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1942 में इसी समय गांधी की अपनों से ही हुई यह बहस बताती है कि हमें आजादी किन मूल्यों पर मिली है

महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू

आठ अगस्त, 1942 को तब के बंबई में हुई कांग्रेस की कार्य समिति की बैठक ने वह प्रस्ताव पारित किया था जिसे ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव के नाम से जाना गया. नौ अगस्त से भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत हो गई. तब से यह दिन अगस्त क्रांति दिवस के रूप में मनाया जाता है.

लेकिन इस प्रस्ताव तक पहुंचना और उस पर कांग्रेस में एकमत कायम करना आसान न था जैसा आम तौर पर आज समझा जाता है. इसके पीछे एक लंबी तैयारी और आपसी विचार विमर्श और बहस-मुबाहिसा का दौर था.

यह प्रस्ताव तब लिया जा रहा था जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था. फासिस्ट जर्मनी के साथ-साथ जापान के आक्रामक विस्तार ने युद्ध को भारत की चौखट पर पहुंचा दिया था. खतरा पैदा हो गया था कि जापान भारत पर हमला कर सकता है और उस पर कब्जा भी कर सकता है. सुभाषचंद्र बोस पहले ही हिटलर और जापान के तब के प्रधानमंत्री जनरल तोजो से समझौता कर चुके थे कि भारत की आज़ादी के लिए वे इनका सहयोग लेंगे. उनके कारण भारत के लोगों में जापान के प्रति एक प्रकार की सहानुभूति थी. इसलिए यह आशंका थी कि उसकी सेना अगर भारत में घुस आए तो लोग यह सोचकर उसका स्वागत करेंगे कि वह उन्हें अंग्रेज़ी गुलामी से छुटकारा दिला देगी. दूसरी तरफ रूस पहले ही जर्मन हमले की चपेट में आ चुका था. चीन जापानी साम्राज्यवाद से लड़ रहा था.

कांग्रेस पार्टी पर इस विश्व-परिस्थिति का दबाव था. इंग्लैंड का कहना था कि वह फासिस्ट खतरे से लड़ रहा है. फ़ासीवाद मानव सभ्यता की सारी उपलब्धियों को नष्ट कर सकता है, इसे लेकर दुनिया भर में सहमति थी. वह मनुष्यता का शत्रु है, इसलिए हिटलर को किसी भी कीमत पर रोका जाना था.

अंग्रेज़ी हुकूमत ने यह ऐलान कर दिया कि भारत इस युद्ध में शामिल हो गया है. इस तरह के किसी फैसले के बारे में कहना कि वह भारत का फैसला है, हास्यास्पद था क्योंकि वह भारत के नाम पर, उस पर काबिज, इंग्लैंड का निर्णय था. अब विश्व जनमत के सामने भारत पर एक नैतिक दबाव था – क्या इस समय अपनी आज़ादी का सवाल उठाकर वह इस युद्ध में बाधा पहुंचाएगा या अभी अपनी स्वतंत्रता के प्रश्न को व्यापक मानवता के हित में स्थगित करेगा!

जापान के भारत में घुस आने का खतरा असली था, कोई वहम नहीं. इस बात पर बहस छिड़ गई थी कि अगर ऐसा हुआ तो क्या किया जाना चाहिए. राजा राजगोपालाचारी और जवाहरलाल नेहरू का कहना था कि जापान के मुकाबले के लिए हर संभव उपाय किया जाना चाहिए. छापामार युद्ध से लेकर जापानी सेना को रसद आदि न मिले, इसलिए खेतों की खड़ी फसलों और अन्न भंडार को नष्ट किया जाना तक इन उपायों में शामिल थे.

गांधी अपने मित्रों से सहमत न थे. राजगोपालाचारी और उनका मतभेद सार्वजनिक हो गया था. राजाजी गांधी की आलोचना कर रहे थे और गांधी भी उनका विरोध कर रहे थे. नेहरू से भी उनकी बहस चल रही थी. गांधी अहिंसा के अपने सिद्धांत से समझौता करने को तैयार न थे. कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व इस परिस्थिति में अहिंसा पर गांधी के जोर से सहमत नहीं हो पा रहा था.

अहिंसा के इस सिद्धांत की बुनियाद हर कार्रवाई के खुला और घोषित होने में थी. कुछ भी गोपनीय न होगा और न अचानक किया जाएगा. दक्षिण अफ्रीका से ही गांधी ने यह नीति अपनाई थी. हिंसा की किसी भी घटना का, भले ही उसमें उनके पक्ष के लोग शामिल हों गांधी ने हमेशा खुलकर विरोध किया था. चौरी चौरा कांड के कारण अपने आंदोलन को वापस ले लेना इसका सबसे बड़ा उदाहरण था.

