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निजीकरण मोदी सरकार की दूरदर्शिता है या मजबूरी?

निर्मला सीतारमण

1979 में जब मार्गरेट थैचर ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की गद्दी संभाली तो देश की अर्थव्यवस्था डांवाडोल थी. महंगाई ऊंची छलांग मारते हुए दहाई के अंकों पर जा पहुंची थी. बेरोजगारी का स्तर दूसरे विश्व युद्ध के बाद से सबसे ऊंचा था. सरकार को अपना खर्च चलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से उधार लेना पड़ रहा था.

मुक्त बाजार की समर्थक मार्गरेट थैचर की प्राथमिकताएं साफ थीं. उनका मानना था कि सरकारों का काम व्यापार करना नहीं है. उस दौर में ब्रिटिश एयरवेज सहित ब्रिटेन की कई नामी कंपनियों को सरकार ही चलाती थी. मार्गरेट थैचर ने इन सभी का निजीकरण कर दिया. यानी सरकार ने इन कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेचकर इन्हें बाजार के हवाले कर दिया. इसके बाद ब्रितानी अर्थव्यवस्था कुछ ही समय में पटरी पर आ गई.

ब्रिटेन की देखादेखी उन दिनों पूरे यूरोप, लैटिन अमेरिका और दुनिया के कई दूसरे हिस्सों में भी यह चलन चल पड़ा. यह कवायद इतने बड़े पैमाने पर हुई कि आज मार्गरेट थैचर की सबसे बड़ी विरासत निजीकरण को माना जाता है. कहा जाता है कि यह शब्द दुनिया में उनकी वजह से ही मशहूर हुआ.

इस साल फरवरी में जब केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2021-22 का बजट पेश किया तो कइयों को मार्गरेट थैचर की याद [1] आई. इसका कारण बजट का यह ऐलान था कि चार रणनीतिक क्षेत्रों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों की सभी सरकारी कंपनियों में विनिवेश या फिर उनका निजीकरण किया जाएगा. ताजा खबर [2] है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल ने देश की सबसे बड़ी कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) में विनिवेश को हरी झंडी दे दी है. इससे कुछ ही समय पहले खबर [3] आई थी कि सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया और इंडियन ओवरसीज बैंक के निजीकरण का रास्ता भी साफ हो गया है.

विनिवेश में सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी का कुछ अंश बेचती है और कंपनी का मालिकाना हक उसके पास ही रहता है. निजीकरण में वह अपनी हिस्सेदारी घटाकर 49 फीसदी या इससे कम पर ले आती है, यानी कंपनी का मालिकाना हक उसके पास नहीं रहता. विनिवेश और निजीकरण की कवायदों से केंद्र ने वित्त वर्ष 2021-22 में 1.75 लाख करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है. मार्गरेट थैचर की तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कहते [4] रहे हैं कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं है.

सरकार के इस फैसले पर राय दो हिस्सों में बंटी दिख रही है. एक वर्ग का मानना है कि यह घर के गहने बेचने जैसा काम है. उधर, दूसरे वर्ग की राय है कि यह सबके लिए फायदे का सौदा है. जानने की कोशिश करते हैं कि सच क्या है.

1947 में जब देश आजाद हुआ तो कृषि इसकी प्रधान गतिविधि हुआ करती थी. उद्योगों का यह हाल था कि देश में सुई तक नहीं बनती थी. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सोच तेजी से औद्योगिकीकरण की थी ताकि आर्थिक विकास और नतीजतन लोगों के जीवनस्तर में बेहतरी सुनिश्चित हो सके. लेकिन औद्योगिकीकरण के लिए निजी पूंजी की भारी कमी थी. इसलिए छह अप्रैल 1948 को भारत सरकार ने जो पहली औद्योगिक नीति जारी की उसमें इस पर जोर दिया गया कि सरकार उद्योगों के विकास में उत्तरोत्तर सक्रिय भूमिका निभाएगी और जहां संभव हो निजी क्षेत्र का सहयोग लेगी और उसे आगे बढ़ाएगी. 1956 में दूसरी औद्योगिक नीति में साफ कहा गया कि जब संसद ने समाजवादी पद्धति वाली शासन व्यवस्था स्वीकार कर ली है तो बाकी नीतियों की तरह औद्योगिक नीति भी इसी सिद्धांत पर चलनी चाहिए. नीति में देश के संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस तरह से रखने पर जोर था कि आम जनता के हितों को सर्वोत्तम रूप से साधा जा सके.

