूर यूनियनों से जुड़े नेताओं की मानें तो औद्योगिक संबंध कोड विधेयक के जरिए सरकार ने मजदूरों और यूनियनों के हाथ बांध दिए हैं. इस विधेयक के जरिये जो पहला बड़ा बदलाव किया गया है वह कर्मचारियों की नियुक्ति एवं छंटनी से जुड़ा है. विधेयक में कहा गया है कि जिन कंपनियों में कर्मचारियों की संख्या 300 से कम है, वे सरकार से मंजूरी लिए बिना ही अपने कर्मचारियों की छंटनी कर सकेंगी और इनकी जगह पर नए कर्मचारियों को रख सकेंगी. अब तक ये प्रावधान सिर्फ उन्हीं कंपनियों के लिए था, जिनमें 100 से कम कर्मचारी हों. किसी भी समय कर्मचारियों की छंटनी और यूनिट के शटडाउन की इजाज़त उन कंपनियों को भी दी जाएगी, जिनके कर्मचारियों की संख्या पिछले 12 महीने में हर रोज़ औसतन 300 से कम रही हो. कोड बिल में यह भी साफ़ तौर पर लिखा है कि सरकार अधिसूचना जारी कर इस न्यूनतम संख्या को बढ़ा भी सकती है.
मजदूर संगठन कानून में किए गए इस बदलाव का भारी विरोध कर रहे हैं. इनका कहना है कि कंपनियां इसका फायदा उठाकर बिना सरकारी मंजूरी के ज्यादा मजदूरों को तत्काल निकाल सकेंगी. देश के सबसे बड़े मजदूर संगठन – भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (सीटू) के महासचिव तपन सेन का कहना है, ‘इन बदलावों के चलते 74 फीसदी से अधिक औद्योगिक श्रमिक और 70 फीसदी औद्योगिक प्रतिष्ठान ‘हायर एंड फायर’ व्यवस्था में ढकेल दिए जाएंगे, जहां उन्हें अपने मालिकों के रहम पर जीना पड़ेगा.’
औद्योगिक संबंध कोड विधेयक में यह भी जोड़ा गया है कि 300 से कम श्रमिकों वाले औद्योगिक प्रतिष्ठानों को स्थायी आदेश (स्टैंडिंग ऑर्डर) तैयार करने की आवश्यकता नहीं है, जबकि पहले यह छूट 100 से कम श्रमिकों वाले प्रतिष्ठानों को मिली थी. स्टैंडिंग ऑर्डर एक खास तरह का सामूहिक अनुबंध होता है, जो किसी कंपनी में सेवा शर्तों और नियमों का मानकीकरण करता है. इसमें किसी कर्मचारी की प्रोबेशन अवधि, उसे स्थायी करने और उसे नौकरी से निकालने की शर्तों से जुड़े प्रावधान शामिल होते हैं. किसी कर्मचारी के दुर्व्यवहार का निर्धारण, अनुशासनात्मक कार्रवाइयों और सजा देने के तरीकों एवं शर्तों से जुड़े नियम भी स्टैंडिंग ऑर्डर के दायरे में ही आते हैं.
श्रम मामलों के जानकार बताते हैं कि श्रम कानूनों में ‘स्टैंडिंग ऑर्डर’ को इसलिए शामिल किया गया था ताकि कंपनियां एकतरफा, मनमाने और कर्मचारियों के खिलाफ भेदभाव भरे फैसले न ले पाएं. साथ ही औद्योगिक विवाद की स्थिति उत्पन्न न हो और कंपनी मालिक और कर्मियों के बीच (औद्योगिक) संबंध सौहार्दपूर्ण बने रहें. इन लोगों के मुताबिक अब 300 से कम कर्मियों वाली कपनियां ‘स्टैंडिंग ऑर्डर’ की बाध्यता न होने के चलते श्रमिकों के लिये मनमानी सेवा शर्तें रखने में सक्षम हो जाएंगी. एक्सएलआरआई जमशेदपुर में प्रोफेसर और जाने-माने श्रमिक अर्थशास्त्री केआर श्याम सुंदर कहते हैं, ‘स्टैंडिंग ऑर्डर के लिए न्यूनतम श्रमिक की सीमा 100 से बढ़ाकर 300 करने का मतलब साफ़ है कि सरकार मजदूरों को नौकरी पर रखने एवं नौकरी से निकालने के लिए कंपनी मालिकों को खुली छूट दे रही है… अब 300 मजदूरों से कम संख्या वाली कंपनियां कथित दुराचार और आर्थिक कारणों का हवाला देकर आसानी से छंटनी कर सकेंगी.’
