- सत्याग्रह/Satyagrah - https://www.satyagrah.com -

कैसे चुनाव के आगे कोरोना जैसा वायरस भी फेल हो जाता है

नरेंद्र मोदी

बीते 18 अक्टूबर को केंद्र सरकार ने देश में कोरोना वायरस के प्रसार को लेकर एक प्रेस कांफ्रेंस की. कांफ्रेंस में बताया गया कि कोरोना पर बनाई गई विशेषज्ञों की एक समिति ने बताया है कि देश महामारी के चरम स्थान को पार कर चुका है और अगर बचाव के पर्याप्त कदमों में कोई ढील न दी जाए तो अब यहां से स्थिति में लगातार सुधार होता नजर आएगा. समिति ने कहा कि अगर पूरे प्रोटोकॉल का पालन किया गया तो देश फरवरी 2021 के अंत तक महामारी के प्रसार को रोकने में सफल हो जाएगा. हालांकि, उसने यह चेतावनी भी दी कि आने वाले त्योहारों और सर्दी के दिनों में इसका संक्रमण फिर फैल सकता है. इसलिये वास्तविक सावधानी, सर्तकता, सामाजिक दूरी, मास्क, उपचार आदि पर विशेष ध्यान देने की जरूरत अब पहले से ज्यादा है. समिति का यह भी कहना था कि अगर नियमों का पालन नहीं किया गया तो एक महीने में कोविड-19 के 26 लाख से भी ज्यादा नए मामले सामने आ सकते हैं.

विशेषज्ञों की इस चेतावनी के दो रोज बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र को संबोधित किया, यह संबोधन कोरोना वायरस पर ही था. प्रधानमंत्री ने लोगों को चेताते हुए कहा, ‘अधिकांश लोग अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए और जीवन को गति देने के लिए घर से बाहर निकल रहे हैं. त्योहारों पर बाजारों में रौनक लौट रही है, लेकिन हमें यह भूलना नहीं है कि लॉकडाउन भले चला गया हो, वायरस नहीं गया है. भारत आज जिस संभली हुई स्थिति में है हमें उसे बिगड़ने नहीं देना है और अधिक सुधार करना है… ये समय लापरवाह होने का नहीं है, यह मान लेने का नहीं है कि कोरोना चला गया है या इससे कोई खतरा नहीं है. हाल के दिनों में दिखा है कि कई लोगों ने सावधानी बरतना बंद कर दिया है, ये बिलकुल नहीं करना है… अगर आप बिना मास्क के बाहर निकल रहे हैं तो आप अपने आपको और घरवालों को बड़े संकट में डाल रहे हैं. एक कठिन समय से निकल कर हम आगे बढ़ रहे हैं थोड़ी सी लापरवाही हमारी गति को रोक सकती है. दो गज दूरी, साबुन से हाथ धोने और मास्क लगाने का ध्यान रखिये, मैं आपको सुरक्षित देखना चाहता हूं… याद रखिये जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं.’

प्रधानमंत्री के इस संबोधन से साफ़ लगा कि लोगों की लापरवाही और विशेषज्ञों की राय को लेकर प्रधानमंत्री काफी चिंतित हैं और इसीलिए काफी दिनों बाद उन्होंने एक बार फिर कोरोना वायरस के मामले में देश को संबोधित करना जरूरी समझा. संबोधन के दौरान प्रधानमंत्री के हाव-भाव और चिंता देखकर कुछ लोग यह भी कहने लगे कि अब नरेंद्र मोदी बिहार विधानसभा चुनाव में शायद ही रैली करें. क्योंकि उनकी रैलियों में भारी भीड़ होती है जिसे संभालना शायद मुश्किल होगा. कुछ लोगों को मानना था कि पूरे देश को समझाने वाले प्रधानमंत्री कोरोना के समय में शायद ही ऐसा जोखिम उठायें. लेकिन, राष्ट्र के नाम अपने संबोधन के चार दिन बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिहार पहुंच गए और वहां उन्होंने तीन बड़ी रैलियों को संबोधित किया.

