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हमें लोक सभा और राज्य सभा के साथ-साथ एक धर्म सभा की भी जरूरत है

विश्व धर्म संसद

धर्म-संसद

कई वर्ष पहले बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद, दार्शनिक और आध्यात्मिक चिन्तक रामचंद्र गांधी ने लोक सभा, राज्य सभा के अलावा एक तीसरी धर्म सभा स्थापित करने का सुझाव दिया था. इधर चूंकि धर्म का और धर्म में राजनीति का हस्तक्षेप बहुत बढ़ गया है, इस सुझाव पर गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है. हमें इस तथाकथित धर्मनिरपेक्ष धारणा से मुक्त होने की जरूरत है कि धर्मों पर विचार करना या उनमें आपसी संवाद को बढ़ावा देना ज़रूरी नहीं है. हमें धर्म की अनदेखी करने की नहीं, उससे जुड़े लोगों को ज़िम्मेदार और जवाबदेह बनाने की ज़रूरत है. धर्म-संसद या धर्म सभा इसके लिए एक स्थायी मंच हो सकती है.

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इस प्रस्ताव को अमल में लाने का काम ग़ैर-राजनैतिक और ग़ैर सरकारी स्तर पर होना चाहिये. एक सम्भावना तो यह है कि भारत में सभी आठ-नौ धर्मों के धर्मनेता मिलकर ऐसा साझा प्रस्ताव करें और ऐसी संसद या सभा स्थापित करें. दूसरी यह कि उनसे याने सभी धर्मों से ऐसा करने का आग्रह भारत के कुछ प्रमुख बुद्धिजीवी-चिन्तक-लेखक-कलाकार आदि करें. इस सभा की कार्यसूची में प्रमुख रूप से उन क़दमों पर विचार कर आम सहमति बनाना हो जिससे देश में सब धर्मों के बीच सद्भाव, आदर और सहकार बढ़े. दूसरा मुद्दा यह हो सकता है कि यह संसद या सभा इस पर विचार करे कि स्वतंत्रता-समता-न्याय की संवैधानिक मूल्य-त्रयी को चरितार्थ करने के लिए विभिन्न धर्म अपनी प्रथाओं, अनुष्ठानों, व्यवहार, चिन्तन आदि में परिवर्तन-परिवर्द्धन-संशोधन के लिए आवश्यक क़दम उठाने पर राज़ी हों. धर्मों के नाम पर देश में जो अत्याचार-शोषण आदि होते हैं उन पर यह संसद या सभा कड़ी नज़र रखे और अपने पूजास्थलों के कर्मचारियों आदि को व्यापक सेवाकार्य और धार्मिक सद्भाव फैलाने के लिए दीक्षित करे.

धर्म संसद ऐसे क़दम भी उठाये जिनसे साधारण लोगों और विशेषतः युवा वर्म में सभी धर्मों की प्रामाणिक जानकारी प्रसारित होती रहे. यह संसद इस बात को भी बार-बार रेखांकित करती रहे कि हमारे सभी धर्मों में बहुलता है, हमारा देश धार्मिक बहुलता का देश है और इस बहुलता का आदर किया जाना चाहिये. जातिप्रथा और उसमें निहित अन्याय, विषमता, धर्मान्तरण आदि पर भी इस संसद में खुला विचार होना चाहिये. इस संसद को धर्मों के लिए एक आचरण-संहिता विकसित करनी चाहिये जिसमें उनके राजनैतिक उपयोग को बाधित किया गया हो. धर्मों को यह समझना चाहिये कि हम अपने राष्ट्रीय जीवन में ऐसे मुक़ाम पर पहुंच गये हैं कि लग रहा है कि राजनीति, बाज़ार, मीडिया के अलावा हमें धार्मिक अतिचार से भी बचने की ज़रूरत है.

धर्मारण्य

अगर प्रताप भानु मेहता जैसे प्रखर और निर्भीक बुद्धिजीवी ने एक स्वतन्त्र और सुविश्लेषित समीक्षा लिखकर न्यूयार्क में रहने वाले मूल केरलवासी अर्थशास्त्री कीर्तिक शशिधरण के अंग्रेज़ी उपन्यास की ओर ध्यान न खींचा होता तो मैं उसे इतनी जल्दी मंगाकर न पढ़ता. उपन्यास का नाम है ‘दि धर्म फ़ारेस्ट’ (धर्मारण्य) और पेंगुहन ने इसे पिछले वर्ष ही प्रकाशित किया है. महाभारत जैसे महाकाय महाकाव्य का पुनर्कथन होने के कारण यह इस बृहद् उपन्यास का पहला भाग है जिसमें 515 पृष्ठ हैं, दो भाग आगे और आयेंगे.