2017-18 के वार्षिक औद्योगिक सर्वे के लिहाज से अगर देखें तो 300 से कम श्रमिकों वाली फैक्ट्रियों को स्टैंडिंग ऑर्डर की शर्त से छूट मिलने के बाद इनमें काम करने वाले देश के तकरीबन 44 फीसदी कामगारों को स्टैंडिग ऑर्डर का फायदा नहीं मिल सकेगा.
औद्योगिक संबंध कोड विधेयक को लेकर यह भी कहा जा रहा है कि इसमें किये गए प्रावधानों से अनुबंध यानी कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारियों को रखने का चलन बढ़ेगा. प्रोफेसर श्याम सुंदर कहते हैं, ‘अब अनुबंध पर कर्मचारियों को रखे जाने के चलन में बेतहाशा इजाफा होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि अब 50 से कम कर्मचारियों को कॉन्ट्रैक्ट पर रखने वाली कंपनियों और ठेकेदारों को ‘कॉन्ट्रैक्ट लेबर रेगुलेशन’ से लगभग मुक्त कर दिया गया है. इससे निर्माण या मैन्यूफैक्चरिंग की कोर गतिविधियों में भी अनुबंध पर कामगारों को रखने की लगभग छूट मिल गई है. बिल के अनुच्छेद 57 (a) (b) और (c) को पढ़ने से यही लगता है.’ प्रोफेसर श्याम सुंदर की माने तो नया कानून कोर गतिविधियों से इतर अपने ज्यादातर कर्मियों को रखने और हटाने की खुली आजादी देता है. साथ ही अब कंपनियां बिना किसी नियम के कॉन्ट्रैक्ट की न्यूनतम और अधिकतम अवधि भी तय कर सकती हैं. सरकार ने नए कानून में उस प्रावधान को भी अब हटा दिया है, जिसके तहत किसी भी मौजूदा कर्मचारी को कॉन्ट्रैक्ट वर्कर में तब्दील करने पर रोक थी.
कुछ अन्य जानकार तो यह तक कहते हैं कि सरकार ने श्रम कानूनों को लचीला बनाने और कंपनियों को फायदा पहुंचाने के मकसद से कानून बनाने के बुनियादी सिद्धांतों को भी ताक पर रख दिया. इनके मुताबिक सरकार को पिछले आंकड़े देखकर ही इसका पता चल जाता कि उसके इस बदलाव से आगे स्थिति कितनी खराब हो सकती है. वार्षिक औद्योगिक सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि 1993-94 में संगठित क्षेत्र की फैक्टरियों के कुल कामगारों में कॉन्ट्रैक्ट पर रखे जाने वाले कामगारों की हिस्सेदारी 13 फीसदी थी. यह आंकड़ा 2016-17 में बढ़ कर 36 फीसदी तक पहुंच गया. यह तब हुआ, जब कर्मचारियों को कॉन्ट्रैक्ट पर रखने की खुली छूट नहीं थी.
औद्योगिक संबंध कोड विधेयक के जरिये सरकार ने ट्रेड और मजदूर यूनियनों को तगड़ा झटका दिया है. इस कानून के जरिये यूनियनों से जुड़े कई नियमों में बड़ा बदलाव किया गया है. ये बदलाव छोटी और बड़ी सभी तरह की कंपनियों पर लागू होंगे. नए कानून में उन मानदंडों को कड़ा कर दिया गया है जिनके आधार पर कोई यूनियन फैक्ट्री के मैनेजमेंट से बातचीत या ‘बारगेन’ करने में सक्षम होती है. विश्लेषकों के मुताबिक किसी फैक्ट्री में पहले की तरह ही यूनियन के गठन के लिए दस फीसदी या फिर 100 कर्मचारियों (जो भी संख्या कम हो) के समर्थन की जरूरत होगी. लेकिन किसी यूनियन को अगर कम्पनी के मैनेजमेंट से किसी मुद्दे पर बातचीत करनी है तो उसे 51 प्रतिशत श्रमिकों के समर्थन की आवश्यकता होगी. यदि कुछ फैक्ट्रियों में किसी भी यूनियन को 51 फीसदी समर्थन नहीं मिलता है तो मैनेजमेंट से बातचीत करने के लिए सभी यूनियनों को मिलाकर एक परिषद का गठन करवाया जाएगा. हालांकि, इस गठन की प्रक्रिया क्या होगी, यह नहीं बताया गया है.
