चे गेवारा

राजनीति | जन्मदिन

चे गेवारा के भारत आने का मकसद क्या था?

कम ही लोग जानते हैं कि चे गेवारा भारत आए थे और यहां अपने लंबे दौरे के बाद उन्होंने इस पर एक रिपोर्ट भी लिखी थी

ओम थानवी | 14 जून 2020 | फोटो प्रभाग

वे छह महीने पहले क्यूबा में हुई सशस्त्र क्रांति के बड़े नायक थे. सरकार के गठन के बाद राष्ट्रपति फिदेल कास्त्रो ने उन्हें तीसरी दुनिया के देशों से संबंध कायम करने का जिम्मा सौंपा. क्यूबा की क्रांति के दूत बनकर चे ने कई देशों की यात्रा की. भारत सरकार से उन्हें खास बुलावा था, जिसने फिदेल कास्त्रो की सरकार को फौरन मान्यता दी थी. मिस्र होते हुए चे गेवारा भारत आए. 30 जून, 1959 की शाम को हवाई अड्डे पर विदेश मंत्रालय के प्रोटोकॉल अधिकारी डीएस खोसला ने उनकी अगवानी की. क्यूबा के उस प्रतिनिधिमंडल में पांच लोग थे. चे की सुनहरे तारे वाली बगैर छज्जे की टोपी, लंबा सिगार और ऊंचे फीतों वाले जूते उन्हें बाकी लोगों से अलग करते थे.

प्रतिनिधिमंडल को चाणक्यपुरी में नए बने अशोक होटल में ठहराया गया. अगले ही रोज चे गेवारा और उनके सहयोगी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से मिले. उनके साथ भोजन किया. उसके बाद ओखला औद्योगिक क्षेत्र में लकड़ी को आकार देने वाली मशीनों का कारखाना देखा. शाम को वे वाणिज्य मंत्री नित्यानंद कानूनगो से मिले. भारत और क्यूबा के भावी व्यापारिक रिश्तों के लिहाज से यह महत्त्वपूर्ण बैठक थी, जिसमें दोनों देशों के बीच आयात-निर्यात पर चर्चा हुई. अगले रोज क्यूबा से आया यह प्रतिनिधिमंडल योजना आयोग गया. वे लोग कृषि अनुसंधान परिषद भी गए, जहां उन्होंने गेहूं की एक उन्नत किस्म का जायजा लिया.

तीन जुलाई को चे ने दिल्ली के पास पिलाना गांव में सामुदायिक (सहकारी) परियोजना के कुछ कार्यक्रम देखे. खेत और एक स्कूल देखा. लौटकर दल सामुदायिक विकास और सहकारिता मंत्री एसके डे से मिला. चार जुलाई को खाद्य व कृषि मंत्री एपी जैन से उनकी भेंट हुई. फिर वाणिज्य और उद्योग मंत्रालयों के अधिकारियों से, जिन्होंने उन्हें भारतीय चाय और कॉफी भेंट दी. यह सब जानकारी फोटो प्रभाग के निदेशक देवतोष सेनगुप्त से तस्वीरों के साथ मिली. लेकिन काफी खोजबीन के बाद. क्योंकि हम लोग वहां चे गेवारा का नाम ढूंढ़ रहे थे. जबकि वहां चे चे नहीं थे. फाइलों में उनका नाम अर्नेस्ट गेवारा दर्ज था!

हवाई अड्डे पर चे गेवारा की अगवानी | फोटो प्रभाग

इस दौरान चे – जैसा कि उन्होंने खुद लिखा है – रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन और सैन्य अधिकारियों से भी मिले. पांच या छह जुलाई को दल कोलकाता (तब कलकत्ता) के लिए रवाना हो गया. हवाना के दस्तावेजों में आठ जुलाई को लखनऊ का कोई चीनी अनुसंधान केंद्र देखने का भी जिक्र है. इसकी पुष्ट जानकारी नहीं मिल सकी.

