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क्या ममता बनर्जी नंदीग्राम से चुनाव हार भी सकती हैं?

ममता बनर्जी

पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में नंदीग्राम सीट सबसे ज्यादा चर्चा में है. इस सीट पर राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चुनाव लड़ रही हैं. वे पिछले दो चुनावों से कोलकाता की भवानीपुर सीट से चुनाव लड़ रही थीं, लेकिन इस बार उन्होंने भवानीपुर छोड़कर नंदीग्राम जाने का निर्णय ले लिया. तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की मुखिया के इस फैसले से लोग इसलिए हैरान हुए क्योंकि उन्होंने भवानीपुर छोड़कर एक ऐसी सीट से चुनाव लड़ने का फैसला किया जहां उनका मुकाबला बेहद ताकतवर माने-जाने वाले सुवेंदु अधिकारी से है.

बीते दिसंबर माह तक सुवेंदु अधिकारी तृणमूल कांग्रेस में ही थे और ममता बनर्जी के सबसे करीबी नेताओं में से एक माने जाते थे. लेकिन, ममता बनर्जी के भतीजे और लोकसभा सांसद अभिषेक बनर्जी से नाराजगी के चलते उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया [1] और भाजपा में शामिल हो गए. हालांकि, यह भी कहा जाता है कि पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित शारदा चिटफंड घोटाले में जेल जाने के डर से सुवेंदु अधिकारी ने भाजपा का दामन थामा. इस घोटाले में उनके भी शामिल होने के आरोप लगते रहे [2] हैं.

नंदीग्राम विधानसभा सीट पर सुवेंदु अधिकारी की ताकत की बात करें तो यह सीट बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले में आती है. यह जिला और इसके आसपास के क्षेत्र पहले वामपंथ के गढ़ माने जाते थे लेकिन बीते करीब 12 सालों से यहां अधिकारी परिवार का राजनीतिक वर्चस्व है. पूर्वी मिदनापुर की कांथी सीट से सुवेंदु के पिता और टीएमसी के दिग्गज नेता शिशिर अधिकारी सांसद हैं. शिशिर अधिकारी मनमोहन सिंह सरकार में ग्रामीण विकास राज्य मंत्री भी रह चुके हैं. पूर्वी मिदनापुर में ही आने वाले तामलुक लोकसभा क्षेत्र से सुवेंदु अधिकारी के भाई दिव्येंदु अधिकारी सांसद हैं. इस सीट से दो बार (2009 और 2014 में) सुवेंदु भी सांसद रह चुके हैं. लेकिन 2016 में जब वे नंदीग्राम से विधायक बने तो उन्होंने तामलुक लोकसभा सीट अपने भाई को दे दी. 2016 के विधानसभा चुनाव में उन्हें 67 फीसदी से ज्यादा वोट मिले थे और तब उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी को 80 हजार से ज्यादा वोटों से शिकस्त दी थी.

पूर्वी मिदनापुर में सुवेंदु अधिकारी की ताकत देखकर सवाल उठता है कि आखिर बीते 12 सालों में इस इलाके में ऐसा क्या हुआ कि यहां अधिकारी परिवार का दबदबा कायम हो गया. इस दबदबे का कारण 2006-07 में हुए नंदीग्राम आंदोलन को माना जाता है. उस समय पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नंदीग्राम में इंडोनेशिया के सलीम ग्रुप को केमिकल हब बनाने के लिए 10 हजार एकड़ जमीन देने का ऐलान कर दिया था. लेकिन स्थानीय लोग अपनी जमीनें छोड़ने को तैयार नहीं थे. फिर भी बुद्धदेव अड़े रहे और अंततः बल प्रयोग से जमीन अधिग्रहण करने का आदेश दे दिया गया. उस समय सुवेंदु अधिकारी ने ही स्थानीय लोगों के साथ मिलकर आंदोलन शुरू किया था. 14 मार्च 2007 को पुलिस और स्थानीय लोगों के बीच हिंसक झड़प हुई, जिसमें 14 लोगों की जान चली गई. इस घटना के तुरंत बाद ममता बनर्जी नंदीग्राम पहुंच गईं और लंबे समय तक वहीं डटी रहीं और सरकार को झुका दिया. इस आंदोलन का ममता बनर्जी को बड़ा फायदा मिला और उन्होंने तीन दशक से बंगाल में काबिज वामपंथी सरकार को उखाड़ फेंका. हालांकि, स्थानीय स्तर पर यानी पूर्वी और पश्चिमी मिदनापुर में इस आंदोलन का फायदा यहां के स्थानीय नेता सुवेंदु अधिकारी को मिला और यहां के सबसे बड़े नेता बन गए.