इस मामले पर सीटू महासचिव एआर सिंधु का कहना है कि अभी तक कम्पनी के मैनेजमेंट से एक से ज्यादा यूनियन बातचीत कर सकती थीं. लेकिन नए नियम के बाद केवल एक यूनियन को ही बातचीत करने का हक़ मिलेगा. वे कहते हैं, ‘ऐसा इसलिए क्योंकि नए कानून के तहत किसी फैक्ट्री की एक यूनियन को 51 फीसदी श्रमिकों का समर्थन मिल जाने के बाद कोई दूसरी यूनियन मैनेजमेंट से बात करने में सक्षम ही नहीं हो पाएगी क्योंकि फिर फैक्ट्री में महज 49 फीसदी श्रमिक ही बचेंगे.’ वे आगे कहते हैं कि इसका एक मतलब यह भी है कि अगर किसी फैक्ट्री के 49 फीसदी श्रमिक किसी समस्या को लेकर अलग दृष्टिकोण रखते हैं तो उनकी बात मैनेजमेंट तक पहुंच ही नहीं सकेगी.
मोदी सरकार द्वारा लाये गए इस नए कानून ने हड़ताल करने से जुड़ी शर्तें भी कड़ी कर दी हैं. इसमें कहा गया है कि औद्योगिक प्रतिष्ठान में कार्यरत कोई भी व्यक्ति 60 दिनों के नोटिस के बिना कानूनी तौर पर हड़ताल पर नहीं जा सकता है. इसके अलावा अगर कोई मामला या विवाद राष्ट्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण अथवा किसी अन्य न्यायाधिकरण के समक्ष भेजा गया है तो कानूनी कार्यवाही के दौरान और इस कार्यवाही के खत्म होने के बाद 60 दिनों की अवधि तक किसी भी हड़ताल का आयोजन नही किया जा सकता है. हालांकि, यहां पर सरकार ने यह भी जोड़ा है कि औद्योगिक न्यायाधिकरणों में मजदूरों से जुड़े मामलों का निपटारा एक साल के अंदर किया जाएगा. इससे जुड़ा एक पहलू यह भी है कि अगर मजदूर हड़ताल करना चाहे और अगर कंपनी प्रबंधन उस मामले को किसी तरह से न्यायाधिकरण में ले जाए तो फिर अधिकतम डेढ़ साल तक उस मामले में मजदूर कोई हड़ताल नहीं कर सकेंगे.
जानकारों का कहना है कि नए कानून में जिस तरह की शर्तें रखी गयी हैं, उनके तहत हड़ताल का आयोजन करना लगभग असंभव हो गया है. सीटू के महासचिव तपन सेन कहते हैं, ‘नए कानून के चलते ट्रेड यूनियन बनाना तो बहुत कठिन होगा ही, साथ ही हड़ताल करने से जुड़े मजदूरों के अधिकार पर भी एक अप्रत्यक्ष प्रतिबंध लग जाएगा. यहां तक कि उन्हें अपनी शिकायतें एवं मांग के लिए आवाज उठाने में दिक्कत आएगी. क्योंकि अब मजदूरों की हड़ताल करने की क्षमता और उनकी मैनेजमेंट से सामूहिक बातचीत करने की ताकत भी काफी कम हो जायेगी.’
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़े भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने भी इन श्रम कानूनों की आलोचना की है और मोदी सरकार से इसमें परिवर्तन करने की मांग की है. बीएमएस के अध्यक्ष साजी नारायण ने मीडिया से बातचीत में कहा, ‘हम इन कानूनों का विरोध करते हैं. सरकार ने हमसे सलाह जरूर ली थी, लेकिन कई महत्वपूर्ण प्रावधानों को इनमें शामिल नहीं किया गया है. इसके चलते जंगल राज जैसी व्यवस्था बन जाएगी और विवाद उत्पन्न होने की स्थिति में बलपूर्वक समाधान निकालने की कोशिश होगी.’ साजी आगे कहते हैं, ‘हड़ताल को प्रतिबंधित करने वाले वर्तमान प्रावधानों से औद्योगिक क्षेत्र एक संघर्ष क्षेत्र बन जाएगा, जिसका मतलब औद्योगिक शांति को नष्ट करना है. हड़ताल से पहले नोटिस लेने का मतलब स्पष्ट रूप से हड़ताल पर रोक लगाना है. इसे हटाया जाना चाहिए.’