भारत से चे शायद बर्मा गए और फिर आगे वियतनाम. उनके पत्रों में बीत्रिज नामक किसी रिश्तेदार को रंगून से लिखा एक पत्र है जिस पर 13 जुलाई, 1959 की तारीख पड़ी है. फिर भी चे की भारत यात्रा का विस्तृत ब्योरा हमारे यहां उपलब्ध नहीं है. भारत से लौटने के बाद वे क्यूबा के राष्ट्रीय बैंक के अध्यक्ष और फिर उद्योग मंत्री – व्यवहार में वित्त मंत्री – बने. भारत का उनका दौरा लंबा था. छह-सात दिन वे दिल्ली में रहे. बाद में दूसरे शहरों में गए. पर देश में छपी सामग्री में कहीं उस दौरे का ब्योरा नहीं मिलता. थोड़ी ही जानकारी मुझे मिली. पर चे के विचार-दर्शन में विश्वास करने वालों को यह काम गंभीरता से करना चाहिए.

यों चे गेवारा के भारत दौरे का थोड़ा जिक्र जॉन ली एंडरसन की लिखी मशहूर जीवनी ‘अ रिवोल्यूशनरी लाइफ’ और वयोवृद्ध पत्रकार केपी भानुमती की किताब ‘कैंडिड कनवर्सेशंस’ में है. एंडरसन की किताब चे पर लिखी गई किताबों में सबसे मशहूर है. आठ सौ पन्नों में उन्होंने चिकित्सक से क्रांतिकारी होने की चे की दास्तान बड़ी शिद्दत से बयान की है. बल्कि एंडरसन की बदौलत ही वेलेग्रांदे (बोलीविया) में चालीस साल पहले चे और उनके साथियों के गुपचुप गाड़े गए शवों का ठिकाना मिल सका.

जवाहरलाल नेहरू के साथ चे गेवारा | फोटो प्रभाग

लेकिन एंडरसन की लिखी जीवनी में चे के भारत-दौरे का अप्रामाणिक निष्कर्ष है और दौरे के सहयोगी पार्दो लादा के हवाले से बिलकुल किस्से जैसा ब्योरा. पार्दो के मुताबिक चे के ‘नायक’ रहे नेहरू के साथ उनकी मुलाकात दोपहर के शानदार खाने पर हुई. ‘सरकारी महल’ (तीन-मूर्ति भवन?) में खाने की मेज पर इंदिरा गांधी और उनके बच्चे राजीव और संजय भी मौजूद थे. पार्दो कहते हैं, ‘चे नेहरू से चीन और माओ के बारे में सवाल पूछते रहे और नेहरू उन (गंभीर) सवालों को नितांत अनसुना करते हुए मेज पर सजे पकवानों-फलों की बात करते रहे.’

चे क्यूबा के राष्ट्रनायक थे और उनकी शोभा में कनिष्ठ सहयोगी तथ्यों को थोड़ा रंग कर बताएं, यह सहज संभव है. लेकिन हैरानी तब होती है जब एंडरसन खुद कहते हैं – चे भारत से इस अनुभव के साथ लौटे कि आधुनिक भारत के प्रवर्तकों से सीखने के लिए कुछ खास नहीं है. नेहरू सरकार कृषि सुधार का कोई ‘मूलभूत’ कार्यक्रम लागू करने या धार्मिक और सामंती संस्थाओं की ताकत शिथिल करने की दिशा में ‘अनिच्छुक’ दिखाई देती है. इसके पीछे चे ने, एंडरसन के अनुसार, भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परंपराओं को ‘अवरोध’ के रूप में देखा.

