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देश को नई संसद और प्रधानमंत्री को नये घर की कितनी जरूरत है?

नया संसद भवन

मोदी सरकार को बड़ी राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को अनुमति [1] दे दी है. तीन जजों की बेंच ने 2-1 के बहुमत से यह फैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट ने इस परियोजना के सिलसिले में पर्यावरण से जुड़ी मंजूरियों को भी सही माना है. साथ ही उसने सेंट्रल विस्टा के लिए इंडिया गेट के आसपास की जमीन के इस्तेमाल (लैंड यूज) में बदलाव को भी हरी झंडी दे दी है.

सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत दिल्ली में नये संसद भवन सहित कई अहम इमारतें बननी हैं. बीते महीने ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई संसद का शिलान्यास किया था. उन्होंने इसे आत्मनिर्भर भारत की दृष्टि का एक स्वाभाविक हिस्सा बताया था. प्रधानमंत्री का कहना [2] था, ‘आजादी के बाद पहली बार लोगों की संसद बनाने का यह एक शानदार अवसर होगा, जो 2022 में स्वतंत्रता की 75वीं सालगिरह पर ‘न्यू इंडिया’ की जरूरतों और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करेगा.’ इसी साल इस इमारत का काम पूरा होना है.

नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन से लेकर इंडिया गेट तक जाने वाले राजपथ के इर्द-गिर्द का करीब चार वर्गमीटर का इलाका सेंट्रल विस्टा कहलाता है. इसके दायरे में राष्ट्रपति भवन और इंडिया गेट के साथ-साथ संसद भवन, केंद्रीय सचिवालय की नॉर्थ और साउथ ब्लॉक जैसी अहम इमारतें आती हैं. साउथ ब्लॉक में प्रधानमंत्री कार्यालय के अलावा रक्षा और विदेश मंत्रालय स्थित हैं और नॉर्थ ब्लॉक में गृह और वित्त मंत्रालय हैं. इनके अलावा उपराष्ट्रपति का आवास, नेशनल म्यूजियम, नेशनल आर्काइव्ज, इंदिरा गांधी नेशनल सेंटर फॉर आर्ट्स, उद्योग भवन, कृषि भवन, निर्माण भवन और जवाहर भवन भी सेंट्रल विस्टा का ही हिस्सा हैं. इंडिया गेट के इर्द-गिर्द स्थित पूर्व प्रिंसली स्टेट्स के भवन ( बीकानेर हाउस, हैदराबाद हाउस, जामनगर हाउस आदि) भी सेंट्ल विस्टा में ही शामिल हैं.

इन इमारतों में से ज्यादातर का निर्माण जाने-माने अंग्रेज वास्तुविद एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर ने 1911 से 1931 के बीच तब किया था जब 1911 में अंग्रेजी शासन ने अपनी राजधानी को कोलकाता से दिल्ली लाने का फैसला किया था. सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत मोदी सरकार इस पूरे इलाके को फिर से विकसित करना चाहती है. लेकिन विपक्षी पार्टियों सहित एक बड़ा वर्ग करीब 20 हजार करोड़ रुपये की इस परियोजना का विरोध कर रहा है. उसने मौजूदा हालात में इसकी जरूरत और इसके क्रियान्वयन के तरीके पर कई सवाल उठाए हैं. उधर, सरकार इन सवालों को सिरे से खारिज कर रही है.

इस मामले में सरकार या उसके विभिन्न विभागों ने सुप्रीम कोर्ट में जो कहा उसमें एक प्रमुख दलील यह है कि संसद भवन सहित सेंट्रल विस्टा में मौजूद तमाम इमारतें अब बहुत पुरानी हो चुकी हैं और इसलिए वे सुरक्षित नहीं हैं. इस सिलसिले में केंद्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) ने अगस्त 2020 में सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा [3] पेश किया था. इसमें कहा गया है कि आबादी के हिसाब से संसद में सीटें बढ़ाने पर 2026 तक रोक लगी हुई है , लेकिन उसके बार परिसीमन की कवायद पूरी होने पर सीटों की संख्या बढ़ सकती है.

