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सुरक्षा बलों की सफलताओं के बावजूद कश्मीर में मिलिटेंसी घटने के बजाय बढ़ क्यों रही है?

कश्मीर में एक मुठभेड़ के दौरान सुरक्षा बल

अनुच्छेद 370 – जो जम्मू-कश्मीर राज्य को भारत के संविधान में एक विशेष दर्जा देता था – हटे एक साल से भी ज्यादा वक्त गुजरने के बाद कश्मीर पर एक सरसरी नज़र डालें तो यहां शांति दिखाई देती है. पहली निगाह में गृह मंत्री अमित शाह के वे बयान सही लगते हैं कि कश्मीर घाटी में 370 हटाये जाने से शांति होगी, मिलिटेंसी खत्म हो जाएगी और तरक़्क़ी होगी. लगता है कि अब कश्मीर जल्द ही धरती का वैसा ही स्वर्ग बन सकता है जैसा हम इसके बारे में किताबों में पढ़ते और बुजुर्गों से सुनते रहे हैं या मेरी उम्र के के लोगों को जो थोड़ा धुंधला सा याद है. अचानक ज़ेहन में सवाल आता है कि क्या जो होता दिख रहा है वह इतना ही आसान था?

और फिर थोड़ा और गहराई पर जाने पर स्थिति कुछ और दिखाई देने लगती है. उससे बिलकुल अलग जो ऊपर से नजर आ रही थी, या कहें कि उसके बिलकुल विपरीत. बीते एक साल में सुरक्षा बलों और मिलिटेंट्स के बीच 100 से ज़्यादा मुठभेड़ें हुई हैं जिनमें 225 के करीब मिलिटेंट्स मारे गए हैं. मारे गए इन मिलिटेंट्स में 200 से ज़्यादा कश्मीर के ही युवा थे और सिर्फ 22 के करीब पाकिस्तानी. श्रीनगर में रहने वाले वरिष्ठ पत्रकार शम्स इरफान सत्याग्रह से बात करते हुए कहते हैं, ‘सोचें अगर ये 200 युवा कश्मीर में प्रदर्शनों में मारे जाते तो क्या हम यह कह पाते कि कश्मीर में शांति है?’

लेकिन बात मारे गए लोगों की भी नहीं है. सवाल यह है कि क्या इन 225 मिलिटेंट्स के मारे जाने के बाद कश्मीर में मिलिटेंसी खत्म हो गयी है, या खत्म होने वाली है जैसा कि गृह मंत्री ने कहा था? या फिर यह पहले से कम हो गयी है? 

सरकार के ही आंकड़े उठा कर देखें तो जवाब यह है कि कश्मीर में मिलिटेंसी घटने या खत्म होने के बजाय बढ़ रही है. इन आंकड़ों के मुताबिक 2020 में पिछले एक दशक में युवाओं की दूसरी सबसे बड़ी संख्या मिलिटेंट्स में जा मिली है. जहां 2018 में 200 के करीब कश्मीरी युवाओं ने हथियार उठाए थे, 2020 में 170 के करीब युवाओं ने मिलिटेंसी में कदम रखा है. 

‘और 225 मिलिटेंट्स मारे जाने के बाद भी अभी कुल मिला कर 150 के करीब मिलिटेंट्स कश्मीर घाटी में सक्रिय हैं’, मिलिटरी इंटेलिजेंस के एक अफसर सत्याग्रह को बताते हैं. वे कहते हैं कि जहां 2014 से 2016 के बीच में हर साल मिलिटेंसी का हिस्सा बनने वाले युवाओं की संख्या सिर्फ 50 से 90 के बीच थी, 2017 में बढ़ के यह 139 हो गई और 2018 में 200 के करीब.

2019 में यह संख्या घट गयी थी. उस साल 126 युवाओं ने यह रास्ता अपनाया था. वहीं 2020 में फिर इस संख्या में काफी बढ़ोतरी हुई है. दक्षिण कश्मीर के चार जिले अभी भी मिलिटेंसी से सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं. मिलिटरी इंटेलिजेंस के ये अफसर बताते हैं, ‘वो ऐसे कि इन 170 मिलिटेंट्स में से 120 से ज़्यादा सिर्फ दक्षिण कश्मीर के पुलवामा, शोपियां और कुलगाम जिलों के रहने वाले युवा हैं.’ 

