किसान ट्रैक्टर रैली, दिल्ली पुलिस

राजनीति | पुलिस

जो आम आदमी को भी दिखता है वह दिल्ली पुलिस को नज़र क्यों नहीं आता?

बीते साल हुए दिल्ली दंगों के बाद अब किसान आंदोलन में भी दिल्ली पुलिस की भूमिका पर कई सवाल उठ रहे हैं

अंजलि मिश्रा | 31 जनवरी 2021 | फोटो: ट्विटर

बीते लगभग तीन महीनों से दिल्ली से जुड़े राज्यों की सीमाओं पर लाखों किसान तीन नए कृषि कानूनों के खिलाफ लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं. एक लंबे समय से से ये विशालकाय प्रदर्शन शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से चल रहे थे. किसानों का यह महाआंदोलन 26 जनवरी की सुबह तब अपने चरम को छूता दिखाई दिया जब लाखों किसान दिल्ली की बाहरी सड़कों पर ट्रैक्टर परेड की शुरूआत कर रहे थे. लेकिन गणतंत्र दिवस की दोपहर होते-होते यह रैली कुछ जगहों पर हिंसक होती दिखाई दी. इस दौरान किसानों के कुछ जत्थे पहले से तय रास्तों से अलग जाते देखे गए. पुलिस पहले जरूरी नहीं करते दिखने के बाद दिल्ली में अंदर तक घुसे किसानों को बाद में अपनी सारी ताकत लगाकर भी रोक पाने में असमर्थ देखी गई. और फिर लाल किले पर किसानों के एक समूह ने निशान साहिब (सिख धर्म का पवित्र झंडा) फहरा दिया और दिल्ली के आईटीओ चौक पर एक किसान की जान चली गई. किसान परेड के दौरान कई किसान और पुलिस के जवान घायल हुए और सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान भी हुआ.

यह पूरा घटनाक्रम टीवी पर चलने वाली सनसनीखेज खबरों के लिए बढ़िया ईंधन साबित हुआ. तमाम नेताओं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों समेत आम लोगों ने भी किसान आंदोलन के हिंसक हो जाने की जमकर निंदा की. शुरूआत से ही आंदोलन की आलोचना कर रहे और इसे देशद्रोहियों-आतंकवादियों-खालिस्तानियों का गिरोह बता रहे एक खास राजनीतिक रुझान के लोगों ने सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ कड़ी टिप्पणियां कीं. दूसरी तरफ किसान नेताओं, संगठनों और आंदोलन के समर्थकों ने इसमें बाहरी तत्वों के घुस जाने और इसके पीछे साजिश होने की बातें दोहराईं. इन सबके बीच सबसे दिलचस्प बात दिल्ली पुलिस ने कही जो कुछ इस आशय की थी कि ‘हमने नेकनीयत से किसानों को शांतिपूर्ण रैली करने की इज़ाज़त दी थी लेकिन उन्होंने हमारे साथ धोखा किया है.’ घटना के अगले दिन मीडिया से बात करते हुए दिल्ली पुलिस कमिश्नर एसएन श्रीवास्तव का यह भी कहना था कि उन्हें 25 जनवरी को ही पता चल गया था कि किसान दिल्ली में घुसने के बाद उपद्रव करने वाले हैं लेकिन पुलिस को किसान नेताओं की तरफ से शांतिपूर्ण रैली का आश्वासन मिला था, इसलिए इसे रोका नहीं गया.