यही वह बुनियाद थी जिस पर स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया से लेकर ओएनजीसी और एलआईसी तक सार्वजनिक क्षेत्र की तमाम दिग्गज कंपनियां खड़ी हुईं. आजादी के समय जिस भारत में सुई तक नहीं बनती थी वह आज माइक्रोचिप्स से लेकर सेटेलाइट तक सब कुछ बनाता है. रेल, तेल, गैस, सीमेंट, दूरसंचार, परमाणु ऊर्जा और उड्डयन जैसे तमाम क्षेत्रों को सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों ने ही खड़ा किया. आजादी के बाद चार दशक तक उत्पादन से लेकर रोजगार सृजन तक हर मोर्चे पर वे रीढ़ साबित हुईं और अर्थव्यवस्था उनकी अगुवाई में ही आगे बढ़ी.

लेकिन कई मानते हैं कि यह बढ़ोतरी उस रफ्तार से नहीं हो सकी जिसकी भारत जैसे देश को जरूरत थी. सरकार के स्वामित्व वाली कई कंपनियां पेशेवर तरीके से नहीं चल सकीं और सफेद हाथी बन गईं. उधर, उत्पादन पर सरकार के नियंत्रण ने लाइसेंस राज को बढ़ावा दिया. विश्लेषकों के मुताबिक इससे लोगों की उद्यमशीलता और उद्योगों पर अंकुश लग गया.

फिर 1991 में अर्थ और नतीजतन औद्योगिक नीति ने एक नई करवट ली. विदेशी मुद्रा भंडार संकट और सोना गिरवी रखने की नौबत वाले दौर [5] के बाद अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोलना मजबूरी हो गई. लाइसेंस राज खत्म हुआ और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को विदेशी प्रौद्योगिकी और निवेश के लिए खोला गया. अब हमारी अर्थव्यवस्था पहले से कम समाजवादी और पूंजीवादी ज्यादा हो गई थी. यहीं से विनिवेश और निजीकरण की शुरुआत हुई. 1991-92 में सरकार ने 31 कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेची और करीब 3000 हजार करोड़ रु कमाए.

2000-01 तक विनिवेश से सरकार को होने वाली कुल कमाई का आंकड़ा लगभग 20 हजार करोड़ पहुंच गया था. 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद से इस प्रक्रिया में काफी तेजी आई. पिछले छह सालों को देखें तो सरकार अलग-अलग कंपनियों में अपनी हिस्सेदारी बेचकर तीन लाख 30 करोड़ रु से भी ज्यादा की रकम जुटा चुकी है. और इस वित्तीय वर्ष यानी 2021-22 में 1.75 लाख करोड़ रु का विनिवेश लक्ष्य [6] रखा गया है.

कांग्रेस सहित कई विपक्षी पार्टियां इसे लेकर मोदी सरकार पर हमलावर हैं. वे जो कहती हैं उसका लब्बोलुआब यही है कि सरकार ने कुछ बनाया तो नहीं, लेकिन जो कुछ भी पहले से बना है उसे वह बेचने पर तुली है. कुछ समय पहले चर्चित अखबार द हिंदू में छपे अपने लेख [7] में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का कहना था, ‘महामारी के बाद ढही अर्थव्यवस्था की आड़ लेकर मोदी सरकार ने भारत की संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा अपने चहेते पूंजीपतियों को सौंपने का अभियान तेज कर दिया है. उसने घर के गहने बेचकर पैसे जुटाने की अपनी नीयत साफ कर दी है और ऐसा वह भारत की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के हड़बड़ी भरे निजीकरण के जरिये कर रही है.’

उधर, सरकार इन आरोपों से इनकार करती रही है. उसके मुताबिक सरकारी कंपनियों को केवल इसलिए नहीं चलाया जाना चाहिए कि वे विरासत में मिली हैं. हाल में एक आयोजन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना [8] था कि सार्वजनिक क्षेत्र के कई उपक्रम घाटे में हैं जिन्हें करदाताओं के पैसे से मदद दी जा रही है, जबकि इस पैसे का इस्तेमाल सामाजिक कल्याण की योजनाओं में किया जा सकता है. प्रधानमंत्री यह भी कहते रहे हैं कि वह दौर और था जब सरकार के लिए औद्योगिक विकास की कमान अपने हाथ में रखना जरूरी था और समय के साथ प्राथमिकताएं भी बदलती हैं.

कई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की इस राय से इत्तेफाक रखते हैं. इनके मुताबिक अब कई क्षेत्रों में सरकार को अपनी पूंजी लगाने की जरूरत नहीं है क्योंकि उनमें निजी पूंजी की प्रचुरता है जो आजादी के समय नहीं थी. जैसा कि बीबीसी से बातचीत [9] में आर्थिक मामलों की जानकार पूजा मेहरा कहती हैं, ‘मॉडर्न ब्रेड नाम की एक सरकारी कंपनी हुआ करती थी. लेकिन जब कई अन्य छोटी-बड़ी कंपनियां भी ब्रेड बना रही हैं तो सरकार को ब्रेड बनाने की ज़रूरत नहीं है.’