आखिरी बार संसद की सीटों में बदलाव 1977 में हुआ था और इसका आधार 1971 की जनगणना थी. तब से लेकर अब तक यह कवायद रुकी रही है और इस रोक की सीमा 2026 में खत्म होनी है. 1971 से लेकर अब तक देश की आबादी दोगुनी हो चुकी है. कहा जा रहा है कि इसके हिसाब से परिसीमन हुआ तो लोकसभा में सीटों की संख्या 1000 तक जा सकती है जो अभी 543 है. इसी अनुपात में राज्यसभा की सीटें भी बढ़ सकती हैं जो फिलहाल 250 हैं. सीपीडब्ल्यूडी का कहना है कि इतने सांसदों को बैठाने के लिए संसद की मौजूदा इमारत काफी नहीं है और न ही इसकी क्षमता में इतना विस्तार किया जा सकता है, इसीलिए एक नई संसद की जरूरत है. सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी अदालत में सरकार का पक्ष रखते हुए यही बात कही है.

लेकिन आलोचक मोदी सरकार की इस दलील से इत्तेफाक नहीं रखते. उनके मुताबिक संसद भवन और राष्ट्रपति भवन सहित तमाम इमारतें एक सदी पहले ही बनी हैं और दुनिया में कई देश हैं जो इससे भी पुरानी इमारतों को किसी दिक्कत के बगैर इस्तेमाल कर रहे हैं. अमेरिका का संसद भवन यानी कैपिटल बिल्डिंग 1800 में तैयार हुआ था जो अब तक चल रहा है. संसद की पहली बैठक से लेकर अब तक वहां दोनों ही सदनों के सांसदों की संख्या कई गुना बढ़ चुकी है. ब्रिटेन का संसद भवन वेस्टमिन्स्टर पैलेस तो एक हजार साल पुराना है जिसे आग में ध्वस्त होने के बाद 1870 में फिर से बनाया गया. फिलहाल इसके जीर्णोद्धार की परियोजना पर काम चल रहा है जो 1925 से शुरू होगी और छह से आठ साल तक चलेगी. इस दौरान सांसद कहीं और बैठेंगे. इसके अलावा कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी जैसे तमाम देश हैं जिन्होंने संसद भवन सहित अपनी कई प्राचीन इमारतों को वक्त के साथ बदला है.

अनुज श्रीवास्तव सुप्रीम कोर्ट में इस परियोजना के खिलाफ याचिका दाखिल करने वालों में से एक हैं. उनके मुताबिक उन्होंने जो अध्ययन किए हैं वे बताते हैं कि रेट्रोफिटिंग के जरिये इन इमारतों को नई जरूरतों के हिसाब से बदला जा सकता है. जर्मनी की सार्वजनिक प्रसारण सेवा डॉयचे वेले के साथ बातचीत [4] में अनुज श्रीवास्तव कहते हैं, ‘ये साबित नहीं हो पाया है कि इस परियोजना की जरूरत क्यों है. ये परियोजना देश के सबसे प्रतिष्ठित इलाके के साथ बड़े अनियोजित तरीके से व्यवहार कर रही है.’

अमेरिका का संसद भवन यानी कैपिटल बिल्डिंग 1800 में तैयार हुआ था जो अब तक चल रहा है. ब्रिटेन का संसद भवन वेस्टमिन्स्टर पैलेस तो एक हजार साल पुराना है जिसे आग में ध्वस्त होने के बाद 1870 में फिर से बनाया गया.

ऐसा मानने वाले वे अकेले नहीं हैं. मई 2020 में 60 पूर्व नौकरशाहों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शहरी मामलों के मंत्री हरदीप पुरी को एक खुली चिट्ठी [5] लिखी थी. इसमें उन्होंने कहा था कि इस परियोजना पर आगे नहीं बढ़ा जाना चाहिए. चिट्ठी में लिखा था, ‘घनी आबादी वाली दिल्ली के केंद्र में मौजूद यह इलाका शहर के फेफड़ों की तरह काम करता है. यहां की घनी हरियाली जैव-विविधता के भंडार जैसी है और विशाल घास के मैदान रिज और यमुना के बीच बसे शहर के लिए जल का भंडार सहेजते हैं. इस खुले इलाके में बड़ी संख्या में बेसमेंट वाले दफ्तरों की इमारतें बनाई जाएंगी तो न सिर्फ यहां भीड़-भाड़ बढ़ेगी बल्कि पर्यावरण को ऐसा नुकसान होगा जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी.’

