इन दिनों सीबीआई की हालत किसी फुटबॉल सरीखी दिखती है जिस पर सब अपने-अपने हिसाब से किक मार रहे हैं
विकास बहुगुणा | 02 नवंबर 2020 | फोटो: यूट्यूब स्क्रीनशॉट
सीबीआई फिर सुर्खियों में है. दिल्ली की एक अदालत ने मोइन कुरैशी मामले की जांच के प्रभारी उसके संयुक्त निदेशक को एक समन भेजा है. इसमें उन्हें 17 नवंबर को पेश होने को कहा गया है. अदालत उनसे इस मामले में सीबीआई के पूर्व निदेशकों एपी सिंह और रंजीत सिन्हा की भूमिका के बारे में जानना चाहती है. वह इस हाई प्रोफाइल केस में जांच की धीमी गति से नाराज भी है. 26 सितंबर को हुई मामले की सुनवाई के दौरान उसने पूछा था कि इससे यह निष्कर्ष क्यों न निकाला जाए कि एजेंसी अपने दो पूर्व मुखियाओं के खिलाफ जांच के लिए खास इच्छुक नहीं है.
आरोप है कि मांस कारोबारी मोइन कुरैशी सीबीआई के अफसरों को रिश्वत देकर भ्रष्टाचारियों को जांच के फंदे से बचाता था. इसके लिए पैसा या तो वह खुद लेता था या फिर यह काम उसका सहयोगी, हैदराबाद का एक कारोबारी सतीश सना बाबू करता था. मोइन कुरैशी मनी लॉन्डरिंग के एक मामले के चलते प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के फंदे में आया था. जांच एजेंसी ने इस मामले में जो आरोपपत्र दाखिल किया उसमें कहा गया था कि वह सीबीआई के पूर्व निदेशकों रंजीत सिन्हा और एपी सिंह के लिए भ्रष्टाचारियों से वसूली करता था.
बीते कुछ समय के दौरान सीबीआई को मुश्किल में डालने वाली यह कोई अकेली घटना नहीं है. हाल में झारखंड ने जांच और छापामारी के लिए उसे दी गई अनुमति (जनरल कंसेंट) वापस ले ली है. इससे पहले केरल, महाराष्ट्र, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश भी ऐसा कर चुके हैं. यानी अब जांच एजेंसी को इन राज्यों में कोई भी जांच करने से पहले यहां की सरकारों से अनुमति लेनी होगी. इस मामले में अपवाद केवल वे जांचें होंगी जिनका आदेश सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट या हाई कोर्ट ने दिया हो.
पश्चिम बंगाल में तो वह तक हो चुका है जो सीबीआई के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था. बीते साल शारदा चिटफंड घोटाले को लेकर राज्य के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार से पूछताछ के लिए सीबीआई टीम कोलकाता पहुंची थी. वहां राज्य पुलिस ने उसे हिरासत में ले लिया था. इन सभी राज्यों का कहना है कि यह जांच एजेंसी भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के एजेंडे के हिसाब से काम कर रही है.
इन सभी राज्यों में एक बात समान है और वह यह कि इनमें गैरभाजपा सरकारें हैं. जानकारों के मुताबिक सीबीआई को लेकर उनका यह कदम केंद्र के राजनीतिक दांव की काट जैसा है. आरोप लगते हैं कि भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार सीबीआई के सहारे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को घेरना चाहती है तो महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे को. टीआरपी घोटाला मामले में मुंबई पुलिस की एफआईआर और जांच के बावजूद इसी मामले में जिस तरह से उत्तर प्रदेश में एक और रिपोर्ट दर्ज हुई और इसके तुरंत बाद जिस तरह से आदित्यनाथ सरकार की सिफारिश पर केंद्र सरकार ने आनन-फानन में इसकी सीबीआई जांच की अनुमति दी, उससे ऐसे आरोपों को बल मिलता दिखता है.
उधर, भाजपा या उसके सहयोगी दलों के नेतृत्व वाली राज्य सरकारें सीबीआई का अपनी तरह से इस्तेमाल करती नजर आती हैं. विश्लेषकों के मुताबिक अगर कोई ऐसा मामला हो जिससे उन्हें राजनीतिक नुकसान या फायदा हो सकता है तो वे इसकी जांच सीबीआई को सौंपकर अपना दामन बचाने या खुद को फायदा पहुंचाने की कोशिश करती हैं. हाथरस सामूहिक बलात्कार और हत्या का मामला या सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या का मामला इसके सबसे नये उदाहरण हैं. कई लोगों को लगता है कि पहले मामले में योगी आदित्यनाथ सरकार ने अपनी चौतरफा आलोचना से बचने के लिए ऐसा किया और दूसरे मामले को बिहार चुनावों से ठीक पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और भाजपा द्वारा अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया गया.
