भाजपा के पितृसंगठन आरएसएस के वैचारिक गुरू माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर का यह भी मानना था कि सरकार की आलोचना सबसे जरूरी देशहित है
सत्याग्रह ब्यूरो | 05 जून 2021 | फोटो: golwalkarguruji.org
यह बात किसी से छिपी नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की एक राजनीतिक शाखा है. इस पार्टी के अधिकतर बड़े नेता, फिर चाहे वे अटल बिहारी वाजपयी हों या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, सक्रिय राजनीति में आने से पहले आरएसएस के प्रचारक रहे हैं. यह कहना ग़लत न होगा कि भाजपा के शरीर में उसके पितृसंगठन संघ की ही रूह बसती है.
हम सभी यह जानते हैं कि माधवराव सदाशिवराव गोलकर या ‘गुरूजी’ आरएसएस के वैचारिक एवं बौद्धिक गुरु हैं. उनके विचार आज भी संघ का मार्गदर्शन करते हैं. उनकी पुस्तक ‘अ बंच ऑफ़ थॉट्स’ संघ के लिये आज भी प्रेरणास्रोत मानी जाती है. अगर हम गुरूजी के राजनीतिक विचारों और उनकी अपने समय के राजनीतिज्ञों की आलोचनाओं पर ध्यान दें तो पायेंगे कि आज की भाजपा उनसे शायद ही प्रभावित है.
मिसाल के तौर पर गोलवलकर की पुस्तक के खंड तीन के 24वें अध्याय – ‘फाइट टू विन’ – पर नजर डालते हैं जो उन्होंने भारत-चीन युद्ध के दौरान लिखा था.
‘जब हम अपने महान नेताओं को ये सब बताने लगते हैं तो वे कहते हैं कि देश की इस मुश्किल घड़ी में सरकार की आलोचना न कीजिये’ गुरू गोलवलकर सरकार की आलोचना को देशहित में सबसे ज़रूरी बताते हुए लिखते हैं, ‘क्या वे ये चाहते हैं कि हम उनके हर निर्णय को शत-प्रतिशत सही मान लें? क्या ऐसी चापलूसी से देश का कोई भला हो सकता है? यदि उनकी सारी पालिसी और निर्णय ठीक होंगे तो खुद ही कोई आलोचना नहीं करेगा. दूसरी ओर अगर उनमें कोई ख़ामी है तो देशभक्त नागरिक होने के नाते यह हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उनको ग़लती का अहसास कराकर उन्हें सही करें.’
अब इसकी तुलना आज की भाजपा सरकार से कीजिये जहां हम आये दिन सुनते हैं कि फलां मंत्री, सांसद या विधायक ने सरकार की आलोचना करने वालों को देशद्रोही कह दिया. भाजपा नेताओं के ये बयान उस संस्कार से मेल खाते नहीं दिखते जो गुरूजी उन्हें सिखाना चाहते थे. गोलवलकर तो यहां तक लिखते हैं, ‘यह तथ्य कि हमारे नेता आलोचना के इतना ख़िलाफ़ हैं यह समझने में मदद करता है कि उनको आलोचना की ज़रूरत है.’ गुरूजी की मानें तो ईमानदार लोगों की आवाज़ दबाना स्टालिन और हिटलर की तानाशाही जैसा ही है. वे यह भी याद दिलाते हैं कि उनकी तानाशाही अधिक समय तक न टिक सकी थी और आज उनको कोई अच्छे नाम से याद नहीं करता.
दूसरा फ़र्क जो गुरूजी की शिक्षा से आज की भाजपा में देखने को मिल रहा है वह यह है कि गुरूजी व्यक्तित्व पंथ या ‘पर्सनैलिटी कल्ट’ के बिलकुल खिलाफ थे. आज यह बात जगज़ाहिर है कि किस प्रकार भाजपा के छोटे-बड़े सभी नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिये ‘भक्ति’ की हद तक जा पहुंचे हैं. उनकी मानें तो नरेंद्र मोदी न तो कुछ ग़लत कर सकते हैं और न ही उन्होंने कभी ऐसा किया है.
