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कोरोना संकट के दौरान आंकड़ों का यह हाल भविष्य में और बड़े खतरे की चेतावनी है

कोरोना संकट

आंकड़े सच को वजन देते हैं. जाहिर है अगर वे सही न हों तो सच की सटीकता जानना मुश्किल होगा. कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बीच भारत में इस महामारी से जुड़े आंकड़ों को लेकर लगातार सवाल उठ रहे हैं. आरोप लग रहे हैं कि संक्रमण के मामलों से लेकर मरीजों की मौतों तक हर मोर्चे पर इनमें झोल है.

इसे आंकड़ों से ही समझने की कोशिश करते हैं. देश की राजधानी दिल्ली से सटे फरीदाबाद में बीते 16 अप्रैल को स्वास्थ्य विभाग ने बीते 24 घंटे के दौरान कोरोना संक्रमण से तीन मौतों की पुष्टि [1] की. उधर, शहर में होने वाले अंतिम संस्कारों का हिसाब रखने वाले फरीदाबाद नगर निगम के मुताबिक यह संख्या 10 थी. दिल्ली से सटे गाजियाबाद का हाल भी जुदा नहीं है. 22 अप्रैल को एक परिचर्चा [2] के दौरान वरिष्ठ पत्रकार बरखा दत्त का कहना था, ‘जिस शाम मैंने गाजियाबाद में हिंडन किनारे स्थित एक श्मशान घाट पर सिर्फ एक घंटे के दौरान 20 शव देखे, उस पूरे दिन के लिए जिला प्रशासन की तरफ से कुल मौतों की आधिकारिक संख्या आठ बताई गई थी. इससे पहले पूरे अप्रैल के लिए मौतों का आंकड़ा सिर्फ दो था.’

देश के लगभग सभी इलाकों से इस तरह की खबरें [3] आ रही हैं. इनका लब्बोलुआब यह है कि कागजों में उससे कहीं कम मौतें दर्ज की जा रही हैं जितनी असल में हो रही हैं. थोड़ा भावुक होकर यह भी कहा जा सकता है कि मरने के बाद भी कई लोग सरकार के लिए किसी गिनती में नहीं हैं.

जानकारों के मुताबिक भारत में स्वास्थ्य ढांचे का जो हाल है उसमें सामान्य हालात में भी करीब 14 फीसदी मौतें सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज नहीं हो पातीं. फिर इस समय तो हालात असाधारण हैं. और सामान्य परिस्थितियों में भी जो मौतें पंजीकृत होती हैं उनमें से भी सिर्फ 22 फीसदी ऐसी होती हैं जिनमें मौत का आधिकारिक कारण दर्ज किया जाता है. ऐसा इसलिए होता है कि भारत में ज्यादातर लोगों की मौत अस्पतालों में नहीं बल्कि घर या किसी दूसरी जगह पर होती है. कोरोना वायरस की दूसरी लहर में ऐसे लोगों की भी एक बड़ी संख्या है जो घर या एंबुलेंस या फिर अस्पताल के बाहर ही इलाज के इंतजार में दम तोड़ रहे हैं. जानकारों के मुताबिक ऐसे में कोरोना वायरस से होने वाली मौतों के सटीक आंकड़े सामने आना बहुत दूर की कौड़ी दिखता है.

संक्रमण के मामलों की संख्या को लेकर भी हालात इसी तरह के दिखते हैं. जैसा कि सीएनएन [4] से बातचीत में नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर डिजीज डायनेमिक्स, इकॉनॉमिक्स एंड पॉलिसी के निदेशक आर लक्ष्मीनारायण कहते हैं, ‘बीते साल हमारा आकलन था कि अगर करीब 30 लोगों को संक्रमण हो रहा है तो सिर्फ एक ही मामला पकड़ में आ रहा है क्योंकि बाकी की टेस्टिंग नहीं हो पा रही.’

हालांकि पहली के मुकाबले कोरोना वायरस की दूसरी लहर में टेस्टिंग का आंकड़ा काफी बढ़ गया है. मसलन तब अगर रोज पांच लाख लोगों की टेस्टिंग हो रही थी तो आज यह संख्या 20 लाख है. लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो अब भी यह काफी नहीं है. उसके मुताबिक ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है जो संक्रमित हैं लेकिन टेस्टिंग एक सीमा तक ही हो पा रही है, इसलिए उनके संक्रमण की पुष्टि नहीं हो पा रही. ऊपर से यह महामारी अब गांव-देहात में भी फैल गई है जहां टेस्टिंग की सुविधाओं के मामले में हालात और खराब हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसे में संक्रमण के मामलों का असल आंकड़ा उससे 30 गुना तक ज्यादा हो सकता है जितना बताया जा रहा है.