जब सुवेंदु अधिकारी नंदीग्राम में इतने ताकतवर हैं तो ममता उनके खिलाफ चुनाव क्यों लड़ रही हैं?

कई लोगों का कहना है कि ममता बनर्जी का नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का फैसला राजनीतिक रूप से सही नहीं है और यह उन्होंने भाजपा नेताओं के उकसावे पर लिया है. हालांकि, बंगाल के कई बड़े राजनीतिक विश्लेषक ऐसे भी हैं जो इस पर एक अलग राय रखते हैं. इन लोगों का मनाना है कि ममता बनर्जी ने भवानीपुर सीट छोड़ने और नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का निर्णय बहुत सोच-समझकर लिया है. भवानीपुर सीट पर ममता को 2011 में 77.46 फीसदी वोट मिले थे, जो 2016 में घटकर 48 फीसदी रह गए. बीते लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस को इस सीट पर तगड़ा झटका लगा, इस विधानसभा सीट पर पार्टी को भाजपा से केवल तीन हजार वोट ही ज्यादा मिले. साथ ही इससे सटी हुई रसबेहारी सीट पर वह 5000 वोटों से पीछे थी. जाहिर है कि इन आंकड़ों ने ममता बनर्जी को चिंतित किया होगा. राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ चटर्जी एक राजनीतिक चर्चा के दौरान कहते हैं, ‘ममता बनर्जी इस चुनाव में ”बंगाली बनाम बाहरी” का मुद्दा उठा रही हैं… भवानीपुर की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी गैर-बंगाली है, विशेष रूप से गुजरातियों की, जिन्हें वह बाहरी कहती आ रही हैं. ऐसे में इस बार भवानीपुर से ममता को परेशानी हो सकती थी. और इस वजह से इस बात की सम्भावना थी कि वे इस बार यह सीट छोड़ देंगी.’

कुछ चुनाव विश्लेषक यह भी कहते हैं कि अगर वर्तमान परस्थितियों में नंदीग्राम और भवानीपुर सीट की तुलना करें तो तृणमूल कांग्रेस के लिए नंदीग्राम ज्यादा मुफीद नजर आती है. इसकी वजह नंदीग्राम की 35 फीसदी मुस्लिम आबादी है, जिसका फायदा ममता बनर्जी को मिलना तय है. नंदीग्राम सीट पर मुस्लिम वोटर हमेशा से निर्णायक साबित होते आए हैं इसलिए पार्टियां यहां से अक्सर मुस्लिम नेताओं को ही तरजीह देती रही हैं. बंगाल की तीसरी प्रमुख पार्टी सीपीआई (एम) ने भी अधिकांश चुनावों में यहां से मुस्लिम प्रत्याशी ही उतारा है, बीते चुनाव में भी उसका उम्मीदवार मुस्लिम ही था. इस बार भी भाजपा और सुवेंदु अधिकारी दोनों को उम्मीद थी कि सीपीआई यहां से किसी मुस्लिम को ही टिकट देगी जिससे मुस्लिम वोटर टीएमसी और सीपीआई में बंट जाएंगे और उन्हें इसका सीधा फायदा मिलेगा. लेकिन, नामांकन से दो रोज पहले सीपीआई ने नंदीग्राम से एक हिंदू और युवा चेहरे मीनाक्षी मुखर्जी को टिकट [3] दे दिया. इससे यहां पर ममता बनर्जी की दावेदारी और मजबूत हो गयी. सीपीआई द्वारा मीनाक्षी मुखर्जी को टिकट देने पर सुवेंदु अधिकारी का कहना था [4], ‘ममता बनर्जी और कम्युनिस्ट पार्टी मिल गए हैं, नंदीग्राम से सीपीआई (एम) का टिकट तृणमूल कांग्रेस ने तय किया है. इस बार ये सभी पार्टियां मिलकर भाजपा से लड़ रही हैं.’