2020 की यह संख्या इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि पुलिस और सुरक्षा बलों ने न सिर्फ 225 मिलिटेंट्स मार गिराए हैं बल्कि वे मिलिटेंसी के जमीनी सपोर्ट को भी काफी हद तक खत्म करने में सक्षम रहे हैं. कश्मीर में मिलिटेंसी का सबसे बड़ा जमीनी सपोर्ट हैं वे युवा जिनको ओवर ग्राउंड वर्कर्स (ओजीडब्ल्यू) कहा जाता है. ये वे युवा कश्मीरी हैं जो मिलिटेंट तो नहीं होते, लेकिन मिलिटेंट्स के वे सारे काम जो वे खुद नहीं कर सकते, यही लोग करते हैं. इन कामों में हथियारों की तस्करी, खाने का इंतजाम, रहने की जगह तय करना और मिलिटेंट्स को एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाना शामिल है. आंकड़े देखें तो पुलिस इस साल 600 से ज़्यादा ऐसे लोगों को गिरफ्तार करने में कामयाब हुई है.

दक्षिण कश्मीर में स्थित एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘ओजीडब्ल्यू नेटवर्क को इतना भारी झटका लगने के बाद भी अगर 170 के करीब लोग मिलिटेंट बन जाते हैं तो यह ज़ाहिर है कि चिंता का विषय है.’ उनके मुताबिक चिंता का दूसरा विषय ये है कि ये संख्या रियाज़ नाइकू, सैफुल्लाह मीर, जुनेद सहराई, बुरहान कोका और बशीर कोका जैसे मिलिटेंट कमांडर्स के मारे जाने के बावजूद है. वे कहते हैं, ‘आम हालात में जब मिलिटेंट कमांडर मारे जाते हैं तो मिलिटेंसी में कुछ समय के लिए ही सही लेकिन फर्क पड़ता है, लेकिन इस बार वो फर्क नहीं पड़ता दिखाई दे रहा है. ज़ाहिर है यह चिंता का विषय है.’

मिलिटेंट्स को मारने और उनके सपोर्ट सिस्टम को नुकसान पहुंचाने के अलावा जो तीसरा उपाय मिलिटेंसी को कम करने के लिए किया गया, वह था कश्मीर में मारे जाने वाले मिलिटेंट्स के शव उनके परिजनों को न देने का निर्णय. सुरक्षा विशेषज्ञ पिछले कई सालों से यह मानते रहे हैं कि मारे गए मिलिटेंट्स के जनाज़ों में उमड़ी भीड़ कश्मीरी युवाओं के मिलिटेंसी में शामिल होने की बड़ी वजह बनती है. इनके मुताबिक अगर इस तरह के जनाज़े नहीं होंगे तो कई युवा मिलिटेंट नहीं बनेंगे.

कश्मीर की इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलजी में इंटरनेशनल रिलेशंस पढ़ाने वाले डॉ उमर गुल सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘आम राय यह थी कि ये जनाजे मिलिटेंसी का महिमामंडन करते हैं.’ अपनी पीएचडी कश्मीर, पंजाब और नागालैंड में हुए या चल रहे विद्रोहों पर करने वाले गुल आगे कहते हैं, ‘और लोग ये सोचते थे कि अगर ये जनाजे बंद हो जाएं तो मिलिटेंसी में इसका खासा फर्क पड़ेगा.’ 

बीते साल कोरोना वायरस से उपजी महामारी ने सरकार को यह मौका दे दिया. फैसला हुआ कि अब मारे गए मिलिटेंट्स के शव उनके परिजनों को नहीं दिये जाएंगे. तब से अब तक मारे गए 180 से ज़्यादा मिलिटेंट्स को उत्तर कश्मीर में एक ही जगह, कुछ परिजनों की उपस्थिति में, दफन किया जा रहा है.

लेकिन सरकार का यह कड़ा रुख भी युवाओं को मिलिटेंट बनने से नहीं रोक पाया है. ‘वो इसलिए कि सरकार ने एक ऐसी रेखा लांघी है जो उसको नहीं लांघनी चाहिए थी’, कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार और लेखक गौहर गिलानी सत्याग्रह से कहते हैं. वे आगे जोड़ते हैं, ‘बात अभी की भी नहीं है, बात है आगे आने वाले सालों की, जब इन्हीं मारे गए मिलिटेंट्स के परिजन इस पर सवाल उठाएंगे. आने वाली पीढ़ी की बात है ये. किसी मारे गए मिलिटेंट का भाई, भतीजा इस ‘अन्याय’ के बारे में सोचेगा तो शायद उसको भी कोई हथियार उठाने से रोक नहीं पाएगा.’

