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क्या किसान आंदोलन मोदी सरकार के लिए वही साबित हो सकता है जो अन्ना आंदोलन यूपीए के लिए हुआ था?

किसानों का विरोध प्रदर्शन

खेती-बाड़ी से जुड़े मोदी सरकार के तीन कानूनों के विरोध में राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों को एक महीने से ज्यादा का वक्त गुजर चुका है. पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों के ये किसान मांग कर रहे हैं कि इन तीनों कानूनों को वापस लिया जाए. उधर, सरकार का रुख अभी तक यही रहा है कि कानून वापस तो नहीं होंगे, लेकिन उनमें कुछ सुधार हो सकता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना [1] है कि सरकार किसानों के साथ खुले दिल से चर्चा के लिए तैयार है. विपक्ष पर निशाना साधते हुए हाल में उन्होंने यह भी कहा कि जिन लोगों को जनता ने नकार दिया है वे किसानों को गुमराह कर रहे हैं.

केंद्र सरकार के खिलाफ हाल के कई विरोध प्रदर्शनों के उलट किसान आंदोलन ने कहीं बड़ी अनुगूंज पैदा की है. यही नहीं, वक्त के साथ इसका दायरा भी फैलता जा रहा है. इसे समाज के दूसरे वर्गों का समर्थन भी मिलने लगा है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह आंदोलन मोदी सरकार के लिए वैसा ही साबित हो सकता है जैसा करीब एक दशक पहले भ्रष्टाचार के विरोध में उभरा अन्ना आंदोलन यूपीए सरकार के लिए हुआ था. माना जाता है कि अन्ना आंदोलन ने ही 2014 के आम चुनाव में भाजपा की विजय का रास्ता साफ किया था.

यह सवाल इसलिए भी पूछा जा सकता है कि गौर से देखने पर दोनों आंदोलनों की कई बातें मिलती-जुलती लगती हैं. अन्ना आंदोलन यूपीए सरकार के दुबारा सत्ता में आने के करीब डेढ़ साल बाद शुरू हुआ था. वह सरकार 2009 के आम चुनाव में 2004 के मुकाबले और मजबूत होकर सत्ता में आई थी. किसान आंदोलन भी 2019 के आम चुनाव में मोदी सरकार की पिछले चुनाव से भी बड़ी जीत के लगभग डेढ़ साल बाद ही उभरा है. अन्ना आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया ने बहुत अहम भूमिका निभाई थी. कमोबेश ऐसा ही किसान आंदोलन के साथ भी है.

इसके अलावा अन्ना आंदोलन में सरकार की प्रतिक्रिया पहले उपेक्षा, फिर सख्ती और इसके बाद बातचीत की थी. किसान आंदोलन के मामले में भी अब तक लगभग यही हुआ है. दो महीने पंजाब और हरियाणा में किसान प्रदर्शन करते रहे. लेकिन जब उनकी नहीं सुनी गई तो उन्होंने दिल्ली की ओर कूच कर दिया. इसके बाद उन्हें रोकने के लिए राजधानी की सीमा पर कड़े इंतजाम किए गए. बैरीकेडिंग से लेकर पानी की बौछार और आंसू-गैस जैसे तमाम तरीकों का सहारा लिया गया. इसके बाद भी जब किसान पीछे नहीं हटे तो सरकार थोड़ा नरम हुई और उन्हें दिल्ली के बुराड़ी इलाके में प्रदर्शन की इजाजत दी गई. हालांकि किसानों ने शहर की सीमा पर ही डेरा डाल दिया और एक महीने से वे वहीं जमे हुए हैं.

अब तक सरकार और किसानों के बीच बातचीत के छह दौर हो चुके हैं. अगली बातचीत चार जनवरी को होनी है. 31 दिसंबर को हुई छठे दौर की बातचीत [2] में सरकार ने किसानों की चार में से दो मांगें मान ली हैं. ये सिंचाई के लिए सब्सिडी वाली बिजली और पराली जलाने से जुड़े कानूनी प्रावधानों को लेकर हैं. हालांकि मुख्य मांगों यानी तीनों कानूनों को वापस लेने और एमएसपी की गारंटी के लिए कानून बनाने पर गतिरोध बना हुआ है. छठे दौर की बातचीत के बाद किसान मजदूर संघर्ष कमेटी के नेता सुखविंदर सिंह का कहना था, ‘सरकार को कानून और एमसपी के बारे में बात करनी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने बात नहीं की… हम चाहते हैं कि वो जल्दी तीनों कानून रद्द करें न कि हमें समझाएं.’