भाजपा नेता सुवेंदु अधिकारी नंदीग्राम में चुनाव प्रचार करते हुए | फोटो : सुवेंदु अधिकारी/फेसबुक

सुवेंदु अधिकारी हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण पर निर्भर

जानकारों की मानें तो सुवेंदु जानते हैं कि नंदीग्राम में मुस्लिम वोट एकमुश्त ममता को ही जाना है, इसलिए वे हिंदू वोटरों को अपनी ओर खींचने के लिए ध्रुवीकरण का पूरा प्रयास कर रहे हैं. उनकी हर रैली में जय श्रीराम के नारे लगते हैं, साथ ही उन्होंने यह बयान भी दिया है कि अगर इस बार ममता बनर्जी जीतीं तो पश्चिम बंगाल कश्मीर बन जाएगा. वे यह भी कहते हैं कि ममता नंदीग्राम में केवल 35 फीसदी वोटों की वजह से आई हैं. भाजपा ने नंदीग्राम में एक नया नारा भी दिया है – ‘बोल रहा है नंदीग्राम, सबके मुंह में जय श्रीराम’. उधर, नंदीग्राम में भाजपा नेताओं के ध्रुवीकरण के प्रयासों से निपटने के लिए ममता भी कोई कसर नहीं छोड़ रहीं. उन्होंने यहां की अपनी रैली में दुर्गा सप्तशती और चंडी का पाठ किया, वे अपना नामांकन दाखिल करने से पहले नंदीग्राम के करीब 12 मंदिरों में गयीं और एक मजार पर चादर चढ़ाई. वे नंदीग्राम आंदोलन को भी एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने का प्रयास कर रही हैं. बीती 18 जनवरी को नंदीग्राम से चुनाव लड़ने की घोषणा के दौरान उन्होंने यह ऐलान भी किया कि जिन लोगों ने नंदीग्राम आंदोलन में हिस्सा लिया था, उन्हें हर महीने 1000 रुपए पेंशन और जो 10 लोग आंदोलन के समय से गायब हैं, उनके घर वालों को चार लाख रुपए की मदद [5] दी जायेगी. उन्होंने नंदीग्राम में एक रैली में यह भी कहा कि ‘जब नंदीग्राम में आंदोलन हो रहा था तो मेरे घर काली पूजा हो रही थी. यहां जिस तरह 14 मार्च 2007 को गोली चली थी, वो सबको याद है. तब मैं नंदीग्राम के लिए अकेली निकल पड़ी थी. मुझे रोकने की कोशिश की जा रही थी. राज्यपाल ने मुझे फोन करके कहा था कि रात को आपको नंदीग्राम नहीं जाना चाहिए. तमाम अत्याचार के बावजूद मैं पीछे नहीं हटी. मेरे ऊपर गोली भी चलाई गई थी, लेकिन मैं बंगाल के लिए डटी रही.’

पूर्वी मिदनापुर के कुछ स्थानीय पत्रकार सत्याग्रह को बताते हैं कि नंदीग्राम सुवेंदु अधिकारी के गृह जनपद की सीट है और इसका फायदा उन्हें मिलना तय है. साथ ही अगर उन्होंने हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर लिया तो ममता बनर्जी की मुश्किलें बहुत ज्यादा बढ़ जाएंगी. हालांकि, ये पत्रकार ममता की ताकत को भी कम करके नहीं आंकते. इनके मुताबिक ममता राज्य की सबसे बड़ी नेता हैं, ऐसे में नंदीग्राम के लोगों को लगता है कि वे सीधे मुख्यमंत्री को अपना वोट दे रहे हैं. इसके अलावा नंदीग्राम आंदोलन के दौरान बनी ममता की छवि और मुस्लिम वोट बैंक तो उनके पक्ष को मजबूत करते ही हैं.

कैसे ममता बनर्जी के नंदीग्राम से चुनाव लड़ने से टीएमसी बड़े नुकसान से बच सकती है?