हालांकि सुरक्षा विशेषज्ञ गिलानी की बात से सहमत नहीं हैं. मिलिटरी इंटेलिजेंस के अफसर, जिनसे सत्याग्रह ने विस्तार से बात की थी, कहते हैं कि यह निर्णय बहुत पहले लिया जाना चाहिए था. वे बताते हैं, ‘हां मिलिटेंट्स की भर्ती में बढ़ोतरी हुई है. लेकिन अगर ये जनाजे हो रहे होते तो शायद यह संख्या कहीं ज़्यादा होती. ये जनाजे बंद होने से मिलिटेंट्स की भर्ती का एक रास्ता बंद हुआ है. यह एक बहुत अच्छा निर्णय था.’

डॉ उमर गुल भी यही मानते हैं. वे कहते हैं कि जनाजे, कब्रें या फिर जनाज़ों में उमड़ती भीड़ कश्मीर में एक याद, एक सोच का हिस्सा हैं.वे आगे जोड़ते हैं, ‘ये चीज़ें लोगों को याद दिलाती रहती हैं और ऐसी चीज़ों के न होने से बहुत फर्क पड़ता है. हां मिलिटेंसी अपने आप को जिंदा करती रहेगी लेकिन इन सब चीजों के न होने से काफी फर्क पड़ता है.’

यह तो हुई बात अभी के हालात की. लेकिन हर चीज़ की एक वजह होती है. तो क्या वजह है कि कश्मीर में सरकार और प्रशासन की इतनी कोशिशों के बाद भी मिलिटेंट बन रहे युवाओं में बढ़ोतरी हो रही है? विशेषज्ञों से बात करने पर इसका सबसे बड़ा कारण वही नजर आता है जिसकी वजह से अमित शाह ने मिलिटेंसी खत्म हो जाने का दावा किया था. यानी 370 का हटा दिया जाना. 

तो क्या गृह मंत्रालय की सोच गलत थी? इस सवाल पर दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ कॉन्फ़्लिक्ट मैनेजमेंट के एग्जीक्यूटिव डाइरेक्टर अजय साहनी साफ कहते हैं कि जो कोई भी निर्णय इस सरकार ने कश्मीर के बारे में लिया है वह जमीनी हालात देख कर या हालात बेहतर करने के लिए नहीं लिया था. सत्याग्रह से बातचीत में वे आगे जोड़ते हैं, ‘इस सरकार ने यह निर्णय इसलिए लिया है कि उसकी एक विचारधारा को लेकर प्रतिबद्धिता है. जो भी लोग ये बताते थे कि 370 हटाने के बाद क्या होगा वो किसी आंकड़े या अनुसंधान पर नहीं बल्कि इनकी पूर्व धारणाओं पर आधारित थे.’

साहनी की ही बात को आगे बढ़ाते हुए गिलानी कहते हैं कि ‘जो कुछ भी पांच अगस्त, 2019 को हुआ था वह एक खास विचारधारा की वजह से किया गया था और यह विचारधारा कश्मीर में लोगों को, ज़ाहिर है, मुस्लिम और कश्मीर विरोधी लगती है. तो मुझे लगता है कि युवाओं का मिलिटेंसी की तरफ बढ़ता रुझान कोई अचम्भे की बात नहीं है.’

जिन सुरक्षा विशेषज्ञों से सत्याग्रह ने बात की उनका भी  यही मानना है कि अगस्त 2019 में 370 हटाये जाने के नतीजे में मिलिटेंसी बढ़ी है. मिलिटरी इंटेलिजेंस के जिन अधिकारी से सत्याग्रह से बात की वे कहते हैं, ‘और फिर उस पर डोमिसाइल लॉ और अन्य निर्णय जो उसके बाद लिए गए हैं वे भी यहां के युवा को उनकी कश्मीरी पहचान पर एक हमला लगते हैं.’ 

मिलिटेंसी बढ़ने की एक और वजह कोरोना वायरस का आगमन भी बताई जाती है. विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर इतिहास पर नज़र डाली जाये तो शायद 2020 की गर्मियों में कश्मीर में लोग सड़कों पर आकर प्रदर्शन करते जो कोरोना वायरस की वजह से संभव नहीं हो पाया. कश्मीर में पिछले 20 साल से काम कर रहे पत्रकार शाह अब्बास सत्याग्रह को बताते हैं, ‘ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि अब काफी लोग जेलों से भी छूट गए थे और शायद लोग भी अब प्रदर्शन, जो वो 2019 में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के चलते नहीं कर पाये थे, करने के मूड में थे. लेकिन कोरोना वायरस के चलते ऐसा नहीं हो पाया.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘और युवाओं को किसी न किसी तरीके से अपनी नाराजगी जतानी ही थी तो उन्होंने हथियार उठा लिए.’ इसके अलावा कुछ लोग इंटरनेट जैसी सुविधाओं का बंद होने, लोगों की धरपकड़, सरकार के कड़े रुख, ज़मीन पर सुरक्षा बलों की बढ़ती संख्या और अन्य चीजों को भी मिलिटेंसी के बढ़ने के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं.