अन्ना आंदोलन में सरकार की प्रतिक्रिया पहले उपेक्षा, फिर सख्ती और इसके बाद बातचीत की थी. किसान आंदोलन के मामले में भी अब तक लगभग यही हुआ है. दो महीने पंजाब और हरियाणा में किसान प्रदर्शन करते रहे. लेकिन जब उनकी नहीं सुनी गई तो उन्होंने दिल्ली की ओर कूच कर दिया.

कई लोग मानते हैं कि किसानों के इस आंदोलन ने मोदी सरकार के सामने अब तक की सबसे बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है. इसकी मुख्य वजह यह है कि देश की 60 फीसदी से ज्यादा आबादी अब भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से खेती से जुड़ी है. इसमें भाजपा के वोटरों का भी एक बड़ा वर्ग है. यही वजह है कि पार्टी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार का इस आंदोलन पर वैसी सख्ती बरतना मुश्किल है जैसी उसने कुछ समय पहले नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के विरोध में हुए आंदोलन के दौरान बरती थी. जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता कहते [3] हैं, ‘आप उनको जबरन नहीं हटा सकते जैसा कि आपने शाहीन बाग मामले में किया था.’

लेकिन पीछे हटने यानी नरमी बरतने के भी अपने खतरे हैं. जैसा कि अपने एक लेख [4] में ओपी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी से जुड़े प्रोफेसर मोहसिन खान लिखते हैं, ‘मध्यमार्गी शक्तियों के उलट दुनिया भर में दक्षिणपंथी ताकतें दृढ़ता को सम्मान के साथ जोड़कर देखती हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपने वोटरों के बीच लोकप्रियता का आधार भी यही है. पीछे हटने का मतलब कमजोरी और तिरस्कार होता है. इसलिए मौजूदा संकट सरकार की कोर अपील पर चोट कर रहा है. यही वजह है कि उसके सामने मौजूद विकल्पों में से कोई भी आसान नहीं है.’ मोहसिन खान के मुताबिक इसलिए यह आंदोलन मोदी सरकार के राजनीतिक कौशल की असल परीक्षा है.

कई अन्य जानकार भी मानते हैं कि शुरुआत में सख्ती दिखाने के बाद सरकार का रुख नरम कर लेना बताता है कि यह चुनौती उसके लिए कितनी बड़ी है. सीएए सहित अपने किसी भी हालिया फैसले को लेकर उसने अब तक ऐसा नहीं किया है. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज में प्रोफेसर अजय गुडावर्थी के मुताबिक सरकार के लिए इधर कुआं, उधर खाई वाली स्थिति है. एक साक्षात्कार [5] में वे कहते हैं, ‘न तो प्रधानमंत्री सीधे-सीधे किसानों के खिलाफ जाते दिख सकते हैं और न ही वे कानून वापस ले सकते हैं.’ उनके मुताबिक नरेंद्र मोदी ने अपनी आक्रामक और किसी की परवाह न करने वाले राजनेता की छवि बनाई है और अगर वे कानून वापस लेने पर राजी हो जाते हैं तो यह उस छवि पर बड़ी चोट होगी.

मोहसिन खान यह भी मानते हैं कि अगर सरकार किसानों की मांगें मान लेती है तो उससे नाराज मजदूर संघों, सरकारी कर्मचारियों और ऐसे दूसरे वर्गों के लिए भी रास्ता खुल जाएगा. लेकिन अगर वह आगे बढ़ती है और ताकत का इस्तेमाल करती है तो किसानों के प्रति सहानुभूति और समर्थन में तेजी आएगी. उस स्थिति में भी मजदूरों सहित वे दूसरे वर्ग इन किसानों के साथ आ सकते हैं जो सरकार से असंतुष्ट हैं.