ममता बनर्जी के नंदीग्राम से चुनाव लड़ने को कई राजनीतिक विश्लेषक उनका ‘मास्टरस्ट्रोक’ करार देते है, जो तृणमूल कांग्रेस को एक बड़े नुकसान से बचा सकता है. पश्चिम बंगाल की राजनीति पर काफी समय से लिख रहे वरिष्ठ पत्रकार हिमांशु शेखर सत्याग्रह से बातचीत में कहते हैं, ‘ममता बनर्जी ने नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का फैसला बहुत सोच-समझकर किया है… आप देखिये बीते 12 सालों से टीएमसी की ओर से पूर्वी मिदनापुर और पश्चिमी मिदनापुर की पूरी कमान सुवेंदु अधिकारी के हाथों में ही थी, वे इन दोनों जिलों की 35 विधानसभा सीटों पर अच्छा प्रभाव रखते हैं. 2016 में टीएमसी ने इनमें से 30 सीटें और 2011 में सभी 35 सीटें जीती थीं. ऐसे में सुवेंदु अधिकारी के बीजेपी में जाने से टीएमसी को इन दोनों जिलों में भारी नुकसान होने की आशंका थी, भाजपा भी इसलिए ही सुवेंदु को अपने खेमे में लाने की कोशिश में लगी थी. लेकिन ममता बनर्जी ने नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का फैसला करके भाजपा की इस रणनीति को बड़ा झटका दे दिया है.’ हिमांशु आगे कहते हैं, ‘ममता बनर्जी जानती थीं कि पूर्वी और पश्चिमी मिदनापुर ने उन्हें सत्ता में पहुंचाने में अहम भूमिका निभायी है, अगर वे इन जिलों की जिम्मेदारी अपने किसी अन्य नेता को सौंपतीं तो भाजपा और सुवेंदु यहां बड़ा फायदा उठा सकते थे. इसलिए बनर्जी ने एक ऐसा दांव खेला जिसने इन दोनों जिलों के टीएमसी कार्यकर्ताओं में उत्साह भर दिया है. यहां के लोगों को भी ऐसा मैसेज गया है कि मुख्यमंत्री को उनके क्षेत्र से विशेष लगाव है और इसलिए वे उनके क्षेत्र से चुनाव लड़ रही हैं.’

कुछ राजनीतिक विश्लेषक यह भी कहते हैं कि पश्चिम बंगाल में भाजपा के पास अपना कोई मजबूत चेहरा नहीं है और इसलिए वह सुवेंदु अधिकारी को केंद्र मे रखकर यहां का चुनाव लड़ना चाहती थी. लेकिन ममता के नंदीग्राम से चुनाव लड़ने के फैसले से सुवेंदु अधिकारी को नंदीग्राम पर विशेष ध्यान देना पड़ेगा और वे अन्य सीटों पर ज्यादा समय नहीं दे पाएंगे. यानी कुल मिलाकर देखें तो ममता बनर्जी का नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का फैसला भले जल्दबाजी वाला नजर आता हो, लेकिन असल में यह तृणमूल कांग्रेस की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हो सकता है, जिसका मकसद सुवेंदु अधिकारी जैसे बड़े नेता के प्रभाव को रोकना है. पिछले दिनों भाजपा सांसद लॉकेट चटर्जी सुवेंदु अधिकारी के पिता शिशिर अधिकारी से मिलने उनके घर गयीं थीं. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक जब चटर्जी ने शिशिर अधिकारी से ममता के नंदीग्राम से चुनाव लड़ने की वजह पूछी तो उन्होंने बस इतना ही कहा, ‘इसका मकसद सुवेंदु को राजनीतिक रूप से खत्म कर देना है.’ हालांकि, ममता बनर्जी का यह फैसला उनके लिए ज्यादा जोखिम भरा लगता है. क्योंकि अगर वे अपने जूनियर नेता सुवेंदु अधिकारी से चुनाव हार जाती हैं तो यह न केवल जनता की नजर में उनका राजनीतिक कद घटा देगा, बल्कि बंगाल में विपक्ष को उनके ही स्तर का एक दमदार लीडर भी दे देगा.