उधर, गोलवलकर उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के बारे में लिखते हैं, ‘हम प्रधानमंत्री की इज्ज़त करते हैं और मानते हैं कि वे एक महान वैश्विक नेता हैं. परन्तु हम उनकी चापलूसी नहीं कर सकते, न ही उनके हर कदम को हमेशा सही मान सकते हैं.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘व्यक्तित्व पंथ न केवल हमारे समाज और संस्कृति से बाहर का है, यह राष्ट्र-हितों को नुकसान भी पहुंचाता है.’
इसे समझाने के लिये वे दो उदाहरण देते हैं. उनके अनुसार पानीपत के तीसरे युद्ध में जब सदाशिवराव भाऊ हाथी से उतरकर घोड़े पर बैठे तो दिखाई न देने के कारण उनकी सेना को लगा कि उनकी मौत हो गयी. इससे सेना का मनोबल टूट गया और वह तितर-बितर हो गयी. ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि यहां एक व्यक्ति ही प्रेरणास्रोत था न कि कोई विचारधारा. दूसरी ओर, मराठों का कोई भी प्रतिनिधि राजा शिवाजी की मौत के 20 बरस बाद तक भी उनके बीच मौजूद नहीं था. संभाजी की हत्या हो चुकी थी. शाहू मुगलों की कैद में थे. और राजाराम भी जिंजी में नज़रबंद ही थे. तब भी बीस साल तक मराठे औरंगज़ेब की मौत तक उसकी सेना से लड़ते रहे. क्योंकि उनका प्रतिनिधित्व कोई व्यक्ति नहीं बल्कि एक विचार कर रहा था.
गुरूजी विचार को किसी भी व्यक्ति से ऊपर रख कर देखते थे और उनके अनुसार व्यक्ति विशेष का अनुयायी होने से विचारों की लड़ाई को भारी धक्का पहुंचता है. लेकिन आज की भाजपा इस पाठ को भूल हर तरह से यह मनवाने में लगी हुई है कि कुछ चुने हुए व्यक्तियों द्वारा लिया हुआ हर फ़ैसला न केवल सही होता है बल्कि केवल वही देश का उद्धार कर सकता है.
और एक चीज़ ख़ासतौर पर नोटबंदी और कोरोना महामारी के संदर्भ में याद रखने वाली है. नोटबंदी के समय जहां एक ओर सरकार आम जनता को धैर्य का पाठ पढ़ा रही थी और कम खर्च करने को कह रही थी तो दूसरी तरफ उसके अपने कई नेता ही ऐसा नहीं कर रहे थे. नितिन गडकरी व अन्य दिग्गज नेता खुलेआम शादी इत्यादि पर पैसा बहा रहे थे जबकि जनता से कहा जा रहा था कि वह संयम बरते. गुरूजी इस संबंध में लिखते हैं,’ ‘बेशक ये आमतौर पर जनता को किफ़ायत करने को कहते हैं. लेकिन जिस तरह से वे ख़ुद फ़िजूलखर्ची कर रहे हैं उससे लगता है कि देश के सामने कोई ख़ास समस्या है ही नहीं.’
ऐसा ही कोरोना महामारी के समय भी देखा गया. एक ओर सरकार दो गज दूरी और मास्क जरूरी जैसे संदेशों पर जोर दे रही थी और दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित सत्ताधारी पार्टी के कई नेता चुनावों में लाखों की भीड़ देखकर प्रफुल्लित होते दिख रहे थे.
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि गुरू गोलवलकर के साहित्य को क़रीब से पढ़ा जाये तो ऐसे कई मौके आयेंगे जब लगेगा कि भाजपा वैचारिक रूप से उनकी शिक्षाओं से बहुत दूर निकल गई है.
साक़िब सलीम
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