26 जनवरी को हुए घटनाक्रम के अगले दिन आया दिल्ली पुलिस का यह बयान सुनने में ही विचित्र लगता है. जैसा कि पुलिस कमिश्नर श्रीवास्तव दावा करते हैं, अगर उन्हें पहले से उपद्रव की जानकारी थी तो उन्होंने परेड की अनुमति क्यों दी? और अगर दी तो उपद्रव की आशंका होने पर भी इसकी इजाजत देने के बाद वे इतने निश्चिंत कैसे हो गये कि सुरक्षा और व्यवस्था के जितने और जैसे इंतजाम होने चाहिए थे, वैसे नहीं किये, वह भी गणतंत्र दिवस पर? क्या दिल्ली पुलिस को अंदाज़ा नहीं था कि जब लाखों किसान ट्रैक्टर लेकर दिल्ली की सड़कों पर होंगे तो उसके क्या-क्या परिणाम हो सकते हैं? क्या किसी आम आदमी की तरह भी दिल्ली पुलिस यह अंदाज़ा नहीं लगा सकती थी कि आंदोलन में शरारती तत्व शामिल होकर हुड़दंग मचा सकते हैं या भीड़ ही किसी बात पर भड़क सकती है? और कुछ नहीं तो यह तो हो ही सकता था कि पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश से आए ग्रामीण किसान दिल्ली में रास्ता भूल जाएं और उसके कारण कोई अफरा-तफरी मच जाए. ये तमाम आशंकाएं जो आम आदमी को भी दिखाई देती हैं, वह दिल्ली पुलिस को नज़र क्यों नहीं आईं? दिल्ली पुलिस आज भी क्या इस बात का कोई जवाब दे पा रही है कि जो किसान दो महीने से ज्यादा समय से इतनी सर्दी में, इतना शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे वे अचानक हिंसा पर कैसे उतर आए?

वैसे यह तो साफ ही है कि इतने लोगों को न तो रोक पाना आसान था और न ही उन्हें संभाल पाना. लेकिन पुलिस जो कर सकती थी वह तो करते दिख सकती थी. वह उपद्रव की इतनी जानकारी होने के बाद परेड को इजाजत देने से परहेज कर सकती थी और इसे न मानने पर किसानों को परेड निकालने से रोकने का काम कर सकती थी. और ऐसा करना अति का बलप्रयोग किये बिना या इसके बाद भी संभव न होने पर केंद्र सरकार को इसके बारे में सूचित कर सकती थी (पहले भी हरियाणा और दिल्ली की पुलिस किसानों को दिल्ली तक पहुंचने से रोकने में असफल हो चुकी थीं). या फिर पुलिस इजाजत देने के बाद कम से कम किसानों को अपने तय रास्ते से हटते वक्त रोकने का उचित प्रयास तो कर ही सकती थी. लेकिन न तो दिल्ली पुलिस ने परेड को रोका, न उसमें शामिल लोगों को सही समय पर, ठीक तरह से, गलत रास्तों पर जाने से. अगर 26 जनवरी को दिल्ली में जो और जितना हो सकता था वह और उतना नहीं हुआ तो क्या उसका श्रेय पुलिस को दिया जा सकता है? जितने किसान दिल्ली में घुसे थे उसका अगर एक हिस्सा भी अपनी मर्जी से वापस न जाने के बजाय उपद्रव ही करना चाहता या लाल किले के सामने ही धरने पर बैठना चाहता तो क्या उन्हें इस तरह से दिल्ली से बाहर भेजा जा सकता था!

26 जनवरी को न तो पुलिस ऐसा कुछ करते हुए दिखी जिसमें कुछ विशेष झलकता हो, न ही उसे निर्देशित करने वाला राजनीतिक नेतृत्व जिसके पास इस मसले से निपटने की असली ताकत थी. जब यह शीशे की तरह साफ था कि न तो लाखों किसानों को रोकने का परिणाम अच्छा होने वाला है और न उन्हें दिल्ली में परेड करने की इजाजत देने का तो फिर सवाल यह उठता है कि इसका कुछ भी करके कोई राजनीतिक हल निकालने की कोशिश क्यों नहीं की गई? क्या ऐसा कुछ भी नहीं किया जा सकता था कि किसान ट्रैक्टर रैली निकालने की योजना रद्द कर देते? क्या प्रधानमंत्री के सीधे किसानों से बात करने या बात करने की तारीख तय करने की बात से किसानों को ट्रैक्टर रैली रद्द करने के लिए नहीं मनाया जा सकता था? जब एक शहर और सैकड़ों लोगों के जीवन का सवाल जैसी असाधारण स्थिति थी तो क्या सुलह का कोई असाधारण और असामान्य सा तरीका नहीं ढूंढ़ा जा सकता था? क्या यह सिर्फ कानून-व्यवस्था का मसला था जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने इस परेड को रोकने के लिए कोई आदेश न देते हुए कहा था, या फिर एक ऐसी असाधारण स्थिति जिसने सरकार को इसे रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट का सहारा लेने के लिए मजबूर कर दिया था?