सेंट्रल विस्टा के पुनर्विकास के तहत राजपथ के इर्द-गिर्द एक-दूसरे से सटे सरकारी कार्यालयों के 12 बड़े-बड़े खंड बनने हैं. हर इमारत आठ मंजिल की होगी. बताया जा रहा है कि इन सभी इमारतों में आज के मुकाबले तीन गुना ज्यादा सरकारी कर्मचारी बैठ सकेंगे. जानकारों के मुताबिक इससे न सिर्फ एक खुला-खुला इलाका भीड़ से भर जाएगा बल्कि यह बढ़ोतरी ट्रैफिक और वायु प्रदूषण के मोर्चे पर हालात और बिगाड़ेगी. ऐसा इसलिए भी कहा जा रहा है कि परियोजना के निर्माण कार्य के दौरान चार साल तक रोज करीब 700 ट्रक मिट्टी और मलबा लेकर इस जगह से आवाजाही करेंगे. इस पहलू को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि निर्माण कार्य के दौरान प्रदूषण कम करने के लिए स्मॉग टॉवर्स और एंटी स्मॉग गनों जैसे उपायों का इस्तेमाल किया जाए.

इस मामले को लेकर शीर्ष अदालत पहुंचे याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इतना पैसा खर्च करने के फैसले से पहले इस तरह के निर्माण का क्या औचित्य है, इसे लेकर किसी भी तरह का कोई अध्ययन नहीं हुआ है. सुप्रीम कोर्ट में एक याचिकाकर्ता का पक्ष रख रहे वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान कहते [6] हैं कि सरकार को पूरा वक्त लेकर अलग-अलग क्षेत्र के विशेषज्ञों से राय लेनी चाहिए थी जो उसने नहीं किया. उनके मुताबिक निर्णय लेने में पूरी तरह से पारदर्शिता भी नहीं बरती गई.

एक अन्य याचिकाकर्ता और वरिष्ठ आर्किटेक्ट नारायण मूर्ति का भी आरोप है कि जिस तरह से यह प्रोजेक्ट चल रहा है वह सारी प्रक्रियाओं और संस्थाओं की उपेक्षा कर रहा है. बीबीसी [7] से बातचीत में उनका कहना था, ‘मेरे और आपके लिए, एक एफएआर होती है जो बताती है कि हम एक प्लॉट पर कितना बना सकते हैं. अगर हम दस वर्ग मीटर भी ज़्यादा बना लें तो उसकी इजाज़त नहीं है और एमसीडी की टीम आकर उसको तोड़ देती है. लेकिन जितनी ऊंचाई की अनुमति है, अगर सरकार ही उसका डेढ़ गुना, जितनी एफ़एआर में अनुमति है उसका डेढ़ गुना बना रही है तो ये देश के लिए क्या सीख है. क्या इसका मतलब है कि जिसकी लाठी, उसकी भैंस?’

उधर, सरकार ऐसे आरोपों को खारिज करती रही है. उसका यह भी कहना है कि हर तरह से सोच-विचारकर ही यह फैसला लिया गया है. शहरी मामलों के मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने एक हालिया ट्वीट [8] में कहा है कि देश की छह प्रतिष्ठित आर्किटेक्चरल फर्मों ने तकनीकी और वित्तीय आधार पर इस परियोजना के लिए बोली लगाई थी जिनमें से चार सारी शर्तें पूरी करती थीं. हरदीप पुरी के मुताबिक इनमें से हर बोली की विशेषज्ञों के एक पैनल ने जांच की और इसके बाद पाया गया कि एचसीपी डिजाइन, प्लानिंग एंड मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड सबसे योग्य है. इस कंपनी के मुखिया बिमल पटेल हैं जिन्होंने गुजरात में साबरमती रिवरफ्रंट जैसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कई पसंदीदा परियोजनाओं को आकार दिया है.