नए कानून में कर्मचारियों के लिए सहूलियतें भी
सरकार ने नए श्रम कानून में कामगारों को कुछ सहूलियतें भी दी हैं. इनमें महिला कामगारों को पुरुष कामगारों के समान ही वेतन प्रदान करना होगा. पूरे भारत में एक समान मजदूरी लागू होगी. ईएसआई और ईपीएफओ का सामाजिक सुरक्षा कवच सभी मजदूरों को दिया जाएगा. स्थायी कर्मचारियों की तरह ही अस्थायी कर्मचारियों को भी एक ही तरह की सेवा शर्तें, ग्रेच्युटी, छुट्टी उपलब्ध कराई जाएंगी. प्रवासी कामगारों को कंपनियां अपने घर जाने हेतु वर्ष में एक बार भत्ता प्रदान करेगी. वित्तीय घाटे, कर्ज या फिर लाइसेंस पीरियड खत्म हो जाने से कोई कंपनी बंद हो जाती है तो कर्मचारियों को नोटिस या फिर मुआवजा दिया जाएगा. इसके अलावा किसी हादसे में श्रमिक की शारीरिक क्षति की भरपाई और मालिक पर लगाए जुर्माने का आधा हिस्सा श्रमिक को मिलेगा. सरकार ने कहा है कि इस नए कानून के तहत संगठित एवं असंगठित क्षेत्र के सभी श्रमिकों को पेंशन योजना का लाभ भी मिलेगा.
नए श्रम कानून में कहा गया है कि कंपनियों को नियुक्ति के वक्त सभी कर्मचारियों को नियुक्ति पत्र देना होगा. उन्हें प्रत्येक वर्ष मेडिकल चेकअप की सुविधा देनी होगी. महिलाओं के लिए काम का समय सुबह 6 बजे से लेकर शाम 7 बजे के बीच ही रहेगा. शाम 7 बजे के बाद अगर उनसे काम कराया जा रहा है, तो उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी कंपनी की होगी. कोई भी कर्मचारी एक हफ्ते में छह दिन से ज्यादा काम नहीं कर सकता. ओवरटाइम कराने पर उस दिन का दोगुना पैसा दिया जाएगा. नए कानून में ग्रैच्युटी की पांच साल की सीमा को समाप्त कर दिया गया है. ग्रैच्युटी को अलग-अलग स्थितियों में तीन साल या एक साल किए जाने की बात कही गई है.
इन बड़े बदलावों के पीछे सरकार का क्या तर्क है?
केंद्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने श्रम कानून में बदलाव को एक बेहतर कदम बताया है. उन्होंने संसद में श्रम सुधार विधेयकों पर हुई बहस का जवाब देते हुए कहा, ‘श्रम सुधारों का मकसद बदले हुए कारोबारी माहौल के अनुकूल पारदर्शी प्रणाली तैयार करना है. 16 राज्यों ने पहले ही अधिकतम 300 कर्मचारियों वाली कंपनियों को सरकार की अनुमति के बिना फर्म को बंद करने और छंटनी करने की इजाजत दे दी है.’ गंगवार ने कहा कि रोजगार सृजन के लिए यह उचित नहीं है कि इस सीमा को 100 कर्मचारियों तक बनाए रखा जाए, क्योंकि इससे कंपनियां अधिक कर्मचारियों की भर्ती से कतराने लगती हैं. और वे जान-बूझकर अपने कर्मचारियों की संख्या को कम बनाए रखती हैं. उन्होंने सदन को यह भी बताया कि इस सीमा को बढ़ाने से रोजगार बढ़ेगा और कंपनियों को नौकरी देने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा.
केंद्रीय श्रम मंत्रालय से जुड़े कुछ अधिकारी बताते हैं कि सरकार ने श्रम कानून में यह बड़ा बदलाव विश्व बैंक की ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ रैंकिंग (कारोबार सुगमता रैंकिंग) में दसवें पायदान पर पहुंचने के मकसद से किया है. अभी इस सूची में भारत 63वें पायदान पर है. सरकार का मानना है कि उसने श्रम कानून में जिस तरह के बदलाव किये हैं, उससे भारत दसवें स्थान पर पहुंच सकता है. इन अधिकारियों के मुताबिक कारोबार सुगमता रैंकिंग में स्थिति अच्छी होने से बाहरी कंपनियां भारत में निवेश के लिए आकर्षित होंगी. पीटीआई से बातचीत में एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘श्रम कानूनों में सुधार की प्रक्रिया पूरी हो गयी है यह उत्प्रेरक का काम करेगी… इससे विदेशी निवेश भारत की ओर आकर्षित होगा जिससे देश में रोजगार बढ़ेगा.’ इनके मुताबिक अभी तक भारत में श्रम कानूनों के दुष्चक्र के चलते व्यवसायी बनना काफी कष्टकारी होता था. लोगों को व्यवसाय शुरू करने से बेहतर काम नौकरी करना लगता था. इस अधिकारी के मुताबिक नए श्रम कानून गेम चेंजर साबित होंगे और इनसे कंपनियों, कर्मचारियों और सरकार तीनों को फायदा होगा. अब व्यवसाय में वृद्धि होगी, अधिक नौकरियां पैदा होंगी और श्रम कानूनों का समय पर और सही तरह से अनुपालन भी हो सकेगा.
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