इमरजेंसी पर जाने-माने समाजवादी चिंतक सुरेंद्र मोहन का यह लेख 1985 में कलकत्ता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ में प्रकाशित हुआ था
सत्याग्रह ब्यूरो | 25 जून 2020 | फोटो: फ्लिकर
इमरजेंसी यानी आपातकाल की घोषणा के बाद 1975 में बहुत चालाकी और भोंडेपन के साथ चुनाव संबंधी नियम-कानूनों को संशोधित किया गया. इंदिरा गांधी की अपील को सुप्रीम कोर्ट में स्वीकार करवाया गया ताकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनके रायबरेली संसदीय क्षेत्र से चुनाव रद्द किए जाने के फैसले को उलट दिया जाए. साफ है कि आपातकाल की घोषणा केवल निजी फायदों और सत्ता बचाने के लिए की गई थी. इसीलिए श्रीमती गांधी ने जब राष्ट्रपति से आपातकाल की घोषणा करने का अनुरोध किया तो उन्होंने अपने मंत्रिमंडल तक की सलाह नहीं ली. आपातकाल लगाने के जिन कारणों को इंदिरा गांधी सरकार ने अपने ‘श्वेतपत्र’ में बताया, वे नितांत अप्रासंगिक हैं.
सबसे ज्यादा शिकार राजनेता हुए
आपातकाल की घोषणा के पहले ही सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी के आदेश दे दिए गए थे. बंदियोंं में लगभग सभी प्रमुख सांसद थे. उनकी गिरफ्तारी का उद्देश्य संसद को ऐसा बना देना था कि इंदिरा गांधी जो चाहें करा लें. उन दिनों कांग्रेस को अपनी पार्टी में भी विरोध का डर पैदा हो गया था. इसीलिए जब जयप्रकाश नारायण सहित दूसरे विपक्षी नेताओं को गिरफ्तार किया गया तो कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्य चंद्रशेखर और संसदीय दल के सचिव रामधन को भी गिरफ्तार कर लिया गया.
साधारण कार्यकर्ताओं की बात जाने दीजिए बड़े नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना भी उनके रिश्तेदारों, मित्रों और सहयोगियों को नहीं दी गई. उन्हें कहां रखा गया है इसकी भी कोई खबर नहीं दी गई. दो महीने तक मिलने-जुलने की कोई सूरत न थी. बंदियों को तंग करने, उनको अकेले में रखने, इलाज न कराने और शाम छह बजे से ही उन्हें कोठरी में बंद कर देने के सैकड़ों उदाहरण हैं. आपातकाल के पहले हफ्ते में ही करीब 15 हजार लोगों को बंदी बनाया गया. उनकी डाक सेंसर होती थी और जब मुलाकात की अनुमति भी मिली तो उस दौरान खुफिया अधिकारी वहां तैनात रहते थे. कहना न होगा कि ऐसे हालात में जेल के अफसरों का व्यवहार कैसा रहा होगा. वास्तव में ये अफसर स्वयं डरे हुए थे.
हवालातों में पुलिस दमन के शिकार अक्सर वे कार्यकर्ता हुए जो सत्याग्रह का संचालन करते हुए प्रचार सामग्री तैयार करते और बांटते थे. पुलिस अत्याचारों की बहुत-सी मिसालें हैं. सत्याग्रहियों और भूमिगत कार्यकर्ताओं को उनके सहयोगियों के नाम जानने, उनके ठिकानों का पता लगाने, उनके कामकाज की जानकारी हासिल करने के उद्देश्य से बहुत तंग किया गया. रात को भी सोने न देना, खाना न देना, प्यासा रखना या बहुत भूखा रखने के बाद बहुत खाना खिलाकर किसी प्रकार आराम न करने देना, घंटों खड़ा रखना, डराना-धमकाना, हफ्तों-हफ्तों तक सवालों की बौछार करते रहना जैसी चीजें बहुत आम थीं.