संयोग से हवाना में चे अध्ययन संस्थान में मुझे वह पूरी रिपोर्ट मिल गई, जो दौरे से लौटने के बाद चे ने फिदेल कास्त्रो के सुपुर्द की थी. साप्ताहिक ‘वेरदे ओलिवो’ के 12 अक्तूबर, 1959 के अंक में वह रिपोर्ट सार्वजनिक हुई. उसे पढ़कर कोई भी जान सकता है कि चे गेवारा ने भारत को हताशा में नहीं, तटस्थ नजरिए से देखा था. यहां की सामाजिक विषमताओं के साथ प्रगति की ललक को समझने की कोशिश की. खयाल रखें, भारत को अंग्रेजी राज से बरी हुए तब बमुश्किल बारह साल हुए थे. चे ने इस तथ्य पर भी गौर किया था.

दिल्ली के पास एक गांव का दौरा करते चे गेवारा | फोटो प्रभाग

अपनी तीन पृष्ठ की उस रिपोर्ट में चे ‘विरोधाभासों के देश’ भारत के ‘औद्योगिक विकास’ और ‘भयानक दरिद्रता’ के बीच खाई वाले ‘विचित्र और जटिल परिदृश्य’ के साथ विकास में आए ‘असाधारण सामाजिक महत्त्व के’ ‘अभिनव परिवर्तन’ लक्ष्य करते हैं. वे ‘कृषि-सुधार’ की तकनीकों पर ध्यान देते हैं. भारत और क्यूबा के सामाजिक-आर्थिक ढांचे को ‘एक-सा’ करार देते हुए ‘दो उद्योगशील’ देशों की ‘साथ-साथ’ उन्नति की संभावना भी व्यक्त करते हैं. तकनीकी विकास में भारतीय वैज्ञानिकों की महारत का लोहा मानते हुए साफ कहते हैं कि ‘इस यात्रा में हमें कई लाभदायक बातें सीखने को मिलीं… सबसे महत्त्वपूर्ण बात हमने यह जानी कि एक देश का आर्थिक विकास उसके तकनीकी विकास पर निर्भर करता है.’

चे के भारत-दर्शन में सबसे अहम एक बात यह थी कि उन्होंने बगैर झिझक, भारत की स्वतंत्रता में गांधीजी के ‘सत्याग्रह’ की भूमिका को पहचाना. रिपोर्ट में उनके अपने शब्द हैं – ‘जनता के असंतोष के बड़े-बड़े शांतिपूर्ण प्रदर्शनों ने अंग्रेजी उपनिवेशवाद को आखिरकार उस देश को हमेशा के लिए छोड़ने को बाध्य कर दिया, जिसका शोषण वह पिछले डेढ़ सौ वर्षों से कर रहा था.’ मेरे मन में यहां पुरानी खुदबुद फिर उठती है. पढ़ने-लिखने वाला, शब्दों और दृश्यों में अभिव्यक्ति खोजने वाला संवेदनशील युवक क्यूबा लौटकर फिर हिंसा के उसी रास्ते पर क्यों लौट गया, जो कहीं नहीं ले जाता?

इसका जवाब चे ने भारत में ही देने की कोशिश की, केपी भानुमती को अपनी ओर से, तब जब वे दिल्ली के अशोक होटल में ऑल इंडिया रेडियो के लिए उनका इंटरव्यू लेने पहुंचीं. भानुमती के मुताबिक चे ने कहा, ‘आपके यहां गांधी हैं, दर्शन की एक पुरानी परंपरा है, हमारे लातिनी अमेरिका में दोनों नहीं हैं. इसलिए हमारी मन:स्थिति (माइंड-सेट) ही अलग ढंग से विकसित हुई है.’ मगर यह बात भानुमती की किताब में नहीं है, क्योंकि ‘प्रकाशक ने उनके कई अध्याय बेमुरव्वत होकर काट-छांट डाले.’