आश्चर्य की बात यह है कि ऐसा तब हुआ जब बीते ही साल, ऐसे ही आंदोलनों के बाद दिल्ली दंगों का शिकार बन चुकी है. कायदे से अभी इस बात को पूरा एक साल भी नहीं बीता है जब दिल्ली में नए नागरिकता कानून (सीएए) का समर्थन और विरोध करने वाले लोगों की आपसी भिड़ंत हिंसक संघर्षों में बदल गई थी. ये दंगे कैसे शुरू हुए, हिंसा कई दिनों तक क्यों होती रही, इसका सच किस-किस तरह से बाहर आया और उसमें दिल्ली पुलिस की क्या भूमिका रही, उसे निष्पक्ष होकर देखा जाए तो दिल्ली पुलिस अपने सबसे बुरे चेहरे में दिखाई देती है. तब उठा सबसे बड़ा सवाल यह था कि पुलिस ने सीएए समर्थक गुटों को विरोधी गुटों तक पहुंचने क्यों दिया, वह भी तब जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत की यात्रा पर थे. बीते साल जहां ट्रंप की यात्रा को लेकर दिल्ली की सुरक्षा चुस्त होनी चाहिए थी, वहीं इस साल मौका गणतंत्र दिवस का था जो सुरक्षा के लिहाज से बेहद संवेदनशील माना जाता है. लेकिन कई लोगों को दिल्ली पुलिस इस बार भी उतनी ही ‘अनप्रोफेशनल और पॉलिटिकल’ दिखाई दी.

साल 2015 के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली में पुलिस बल की संख्या लगभग 85 हजार है. इनमें से दस हजार को स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप और वीवीआईपी-वीआईपी सुरक्षा जैसे मंत्रालय, निवास, एम्बेसी आदि के लिए इस्तेमाल किया जाता है. यानी इसके बाद बचे लगभग 75 हजार पुलिसकर्मियों पर दिल्ली के नागरिकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी है. इसके अलावा, दिल्ली पुलिस देश में उपलब्ध सबसे बेहतरीन तकनीक, नेटवर्क और बाकी सुविधाओं से भी लैस है. इतना सब होने के बावजूद वह जब भी ऐसा कोई मौका आता है, सुरक्षा व्यवस्था बनाए रखने और हिंसा रोकने में असमर्थ दिखाई पड़ती है. इससे भी बुरा यह है कि ऐसा करने के साथ-साथ वह पक्षपाती भी नजर आती है.

दिल्ली दंगों के बाद तमाम ऐसे वीडियोज आए थे जिनमें पुलिस सीएए के समर्थन में नारेबाज़ी करते हुए पत्थर फेंकने, तोड़-फोड़ करने और आग लगाने वालों के पीछे खड़ी नज़र आई थी, कुछ मौकों पर वह ऐसे कारनामों में शामिल भी दिखाई दी थी. 26 जनवरी के टकराव के बाद लड़खड़ाए किसान आंदोलन के मामले में भी कई लोगों को वह ऐसा ही करती दिखाई दी. 29 जनवरी को जब सिंघु बॉर्डर और टीकरी बॉर्डर पर चल रहे विरोध प्रदर्शनों के पास खुद को ‘लोकल’ बताने वाले कुछ लोग वहां पहुंचकर नारेबाज़ी करने लगे तब भी पुलिस का कुछ ऐसा ही रवैया देखने को मिला. कई मीडिया रिपोर्टें बताती हैं कि प्रदर्शन स्थल से एक किलोमीटर पहले ही आम लोगों, यहां तक दिल्ली जल बोर्ड के टैंकरों और बाकी सुविधाओं को भी रोक देने वाली पुलिस ने लगभग 200 लोगों की इस भीड़ को प्रदर्शनकारियों तक पहुंचने से नहीं रोका. इसके बाद टीकरी बॉर्डर पर जहां केवल ‘देश के इन गद्दारों को…’ सरीखे नारे ही लगाए गये वहीं सिंघु बॉर्डर पर किसानों के टेंट्स में तोड़फोड़ और हिंसा भी हुई. दोनों ही जगहों पर आई भीड़ का कहना था कि वे तिरंगे के अपमान का बदला लेने के लिए वहां पर आए हैं.