केरल के राजन को तो मशीन के पाटों के बीच दबाया तक गया. उसकी हड्डियों तक को तोड़ डाला गया. दिल्ली के जसवीर सिंह को उल्टा लटकाकर उसके बाल नोंचे गए. ऐसे लोगों को क्रूरता से ऐसी गुप्त चोटें दी गईं, जिसका कोई प्रमाण ही न रहे. बेंगलुरू में लारेंस फर्नांडिस (जॉर्ज फर्नांडिस के भाई) की इतनी पिटाई की गई कि वह सालों तक सीधे खड़े नहीं हो पाए. एक नवंबर, 1975 को राष्ट्रमंडल सम्मेलन में जिन छात्रों ने परचे बांटे, उन्हें भी बुरी तरह से पीटा गया. इस दौरान दो क्रातिकारियों किश्तैया गौड़ और भूमैया को फांसी दे दी गई.
महिला बंदियों के साथ भी अशोभनीय व्यवहार किया गया. जयपुर (गायत्री देवी) और ग्वालियर (विजयाराजे सिंधिया) की राजमाताओं को असामाजिक और बीमार बंदियों के साथ रखा गया. श्रीलता स्वामीनाथन (राजस्थान की कम्युनिस्ट नेता) को खूब अपमानित किया गया. मृणाल गोरे (महाराष्ट्र की समाजवादी नेता) और दुर्गा भागवत (समाजवादी विचारक) को पागलों के बीच रखा गया. महिला बंदियों के साथ गंदे मजाक की शिकायतें भी मिलीं.
संविधान और कानून को खूब तोड़ा-मरोड़ा गया
इंदिरा गांधी को सबसे पहले राजनारायण के मुकदमे पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले और सुप्रीम कोर्ट के अंतरिम फैसले का निबटारा करना था. इसलिए इन फैसलों को पलटने वाला कानून लाया गया. साथ ही इसका अमल पूर्व काल से लागू कर दिया. संविधान को संशोधित करके कोशिश की गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष पर जीवन भर किसी अपराध को लेकर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. इस संशोधन को राज्यसभा ने पारित भी कर दिया लेकिन इसे लोकसभा में पेश नहीं किया गया. सबसे कठोर संविधान का 42वां संशोधन था. इसके जरिए संविधान के मूल ढांचे को कमजोर करने, उसकी संघीय विशेषताओं को नुकसान पहुंचाने और सरकार के तीनों अंगों के संतुलन को बिगाड़ने का प्रयास किया गया.
इमरजेंसी के दौरान श्रीमती गांधी ने संविधान को तोड़ने-मरोड़ने का बहुत प्रयास किया और इसमें उन्हें तात्कालिक सफलता भी मिली. आपातकाल के पहले हफ्ते में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया. ऐसा करके सरकार ने कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को रोक दिया गया. जनवरी 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया. इससे अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ बनाने और सभा करने की आजादी को छीन लिया गया. राष्ट्रीय सुरक्षा काननू (रासुका) तो पहले से ही लागू था. इसमें भी कई बार बदलाव किए गए.
रासुका में 29 जून, 1975 के संशोधन से नजरबंदी के बाद बंदियों को इसका कारण जानने का अधिकार भी खत्म कर दिया गया. साथ ही नजरबंदी को एक साल से अधिक तक बढ़ाने का प्रावधान कर दिया गया. तीन हफ्ते बाद 16 जुलाई, 1975 को इसमें बदलाव करके नजरबंदियों को कोर्ट में अपील करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया. 10 अक्टूबर, 1975 के संशोधन द्वारा नजरबंदी के कारणों की जानकारी कोर्ट या किसी को भी देने को अपराध बना दिया गया.
मीडिया का उत्पीड़न
आपातकाल लगते ही अखबारों पर सेंसर बैठा दिया गया था. सेंसरशिप के अलावा अखबारों और समाचार एजेंसियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार ने नया कानून बनाया. इसके जरिए आपत्तिजनक सामग्री के प्रकाशन पर रोक लगाने की व्यवस्था की गई. इस कानून का समर्थन करते हुए तत्कालीन सूचना और प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने कहा कि इसके जरिए संपादकों की स्वतंत्रता की ‘समस्या’ का हल हो जाएगा. सरकार ने चारों समाचार एजेंसियों पीटीआई, यूएनआई, हिंदुस्तान समाचार और समाचार भारती को खत्म करके उन्हें ‘समाचार’ नामक एजेंसी में विलीन कर दिया. इसके अलावा सूचना और प्रसारण मंत्री ने महज छह संपादकों की सहमति से प्रेस के लिए ‘आचारसंहिता’ की घोषणा कर दी.
अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ का प्रकाशन रोकने के लिए बिजली के तार तक काट दिए गए. इस बात का पूरा प्रयास किया गया कि नेताओं की गिरफ्तारी की सूचना आम जनता तक न पहुंचे. जहां कहीं पत्रकारों ने इस पहल का विरोध किया उन्हें भी बंदी बनाया गया. पुणे के साप्ताहिक ‘साधना’ और अहमदाबाद के ‘भूमिपुत्र’ पर प्रबंधन से संबंधित मुकदमे चलाए गए. बड़ोदरा के ‘भूमिपुत्र’ के संपादक को तो गिरफ्तार ही कर लिया गया. लेकिन सबसे ज्यादा तंग ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को किया गया. अखबार की संपत्ति पर दिल्ली नगर निगम द्वारा कब्जा कराके उसे बेचने का भी प्रयास किया गया. सरकार की कार्रवाइयों से परेशान होकर इसके मालिकों ने सरकार द्वारा नियुक्त अध्यक्ष और पांच निदेशकोंं को अंतत: स्वीकार कर लिया. इसके बाद अखबार के तत्कालीन संपादक एस मुलगांवकर को सेवा से मुक्त कर दिया गया.
‘स्टेट्समैन’ को तो जुलाई 1975 में ही बाध्य किया गया कि वह सरकार द्वारा मनोनीत निदेशकों की नियुक्ति करे. लेकिन कलकत्ता हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. उसके बाद प्रबंध निदेशक ईरानी पर मुकदमा चलाने के लिए उस मामले को उठाया गया जो दो साल पहले ही सुलझ गया था. सरकार के इसमें असफल रहने पर ईरानी के पासपोर्ट को जब्त करने का आदेश दिया गया.
आपातकाल के दौरान अमृत नाहटा की फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ को जबरदस्ती बर्बाद करने की कोशिश हुई. किशोर कुमार जैसे गायक को काली सूची में रखा गया. ‘आंधी’ फिल्म पर पाबंदी लगा दी गई.
महज आर्थिक आपातकाल कहकर भ्रम फैलाया गया
पक्ष और विपक्ष को दबाने के बाद सरकार ने दो और काम किए. पहला, आर्थिक नीति में मनचाहा परिवर्तन और दूसरा, श्रमिकों के बुनियादी अधिकारों को कम करना. इसलिए आपातकाल का सबसे ज्यादा समर्थन पूंजीपतियों की संस्था ‘फिक्की’ (भारतीय वाणिज्य और उद्योग परिसंघ) ने किया. संशोधन के बाद न्यूनतम बोनस को 8.33 प्रतिशत से घटाकर केवल चार प्रतिशत कर दिया गया. एलआईसी और उसके कर्मचारियों के बीच औद्योगिक विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को संसद से बदल दिया गया. निजी क्षेत्रों की तरक्की के लिए सामान के आयात की छूट दी गई और कंपनियों पर कर भार को घटा दिया गया. बहुराष्ट्रीय कंपनियों से अनुरोध किया गया कि वे भारत में निवेश करें क्योंकि यहां सस्ती मजदूरी और अनुशासित मजदूर हैं. इस दौरान जहां कहीं मजदूर हड़ताल हुई, वहां दमनचक्र चला. जनवरी 1976 में सिर्फ पश्चिम बंगाल में ही बोनस कानून में संशोधन का विरोध करने पर 16 हजार मजदूर गिरफ्तार किए गए.
सरकार का दमनचक्र केवल मजदूरों को अनुशासित करने के लिए ही नहीं बल्कि जनता की आवाज दबाने के लिए भी चला. सरकार ने सभी तौर-तरीके अपना कर नागरिक अधिकारों का हनन किया. आरंभ मेंं उसे आर्थिक आपातस्थिति तक ही सीमित रखने की बात कही गई. लेकिन यह केवल भ्रम पैदा करने के लिए किया गया था.