केपी भानुमती को ऑल इंडिया रेडियो के लिए साक्षात्कार देते हुए | केपी भानुमती

पहली जुलाई, 1959 की सुबह साढ़े आठ बजे भानुमती अशोक होटल के छठे माले पहुंचीं. चे गेवारा ने दरवाजा खुद खोला. अकेले थे. कोई सुरक्षाकर्मी तक नहीं. भानुमती के साथ ब्लिट्ज के संवाददाता राघवन और छायाकार पीएन शर्मा थे. राघवन भानुमती से मिन्नत कर इस शर्त पर साथ हो लिए थे कि इंजीनियर की जगह वे बातचीत की रेकार्डिंग कर देंगे और कोई सवाल नहीं पूछेंगे. भानुमती कहती हैं, वे संकोच के साथ मान गईं क्योंकि राघवन ने ही उन्हें चे के दौरे की सूचना दी थी. छायाकार शर्मा को गेवारा का फोटो लेने के लिए वॉयस ऑफ अमेरिका ने तैनात किया था, जिसका ऑल इंडिया रेडियो से प्रसारण का कोई तालमेल था. दिलचस्प बात यह है कि यहां के रेडियो को फोटो की दरकार नहीं थी, वाशिंगटन के रेडियो को थी!

बातचीत कोई आधा घंटा चली. ‘पर रेडियो पर प्रसारण मुश्किल से दो मिनट हुआ होगा. ‘न्यूजरील’ कार्यक्रम में कई घटनाएं समेटनी होती थीं. उसी में कहीं वह इंटरव्यू खप गया’, भानुमती ने बताया. उसका टेप अब मौजूद नहीं है, क्योंकि ‘तब रेडियो में एक ही स्पूल (टेप की पुरानी चकरी) मिटा कर बार-बार इस्तेमाल करने की प्रथा थी.’ लेकिन हमेशा की तरह चुनिंदा प्रश्नोत्तर उन्होंने लिखकर रख लिए. एक रोज क्यूबा के राजदूत उसकी प्रति लेने उनके घर आए. भानुमती ने खुशी-खुशी उन्हें चे से मुलाकात की दो तस्वीरें भी भेंट कर दीं.

भानुमती कहती हैं, चे से साक्षात्कार उनकी यादगार मुलाकात था. उनके शब्दों में – ‘कोई फौजी वर्दी की तरफ ध्यान न देता तो कल्पना करना मुश्किल था कि वह शख्स कभी ‘गुरिल्ला’ रहा होगा. वकीलों या नेताओं की तरह चे तेज भी नहीं लगते थे. उनकी आवाज नम्र थी और लहजा किसी याजक की तरह भद्र. किसी परिजन की सी सहजता में, मगर बहुत सोचकर और लंबा अंतराल देकर बोलते थे, जैसे ज्योतिषी बोला करते हैं. पूरी मुलाकात के दौरान वे मोंटी-कारलो सिगार पीते रहे, जिसका डिब्बा मेज पर रखा था. बचपन से दमे के रोगी रहे जुझारू व्यक्ति में यह आदत देखकर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ. हर सवाल को सुनते वक्त वे कश खींचते, जवाब देने से पहले राख झटक कर सिगार राखदानी पर ठहरा देते और माइक्रोफोन की ओर झुक जाते.’

भारतीय वैज्ञानिकों से मेटल डिटेक्टर की जानकारी लेते चे गेवारा | फोटो प्रभाग

भानुमती ने सबसे पहले उनसे भारत आने का सबब पूछा. चे ने कहा: ‘क्यूबा में बातीस्ता राज से आजादी के बाद मैं विएतनाम और दूसरे देशों की प्रत्यक्ष जानकारी हासिल करने के लिए निकला हूं, जिनका औपनिवेशिक शासन में दमन हुआ. भारत आपके प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बुलावे पर आया हूं. मैं खुद चाहता था कि भारत में आजादी के बाद शुरू हुए विकास-कार्यों को नजदीक से देखूं. लातिनी अमेरिका में हमने भी साम्राज्यवाद को बहुत झेला है और हमें बहुत नीचे से ऊपर उठना है.’