तो सवाल है कि ऐसे में सत्ता प्रतिष्ठान क्या कर सकता है. इस तरह के आंदोलनों के खिलाफ उसकी एक रणनीति सोशल मीडिया के जरिये उनके खिलाफ माहौल बनाने की भी रही है. जानकारों के मुताबिक सीएए विरोधी आंदोलन को ही लें तो पहले हिंदू-मुस्लिम, पाकिस्तान, देशविरोधी गैंग जैसे कार्ड इस्तेमाल कर सोशल मीडिया पर इसके खिलाफ माहौल तैयार किया गया. भाजपा के नेताओं की तरफ से भी इस तरह के कई बयान आए. इसके बाद सख्ती का इस्तेमाल कर इसे खत्म करने की कोशिश की गई.

दिल्ली के टिकरी बॉर्डर पर किसान आंदोलन में शामिल महिलाएं | फोटो: ट्विटर/योगेंद्र यादव

लेकिन बहुत से लोग मानते हैं कि मौजूदा आंदोलन में इस तरह के कार्ड चलने की गुंजाइश कम है. उनके मुताबिक इसकी वजह यह है कि किसान एक समुदाय के तौर पर देश के हर इलाके और वर्ग को अपने साथ जोड़ता है. इसलिए आंदोलन भले ही पंजाब-हरियाणा के किसानों ने शुरू किया हो, लेकिन धीरे-धीरे इससे देश के दूसरे इलाकों के किसान भी जुड़ते जा रहे हैं. जानकारों के मुताबिक दूसरी बात यह है कि सीएए के खिलाफ आंदोलन में सबसे बड़ी हिस्सेदारी मुस्लिम वर्ग की थी जिसे राष्ट्रवाद के नाम पर निशाना बनाना आसान था. उसके साथ दूसरे वर्गों का इस कदर समर्थन भी नहीं था. लेकिन किसानों के मामले में ऐसा नहीं है.

इसके अलावा इस आंदोलन की कमान पंजाब के किसानों के हाथ में है जो संसाधनों से समृद्ध हैं. हालांकि इसके चलते सोशल मीडिया पर आंदोलन को खालिस्तान समर्थक ताकतों से जोड़ने की कोशिशें जरूर हुईं. यह भी कहा गया कि महंगी गाड़ियां लेकर दिल्ली आने वाले ये अमीर किसान गरीबों और मजूदरों का शोषण करते हैं. और यह भी कि उनके इस आंदोलन की वजह से आम आदमी को तकलीफ उठानी पड़ रही है. भाजपा के कई नेताओं की तरफ से भी इस तरह के बयान आए. लेकिन शेखर गुप्ता सहित कई टिप्पणीकार मानते हैं कि आंदोलन की साख खत्म करने के इन प्रयासों का वैसा असर नहीं होता दिखा जैसा सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान दिखा था.

एक वर्ग के मुताबिक सरकार की दूसरी रणनीति इंतजार करके दूसरे पक्ष को थकाने की हो सकती है. ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब कर्जमाफी सहित कई मांगों के साथ दिल्ली आए तमिलनाडु के किसान तीन महीने से ज्यादा समय तक धरना-प्रदर्शन के बाद वापस लौट गए थे. हालांकि जानकार मानते हैं कि इस बार दिल्ली आए पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के साथ इस रणनीति का भी सफल होना मुश्किल है. वह इसलिए कि इन किसानों से बात करने और उनकी तैयारियां देखने पर अंदाजा हो जाता है कि अगर लड़ाई लंबी चली तो वे इसके लिए पूरी तरह तैयार होकर आए हैं. दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर लगे जमावड़े में तंबुओं से लेकर रजाई-गद्दों, रोटी बनाने वाली मशीनों और लॉन्ड्री सर्विस जैसे तमाम इंतजाम हैं. ऊपर से दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार भी उनकी काफी मदद कर रही है. इसके अलावा दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों के पास अभी वक्त की भी कमी नहीं है क्योंकि सरसों और गेहूं की बुआई के बाद उनके पास मार्च-अप्रैल तक ठीक-ठाक फुरसत होती है.