इस तरह देखा जाए तो इन दिनों सीबीआई की हालत किसी फुटबॉल सरीखी दिखती है जिस पर सब अपने-अपने हिसाब से किक मार रहे हैं. केंद्र उससे अपने एजेंडे साधता दिखता है और राज्य अपने. उधर, इसके चलते अदालतें उसे अपना काम ठीक से न करने के लिए फटकार लगाती हैं. यानी कि ऊपर से वह बहुत मजबूत दिखती है लेकिन असलियत शायद इससे कोसों दूर है. यहां तक कि इस समय उसका वजूद ही संकट में है. गुवाहाटी हाई कोर्ट 2013 में केंद्रीय जांच ब्यूरो को असंवैधानिक ठहरा चुका है. हाई कोर्ट के इस फैसले को ठीक से समझने के लिए सीबीआई के अतीत पर नजर डालते हैं.
इस जांच एजेंसी का इतिहास दूसरे विश्व युद्ध से शुरू होता है जब भारत में चल रही औपनिवेशिक सरकार के खर्च में काफी बढ़ोतरी हो गई थी. इसके चलते रिश्वतखोरी और दूसरी तरह के भ्रष्टाचार की शिकायतें भी काफी बढ़ गई थीं. स्थानीय पुलिस इस प्रकार के मामलों की पड़ताल करने में सक्षम नहीं थी सो सरकार को इसके लिए एक अलग एजेंसी की जरूरत महसूस हुई. इसके बाद युद्ध और आपूर्ति विभाग में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के मामलों की जांच-पड़ताल के लिये विशेष पुलिस प्रतिष्ठान (स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट यानी एसपीई) बनाया गया. इसका मुख्यालय लाहौर में था. यह 1941 की बात है.
विश्व युद्ध खत्म होने के बाद भी एक केंद्रीय जांच एजेंसी की जरूरत महसूस हो रही थी. इसके चलते 1946 में दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान अधिनियम यानी डीएसपीई एक्ट वजूद में आया. इस कानून के तहत एसपीई की कमान गृह विभाग को दे दी गई और इसके दायरे में भारत सरकार के सभी विभागों को शामिल कर लिया गया. 1963 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक प्रस्ताव के जरिये दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान का नाम बदलकर केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) कर दिया. शुरुआत में इसके अधीन केंद्र सरकार के सभी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार के मामले आते थे. बाद में इनमें सार्वजनिक उपक्रमों के कर्मचारी भी शामिल हो गये.
अपने आदेश में गुवाहाटी हाई कोर्ट का कहना था कि सीबीआई का गठन निश्चित जरूरत को पूरा करने के लिए ‘कुछ समय’ के लिए ही किया गया था और इस संबंध में 1963 का गृह मंत्रालय का वह प्रस्ताव न तो केंद्रीय कैबिनेट का फैसला था और न ही उसके साथ राष्ट्रपति की स्वीकृति का कोई कार्यकारी आदेश था. कोर्ट के मुताबिक इस लिहाज से सीबीआई को दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट (डीएसपीई एक्ट) के तहत बनाया गया विशेष पुलिस बल नहीं माना जा सकता. अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है और कई विशेषज्ञों का मानना है कि वह भी इस मामले में हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहरा सकता है.
सरकार का खर्च बढ़ने, नये-नये सार्वजनिक उपक्रमों के खुलने और 1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण की वजह से सीबीआई का काम लगातार बहुत तेज़ी से बढ़ता रहा है. इसके साथ-साथ उसके कार्य क्षेत्र को व्यापक बनाने की कोशिशें भी समय-समय पर होती रही हैं. शुरुआत में इसके अधीन दो ही विंग्स हुआ करती थीं – जनरल ऑफेंसेज (एंटी करप्शन) विंग और इकनॉमिक ऑफेंसेज विंग. बाद में इसके द्वारा हत्या, अपहरण और आतंकी घटनाओं जैसे अपराधों की जांच की मांग भी होने लगी और इसकी स्पेशल क्राइम विंग अस्तित्व में आई.