उन्होंने पहली रैली सासाराम में की. इस रैली में कोरोना महामारी से जुड़े नियमों की खुलकर धज्जियां उड़ीं. मंच के ठीक सामने और सबसे आगे ही लोग एक-दूसरे के ऊपर चढ़े जा रहे थे. कुछ ही लोग थे जिनके चेहरे पर मास्क थे. इसके बाद पीएम मोदी ने ‘गया’ और ‘भागलपुर’ में रैलियों को संबोधित किया. गया की रैली में मंच के ठीक आगे तो कुछ कुर्सियां सोशल डिस्टेंसिंग के नियम के अनुसार पड़ी दिख रही थीं और इन पर बैठे लोग भी मास्क लगाए थे. लेकिन इसी रैली में इन कुर्सियों के बाद सैकड़ों लोग कंधे से कंधा मिलाये खड़े थे और इनमें से कई मास्क भी नहीं पहने थे. नरेंद्र मोदी की भागलपुर में हुई रैली का राज्य के कई इलाकों में डिजिटल प्रसारण भी किया गया था. इन प्रसारणों में भी कई जगहों पर लोग बिना मास्क लगाए कंधे से कंधा जोड़े बैठे दिखे. प्रधानमंत्री की इन तीनों रैलियों में मंच प कोविड-19 के नियमों का पूरा पालन किया गया, जिस मंच पर प्रधानमंत्री थे, उस पर केवल चार से पांच लोग ही मौजूद थे. मंच पर नियमों का पालन इतनी कड़ाई से किया गया कि जिस माइक से प्रधानमंत्री ने संबोधन दिया उसका इस्तेमाल उनसे पहले किसी अन्य नेता ने नहीं किया, यहां तक कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी अलग माइक का इस्तेमाल किया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सासाराम रैली

नरेंद्र मोदी की इन रैलियों में जो हुआ उसे देखकर सबसे ज्यादा हैरानी इस बात की हुई कि जिन प्रधानमंत्री ने दो रोज पहले राष्ट्र के नाम संबोधन में हाथ जोड़कर लोगों से एहतियात बरतने की गुजारिश की, उन्होंने इन रैलियों में लोगों से यह क्यों नहीं कहा कि वे नियमों की धज्जियां क्यों उड़ा रहे हैं. बिहार के एक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘सासाराम की रैली में खुलकर नियमों की धज्जियां उड़ीं, अगर प्रधानमंत्री लोगों को टोकते तो एक अलग ही मैसेज जाता. लगता कि उन्हें वोट और राजनीति से कहीं ज्यादा कोरोना वायरस से निपटने की फ़िक्र है.’ ये पत्रकार आगे कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री यह कर सकते थे, क्योंकि वे मंच से कई बार लोगों को टोकते रहे हैं. मुझे याद है कि 2014 में भागलपुर में एक रैली के दौरान उन्होंने बल्लियों पर चढ़े लोगों को नीचे उतरवाया था और उसके बाद ही भाषण दिया था. यहां भी वे ऐसा कर सकते थे.’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अलावा अन्य बड़े नेताओं जैसे – कांग्रेस सांसद राहुल गांधी, तेजस्वी यादव, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की रैलियों में भी खुलकर नियमों की धज्जियां उड़ी हैं. तेजस्वी यादव की कई रैलियों में मंच पर भी सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क लगाने जैसे नियमों का पालन नहीं किया गया. अपनी अधिकांश रैलियों में तेजस्वी यादव बिना मास्क के ही नजर आये हैं.