दिल्ली में इस समय कड़ाके की ठंड पड़ रही है. अब तक विरोध प्रदर्शन के दौरान दम तोड़ने वाले 25 किसानों में से ज्यादातर की मौत की वजह मौसम को ही बताया [6] जा रहा है. लेकिन इसका किसानों के इरादों पर कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा. चर्चित समाचार वेबसाइट द अटलांटिक [7] से बातचीत में कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, ‘किसानों के लिए यह जिंदगी और मौत का सवाल है. वे जानते हैं कि उनके लिए हर हाल में मुश्किल है सो क्यों न वह मुश्किल यहीं (दिल्ली में) झेली जाए.’

तो वापस मूल सवाल पर लौटते हैं कि क्या मोदी सरकार पर किसान आंदोलन का वही असर होगा जो यूपीए सरकार पर अन्ना आंदोलन का हुआ था. कइयों के मुताबिक ऐसा होना मुश्किल है. वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई मानते हैं कि इसकी वजह वे फर्क हैं जो दोनों आंदोलनों को अलग-अलग करते हैं. अपने एक लेख [8] में वे कहते हैं, ‘अब तक ऐसा कोई संकेत नहीं है कि मध्य वर्ग इस आंदोलन का समर्थन कर रहा है. भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन से मध्य वर्ग खुद को तुरंत ही जुड़ा महसूस करने लगा था.’ यह जुड़ाव यूपीए सरकार के उन घोटालों की वजह से संभव हुआ था जो उन दिनों एक के बाद एक करके सामने आ रहे थे. लेकिन इस आंदोलन से वह कड़ी गायब है.

अन्ना आंदोलन की ताकत इस बात से भी बढ़ी थी कि तब विपक्ष में मौजूद भाजपा के साथ-साथ उसका पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इसका समर्थन कर रहा था. जमीन पर संघ परिवार की व्यापक सांगठनिक मौजूदगी ने न सिर्फ इस आंदोलन की ताकत बढ़ाने बल्कि इसे राजनीतिक रूप से भुनाने में भी भाजपा की मदद की.

राजदीप सरदेसाई सहित कई मानते हैं कि भ्रष्टाचार के विरोध में उठा अन्ना आंदोलन इसलिए ही इतना बड़ा हो सका कि उसे सबसे ज्यादा समर्थन उस मध्य वर्ग से मिला जिसकी ताकत बाजार की शक्तियों के चलते आज के भारत में सबसे ज्यादा है. इस वर्ग के लिए भ्रष्टाचार एक भावनात्मक मुद्दा है. जानकारों के मुताबिक यही वजह थी कि देखते ही देखते भारत के तमाम शहर जंतर-मंतर बन गए क्योंकि इस वर्ग की ज्यादातर आबादी इन शहरों में ही रहती है.

लेकिन इस बार ऐसा होता नहीं दिखता. राजदीप के मुताबिक इसकी एक वजह यह है कि भारत का शहरी मध्य वर्ग मुक्त बाजार की तरफ ले जाने वाले सुधारों का प्रबल पक्षधर है, इसलिए उसे यह बात समझ में नहीं आ रही कि किसान को सरकार से एमएसपी जैसी सुरक्षा क्यों चाहिए. वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन अपने एक लेख [9] में कहते हैं, ‘किसानों की लड़ाई कहीं ज़्यादा तीखी है. बेशक, उन्हें उन तमाम वर्गों का समर्थन मिल रहा है जो कई अलग-अलग वजहों से पहले से ही मोदी सरकार से नाराज और निराश हैं, लेकिन मोदी पर भरोसा करने वाला जो प्रचंड बहुसंख्यक समर्थन है, वह अब भी सरकार के साथ बना हुआ है?’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘यानी इस आंदोलन के सामने एक संकट अपनी बात उस ताकतवर भारत तक पहुंचाने का भी है जो कुछ सुनने को तैयार नहीं है.’ अन्ना आंदोलन के सामने यह मुश्किल नहीं थी.