आज भी सीबीआई डीएसपीई एक्ट से संचालित होती है जिसमें भ्रष्टाचार निरोधक कानून 1988 और लोकपाल कानून 2013 के हिसाब से कुछ संशोधन भी हुए हैं. डीएसपीई एक्ट की धारा पांच इसके तहत बनाये गये किसी भी विशेष पुलिस बल की शक्तियों और अधिकार क्षेत्र को राज्यों तक बढ़ाने का अधिकार देती है. हालांकि, उसके इस अधिकार को इसी कानून की धारा छह सीमित करती है जो कहती है कि सीबीआई की शक्तियों और अधिकार क्षेत्र को संबंधित राज्य सरकार की सहमति के बिना किसी भी राज्य क्षेत्र में लागू नहीं किया जा सकता.
सीबीआई किसी राज्य में तभी किसी मामले की जांच का जिम्मा ले सकती है जब वहां की सरकार इसके लिए अनुरोध करे और केंद्र सरकार इस पर सहमति दे दे. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट या फिर कोई हाई कोर्ट भी उसे किसी मामले की जांच अपने हाथ में लेने का आदेश दे सकता है. भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 के तहत दर्ज मामलों की जांच से संबंधित सीबीआई का अधीक्षण केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के पास होता है. अन्य मामलों के लिए यह काम केंद्र सरकार का कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) विभाग करता है जो सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय के तहत आता है. यही वजह है कि अक्सर ऐसे मामलों की जांच को लेकर सीबीआई पर सवाल उठते रहते हैं जिनके तार राजनीति और राजनेताओं से जुड़ते हैं. आरोप लगते हैं कि केंद्र सरकार विपक्षी नेताओं को काबू करने के लिए सीबीआई को नकेल की तरह इस्तेमाल करती है.
जैसा कि द हिंदू से बातचीत में वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण कहते हैं, ‘सीबीआई काफी हद तक केंद्र के हिसाब से काम करती है और जिस तरह से चीजें की जाती हैं और नहीं की जाती हैं, उससे यह काफी साफ हो जाता है. उदाहरण के लिए मुलायम सिंह यादव या फिर मायावती का मामला लें. जब भी सरकार ने उन पर दबाव बनाना चाहा, सीबीआई ने उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति के मामले खोल दिए. ये राजनेता रास्ते पर आ गए तो मामले ठंडे बस्ते में चले गए. आप याद कीजिए, इन मामलों में बस आगे-पीछे जाने वाला काम होता रहा है.’
जानकारों के मुताबिक इस तरह के उदाहरणों की एक लंबी सूची है फिर भले ही केंद्र में कांग्रेस रही हो या भाजपा या फिर कोई अन्य पार्टी. बीते एक दशक को ही देखें तो कांग्रेस छोड़कर वाईएसआर कांग्रेस बनाने वाले जगन मोहन रेड्डी पर 2011 में सीबीआई की कार्रवाई से लेकर कर्नाटक कांग्रेस के संकटमोचक कहे जाने वाले डीके शिवकुमार पर बीते दिनों पड़े जांच एजेंसी के ताबड़तोड़ छापों तक ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें आरोप लगते रहे हैं कि सीबीआई केंद्र के इशारे पर काम कर रही है.
और ये आरोप विपक्षी पार्टियों की तरफ से ही नहीं लगे हैं. कुछ साल पहले एक साक्षात्कार में सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह ने भी सीबीआई जांच में केंद्र के दखल का दावा किया था. उन्होंने 1990 के दशक में हुए चारा घोटाले का उदाहरण दिया था जिसमें बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव मुख्य आरोपित थे. जोगिंदर सिंह का कहना था, ‘मुझ पर दबाव बनाया गया कि मैं उनके खिलाफ अपनी जांच रोक दूं. क्यों? क्योंकि वे तत्कालीन संयुक्त मोर्चा सरकार के करीबी थे. मुझे वो बातचीत भी याद है जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल ने मुझे अपनी ताकत दिखाते हुए जांच रोकने की कोशिश की थी. उनका कहना था कि वे प्रधानमंत्री हैं और मुझे उनकी बात माननी चाहिए.’ जोगिंदर सिंह का दावा था कि जांच से पीछे न हटने के चलते कुछ ही समय बाद उनका सीबीआई से तबादला कर दिया गया था. रॉयटर्स से बातचीत में 2005 से लेकर 2008 तक जांच एजेंसी के मुखिया रहे विजय शंकर भी सीबीआई पर राजनीतिक दबाव की बात मानते हैं.