सेंट्रल विस्टा के पुनर्विकास के पीछे मकसद यह भी बताया जा रहा है कि अभी बिखरे हुए सभी मंत्रालय और उनके कर्मचारी एक ही जगह पर हों. यह एक लिहाज से साझा केंद्रीय सचिवालय होगा. सरकार का कहना है कि इससे आपसी समन्वय बेहतर होगा और कार्य उत्पादकता बढ़ेगी. लेकिन जानकारों की मानें तो इस इलाके के मास्टर प्लान में 1960 के दशक से ही विकेंद्रीकरण पर जोर दिया जाता रहा है. सोच यह रही है कि सरकार की सारी शक्ति एक जगह केंद्रित होने का संकेत न जाए. सत्ता तंत्र के ज्यादा केंद्रीकरण का नुकसान यह होता है कि आर्थिक गतिविधियों और नतीजतन विकास का भी केंद्रीकरण होने लगता है जो क्षेत्रीय असंतुलन को जन्म देता है. यह हैरानी की बात नहीं है कि करीब ढाई करोड़ लोगों के बोझ से दिल्ली-एनसीआर का दम फूलने लगा है क्योंकि देश के कोने-कोने से लोग बेहतर अवसरों की चाह में यहां चले आते हैं.

कई लोग मानते हैं कि ऐसे कई मंत्रालय और विभाग हैं जिनका दिल्ली में होना अनिवार्य नहीं है. मसलन खनन, कोयला और ऊर्जा मंत्रालय झारखंड से चल सकता है तो जहाजरानी मंत्रालय के दिल्ली में होने का कोई तुक ही नहीं है और इसे किसी तटीय शहर में ले जाया जा सकता है. एक वर्ग मानता है कि सूचना-तकनीकी के इस युग में ऐसा आराम से हो सकता है क्योंकि अब इन मंत्रालयों के बीच आपसी समन्वय में भी कोई समस्या नहीं होगी. कई जानकारों के मुताबिक इससे कई दूसरे शहरों का भी हर लिहाज से विकास होगा और इस लिहाज से जो क्षेत्रीय असंतुलन दिखता है उसमें कमी आएगी.

इसके अलावा कोविड-19 के दौर में दुनिया की एक बड़ी कामकाजी आबादी घर से ही काम कर रही है. कोरोना काल में खुद मोदी सरकार ने यह सुनिश्चित किया कि कर्मचारियों का एक बड़ा वर्ग घर से काम करे और इसके चलते कोई काम न रुके. इन तथ्यों का हवाला देकर भी कई 20 हजार करोड़ रु की इस परियोजना को जनता के पैसे की बर्बादी बताते हैं.

कई मंत्रालय और विभाग हैं जिनका दिल्ली में होना अनिवार्य नहीं है. मसलन खनन, कोयला और ऊर्जा मंत्रालय झारखंड से चल सकता है तो जहाजरानी मंत्रालय के दिल्ली में होने का कोई तुक ही नहीं है और इसे किसी तटीय शहर में ले जाया जा सकता है.

यहां पर याद करना जरूरी है कि नीति निर्माताओं ने साढ़े तीन दशक पहले ही देख लिया था कि अगर लोगों का इसी रफ्तार से राजधानी में आना जारी रहा तो यह ढह जाएगी. 1985 में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना बोर्ड अधिनियम पारित हुआ था. इसमें प्रावधान था कि अब दिल्ली में कोई नई सरकारी इमारत नहीं बनेगी. बाद में आई सरकारें कई विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों को दिल्ली के बाहर ले गईं. विकेंद्रीकरण की इसी सोच के साथ समय-समय पर कई दफ्तर सेंट्रल विस्टा से भी हटाए गए. जानकारों के मुताबिक रणनीतिक लिहाज से भी यह एक अहम सोच थी. वह इसलिए कि देश के सारे नीति-नियंता अगर एक ही ठिकाने पर बैठने लगें और वह दुश्मन के किसी हमले की चपेट में आ जाए तो सारी व्यवस्था ध्वस्त हो सकती है. यह बात और भी महत्वपूर्ण इसलिए है कि इस परियोजना के तहत प्रधानमंत्री का नया आवास भी बनाया जाना है.