एक वर्ग के मुताबिक अन्ना आंदोलन की ताकत इस बात से भी बढ़ी थी कि तब विपक्ष में मौजूद भाजपा के साथ-साथ उसका पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी इसका समर्थन कर रहा था. जमीन पर संघ परिवार की व्यापक सांगठनिक मौजूदगी ने न सिर्फ इस आंदोलन की ताकत बढ़ाने बल्कि इसे राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक रूप से भुनाने में भी भाजपा की मदद की. कई मानते हैं कि आज विपक्ष में बैठी कांग्रेस और उसका नेतृत्व उस स्थिति में नहीं दिखते कि वे इस आंदोलन की ताकत को इस कदर बढ़ा सकें या फिर सरकार से नाराज वर्ग ही उन्हें विकल्प के रूप में देख सके. इसके अलावा आम चुनाव अभी बहुत दूर है. जैसा कि दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर प्रकाश सिंह कहते [5] हैं, ‘अगर ये चुनाव का साल होता तो कहानी कुछ और होती.’

एक और बात जो अन्ना आंदोलन को किसान आंदोलन से जुदा करती है वह है मीडिया की भूमिका. अन्ना आंदोलन के दिनों में मीडिया का सरकार के खिलाफ माहौल बनाने में बड़ा योगदान था. टीम अन्ना के सदस्य देश के हीरो बन गए थे. राजदीप सरदेसाई सहित कई मानते हैं कि अब मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सरकार के साथ गठजोड़ में है जिसका ध्यान विपक्ष को घेरने पर ज्यादा रहता है.

तो फिर किसान आंदोलन का आखिर में क्या होगा? प्रियदर्शन के मुताबिक लोकतंत्र में किसी राजनीतिक पहल के अभाव में अंततः आंदोलन या तो भटक जाते हैं या सीमित लक्ष्यों के साथ ख़त्म हो जाते हैं या फिर इन आंदोलनों का फ़ायदा कोई और उठा ले जाता है. फिलहाल किसान आंदोलन के कर्ता-धर्ताओं ने राजनीतिक नेताओं को मंच न देने का फैसला किया है. लेकिन प्रियदर्शन मानते हैं कि सरकार को झुकाने के लिए देर-सवेर इस आंदोलन को अपने पक्ष का विस्तार करना ही होगा. उनके मुताबिक आंदोलन भले ही किसी पार्टी का समर्थन न करे, लेकिन उसे विभिन्न मसलों पर अपनी एक राय विकसित करनी होगी.

कई दूसरे जानकार भी यह बात माेनते हैं. वे अन्ना आंदोलन का उदाहरण देते हैं जिसकी प्रकृति स्पष्ट रूप से राजनीतिक थी. उसकी अगुवाई करने वालों ने राजनेताओं के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ था और वे अपना लक्ष्य राजनीति का शुद्धिकरण बता रहे थे. इनमें शामिल अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव और उनके कुछ दूसरे साथियों ने बाद में आम आदमी पार्टी बना ली जिसके पास आज दिल्ली की सत्ता है. दूसरी तरफ, किरण बेदी और स्वामी रामदेव जैसी हस्तियों ने खुद को भाजपा से जोड़ लिया जिसने अन्ना आंदोलन का लाभांश राष्ट्रीय स्तर पर लिया. इसलिए कई मानते हैं कि मौजूदा आंदोलन जब तक कोई राजनीतिक चुनौती नहीं बनता तब तक सरकार को उससे खतरा नहीं है.

वैसे जिस तरह यह आंदोलन आगे बढ़ रहा है उसमें इसकी सफलता की संभावनाएं देखते हुए प्रियदर्शन लिखते हैं, ‘अगर यह आंदोलन लंबा चला तो यह तीन कानून वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य को अनिवार्य बनाने की मांग भर नहीं रह जाएगा, यह निर्णयों और नीतियों के निर्धारण में भागीदारी का आंदोलन भी बन जाएगा, यह लगभग स्वेच्छाचार की ओर बढ़ती सरकार को याद दिलाने का आंदोलन भी बन जाएगा कि लोकतंत्र सिर्फ चुनावों में हासिल की जाने वाली रणनीतिक सफलता का नाम नहीं है, उसकी कसौटियां और भी होती हैं.’