इसी सिलसिले में सीबीआई के पूर्व संयुक्त निदेशक बीआर लाल के एक बयान का खास तौर पर जिक्र किया जा सकता है. भोपाल गैस त्रासदी मामले में सीबीआई ने जो जांच की थी, लाल उसके प्रभारी थे. 2010 में उन्होंने कहा था कि विदेश मंत्रालय ने उन पर इस मामले में आरोपित और यूनियन कार्बाइड के मुखिया वॉरेन एंडरसन के प्रत्यर्पण का प्रयास न करने का दबाव भी बनाया था. अपने बयान में उनका कहना था, ‘सीबीआई को विदेश मंत्रालय की तरफ से एक चिट्ठी मिली. इसमें कहा गया था कि प्रत्यर्पण की प्रक्रिया आगे न बढ़ाई जाए. साफ है कि सरकार उन्हें (एंडरसन को) जांच के दायरे में नहीं लाना चाहती थी… वैसे भी हमारे देश में अमीर और ऊंचे संपर्क रखने वाले लोगों के खिलाफ कोई जांच नहीं की जा सकती.’
अपनी किताब ‘हू ओन्स सीबीआई’ में बीआर लाल लिखते हैं कि ‘ताकत को धन में तब्दील करना भ्रष्टाचार होता है. भारत में ज्यादातर भ्रष्टाचार शीर्ष स्तर पर होता है जहां बहुत अधिक शक्ति केंद्रित होती है और सीबीआई में ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की क्षमता नहीं होती जो उन्हें अपने घर का काम करने वाला नौकर समझते हैं. अपनी वर्तमान स्थिति में सीबीआई उन लोगों के खिलाफ जांच करने में सक्षम नहीं है जो उसकी नियति तय करते हैं.’ (अध्याय 10, पृष्ठ 216)
समय-समय पर अदालतें भी सीबीआई के काम में राजनीतिक दखल पर नाराजगी जाहिर करती रही हैं. 2013 में कोयला घोटाला मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जांच एजेंसी को एक ऐसा तोता बताया था जो सिर्फ अपने मालिक की आवाज सुनता है. अदालत ने यह टिप्पणी तब की थी जब तत्कालीन सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा ने उसके सामने माना था कि इस मामले में जांच की प्रगति को लेकर उसके द्वारा मांगी गई रिपोर्ट पहले तत्कालीन कानून मंत्री अश्विनी कुमार, पीएमओ और कोयला मंत्रालय को दिखाई गई थी. उनका यह भी कहना था कि इन अधिकारियों के कहने पर इसमें कुछ बदलाव भी किए गए थे. सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कड़ी नाराजगी जताई. उसने कहा कि सीबीआई रिपोर्ट लेकर उनके पास कैसे जा सकती है जिनके खिलाफ मामले में आरोप हैं. अदालत का कहना था कि इन बदलावों के चलते जांच की दिशा ही बदल गई. उस समय शीर्ष अदालत ने सरकार को यह निर्देश भी दिया था कि वह सीबीआई को बाहरी दखल से मुक्त करने के लिए एक कानून बनाए.
दिलचस्प बात यह है कि जब जो पार्टी सत्ता में होती है उस पर विपक्षी पार्टियां सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप लगाती हैं. कांग्रेस केंद्र की सत्ता में होती है तो भाजपा उस पर सीबीआई का दुरुपयोग करने के आरोप लगाते हुए जांच एजेंसी को स्वायत्तता देने की वकालत करती है. और जब भाजपा केंद्र की सत्ता में आ जाती है तो यही मांग कांग्रेस की होती है. बाकी पार्टियों का भी यही हाल है. जैसा कि विजय शंकर कहते हैं, ‘हर पार्टी बस सत्ता में मौजूद अपने प्रतिद्वंदी पर सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप लगाना चाहती है और यह चक्र चलता रहता है.’
अपने एक लेख में उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘पिछले करीब 40 साल से विभिन्न समितियां बार-बार यह कह रही हैं कि सीबीआई का अलग अधिनियम बनाया जाए, परंतु कोई भी सरकार इस ओर ध्यान नहीं दे रही है. शायद सभी को सीबीआई का वर्तमान स्वरूप ही ठीक लगता है, क्योंकि उसका मनचाहा उपयोग-दुरुपयोग किया जा सकता है.’ वे आगे लिखते हैं, ‘1978 में एलपी सिंह समिति ने संस्तुति की थी कि एक व्यापक केंद्रीय अधिनियम बनाकर सीबीआई को सशक्त बनाया जाए. संसद की एक स्थायी समिति ने भी 2007 और 2008 में संस्तुति की थी कि सीबीआई को विधिक आधार और पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए.’ लेकिन मामला जस का तस है. प्रकाश सिंह इसे हास्यास्पद बताते हैं कि आज भी सीबीआई 1946 के कानून से ही चल रही है.