वकीलों और जजों को भी नहीं बख्शा गया
इंदिरा गांधी के शासन ने नागरिकों के साथ जो दुर्व्यवहार, अन्याय और अत्याचार किया उसमें नागिरक अधिकारों की रक्षा करने वाले वकीलों को भी नहीं बख्शा गया. वकीलों को खासकर बार काउंसिल के अध्यक्ष राम जेठमलानी को सबक सिखाने के लिए संसद के कानून द्वारा अटॉर्नी जनरल को इसका अध्यक्ष बना दिया गया. जिन 42 जजों ने नजरबंदियों के मुकदमों में न्यायसंगत फैसले दिए या देने की कोशिश् की, उन सबका तबादला कर दिया गया. इससे जहां यह बात सामने आती है कि आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी की नीति कितनी अधिक सख्त थी. वहीं यह भी साबित होता है कि उच्च पदों पर बैठे लोगों ने भी अपनी आत्मा की आवाज को अनसुना कर दिया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने बिना दंड के जेल में न रखे जाने के अधिकार को छीनने की सरकार की कोशिश को असफल कर दिया.
अल्पसंख्यकों की जबरन नसबंदी
परिवार नियोजन के लिए अध्यापकों और छोटे कर्मचारियों पर सख्ती की गई. लोगों का जबरदस्ती परिवार नियोजन भी किया गया. परिवार नियोजन और दिल्ली के सुंदरीकरण के नाम पर अल्पसंख्यकों का काफी उत्पीड़न किया गया. दिल्ली में सैकड़ों घरों को बुलडोजरों की मदद से जबरन तोड़कर वहां रह रहे लोगों को शहर से 15-20 किलोमीटर दूर पटक दिया. उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर, सुल्तानपुर और सहारनपुर, हरियाणा में पीपली के अलावा दूसरे स्थानों पर इसके लिए लाठियां और गोलियां भी चलाई गई. जिस किसी ने भी विरोध किया उसे गिरफ्तार कर लिया गया.
भ्रष्टाचार कम होने की बात गलत
आपातकाल में अफसरशाही और पुलिस को जो अनियंत्रित अधिकार प्राप्त हुए उनका बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया. हालांकि प्रचार था कि इमरजेंसी के दौरान भ्रष्टाचार कम हुआ, लेकिन दो-तीन महीने के बाद हालात पहले से भी ज्यादा खराब हो गए. सत्ता के शीर्ष पर बैठे संजय गांधी के साथी भ्रष्टाचार में लिप्त थे. जिस किसी ने संजय गांधी की बात नहीं मानी उसे शिकंजे में फंसा लिया गया. इसी असाधारण स्थिति में इंदिरा गांधी ने हेमवतीनंदन बहुगुणा, नंदिनी सत्पथी और सिदार्थ शंकर रे को उनके पद से हटा दिया. संजय ने मारुति के नाम पर काफी रुपया जमा किया और काफी अनियमितताएं बरतीं. पूंजीपतियों और कारोबारियों को मजबूर करके पैसे बटोरे गए. उन पर गलत आरोप लगाकर मुकदमे चलाए गए और पुलिस कार्रवाई भी की गई.
आखिरकार जनता ने सबक सिखाया
इस तरह इमरजेंसी के दौरान सरकार ने जीवन के हर क्षेत्र में आतंक का माहौल पैदा कर दिया था. इन सभी काले कारनामों के कारण जनता ने 1977 में एकजुट होकर न केवल कांग्रेस बल्कि इंदिरा गांधी को भी धूल चटा दी. इस तरह जनता ने लोकतंत्र में अपनी आस्था का सबूत दे दिया. आज इमरजेंसी को भुलाने की कोशिश की जाती है लेकिन हमें उन काले दिनों के अनुभवों को नहीं भूलना नहीं चाहिए. उन अनुभवों से ही हम वे सबक सीखते हैं जिनसे हमारा लोकतंत्र और मजबूत बनेगा.
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