कांग्रेस ने ‘करो या मरो’ के नारे के साथ अपना प्रस्ताव पारित किया, साथ ही ब्रिटिश सरकार से संवाद की पेशकश की. गांधी का कहना था कि इस बातचीत के बाद ही कांग्रेस के प्रस्ताव की रोशनी में कार्रवाई की घोषणा की जाएगी. लेकिन गांधी समेत कांग्रेस के तमाम नेताओं को प्रस्ताव के तुरंत बाद गिरफ्तार कर लिया गया. देश भर में उत्तेजना फैल गई.

गिरफ्तारी का पहले से अंदेशा था. इसीलिए कांग्रेस ने जनता को कहा था कि नेताओं के सामने न रह जाने की हालत में हरेक व्यक्ति खुद को जिम्मेदार समझे और कांग्रेस की स्वीकृत पद्धति के अनुसार काम करे. लेकिन जगह-जगह हिंसा भड़क उठी. रेल की पटरियां उखाड़ी गईं, सरकारी अमलों पर हमले हुए, संचार-व्यवस्था बाधित की गई.

अंग्रेज़ी हुकूमत ने इस हिंसा के लिए कांग्रेस नेतृत्व को जवाबदेह ठहराया. लेकिन गांधी ने इसे मानने से इनकार किया. उनका कहना यह था कि सरकार ही इस हिंसा के लिए जवाबदेह ठहरती है क्योंकि उसने कांग्रेस के सारे नेतृत्व को गिरफ्तार करके खुद ही हिंसक कृत्य किया और लोगों को पागलपन की हद तक उकसाया.

सरकार का आरोप था कि कांग्रेस ने भारत को असुरक्षित कर दिया था. सिविल नाफ़रमानी के आवाहन से ही साफ़ था कि कांग्रेस लोगों को उकसा रही थी. गांधी ने कहा कि गांधी-इरविन समझौते को पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि सिविल नाफ़रमानी के सिद्धांत को ब्रिटिश सरकार स्वीकार करती है और भारत के लोगों के इस रास्ते को अपनाने के हक को भी.

1942 के आंदोलन पर चर्चा उस उत्तेजना से आज तक मुक्त नहीं हो पाई है जो उस दौर में महसूस की गई होगी. लेकिन वीरता के किस्सों का बखान करने से अधिक दिलचस्प है नौ अगस्त के पहले की कांग्रेस के भीतर की तीखी और समझौताविहीन बहस. दल अपने सबसे बड़े नेता से असहमत हो रहा था और गांधी का कहना था कि अगर कांग्रेस को उनकी अहिंसा पर यकीन नहीं है तो उन्हें संतुष्ट करने के लिए उसे मानना बेईमानी होगी. वे राजाजी को भी कहते हैं कि वे उनसे सहमत होने को तैयार हैं अगर वे उनके तर्क में कमजोरी दिखा सकें.

उस दौर में जब दुनिया को फासिज़्म से बचाने को पहला कर्तव्य माना जा रहा था, तुरंत आज़ादी की मांग के गांधी जी के तर्क जानने लायक हैं. गांधी ने तब दुनिया भर में फैले अपने समर्थकों से कहा कि भारत इस युद्ध में मानवता की ओर से अपना योगदान करना चाहता है लकिन उसकी पूरी ऊर्जा अभी अवरुद्ध है. वह खुले दिल से और उत्साह से ऐसा तभी कर सकता है जब एक खुदमुख्तार मुल्क हो और इंग्लैंड और अमरीका के साथ समान धरातल पर खड़ा हो. भारत की आज़ादी सिर्फ उसके लाभ के लिए नहीं है. गुलाम लोगों से स्वतंत्रता और जनतंत्र जैसे मूल्यों की रक्षा के नाम पर, उत्साह और स्फूर्ति से, ऐसे लोगों के सहयोग की अपेक्षा करना गलत है जिन्होंने उसे गुलाम बना कर रखा है.

गांधी पर विदेशी प्रेस में तीखे हमले हुए. एक संवाददाता ने कहा कि वे रोम के नीरो की तरह हैं. उन्होंने आग लगा दी है और अब सेवाग्राम में वे तमाशा देख रहे हैं.

गांधी ने इसका जवाब दिया – अपने स्कूलों में हमारे हुक्मरान हमें गाने को कहते हैं कि ‘अंगरेज कभी गुलाम न होंगे’ इस टेक से उनके गुलाम क्योंकर उत्साहित हों? अंगरेज पानी की तरह खून बहा रहे हैं और धूल की तरह सोना लुटा रहे हैं कि उनकी आज़ादी बची रहे. क्या भारत और अफ्रीका को गुलाम रखना उनका अधिकार है? क्यों भारतवासी खुद को बंधन से आज़ाद करने के लिए ज़्यादा सक्रिय न हों? यह भाषा का दुरूपयोग है जब उस शख्स की तुलना नीरो से की जाती है जो अपनी ज़िंदा मौत से बचने के लिए खुद अपनी चिता सजाता है कि उसकी यातना खत्म हो सके?’

1942 को राजनीतिक भाषा के शानदार प्रयोग के लिए भी फिर से पढ़ा जाना चाहिए. खुद गांधी की भाषा इस समय अग्नि में पड़े कुंदन की तरह दमकने लगती है.