महाभारत को पढ़ने, उसके उपाख्यानों को लेकर नयी कृतियां लिखने, अनेक कलाओं में उसके प्रसंगों को प्रस्तुत करने की लम्बी परम्परा है. यह महाकाव्य इतना अर्थ-समृद्ध और अर्थ-बहुल है कि हर व्याख्या या पुनराविष्कार उसके एक महान् और अक्षय सन्दर्भ-स्रोत होने की व्यापक जनश्रुति की पुष्टि करते हैं. इस संस्करण को उपन्यासकार ने कृष्णा और उसके आखेटक जरा के बीच संवाद से शुरू किया है जो अवतारी पुरुष की अन्तिम सन्ध्या है. फिर भीष्म, द्रौपदी और अर्जुन की जीवन-गाथाएं याद की गयी हैं.

चूंकि अभी यह उपन्यास पढ़ ही रहा हूं इसके बारे में निश्चयात्मक रूप से कुछ कहना अभी कठिन और अनुचित है. पर इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि उसे पढ़ते हुए अपनी जातीय स्मृतियां जाग और सघन हो रही हैं. अंग्रेज़ी में भी युद्धस्थल, घायल सैनिकों के आर्तनाद, कटे-फटे अंगों आदि सभी के ब्यौरे बहुत बारीकी से दिये गये हैं: उस समय बल्कि उस मिथकीय समय का पूरा निरंतर खिसकता हुए चित्र चरितार्थ होता चलता है. हम अपने भयग्रस्त समय और उस युद्धध्वस्त समय में एक साथ हो जाते हैं. बखान का कमाल यह है कि आप युद्ध के बिम्ब और छवियां पढ़ते हुए एक ऐसे कल्पनालोक में चले जाते हैं जो लगभग जादुई ढंग से आपको आज का यथार्थ लगने लगता है. महाकाव्य इसी अर्थ में कालातीत और कालजयी होते हैं: महाभारत तो निश्चय ही ऐसा है. युद्ध की अनिवार्यता, उसकी विडम्बनाएं और संशय, उसका हाहाकार और ध्वंस, उसमें व्यक्त शौर्य और दुराचरण और अन्ततः युद्ध की व्यर्थता महाभारत इन सबको समेटता है. जो बच सकता था वह भी बचाया नहीं जाता या जा पाता: मनुष्य की अपना ही नाश करने की इच्छा कारणहीन ही होती है, भले उसके लिए कोई बहाना क्यों न खोज लिया जाये.

महाभारत मनुष्यों की वैध्यता को उसके विभिन्न रूपों में उजागर करता है. राज्य, राजधर्म, नीति, छल-कपट, मुक्ति और मृत्यु, वचन और वचनभंग सभी पर तीख़ी रोशनी पड़ती है. सचाई धुंधलाती-धुंधुआती है, जलती और राख होती है, फिर जीवित होती और छा जाती है. यह जनश्रुति सही जान पड़ती है कि जो महाभारत में नहीं है, वह कहीं नहीं है!

बेरूख़ी

यह थोड़ा विचित्र है कि हम पर औपनिवेशिक ज़हनियत इस क़दर हावी होती रही है कि स्वतंत्रता पाने के सत्तर बरसों बाद भी, उससे मुक्ति के आवश्यक चरण के रूप में, हमने अरबी और फ़ारसी के सौन्दर्यशास्त्रों को जानने की कोई कोशिश नहीं की है. पश्चिमी शास्त्रों के मुक़ाबले ये हमारे पड़ोस के शास्त्र हैं. उन दोनों के साहित्य और कलाओं का हम पर गहरा प्रभाव भी रहा है. विशेषतः फ़ारसी सौन्दर्यशास्त्र का, कविता, संगीत, ललित कला आदि में. कुछ भी हो, हमारे सर्जनात्मक अवचेतन में यह विश्वास गहरे पैठा है कि पश्चिमी शास्त्र सार्वभौमिक शास्त्र हैं और बाक़ी अधिक से अधिक क्षेत्रीय.

इसका एक और प्रमाण यह भी है कि स्वयं भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की धारणाओं और युक्तियों का, विश्लेषण-पद्धतियों का हम अपनी आधुनिक आलोचना में कितना कम इस्तेमाल करते हैं. हालत तो यह है कि उनका ज़िक्र करते ही आप पर प्रतिक्रियावादी होने के आरोप लगने लगेंगे. यह गहरी आत्मग्लानि और आत्मक्षति दोनों एक साथ है. भारतीय सौन्दर्यशास्त्र को संस्कृत विशेषज्ञों पर छोड़ देना और उसकी कई तरह से हमारे सृजन में उपस्थिति और सक्रियता की अनदेखी करना, कुल मिलाकर, घातक है. यह अपनी परम्परा और उसके उत्तराधिकार पर अपना दावा थोड़ देना है. अगर संगीत और नृत्य में शास्त्रीयता सहज स्वीकार्य है तो साहित्य में क्यों नहीं? इसके लिए यह कुतर्क नहीं चलेगा कि साहित्य, संगीत और नृत्य की तुलना में, अधिक सामाजिक या प्रगतिशील है.