भानुमती ने पूछा – ‘आप समाजवादी अर्थव्यवस्था और समाजवादी मनुष्य की बात करते हैं. इसे कुछ स्पष्ट करेंगे?’ इस पर गेवारा बोले – ‘हम अल्प-विकसित देशों को साम्राज्यवादी पराधीनता, कठपुतली हुकूमतों और शोषण के कुचक्र से बरी होना है. हम उपनिवेश या पर-निर्भर मुल्क रहे हैं, जहां कम विकास हुआ है या बेतरतीब विकास. भूख स्वाधीनता के संघर्ष के लिए श्रेष्ठ परिस्थितियां पैदा करती हैं. बाहरी ताकत के गुलाम हुए बगैर भी आप समाजवादी मानस और समाजवादी अर्थव्यवस्था अर्जित कर सकते हैं. ऐसा न हो सका तो कोई अल्पविकसित देश कभी भ्रष्टाचार से मुक्त व्यवस्था नहीं देख पाएगा.’

चे ने इस बातचीत में भारत का खास जिक्र किया – ‘भारत ने लंबे संघर्ष के बाद आजादी हासिल की है. नेहरू के प्रति मेरे मन में बहुत आदर है. वे देश में आर्थिक आत्मनिर्भरता लाएंगे और भारत एक ताकतवर मुल्क साबित होगा.’ उन्होंने आगे कहा, ‘हमें ऐसा समाज तैयार करना होगा जिसमें सभी लोग वैयक्तिक मानवीय आकांक्षाओं की सामूहिक चेतना का साझा करें. नव-उपनिवेशवाद दक्षिणी अमेरिका से शुरू हुआ और फिर अफ्रीका व एशिया में उसने जड़ें जमाईं. जरा देखिए, विएतनाम और कोरिया में क्या हो रहा है. एशिया के कुछ मुल्कों में नृशंसता भयावह रूप में है. साम्राज्यवादियों की साजिश पर काबू पाने के लिए हम अल्पविकसित यानी तीसरी दुनिया के देशों को एकजुट होना पड़ेगा.’

प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा चे गेवारा को भेंट की गई खुखरी | ओम थानवी

विचारधारा की बात करते हुए भानुमती ने एक सवाल यह भी पूछा कि आप कम्युनिस्ट माने जाते हैं, मगर कम्युनिस्ट (साम्यवादी) मताग्रह एक बहु-धर्मी समाज में कैसे स्वीकार किए जा सकते हैं? इस पर चे का जवाब यह था – ‘मैं अपने को कम्युनिस्ट नहीं कहूंगा. मैं एक कैथलिक होकर जन्मा, एक सोशलिस्ट (समाजवादी) हूं और बराबरी में और शोषक देशों से मुक्ति में भरोसा रखता हूं. मैंने लड़कपन के दिनों से भूख को देखा है, कष्ट, भयंकर गरीबी, बीमारी और बेरोजगारी को भी. क्यूबा, विएतनाम और अफ्रीका में ये हालात रहे हैं. आजादी की लड़ाई लोगों की भूख से जन्म लेती है. मार्क्स-लेनिन के सिद्धांतों में उपयोगी पाठ (संदेश) हैं. जमीनी क्रांतिकारी मार्क्स के दिशा-निर्देशों को मानते हुए अपने संघर्ष का रास्ता खुद बनाते हैं. भारत में गांधीजी के सिद्धांतों की अपनी वकत है, जिनकी बदौलत आजादी हासिल हुई.’

क्या गांधी-नेहरू के प्रति चे का प्रशंसा और आदर का भाव शिष्टाचार के नाते था? या यह कूटनीति थी? मुझे लगता है, भारत में चे ने खुले नजरिए से एक अजनबी – मगर जानदार और आकर्षक – विचार को समझने की कोशिश की. गांधीजी का जिक्र वे छोड़ सकते थे, जिनके बारे में उनसे पूछा नहीं गया था. वे ‘सत्याग्रह’ और ‘शांतिपूर्ण’ तौर-तरीकों पर टीका कर सकते थे. लेकिन उन्होंने हवाना लौटकर जो रिपोर्ट पेश की, उसमें भी साफ लिखा कि महात्मा गांधी के सत्याग्रह से भारत ने आजादी हासिल की और जन-असंतोष के शांतिपूर्ण प्रदर्शनों ने अंग्रेजों को मुल्क छोड़ने के लिए बाध्य किया.