तेजस्वी यादव

केवल रैलियां ही नहीं, लोगों के पास जाकर चुनाव प्रचार करने और नामांकन के दौरान भी नियमों की अनदेखी के मामले सामने आ रहे हैं. चुनाव आयोग की ओर से चुनावी जनसंपर्क को लेकर दिशा निर्देश जारी किए गए हैं. इनके मुताबिक उम्मीदवार को गांव के बाहर ही अपने वाहन खड़े करने पड़ेंगे और केवल पांच लोगों का ग्रुप बनाकर ही घर-घर संपर्क किया जाएगा. हालांकि, इस नियम का पालन भी पूरी तरह होता नहीं दिखा है. वैशाली जिले के लालगंज विधानसभा क्षेत्र के इकबाल अहमद सत्याग्रह को बताते हैं, ‘प्रत्याशी समर्थकों के साथ आते हैं और ग्रुप में बंट जाते हैं, कभी-कभी एक ग्रुप में चार-पांच लोग होते हैं, लेकिन कभी यह संख्या दस से ज्यादा भी पहुंच जाती है.’ पूर्वी चंपारण के एक गांव के रहने वाले सरफराज ने भी सत्याग्रह को यही बात बताई. वे यह भी जोड़ते हैं, ‘चुनाव आते ही ऐसा माहौल बन गया है जैसे कोरोना कुछ है ही नहीं… जनता और प्रत्याशियों के समर्थक कोरोना को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं, लेकिन मुझे कई प्रत्याशी इस मामले में खासे चिंतित और सतर्क दिखे. वे माला पहनने और हाथ मिलाने से बच रहे हैं. दूर से ही हाथ जोड़ लेते हैं.’

बिहार में पिछले दिनों राज्य सरकार के दो मंत्रियों की कोरोना से मौत हुई है. भाजपा नेता सुशील मोदी, राजीव प्रताप रूड़ी, शाहनवाज हुसैन, भाजपा के बिहार चुनाव के इंचार्ज देवेंद्र फडणवीस और राज्य के पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह सहित कई नेता कोरोना संक्रमित पाए गए. माना जाता है कि इसके बाद से नेताओं ने सतर्कता बरतनी शुरू की है.

बिहार में दिशा निर्देशों की धज्जियां उड़ते देख चुनाव आयोग ने कुछ सख्ती बरतना शुरू की है. नेताओं को चेतावनी भी दी जा रही है. चुनाव में प्रचार व जनसभाओं के दौरान कोविड-19 से जुड़े दिशानिर्देशों का पालन नहीं करने के आरोप में 25 से ज्यादा एफआईआर दर्ज की जा चुकी हैं. इन एफआईआरों का आधार सोशल मीडिया पर दलों या प्रत्याशियों द्वारा डाली गईं पोस्ट व समाचार पत्रों में प्रकाशित तस्वीरों को बनाया जा रहा है और इसमें उन्हें नामजद किया जा रहा है जिन्होंने सभा की अनुमति ली थी.

क्या नीतीश कुमार चुनाव को टाल सकते थे

बीते जून, जुलाई और अगस्त के महीने में बिहार में कोरोना संक्रमण के मामलों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी हो रही थी. संक्रमितों का आंकड़ा एक लाख के क़रीब पहुंच गया था. दूसरी ओर राज्य के 38 में से 16 ज़िलों में बाढ़ ने तबाही मचाई थी. यहां की करीब 80 लाख आबादी बाढ़ से प्रभावित है. इसके अलावा लॉकडाउन के दौरान बिहार में बाहर ‌से भी 40 लाख से अधिक लोग आए. राज्य में रोजगार का संकट तो पहले से था ही, ऊपर ‌से इतनी बड़ी आबादी के और जुड़ जाने ‌से यह और भी गहरा हो ‌गया. अगस्त में बिहार सहित भारत के कई विशेषज्ञों का कहना था कि आने वाले दो महीने में बिहार में कोराना वायरस के कारण स्थिति विकराल हो सकती है. यही वजह थी कि चुनाव आयोग ने अगस्त तक बिहार विधानसभा चुनाव की तारीख़ों की घोषणा नहीं की और इसे लेकर राज्य के राजनीतिक दलों से सलाह और सुझाव मांगे.

बीते 11 अगस्त तक अपनी सलाह और सुझावों को सभी पार्टियों ने आयोग को सौंप दिया. इन सुझावों में केवल नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) ही ऐसी थी, जो समय पर चुनाव चाहती थी. पार्टी के वरिष्ठ नेता केसी‌ त्यागी ने अपने एक बयान में कहा भी था, ‘अगर कोरोना वायरस के दौर में अमेरिका में चुनाव हो सकता है, तो बिहार में क्यों नहीं हो सकता? पार्टी के अन्य नेता भी चुनाव कराने के समर्थन में ही बात करते दिखे. हालांकि, भाजपा की ओर से केवल उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने ही चुनाव समय पर कराने की बात खुलकर कही. सुशील मोदी को नीतीश कुमार का अनन्य समर्थक माना जाता है.

