अटल बिहारी वाजपेयी को समझना यह समझने के लिए भी जरूरी है कि भारत की जनता को दरअसल कैसा नेता चुनना चाहिए
सत्याग्रह ब्यूरो | 16 अगस्त 2021 | फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स
27 मई 1996. मेरे परदादा समेत पूरा परिवार टीवी के सामने बैठा था. अटल बिहारी वाजपेयी बोल रहे थे, ‘हम संख्या बल के सामने सिर झुकाते हैं और आपको विश्वास दिलाते हैं, जो कार्य हमने अपने हाथ में लिया है, वो जब तक राष्ट्रउद्देश्य पूरा नहीं कर लेंगे, तब तक विश्राम से नहीं बैठेंगे, तब तक आराम से नहीं बैठेंगे. अध्यक्ष महोदय, मैं अपना त्याग पत्र राष्ट्रपति महोदय को देने जा रहा हूं.’ उनका भाषण खत्म करना था कि मेरे परदादा ने अपने बाद की तीनों पीढ़ियों के सामने ऐलान किया, ‘अब से हमरा परिवार के सब भोट अटल जी के जाई.’
पूरी उम्र कट्टर कांग्रेसी रहे बयासी-पचासी साल के एक बुज़ुर्ग के दिल के किसी गहरे कोने से निकली यह बात इसलिए मायने रखती है कि यह प्रतिक्रिया सिर्फ़ एक व्यक्ति की नहीं थी. जिस ग्रेट इंडियन (हिंदू) मिडल क्लास के कांग्रेसनिष्ठ तबके का राजनीतिक रुझान राम मंदिर आंदोलन नहीं बदल पाया था, उस तबके की सहानुभूति और समर्थन, एक झटके में टीवी पर लाइव दिखाए जा रहे इस एक ऐतिहासिक भाषण की वजह से भाजपा को चला गया था.
अटल बिहारी वाजपेयी की जीवन गाथा और ख़ासकर उनकी राजनीति पर चर्चा करने चलें तो किताबों की श्रृंखला कम पड़ जाएगी. लेकिन उन्हें अटल-अमर उनकी राजनीति नहीं, बल्कि उनकी शख़्सियत बनाती है. ऐसा क्या था उनकी शख़्सियत में जिसकी छांव में आकर नवाज़ शरीफ तक ने सार्वजनिक रूप से कह दिया था कि हिंदुस्तान की तो छोड़िए, अगर वाजपेयी जी पाकिस्तान में भी चुनाव लड़ेंगे तो जीत जाएंगे?
उनकी शख़्सियत का सबसे ख़ास गुण था उनकी विनम्रता. ‘मेरे प्रभु! मुझे इतनी ऊंचाई कभी मत देना/गैरों को गले न लगा सकूं, इतनी रुखाई कभी मत देना’ की प्रार्थना सिर्फ़ एक सहृदय कवि करता हो तो उसकी संवेदनशीलता समझ में आती है. लेकिन ऐसी कोई एक विनती राष्ट्रीय स्तर का एक राजनेता करते हुए सुनाई देता है तो एकबारगी लगता है कहीं दिखावा तो नहीं! लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी की यह कविता उद्धरणीय इसलिए नहीं बनी क्योंकि इन पंक्तियों में कालजयी साहित्यिक कृति होने की संभावना थी. बल्कि उनकी यह पंक्ति और उनकी कविताएं इसलिए आम जनमानस में ठहर गईं क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी की कथनी और करनी में अंतर नहीं दिखा.
जिस कवि ने यह विनीत प्रार्थना की, वही कवि जब एक राजनेता की भूमिका में दिखा तो न बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए माफ़ी मांगने से कतराया और न ही कांधार और कारगिल के बाद आगरा सम्मेलन करते हुए हिचका. अटलजी ने दुश्मनी निभायी भी तो इस शालीनता से कि दोस्ती निभाने वालों के सामने भी मिसाल बन गए. यूं ही उन्हें ‘अजातशत्रु’ नहीं कहा जाता.
विनम्र वहीं बन पाता है जो निर्भीक हो. इतना निर्भीक कि एक चंचल, द्रुत गति से रंग बदलनेवाली राजनीति की दुनिया में खड़ा होकर यह कहने की हिम्मत रख सके कि ‘पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो ऐसी सत्ता को मैं चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा.’
‘हॉर्सट्रेडिंग’ की तमाशाखेज़ ख़बरें लाइव देखने वाली इस मौक़ापरस्त दुनिया में पली-बढ़ी मतदाताओं की नई पीढ़ी अटल जी के इस बयान का क्या जाने क्या मतलब निकाले. यह भी निकाल सकती है कि जिस देश का नेतृत्व एक ऐसा नेता कर रहा था उस देश का वह दौर खोखले और रोमांटिक आदर्शवाद का था. एक पोस्टरबॉय और वाट्सएप के दम पर अगले-पिछले चुनाव लड़ने वाले नेताओं और मतदाताओं की यह नई खेप क्या जाने कि समावेशन – इन्क्लूज़न – सबको साथ लेकर चलने की कला क्या होती है, और कैसे यह एक गुण एक नेता को सही मायने में ‘मास लीडर’ बना देता है. जननेता बनने के लिए ख़रीद-फ़रोख़्त और विज्ञापनों की नहीं, दरियादिली और सेवाभाव की ज़रूरत होती है. यह नई खेप क्या जाने कि राजनीति का एक चेहरा ऐसा भी होता है जो घोर तामसिक, ईर्ष्यालु और प्रतिशोधी – विन्डिक्टिव – नहीं होता.
अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति का वही चेहरा थे जो माफ़ करना भी जानते थे और माफ़ी मांगने का भी हुनर था उनमें. भारत के राजनीतिक इतिहास में उनकी तरह का कोई ऐसा नेता नहीं रहा होगा जिसने अपनी राजनीतिक पारी का तीन चौथाई से ज़्यादा हिस्सा विपक्ष में बैठकर निकाला, लेकिन फिर भी सत्तासीन सरकारों के रहनुमाओं के निष्पक्ष सलाहकार रहे, उनकी अंतरात्मा की आवाज़ रहे. नेताओं की नई पीढ़ी को मेन्टॉर भी किया और अपने हंसोड़ अंदाज़ में पक्ष-विपक्ष को मनाते भी रहे.
अटल बिहारी वाजपेयी की शख़्सियत का एक अहम टुकड़ा उनकी निजी जिंदगी भी थी. जिन मिसेज़ कौल और उनके पति को एक बैचलर ने अपना परिवार बना लिया, और जिस गरिमा और मर्यादा के साथ बनाया वह भारतीय समाज के संदर्भ में अद्वितीय है और अप्रत्याशित भी. जहां मीडिया और पाठकों/दर्शकों का शगल रोल मॉडलों, नेताओं, सुपरस्टारों और पब्लिक हस्तियों की निजी जिंदगी के बारे में चटखारे ले-लेकर राई का पहाड़ बनाना और उसी पहाड़ से वापस चुहिया निकाल देना हो, उस मीडिया ने हमेशा इस पूर्व प्रधानमंत्री की निजी जिंदगी को अलंघनीय और अस्पर्शनीय माना तो वह सिर्फ़ इसलिए क्योंकि वाजेपयीजी के पारिवारिक संस्कार मर्यादापूर्ण रहे.
अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने जीते-जी यह मिसाल दे डाली कि किसी भी किस्म का संबंध – चाहे वह बेहद निजी हो, अत्यंत सामाजिक, राजनैतिक या फिर प्रोफ़ेशनल ही सही – आचार, विचार और व्यवहार से बनता है. कद्दावर नेता बनने से पहले बेहतरीन इंसान बनना पड़ता है, और इसके लिए वह एक गुण अनिवार्य है जिसे आज की तारीख़ में गाली की तरह लिया जाता है – टॉलरेंस यानी सहिष्णुता. सहनशक्ति. बर्दाश्त करने की क्षमता. जो दुनिया अब मज़हब, क़ौम, सोशल स्टेटस और भाषा ही नहीं बल्कि राजनीतिक विचारधारा और वैयक्तिक जीवनचर्या के आधार पर अलग-अलग टुकड़ों में बंटती जा रही हो, उस दुनिया के लिए एक अटल बिहारी वाजपेयी के सार्वजनिक और निजी जीवन से सीखने के लिए कितना कुछ है!
हमें इस बात का गुमान है, और इसके लिए हम शुक्रगुज़ार भी हैं, कि हम वाजपेयी युग के नौजवान रहे. हमारी राजनीतिक समझ उस दौर में विकसित हो रही थी जब अटल बिहारी वाजपेयी कई मदारियों वाली एक साझा सरकार को अपने माथे पर बिठाए लोकतंत्र की तनी हुई रस्सी पर चलने का ज़ोख़िम उठा रहे थे. हमें इस बात का संतोष है कि हमने देश के भीतर ही नहीं, दुनिया के अलग-अलग देशों के साथ, ख़ासकर पाकिस्तान के साथ, रिश्तों के वे रंग देखे जो वाजपेयी जैसे बड़े दिल वाले दूरदर्शी राजनेता की अगुआई में ही देखना मुमकिन था. हम इस बात को लेकर शुक्रगुज़ार हैं कि हमने लोकतंत्र की सबसे पवित्र सभा और सत्ता के गलियारों में वह भाषा सुनी जिसे सही मायने में ‘संसदीय’ कहा जा सकता है.
अटल बिहारी वाजपेयी की जीवन गाथा सिर्फ़ भारत की राजनीति को समझने भर का ज़रिया नहीं है, बल्कि सिर उठाकर निर्भीक और आशा से परिपूर्ण सम्मानजनक जीवन जीने का सबक़ भी है. उन्हें समझना सिर्फ़ इसलिए ज़रूरी नहीं कि हम यह समझ सकें कि इस देश का नेता कैसा होना चाहिए. बल्कि उन्हें समझकर हमें यह भी समझ में आएगा कि भारत की जनता को दरअसल कैसा नेता चुनना चाहिए. उससे ज़्यादा यह समझ में आएगा कि राजनीति में इंसानियत का चेहरा होता तो वह कैसा दिखाई देता.
और अटल-गाथा को जानते-पढ़ते-समझते हुए हमें शायद यह भी समझ में आए कि हालात बदलने हैं तो देश की राजनीति को वाजपेयीकरण की अविलंब ज़रूरत है. अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति के ही नहीं, भारत के हीरो नंबर वन थे, और हमेशा रहेंगे.
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