चे के उस नजरिए का संकेत उनके कलकत्ता के प्रवास में भी देखा जा सकता है. वे किन्हीं ‘कृष्ण’ का जिक्र करते हैं, जिन्होंने महाविनाश के शस्त्रों के मामले में उनकी आंखें खोलीं. अपनी रिपोर्ट में चे लिखते हैं: ‘वहीं (कलकत्ते में) कृष्ण नाम के एक विद्वान से मुलाकात का मौका मिला. वह एक ऐसा चेहरा था, जो हमारी आज की दुनिया से दूर लगता था. उस निष्कपटता और विनयशीलता के साथ उन्होंने हमसे लंबी बात की, जिसके लिए यह मुल्क जाना जाता है. उन्होंने दुनिया की समूची तकनीकी शक्ति और सामर्थ्य को आणविक ऊर्जा के शांतिप्रिय उपयोग में लगाने की जरूरत पर जोर देते हुए अंतरराष्ट्रीय बहसों की उस राजनीति की भरपूर निंदा की, जो आणविक हथियारों की जखीरेबाजी को समर्पित है.’

जवाहरलाल नेहरू को क्यूबा के मशहूर सिगार भेंट करते चे गेवारा | फोटो प्रभाग

इस संवाद के प्रभाव के वशीभूत चे ने आगे लिखा, ‘भारत में युद्ध नामक शब्द वहां के जन-मानस की आत्मा से इतना दूर है कि वह स्वतंत्रता आंदोलन के तनावपूर्ण दौर में भी उसके मन पर नहीं छाया.’ कलकत्ता के उस मनीषी का जिक्र चे गेवारा ने दो महीने बाद हवाना में फिर किया. आठ सितंबर को सफर से लौटने के ठीक एक घंटे बाद, पत्रकारों से बातचीत करते हुए.

अमेरिका में एक बेहतर कायदा यह है कि तीस साल बाद गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक कर दिए जाते हैं. नाम-स्रोत काली स्याही से ढक कर. पुराने हवाना में एक कबाड़-से बाजार में मुझे एक ऐसा पुलिंदा पुस्तिका की शक्ल में मिला जिसमें चे गेवारा को लेकर अमेरिकी खुफिया एजेंसियों की क्यूबा से भेजी गई सूचनाएं मूल (अमेरिकी फाइल की फोटोप्रति) रूप में संकलित थीं. पुस्तिका दस वर्ष पहले आस्ट्रेलिया में छपी. देखकर आश्चर्य होता है कि उसमें पहला दस्तावेज 1952 का है, जब चे की फिदेल कास्त्रो से मुलाकात तक नहीं हुई थी! उसके बाद उन पर लगातार नजर रखी गई. उस अमेरिकी खुफिया रिपोर्ट से ही पता चला कि भारत के बाद चे पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) भी गए थे, जहां विशेषज्ञों के आने-जाने पर एक करार हुआ.

पुस्तिका में चे की हवाना वाली आठ सितंबर की पत्रकार वार्ता का भी विवरण है. मोर्स पद्धति से अगले रोज अमेरिका भेजी गई दो पेज की रिपोर्ट – जो भाषा और शैली में किसी पत्रकार की खबर जैसी लगती है – में बताया गया है कि कैसे चे ने यूरोप, मध्यपूर्व, एशिया और अफ्रीका की अपनी तीन महीने की यात्रा के अनुभवों का खुलासा किया. भारत के दौरे पर उनका कथन इस तरह उद्धृत है:

कोलकाता में चे गेवारा द्वारा खींची गई तस्वीर | सेंटर फॉर चे स्टडीज

‘क्यूबा के लोगों के प्रति भारत के लोग सहृदय थे. हमने पाया कि वे खेती लायक छोटी-छोटी जमीनों और बड़ी जमींदारियों से पैदा हुई समस्याओं को हल करने का प्रयास कर रहे हैं…एक भारतीय विद्वान कृष्ण से बातचीत करते हुए हमें महाविनाश के साधनों की बुराइयों का बोध हुआ. हिरोशिमा पहुंचने पर उस भयानक सच्चाई को जब हमने अपनी आंखों से देखा तो बड़ी ग्लानि का अहसास हुआ कि कैसे उस वक्त हम लोगों ने खुशी का इजहार किया था, जब लोकतांत्रिक ताकतों ने द्वितीय विश्ययुद्ध के दौरान वहां अणु बम गिराया.’