बिहार में विपक्षी पार्टियों ने चुनाव आयोग से राज्य की मौजूदा परिस्थितियों को देखते हुए चुनाव को कुछ दिनों तक टालने की अपील की थी. लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी और कांग्रेस ने मुख्य चुनाव आयुक्त से आग्रह किया था कि तेज़ी से बिगड़ते हालात के मद्देनज़र जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों की राय को ध्यान में रखते हुए निर्णय लिया जाए. केंद्र में भाजपा की सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) का रुख इस मामले में एकदम अलग था. पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान ने चुनाव आयोग से चुनाव टालने की मांग की थी और इस मसले पर उऩके पिता दिवंगत रामविलास पासवान ने भी उनका समर्थन किया था. उनका साफ़ कहना था, ‘चुनाव में लाखों शिक्षकों और सुरक्षा बलों की तैनाती होगी, करोड़ों लोग वोट देने के लिए लाइन में लगेंगे. कोरोना वायरस को ध्यान में रखते हुए यह बहुत ख़तरनाक होगा. बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था कोरोना से लड़ाई में अभी भी बहुत पीछे है.’ पासवान के मुताबिक ऐसी परस्थितियों में छह महीने के लिए राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना सही विकल्प होगा.

उस समय बिहार एनडीए में शामिल लोजपा के इस रुख से नीतीश कुमार की पार्टी भड़क गयी थी और उसके नेताओं ने चिराग पासवान के खिलाफ जमकर बयानबाजी की. लेकिन तमाम परेशानियों के बाद भी नीतीश कुमार और उनकी पार्टी विधानसभा चुनाव समय पर ही क्यों करवाना चाहते थे? बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले जानकारों की मानें तो नीतीश कुमार ऐसा इसलिए चाहते थे क्योंकि अगर चुनाव टल जाता तो राष्ट्रपति शासन लगता और उस स्थिति का भाजपा फायदा उठा सकती थी. इसीलिए नीतीश कुमार यह बिल्कुल नहीं चाहते थे कि राष्ट्रपति शासन लगे और सिस्टम पर उनकी पकड़ हट जाए.

चुनाव करीब आता देख बिहार से कोरोना वायरस गायब होने लगा

बिहार में कोरोना वायरस की वजह से खराब हालातों को लेकर वहां की सरकार की खूब आलोचना हुई थी. विपक्षी पार्टियां इसे चुनाव टालने की सबसे बड़ी वजह बता रही थीं. बीते जून, जुलाई और अगस्त के महीनों में बिहार के अस्पतालों में भीड़ जमा होने और लोगों का इलाज न किए जाने के दावों वाले वीडियो और तस्वीरें सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुए थे. लेकिन सितंबर के अंत तक न जाने क्या करिश्मा हुआ कि यह राज्य कोरोना से सबसे अधिक प्रभावित 10 राज्यों की सूची से गायब हो गया. राज्य सरकार के अधिकारी और सत्ताधारी दल के नेता दावे करने लगे कि कोरोना वायरस के खिलाफ बिहार की लड़ाई अंतिम चरण में आ पहुंची है.

बीते 22 सितंबर को राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पटना में एक प्रेस कांफ्रेंस की, इसमें उन्होंने बताया कि पिछले कुछ समय से राज्य में प्रतिदिन करीब डेढ़ लाख कोरोना टेस्ट किए जा रहे हैं. इस वजह से कोरोना वायरस पर राज्य जीत हासिल करने के करीब पहुंच गया है. नीतीश कुमार ने यह भी बताया कि 21 सितंबर को रिकॉर्ड 1,94,088 टेस्ट किए गए. इनमें 80 फीसदी से ज्यादा यानी 1,78,374 रैपिड एंटीजन टेस्ट (आरएटी) थे, जबकि 11,732 आरटी-पीसीआर और 3,982 ट्रूनेट टेस्ट थे.