सीबीआई की स्वायत्तता बढ़ाने की जो थोड़ी बहुत कोशिशें हुई हैं वे देश की शीर्ष अदालत की तरफ से हुई हैं. इस सिलसिले में 1993 के मशहूर विनीत नारायण या जैन हवाला मामले को खास तौर पर याद किया जा सकता है जिसमें 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई की कार्यप्रणाली में सुधार करने के लिए कई निर्देश दिए थे. इनमें भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की जांच सीवीसी की निगरानी में किया जाना और सीबीआई निदेशक की नियुक्ति के लिए एक समिति बनाया जाना शामिल था. जैसा कि अपने एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट ने ही यह व्यवस्था दी कि सीबीआई निदेशक को दो साल से पहले नहीं हटाया जा सकता, उसने ही सबसे पहले इस पद के लिए तीन सदस्यों की एक चयन समिति बनाई…’
हालांकि खुद शेखर गुप्ता सहित कई जानकार मानते हैं कि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा है. दो साल पहले सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा ने विशेष निदेशक और गुजरात काडर के आईपीएस अधिकारी राकेश अस्थाना पर और इसके जवाब में उन्होंने वर्मा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाये थे. इसके बाद सीवीसी की सिफारिश पर केंद्र सरकार ने दोनों को आधी रात को छुट्टी पर भेज दिया था. इस मामले में वर्मा सुप्रीम कोर्ट और अस्थाना दिल्ली हाई कोर्ट पहुंचे थे. सुप्रीम कोर्ट ने आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजने के निर्णय को निरस्त करते हुए उन्हें उनके पद पर बहाल कर दिया था. लेकिन अगले ही दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली चयन समिति ने उन्हें सीबीआई निदेशक के पद से हटा दिया था. इस तीन सदस्यीय समिति में प्रधानमंत्री के अलावा एक सुप्रीम कोर्ट के जज और लोकसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे भी शामिल थे. खड़गे ने समिति की बैठक में वर्मा को उनके पद से हटाने का विरोध किया था.
चयन समिति ने वर्मा को उनके पद से हटाते वक्त उस जांच की रिपोर्ट को आधार बनाया था जो सीवीसी ने सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर इस मामले में की थी. हालांकि इस जांच की निगरानी करने वाले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज एके पटनायक का कहना था कि ‘वर्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार के कोई सबूत नहीं थे और उनके खिलाफ हुई जांच सिर्फ अस्थाना की शिकायत पर आधारित थी.’ जस्टिस पटनायक का यह भी कहना था कि इस मसले पर चयन समिति ने काफी जल्दबाज़ी में काम किया.
इस पूरे मामले को लेकर मोदी सरकार और सीवीसी का भूमिका की भी काफी आलोचना हुई थी. विपक्षी दलों का आरोप था कि सरकार ने आलोक वर्मा को हटाने के मामले में उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया. कांग्रेस ने इसे सीबीआई की आजादी खत्म करने की आखिरी कवायद करार दिया था. बीबीसी से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता सूरत सिंह का कहना था, ‘आप इसे सरकार के चोर दरवाज़े के तौर पर देख सकते हैं. जो आप सीधे तौर पर नहीं कर सकते वो आप दूसरे तरीके से कर सकते हैं.’
सूरत सिंह जैसे कई जानकार हैं जो मानते हैं कि सीबीआई निदेशक के पद को संवैधानिक बनाया जाना चाहिए ताकि उसे आसानी से न हटाया जा सके. उधर, प्रशांत भूषण कहते हैं कि सीबीआई को सरकार के प्रशासकीय नियंत्रण से मुक्त किया जाए. उनके शब्दों में ‘जब तक सरकार के पास सीबीआई में अपनी पसंद के अधिकारियों के तबादले और नियुक्ति की ताकत है, जांच एजेंसी न तो स्वायत्त होगी और न ही ये स्वतंत्र होकर मामलों की जांच कर सकेगी.’
फिलहाल तो यह सब दूर की कौड़ी लगता है.
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