कोई बता सकता है कृष्ण नामक वे मनीषी कौन थे, जिनसे कलकत्ता में चे गेवारा को ज्ञान मिला? मुझे इस बाबत कहीं से पुख्ता जानकारी नहीं मिली. बहुत-से लोगों का खयाल था कि ‘आज की दुनिया से दूर के चेहरे’ वाले विद्वान शायद जिद्दू कृष्णमूर्ति रहे हों. पर इसकी संभावना नहीं लगती. मैंने बंगलूर कृष्णमूर्ति न्यास में बात की. वरिष्ठ लेखक और यायावर कृष्णनाथ उन दिनों वहीं थे. वहां इसकी पुष्टि नहीं हुई. पुपुल जयकर की लिखी जीवनी के मुताबिक मई 1959 में कृष्णमूर्ति दिल्ली में थे और गर्मी से परेशान होकर तीन महीने के लिए कश्मीर चले गए थे.

हवाना में जब चे के भारत दौरे की रिपोर्ट हासिल की, स्पानी भाषा में थी. थोड़ा भाव पता चल जाता तो वहां कुछ और दरयाफ्त करने का यत्न करता!

जो हो, दूर-देश से आने वाली बहुत सारी हस्तियां भारत से कुछ बोध लेकर गई हैं. चे के स्वीकार में शायद उसी सिलसिले की अनुगूंज है. लेकिन इस मामले में हमें उससे ज्यादा नहीं मालूम जो चे ने खुद लिखा. दुर्भाग्य से देश में मार्क्सवादी समुदाय को भी चे की भारत यात्रा की स्मृति नहीं है. कलकत्ता में भी नहीं. इसकी एक वजह शायद यह हो कि उस वक्त अखबारों में क्यूबा के प्रतिनिधिमंडल के दौरे की छिटपुट खबरें ही छपीं. दिल्ली में ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में जरूर एस मुलगांवकर ने चे की यात्रा को महत्व दिया. उन्होंने दो रोज लगातार पहले पेज पर तस्वीरें छापीं – एक रोज नेहरू के साथ, फिर वीके कृष्ण मेनन के साथ. लेकिन खबरों में औपचारिक बैठक-वार्ताओं का ब्योरा ज्यादा रहा. बस एक शाम एक घंटे के लिए चे के कॉटेज एम्पोरियम जाने का जिक्र एक खबर के बीच में कहीं है.

कलकत्ता के अखबारों में सिर्फ ‘हिंदुस्तान स्टैंडर्ड’ में एक रोज (12 जुलाई को) खबर नहीं, पर चे की तस्वीर छपी – कलकत्ता के अगरपाड़ा के पटसन कारखाने में ‘सदाशय दौरे’ (गुडविल मिशन) पर क्यूबा से आए ‘अर्नेस्तो गेवाने’ (अखबार में प्रूफ की भूल). पांचवें पृष्ठ पर, कारखाने के दौरे के दो दिन बाद.

उन दिनों भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (तब पार्टी एक थी) का बांग्ला दैनिक ‘स्वाधीनता’ वहां से निकलता था. लगा उसमें चे के कलकत्ता दौरे का भरपूर ब्योरा होगा. मेरे आग्रह पर एक वरिष्ठ प्रतिबद्ध लेखक ने जुलाई 1959 के अंकों के साथ ‘स्वाधीनता’ के आगे-पीछे के अंक देख डाले. पार्टी के अखबार ने क्यूबा की क्रांति की खबरें भले बढ़-चढ़ कर छापी हों, गेवारा की यात्रा उसने पूरी तरह गोल कर दी. जबकि चे की यात्रा को पार्टी का अखबार तो बढ़-चढ़ कर प्रचारित कर सकता था. यह बेरुखी क्यों रही, कोई नहीं जानता.