जानकारों ने यहीं से बिहार सरकार के उन दावों पर सवाल खड़े कर दिए जिनमें कोरोना वायरस के मामले कम होने की बात कही गयी. इन लोगों के मुताबिक  [1] जो आरएटी टेस्ट राज्य सरकार सबसे ज्यादा करवा रही है, उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि इसका नतीजा 50 फीसदी तक गलत हो सकता है. यानी हर दो कोरोना पॉजिटिव व्यक्तियों में से एक को यह टेस्ट निगेटिव बता सकता है. पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ मयंक सक्सेना आरएटी टेस्ट पर सवाल उठाते हुए सत्याग्रह को बताते हैं, ‘कई जगहों पर तो यह भी पाया गया है कि 30 मिनट में नतीजा देने वाला आरएटी टेस्ट केवल 30 फीसदी कोरोना संक्रमित मरीजों की ही सही से पहचान कर पाया. जाहिर है कि ऐसे में इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता. अगर किसी व्यक्ति का आरएटी टेस्ट निगेटिव भी आता है तो भी उसे आरटी-पीसीआर टेस्ट कराना चाहिए.’

बिहार में जहां 10 फीसदी [2] के आस-पास ही आरटी-पीसीआर टेस्ट हो रहे हैं, वहीं पूरे देश में यह आंकड़ा 40 फीसदी [3] के करीब है. जानकारों की मानें तो इसी वजह से पूरे देश में कोविड-19 के मरीज इतनी तेजी से नहीं घट रहे हैं जितनी तेजी से बिहार में घटे हैं. 21 सितंबर का ही आंकड़ा देखें तो इस दिन पूरे देश में कुल 7,31,534 टेस्ट हुए और करीब 87 हजार लोग [4] कोरोना संक्रमित पाए गए. जबकि बिहार में इस दिन 1,94,088 टेस्ट हुए और केवल 1609 लोग ही संक्रमित मिले. जानकार इसकी वजह रैपिड एंटीजन टेस्ट को ही मानते हैं.

इस ढिलाई के किस तरह के नतीजे सामने आ सकते हैं

बिहार चुनाव के दौरान जिस तरह की ढिलाई बरती जा रही है, उसके जल्द ही भयानक नतीजे सामने आ सकते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि पिछले दिनों ‘ओणम’ के मौके पर केरल में कई जगहों पर कोताही बरती गयी, लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग जैसे नियमों की अनदेखी की. नतीजा यह हुआ कि जिस केरल की कोरोना पर लगाम कसने को लेकर तारीफ हो रही थी, वह फिर कोरोना के नए मामलों [5] को लेकर टॉप पांच राज्यों में शामिल हो गया है. बीते हफ्ते कई बार तो संक्रमण के सबसे ज्यादा मामले केरल में ही दर्ज हुए.

केरल ही नहीं कई यूरोपीय देश जो कोरोना पर लगभग जीत हासिल कर चुके थे, कोताही बरतने के चलते एक बार फिर मुश्किल में घिरते दिखाई दे रहे हैं. बीते 14 अक्टूबर को जर्मनी में एक दिन में कोविड-19 के 6,638 नए मामले दर्ज किए गए. एक दिन में इतने मामले महामारी के शुरू होने के बाद पहली बार दर्ज किए गए हैं. इससे पहले जर्मनी में 28 मार्च को एक दिन में सबसे अधिक 6,294 मामले दर्ज किए गए थे. जर्मनी में कोरोना के मामलों में बेतहाशा वृद्धि होने के आसार के बाद चांसलर एंगेला मर्केल ने तत्काल 16 राज्यों के साथ बैठक की और वायरस के प्रसार को रोकने के लिए प्रतिबंधों को और सख्त करने का फैसला लिया. इसके बाद जर्मनी में ज्यादा प्रभावित इलाकों में नियम फिर से सख्त कर दिए गए हैं. फ्रांस में भी पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान कोविड-19 के मामलों में तेजी से इजाफा हुआ है. इसके चलते सरकार ने एक बार फिर रात में कर्फ्यू लगाने का ऐलान कर दिया है और नियम सख्त कर दिए हैं. पेरिस और अन्य आठ शहरों में रात 9 बजे से लेकर सुबह 6 बजे तक कर्फ्यू लागू रहेगा.