यहां पर भी कुछ सवाल किए जा सकते हैं, पहला यह कि हजारों आंदोलनकारियों से भरे प्रदर्शन स्थल पर नारेबाज़ी और तोड़फोड़ करने वाले दो सौ लोगों को जाने देकर पुलिस क्या करना चाहती थी? क्या वह चाहती थी कि प्रदर्शनकारी भी इसके जवाब में कुछ करें और इस बहाने उसे आंदोलन को खत्म करने का बहाना मिल जाए? अगर जैसा कि पुलिस कह रही है कि किसान आंदोलन में उपद्रवी तत्व भी मौजूद हैं, तो क्या वह उन 200 लोगों की सुरक्षा के साथ समझौता नहीं कर रही थी? यहां एक बात किसानों द्वारा तिरंगे के अपमान के बारे में भी पूछी जा सकती है? आखिर जिस तिरंगे को लेकर किसान महीनों से आंदोलन कर रहे हैं, उसका उन्होंने कब और कैसे अपमान कर दिया है? लाल किले पर निशान साहिब फहराने की घटना को किसी और लिहाज से सही-गलत कहा जा सकता है लेकिन यह तिरंगे का अपमान कैसे हो सकती है? वहां न तो तिरंगे को हटाकर निशान साहिब को फरहाया गया और न ही उसे तिरंगे से ऊंचे स्थान पर लगाया गया. यहां पर इस बात का भी जिक्र किया जा सकता है कि सेना की सिख रेजीमेंट तमाम मौकों पर भारतीय तिरंगे के साथ इसे फहराती रही है.

चाहे दिल्ली के दंगे हों या 26 जनवरी की किसान परेड, यह माना जा सकता है कि सड़क पर खड़े किसी पुलिसकर्मी के पास उचित कार्रवाई के आदेश न रहे हों जिसके इंतज़ार में या तो वह चुपचाप खड़ा रहा या केवल लाठियां भांजता रहा. लेकिन यही बेचारगी पुलिस के उच्च-अधिकारियों से लेकर उस केंद्रीय गृह मंत्रालय तक के रवैये में दिखाई देती है जिसके अधीन दिल्ली पुलिस है.

जब भी पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन करने की बात कही जाती है, हमेशा ऐसा न करने के लिए कई महत्वपूर्ण और जायज़ कारणों को गिनाया जाता है: मसलन, दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र है, तमाम महत्वपूर्ण लोगों और विदेशी नागरिकों की उपस्थिति के चलते इसकी सुरक्षा संवेदनशील मुद्दा भी है. सुरक्षा व्यवस्था गृह मंत्रालय के जिम्मे होने पर केंद्रीय एजेंसियों के साथ उसका तालमेल बेहतर होगा. जबकि मामला राज्य से जुड़ने पर इसमें थोड़ा वक्त लग सकता है. लेकिन जब सही मायनों में संवेदनशील परिस्थितियां सामने आती हैं तो ऐसा देखने को नहीं मिला और एक बार नहीं एक साल में दो-दो बार ऐसा हुआ. दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के जिम्मे है और देश की सबसे बड़ी खुफिया एजेंसियां भी. और दिल्ली देश की राजधानी भी है जहां प्रधानमंत्री से लेकर, गृह मंत्री, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहते हैं और इन खुफिया एजेंसियों के मुख्यालय भी यहीं हैं. लेकिन इसके बाद भी अगर दिल्ली पुलिस को न तो फरवरी 2020 में यह पता लग पाता है कि दिल्ली में क्या होने वाला है और न 26 जनवरी को वह एक सक्षम संस्था के तौर पर दिखाई देती है, तो इसे किस तरह से लिया जाए!

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