यह जरूर है कि चे कभी कम्युनिस्ट पार्टी से सीधे नहीं जुड़े. वे रूसी साम्यवाद के आलोचक थे. उसे उन्होंने ‘रूसी उपनिवेशवाद’ की संज्ञा दी थी. उन्हें इस पर एतराज था कि कोई साम्यवादी देश तीसरी दुनिया के अविकसित देशों से हथियारों और बाकी सहयोग के लिए ‘मुनाफा’ कैसे कमा सकता है. बाद में चे ने माओ की नीतियों की बहुत तारीफ की. यह कहते हुए कि क्यूबा को अपना साम्यवाद खुद तलाशना होगा. 1965 में अल्जीरिया में एक खुली सभा में चे ने रूसी साम्यवाद की आलोचना की. क्यूबा लौटने पर उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी.

मगर भारत में पांच लोगों का प्रतिनिधिमंडल चे के नेतृत्व में क्यूबा की क्रांति का दूत बनकर आया था. क्या यहां पार्टी का कोई नेता उनसे नहीं मिला? क्यूबा की क्रांति के बाद उसके किसी नायक के पहली बार भारत आने पर कोई स्वागत या अभिनंदन हुआ? पार्टी के अखबार में ही नहीं, चे की अपनी रिपोर्ट में भारत के दस दिन के प्रवास के दौरान किसी साम्यवादी नेता से मुलाकात का हवाला नहीं है. क्या पार्टी को उनसे दूर रहने का इशारा था? उस बेरुखी का ही नतीजा है कि चे की भारत यात्रा कोई पचास साल जनमानस की स्मृति से पूरी तरह गायब रही. आगे जाकर भारत में उन्हें नवाजने वाले साम्यवादियों में भी. मुझे आज भी चे गेवारा के मामले में देश के साम्यवादी दलों का यहा रवैया कम पेचीदा नहीं लगता.

चे गेवारा से जुड़े दिनों में दुनिया भर से आए दिन तरह-तरह के आयोजनों की खबरें आती हैं. इस सच्चाई के बावजूद कि क्रांति के बाद चे की जिम्मेवारी में उन बंदी सैनिकों के साथ नाइंसाफी हुई, जिन पर विद्रोहियों पर जुल्म ढाने के आरोप थे. उन्हें बगैर वाजिब सुनवाई के मौत की सजा दी गई. कुछ कथित ‘गद्दारों’ पर चे ने खुद गोली दागी. उनके चरित्र में यह अंधेरा पहलू रहा.

लेकिन चे की शख्सियत में संघर्ष की दास्तान भी बहुत लंबी है. एक मानवीय चेहरे के साथ. सत्ता धारण कर भले कुछ बदल गए. पर सियरा-माएस्त्रा की पहाड़ियों में, फिदेल के विमत के बावजूद, वे घायल दुश्मन को इलाज के लिए उठा लाते थे. एक दफा फिदेल ने कहा, इसे हमने घायल किया था, ठीक होकर यह हमीं पर बंदूक तानेगा. चे का जवाब था – तब देखेंगे. लड़ाई में जो कमजोर होगा, मारा जाएगा. सब जानते हैं कि एक मकसद के साथ चे ने घर छोड़ा, डॉक्टरी का पेशा छोड़ा, देश छोड़ा, सत्ता छोड़ी और दूसरों के लिए लड़ते हुए अंतत: दुनिया भी. ज्यां पॉल सार्त्र ने चे से मिलने के बाद उन्हें ‘हमारे दौर का सबसे पूर्ण मनुष्य’ कहा था.

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