यह मुद्दा अदालतों में भी पहुंच रहा है. बीते महीने ही गुजरात हाई कोर्ट ने राज्य सरकार को नसीहत [5] दी थी कि कोरोना मरीजों और इस महामारी से हो रही मौतों के मामले में वह पारदर्शिता बरते. अदालत का कहना था, ‘सरकार को चाहिए कि वह सही जानकारियों को सार्वजनिक करने की जिम्मेदारी ले ताकि दूसरों को ऐसी जानकारियां मिर्च-मसाला लगाकर फैलाने और लोगों में डर फैलाने से रोका जा सके.’ हाई कोर्ट ने आगे कहा, ‘सही तस्वीर छिपाकर सरकार को कोई फायदा नहीं होगा… सही जानकारियां छिपाई जाएंगी तो इससे और भी गंभीर समस्याएं पैदा होंगी जिनमें डर, विश्वास का खत्म होना और जनता में घबराहट फैलना शामिल हैं.’

वैसे यह हाल सिर्फ भारत का नहीं है. बीते साल आरोप लगे थे कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी इस महामारी से जुड़े आंकड़ों को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं. ये आरोप तब लगे जब ट्रंप प्रशासन ने आदेश [6] दिया कि अस्पताल कोरोना मरीजों से संबंधित आंकड़े राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसी’ सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन’ को नहीं बल्कि सीधे व्हाइट हाउस को भेजें. यह भी कहा गया कि संघीय ही नहीं बल्कि प्रांतीय सरकारें भी अपनी किरकिरी से बचने के लिए आंकड़ों को कम करके बता रही हैं. फ्लोरिडा में तो राज्य के कोरोना वायरस डैशबोर्ड को संभालने वाले एक डेटा साइंटिस्ट को इसलिए नौकरी से निकाल [7] दिया गया कि उसने सरकार पर आंकड़े छिपाने का आरोप लगाया था. विश्लेषकों के मुताबिक अमेरिका जैसे देश में अगर यह हालत है जहां लोकतांत्रिक संस्थाएं इतनी मजबूत हैं तो भारत में क्या हालात होंगे, अंदाजा लगाया जा सकता है.

कई मानते हैं कि आंकड़ों की यह स्थिति उस रवैय्ये का नतीजा है जो मौजूदा सरकार ने कोरोना संकट को लेकर शुरुआत से ही अपना रखा है. उनके मुताबिक सरकार पहले तो इस महामारी को लेकर नकार की मुद्रा में रही और जब मामला हाथ से निकल गया तो वह आंकड़े छिपाकर अपनी फजीहत से बचना चाहती है.

कुछ विश्लेषकों की मानें तो भारत में आंकड़ों के इस मौजूदा संकट का सिरा एक बड़ी और बुनियादी समस्या से जुड़ता है. वरिष्ठ पत्रकार और डेटा जर्नलिज्म की वेबसाइट इंडियास्पेंड.कॉम के संस्थापक गोविंद एथिराज कहते हैं, ‘ये समस्या है डेटा की सटीकता को लेकर लापरवाही के रवैय्ये की, फिर चाहे वह डेटा जीडीपी का हो या रोजगार या बेरोजगारी या फिर किसी और क्षेत्र का.’ उनके मुताबिक इस वजह से भी कोविड से जुड़ा डेटा विश्वास के लायक नहीं है और इसके देश को गंभीर आर्थिक और सामाजिक दुष्परिणाम भुगतने होंगे.

विशेषज्ञों के मुताबिक ये दुष्परिणाम फौरी भी हैं और दीर्घकालिक भी. जैसा कि गोविंद एथिराज कहते हैं, ‘पहली और तात्कालिक समस्या ये है कि हमें इस संकट की प्रकृति का अंदाजा ही नहीं हो पा रहा, इसलिए हमें ये भी पता नहीं चल पा रहा कि हमें क्या करना है और हम जो कर रहे हैं वो सही है या नहीं.’

दूसरी समस्या और ज्यादा गंभीर और दीर्घकालिक है. गोविंद एथिराज अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘ अगर स्वास्थ्य विशेषज्ञों को ये पता न चले कि लोगों की मौत कैसे हो रही है, लोगों की मौत क्यों हो रही है, क्या आयुवर्ग या किसी दूसरे हिसाब से लोगों की मौत का कोई साफ पैटर्न है, क्या मरने वालों को कोई और बीमारी भी थी और थी तो वह क्या थी… जैसा कि आप जानते हैं कि कई मामलों में पहले से मौजूद किसी बीमारी को मौत के मुख्य कारण के रूप में दर्ज किया जा रहा है, तो क्या होगा? ऐसे में जब विशेषज्ञ आगे के लिए योजना बनाने की कोशिश करेंगे, मान लीजिए (कोरोना की) तीसरी लहर से निपटने के लिए योजना बनानी है, तो आप कैसे बताएंगे कि बुनियादी ढांचा किस पैमाने पर चाहिए या फिर लोगों को क्या करने की जरूरत है और क्या नहीं.’