लेकिन अब गाड़ी विपरीत दिशा में चलने लगी है. और यह तब है जब दुनिया भर में न सिर्फ विकेंद्रीकरण पर बहस हो रही है बल्कि कई देश तो इस मामले में क्रांतिकारी कदम उठा चुके हैं. उदाहरण के लिए दक्षिण कोरिया ने ज्यादातर नौकरशाहों को राजधानी सियोल से नए शहर सेजॉन्ग भेज दिया है. मलेशिया और नॉर्वे भी यह काम कर चुके हैं. मैक्सिको ने तो इस मामले में एक अलग ही स्तर छू लिया है. वहां केंद्रीय सरकार की विभिन्न एजेंसियों को 30 प्रांतों की राजधानियों में शिफ्ट करने की प्रक्रिया चल रही है.

खबरों के मुताबिक सेंट्रल विस्टा के पुनर्विकास के लिए उपराष्ट्रपति के आवास सहित 15 से ज्यादा इमारतें ढहाई जाएंगी. इनमें राष्ट्रीय संग्रहालय, कृषि भवन, उद्योग भवन, शास्त्री भवन, निर्माण भवन और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र शामिल है. इसके अलावा नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक को संग्रहालय बना दिया जाएगा और कमोबेश यही मौजूदा संसद भवन के साथ होगा. बताया जा रहा है कि सिर्फ नौ साल पहले बनी विदेश मंत्रालय की नई इमारत भी ढहाई जानी है. यही वजह है कि कई जानकार इस कवायद के औचित्य पर सवाल खड़े करते हैं. उनका तर्क है कि यह इलाका हेरिटेज जोन की प्रथम श्रेणी में रखा गया है जिसके स्वरूप के साथ इस तरह की छेड़छाड़ नहीं की जा सकती.

जिस पूरे इलाके का कायाकल्प करने की तैयारी है वह न सिर्फ दिल्ली की शान माना जाता है बल्कि इसके चलते यह शहर दुनिया की सबसे शानदार राजधानियों में भी शुमार होता है. इसमें एक तरफ खुलापन और हरियाली है तो इसके साथ ही पश्चिमी और भारतीय वास्तुकला के शानदार मेल से बनी कई इमारतें भी इसकी शोभा बढ़ाती हैं. जानकारों के मुताबिक यही वजह है कि 2013 में सरकार ने यूनेस्को में इस इलाके को विश्व धरोहर का दर्जा देने के लिए आवेदन किया था. अब सरकार खुद इस धरोहर का स्वरूप बिगाड़ने की तैयारी में है.

सेंट्रल विस्टा का स्वरूप बदलने की इस परियोजना पर सरकार जिस तरह से आगे बढ़ी है उससे भी कई आशंकित हैं. मसलन 20 मार्च 2020 को जब सारी दुनिया का ध्यान कोविड-19 से पैदा हुई आशंकाओं की तरफ था तो केंद्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर इंडिया गेट के आसपास की 70 एकड़ से ज्यादा जमीन का लैंड यूज बदले जाने की जानकारी दी. यह उपयोग सार्वजनिक और अर्धसार्वजनिक सुविधाओं से बदलकर सरकारी कार्यालय कर दिया गया था. यानी पेड़, बगीचों और खुले मैदान वाली इस जमीन पर सरकारी दफ्तर के लिए इमारतें बनाने का रास्ता साफ कर दिया गया. इसी दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखकर कहा था कि ऐसे हालात में सरकार गैरजरूरी खर्चों से बचे. उन्होंने लिखा था, ‘20,000 करोड़ रुपये की लागत से बनाए जा रही सेंट्रल विस्टा परियोजना स्थगित की जाए. मौजूदा हालात में विलासिता पर किया जाने वाला यह खर्च व्यर्थ है. मुझे यकीन है कि संसद मौजूदा भवन से ही अपना पूरा काम कर सकती है.’ हालांकि मामला आगे बढ़ता रहा.