अब बात सिर्फ इस साल की नहीं है. सुरक्षा विशेषज्ञों की मानें तो आने वाले सालों में कश्मीर के हालात और बिगड़ते दिखाई दे रहे हैं. मिलिटरी इंटेलिजेंस के अफसर कहते हैं, ‘2021 और आने वाले सालों को कश्मीर में गरम रखने की पूरी कोशिश हो रही है.’ वे यह भी बताते हैं कि श्रीनगर और आसपास के इलाकों में मिलिटेंसी के निशान बढ़ते चले जा रहे हैं.

इस साल श्रीनगर के तीन युवाओं ने हथियार उठाए हैं. सोशल मीडिया पर डाले गए अपने ऑडियो नोट्स में उन्होने यह भी कहा है कि आने वाले दिनों में श्रीनगर से और युवा हथियार उठाएंगे. ‘और मैं मानता हूं वे सही कह रहे हैं. हमें भी ऐसी ही कुछ खबरें मिल रही हैं. और श्रीनगर में मिलिटेंसी का मतलब यह है कि उसको मीडिया में काफी कवरेज मिलेगा जो हमारे लिए दिक्कत की बात हो जाएगी.’ मिलिटरी इंटेलिजेंस के अफसर कहते हैं. वे एक दूसरी बात की तरफ ध्यान खींचते हुए आगे कहते हैं, ‘मिलिटेंसी दक्षिण कश्मीर से श्रीनगर की तरफ नहीं जा रही. ये दक्षिण कश्मीर में भी रहेगी और श्रीनगर में भी इसका आगमन हो गया है.’ इनकी बात इसलिए भी सच लगती है कि उत्तर कश्मीर के बारामुला जिले से पिछले साल 15 युवाओं ने हथियार उठाए हैं और केंद्रीय कश्मीर के बड़गाम जिले से पांच ने.

हालात ज़ाहिर है खराब हैं, लेकिन इतने खराब भी नहीं हैं कि उम्मीद की कोई किरण न हो क्योंकि वह हर जगह होती है. पहली अच्छी बात यह है कि पिछले एक दशक में शायद पहली बार अब मिलिटेंट्स मुठभेड़ के दौरान अपने हथियार डाल देने को तैयार हो रहे हैं. आंकड़ों पर नज़र डाली जाये तो पिछले साल 12 युवाओं ने सुरक्षा बलों के साथ हो रही मुठभेड़ के दौरान हथियार डाले हैं और अन्य 50 मिलिटेंट्स ने खामोशी से सुरक्षा बलों के पास आकर सरेंडर किया है. दक्षिण कश्मीर के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं कि अगर बीते एक दशक पर नजर डाली जाए तो यह काफी बड़ी संख्या है. उनके शब्दों में ‘पिछले एक दशक में सिर्फ एक दो बार ही ऐसा हुआ होगा कि मुठभेड़ के दौरान किसी मिलिटेंट ने हथियार डाले हों. तो इसका मतलब यह है कि सुरक्षा बल इन युवाओं को यह समझाने में कामयाब हो रहे हैं कि इस सबका कोई फायदा नहीं है.’

दूसरी बात अजय साहनी साफ करते हैं. वे कहते हैं, ‘इतनी आबादी में इतने थोड़े से लोग हथियार उठा लें तो कोई बड़ी बात नहीं है. मैं समझता हूं कि 2012-13 में जब मिलिटेंसी बिलकुल खात्मे पर थी तो एक राजनीतिक पहल होनी चाहिए थी जो नहीं हुई. हालांकि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है. अगर यह सरकार अपना अहंकार छोड़कर एक राजनीतिक पहल में अपनी ऊर्जा लगा दे तो अभी भी चीज़ें ठीक हो सकती हैं.’

अब चीज़ें ठीक होती हैं या नहीं, यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा. तब तक हम सिर्फ चीज़ें बेहतर होने और एक राजनीतिक पहल की उम्मीद कर सकते हैं.