दूसरे विशेषज्ञ भी मानते हैं कि अगर डेटा सही हो तो तैयारी से लेकर मुकाबले तक हर मोर्चे पर महामारियों से निपटने का काम और भी प्रभावी तरीके से हो सकता है. इस डेटा का अध्ययन करके यह जाना जा सकता है कि कहां चूक हुई और आगे रणनीति में क्या बदलाव करने की जरूरत होगी. जैसा कि सीएनएन से बातचीत में महामारी विशेषज्ञ और अमेरिका की मिशिगन यूनिवर्सिटी में प्रोफसर भ्रमर मुखर्जी कहती हैं, ‘गलत आंकड़े सच को बदलते नहीं बल्कि उसे और भयावह बनाते हैं क्योंकि इनसे नीतियां बनाने वाले जरूरतों का सही-सही आकलन नहीं कर पाते.’ लेकिन अगर आंकड़े सही हों तो ऐसा न होने की संभावना बढ़ जाती है. गोविंद एथिराज कहते हैं, ‘अगर पिछली लहर में मरे ज्यादातर लोग डायबिटीज या हाइपरटेंशन के भी शिकार थे और अगर आपको उनकी संख्या के बारे में सटीक जानकारी है तो आप डायबिटीज के मरीजों को कह सकते हैं कि वे दूसरे मरीजों की तुलना में 10 गुना ज्यादा सावधान रहें.’

कई जानकारों के मुताबिक कोरोना संकट के दौरान आंकड़ों का यह हाल देश की छवि भी खराब कर रहा है. गोविंद एथिराज कहते हैं, ‘लोग हम पर यकीन नहीं करते. पहले सब कहा कहते थे कि चीन का डेटा फर्जी है और किसी को पता नहीं कि उस देश में असल में क्या हो रहा है. अब हमें भी दुनिया इसी तरह देख रही है.’

इसलिए कई विश्लेषक मानते हैं कि आंकड़े छिपाकर या फिर उनकी सटीकता सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी से बचकर सरकार हर तरह से अपने लिए गड्ढ़ा ही खोद रही है. ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि अगर आंकड़े सही हों तो सरकार की कार्यकुशलता बढ़ेगी और नतीजतन उस पर लोगों का भरोसा भी बढ़ेगा. लेकिन जानकारों के मुताबिक किरकिरी से बचने के चक्कर में वह इस दीर्घकालिक लाभ पर ध्यान नहीं दे रही. वे यह भी मानते हैं कि अगर भारत में कोरोना की पहली लहर के दौरान इस मोर्चे पर सतर्क रहा जाता तो दूसरी लहर का स्वरूप इतना विकराल न होता.

ऐसे में कोरोना वायरस की तीसरी लहर की आशंका को देखते हुए इस काम में अब और देर नहीं होनी चाहिए. जैसा कि अपनी एक फेसबुक पोस्ट [8] में चर्चित पत्रकार रवीश कुमार लिखते हैं, ‘इस बात का रियल टाइम डेटा होना चाहिए कि अस्पतालों में जितने मरीज़ आ रहे हैं उनमें से कितने लक्षण आने के पांच दिन के भीतर आ रहे हैं, छह दिन के भीतर आ रहे हैं या नौ दिन के भीतर आ रहे हैं. उनकी हालत क्यों बिगड़ी है? उनके आने की वजह क्या है? क्या किसी डाक्टर ने अलग दवा लिखी, क्या किसी डॉक्टर ने जजमेंट ग़लत किया और सही दवा सही समय पर नहीं लिखी या किसी डाक्टर ने पहले ही दिन से पचास दवाएं तो लिख दीं लेकिन जो सबसे ज़रूरी दवा है उसे देने में या तो देरी कर दी या फिर दी ही नहीं? इससे हमें पता चल जाएगा कि क्या नहीं करना है.’ रवीश कुमार यह भी मानते हैं कि इस काम के लिए एक कमांड सेंटर बनना चाहिए.

हालांकि सरकार अब भी सही दिशा में काम करने से ज्यादा अपनी छवि का प्रबंधन करने की कोशिश [9] करती नजर आ रही है.