स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक गौर करने वाली बात यह है कि केरल, जर्मनी और फ्रांस तीनों जगहों पर वैसा कुछ नहीं हुआ है जैसा हर रोज़ बिहार में हो रहा है. इनके अनुसार बिहार में केवल बड़े नेताओं की ही हर रोज 20 से ज्यादा रैलियां हो रही हैं, यानी हर रोज इन जगहों पर हजारों लोग इकट्ठा हो रहे हैं. केरल, फ्रांस और जर्मनी में बरती गई ढिलाई इसके सामने बहुत ही छोटी है.

जाने-माने वायरोलॉजिस्ट और प्रोफेसर डॉ प्रशान्त कुमार बिहार में इस समय चुनाव के आयोजन को पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा निर्णय मानते हैं. सत्याग्रह से बातचीत में वे कहते हैं, ‘बिहार की रैलियों में जो नजारा देखने को मिल रहा है, वह डराने वाला है. कोरोना एक ऐसा वायरस है जिसके शुरुआती लक्षण अधिकांश लोगों में दिखते ही नहीं हैं, अगर ऐसे कुछ लोग हजारों की भीड़ में पहुंच गए तो संक्रमण बहुत तेजी से फैलेगा.’ डॉ प्रशान्त आगे कहते हैं, ‘रैलियों में लोग जोर-जोर से नारेबाजी करते हैं, जबकि डब्ल्यूएचओ के विशेषज्ञों का कहना है कि ज्यादा तेज चिल्लाने से कोरोना का प्रसार और तेजी से होता है.’

चुनावी रैलियों में युवा वर्ग बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहा है. कहा जाता है कि युवाओं के लिए कोरोना ज्यादा परेशानी वाला नहीं है. जब सत्याग्रह ने नोएडा के पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ शैलेन्द्र सिंह (बदला हुआ नाम) से इस बारे में बात की तो उनका कहना था, ‘पहले तो यह एक गलत धारणा है कि युवा इसकी चपेट में नहीं आ सकते. यह वर्ग भी गंभीर स्थिति में पहुंच सकता है. दूसरा, सोचने वाली बात यह है कि रैलियों से जब युवा वायरस को लेकर अपने घर जाएंगे तो इससे इनके घरों में बुजर्ग और महिलाएं संक्रमित होंगे. उत्तर प्रदेश और बिहार में तो संयुक्त परिवार की परंपरा है और जनसंख्या घनत्व भी ज्यादा है.’

पल्मोनोलॉजिस्ट डॉ मयंक सक्सेना इस समय सर्दी के मौसम, बढ़ते प्रदूषण और कोरोना के गठजोड़ को और भी खतरनाक बताते हैं. सत्याग्रह से बातचीत में वे कहते हैं, ‘अक्टूबर से फरवरी तक यानी सर्दियों में हवा में भारीपन आ जाता है, उसकी गति कम हो जाती है, ह्यूमिडिटी बढ़ जाती है, ऐसे में कोरोना के कण हवा में ज्यादा देर तक रुके रहेंगे… प्रदूषण से भी बिहार अछूता नहीं है, ये अलग बात है कि वहां मॉनिटरिंग ज्यादा नहीं होती है. तमाम रिसर्च में सामने आ चुका है कि प्रदूषण में कोरोना का ज्यादा गंभीर प्रभाव पड़ता है. और ऐसे समय में अगर लोग इतनी बड़ी संख्या में बाहर निकलेंगे तो जाहिर है कि कोरोना की चपेट में ज्यादा आएंगे और गंभीर स्थिति में पहुंच सकते हैं.’

डॉ प्रशान्त कुमार और शैलेन्द्र सिंह दोनों ही कोरोना को लेकर बड़ा जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत बताते हैं. प्रशान्त कुमार कहते हैं, ‘बिहार की रैलियों से एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि लोगों में जागरूकता की कमी है, उन्हें यह महसूस ही नहीं हो रहा कि कोरोना उनके लिए जानलेवा भी साबित हो सकता है, लोग इसे बहुत हल्के में ले रहे हैं… मुझे लगता है कि कोरोना वायरस को लेकर बिहार सहित पूरे देश में अलग से एक बड़ा जागरूकता प्रोग्राम चलाए जाने की जरूरत है जिससे लोगों के जेहन में ये बात घर कर जाए कि यह वाकई एक महामारी है.’