इस योजना को लेकर सरकार भले ही कहती रहे कि उसने सारी व्यावहारिकताएं परख ली हैं और तमाम विशेषज्ञों से विचार-विमर्श कर लिया है, लेकिन यह कैसे हुआ इस बारे में कोई खास सार्वजनिक जानकारी उपलब्ध नहीं है. वह यह तो कह रही है कि करीब एक सदी पहले बना संसद भवन असुरक्षित है, लेकिन इस बारे में उसने किसी अध्ययन का हवाला नहीं दिया है. सरकार की दलीलों में अस्पष्टता के अलावा विचित्रता भी है. मसलन सुप्रीम कोर्ट में उसने कहा कि अभी उसे हर साल 1000 करोड़ रु विभिन्न मंत्रालयों के किराए पर खर्च करने पड़ते हैं और नए सेंट्रल विस्टा से यह खर्च बचेगा. लेकिन सच यह है कि यह किराया सरकार एक तरह से अपने आप को ही देती है. जैसा कि दिल्ली स्थित संस्था लोकपथ के सदस्य और वास्तुकार माधव रमन एक साक्षात्कार [4] में कहते हैं, ‘सारे मंत्रालयों की इमारतें उस जमीन पर हैं जिसके स्वामी भारत के राष्ट्रपति हैं. इनके प्रबंधन के लिए अलग से एक भूमि एवं विकास कार्यालय (एलएंडडीओ) है जो राष्ट्रपति की संपत्तियों के लिए लीज मैनेजर का काम करता है. सेंट्रल विस्टा भी इसके तहत आता है. हर साल सरकार हर मंत्रालय के लिए किराए के मद में एक तय राशि आवंटित करती है. मंत्रालय ये किराया एलएंडडीओ को देते हैं जो इसे भारत की संचित निधि (केंद्र का मुख्य खाता जहां सारे करों से मिलने वाली रकम भी आती है) में डाल देता है.’ माधव रमन के मुताबिक इस पैसे का इस्तेमाल मुख्य रूप से इन इमारतों के रख-रखाव में होता है. वे कहते हैं, ‘यानी नई और बड़ी इमारतों के रखरखाव में और भी ज्यादा पैसा खर्च होगा.’

सेंट्रल विस्टा एक ऐसी जगह है जो राजपथ और जनपथ नाम की दो सड़कों को आपस में जोड़ती है. सत्ता और लोक का यह सहज मेल तभी हो गया था जब 15 अगस्त 1947 को आजादी का जश्न मनाने के लिए लोगों का ज्वार इस इलाके में उमड़ पड़ा था. आज भी यहां एक तरफ सत्ता के काम चलते हैं तो दूसरी ओर विशाल खुले मैदानों में आम लोग आइसक्रीम खाते या चटाई पर परिवार सहित भोजन करते हुए जीवन का आनंद लेते दिखते हैं. केंद्र सरकार की नई परियोजना के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे लोगों का तर्क है कि आम जनता का यह आनंद अब छिनने जा रहा है. इन्हीं में से एक और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव सूरी ने अदालत में यही दलील दी थी. उनका कहना है कि सरकार का यह फैसला अनुच्छेद 21 के तहत एक नागरिक के जीने के अधिकार के विस्तारित संस्करण का उल्लंघन है.

सीपीडब्ल्यूडी ने इस परियोजना के टेंडर [9] के लिए जो नोटिस जारी किया था उसमें कहा गया था कि पुनर्विकास के जरिये सेंट्रल विस्टा को नवंबर 2020 तक पर्यटन के लिहाज से ‘वर्ल्ड क्लास’ बना दिया जाएगा. कई इसे बेतुकी बात बताते हैं. अपने एक लेख [10] में वरिष्ठ पत्रकार शिवज विज कहते हैं, ‘ये ऐसा ही है कि आप कहें कि हम ताजमहल का पुनर्विकास करके उसे पर्यटकों के लिए वर्ल्ड क्लास बनाना चाहते हैं. ये तो वो पहले से ही है. विदेशी टूरिस्ट दिल्ली इसलिए नहीं आ रहे कि सेंट्रल विस्टा अच्छा नहीं है. वे इसलिए दिल्ली से दूर हैं कि ये दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में है और साथ ही महिलाओं के लिए भी सबसे असुरक्षित है.’

शिवम विज सहित कई मानते हैं कि औचित्य न होने पर भी इस परियोजना को लेकर जिद का एक ही मकसद हो सकता है. उनके मुताबिक यह मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा अपने लिए नया इतिहास और नई विरासत गढ़ने की कोशिश है.

सीपीडब्ल्यूडी के नोटिस में कहा भी गया है कि ये नई इमारतें कम से कम 150 से 200 साल तक हमारी विरासत का हिस्सा बनी रहेंगी.