1990 के दशक में जब विनिवेश की प्रक्रिया शुरू हुई तो यही दलील दी गई थी. यानी सरकार को पर्यटन, होटल उद्योग और ऑटोमोबाइल जैसे उन क्षेत्रों में रहने की जरूरत नहीं है जहां निजी कंपनियां उपभोक्ताओं को कई विकल्प दे सकती हैं. एक लेख [10] में वरिष्ठ पत्रकार के जयकुमार लिखते हैं, ‘तर्क यह था कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को बेचने से मिले पैसे को सरकार बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी उन सुविधाओं को सुधारने पर खर्च कर सकती है जो जनता के काम आती हैं. 90 के दशक में इस पर व्यापक सहमति थी कि सरकार को उन क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है जिनसे मानव संसाधनों का विकास हो ताकि आर्थिक विकास की गति तेज हो सके.’

कई दूसरे विश्लेषक भी मानते हैं कि विनिवेश और निजीकरण सरकार के लिए बुनियादी ढांचे और सामाजिक क्षेत्र में खर्च के लिए पैसा जुटाने का अहम जरिया बन सकता है. उनके मुताबिक इस पैसे को सरकार अपने पुराने कर्ज चुकाने के लिए भी इस्तेमाल कर सकती है जिससे ब्याज के भुगतान के रूप में उस पर पड़ने वाला बोझ कम हो सकता है.

यह भी सच है कि कुप्रबंधन के चलते सार्वजनिक क्षेत्र की कई कंपनियां घाटे में चल रही हैं और विनिवेश या निजीकरण के जरिये यह स्थिति बदली जा सकती है. इसके उदाहरण के तौर पर हिंदुस्तान जिंक, बाल्को और वीएसएनल जैसी कंपनियों के उदाहरण लिए जा सकते हैं जिन्होंने निजी हाथों में जाने के बाद से बढ़िया प्रदर्शन किया है. कई जानकारों की मानें तो बेहतर यही है कि जनता का पैसा बर्बाद कर रहीं इन कंपनियों को नौकरशाहों के बजाय कुशल पेशेवर चलाएं. माना जा रहा है कि जब ये कंपनियां खुले बाजार में प्रतिस्पर्धा करेंगी तो उनकी दक्षता और नतीजतन उत्पादकता बढ़ेगी. यह बात सरकार ने 2020-21 के आर्थिक सर्वे [11] में भी कही थी. विनिवेश की पुरजोर वकालत करते हुए इसमें कहा गया कि निजीकरण के बाद कई सरकारी कंपनियों ने समान संसाधनों से अधिक लाभ कमाया और कर्मचारियों की उत्पादकता भी बढ़ी.

कुछ विश्लेषकों के मुताबिक विनिवेश से कई क्षेत्रों में सरकार का एकाधिकार खत्म करने में भी मदद मिलेगी. उनके मुताबिक यह एकाधिकार भी निजी एकाधिकार जितना ही बुरा है, जो अगर खत्म होगा तो प्रतिस्पर्धा को न्योता मिलेगा जिससे उत्पादों और सेवाओं का स्तर सुधरेगा. यह तर्क देने वाले उड्डयन क्षेत्र का उदाहरण याद दिलाते हैं. उनके मुताबिक इस क्षेत्र में जब इंडियन एयरलाइंस का एकाधिकार था तो हवाई यात्रा की कीमत ज्यादा थी और सेवा की गुणवत्ता कम, लेकिन जब प्रतिस्पर्धा का माहौल बना तो उपभोक्ताओं को इन दोनों मोर्चों पर फायदा हुआ.

इन तर्कों को देखा जाए तो कहा जा सकता है कि विनिवेश और निजीकरण सभी के लिए फायदे का सौदा है. लेकिन इस कवायद के आलोचकों के भी अपने तर्क हैं. पहली दलील तो यही है कि यह जरूरी नहीं है कि स्वामित्व बदल जाने से कंपनी का हाल भी बदल जाए. निजी क्षेत्र में ही किंगफिशर एयरलाइंस और जेट एयरवेज़ से लेकर यस बैंक तक कुप्रबंधन से पैदा हुई बदहाली के तमाम उदाहरण हैं. इसके अलावा, सार्वजनिक क्षेत्र की करीब 50 कंपनियां ऐसी हैं जो सरकार द्वारा अधिग्रहीत किए जाने से पहले घाटे में चल रही निजी इकाइयां ही थीं. इसलिए कई जानकार यह तर्क देते हैं कि बात असल में पेशेवर प्रबंधन से बनती है और सरकार को विनिवेश या निजीकरण की जगह इसकी व्यवस्था करनी चाहिए. उनकी बात गलत नहीं लगती क्योंकि अपेक्षाकृत बेहतर प्रबंधन के बूते ओएनजीसी, एनटीपीसी और पावरग्रिड जैसी कई सरकारी कंपनियां बढ़िया मुनाफा कमा रही हैं.

यह भी तर्क दिया जाता है कि सब कुछ निजी कंपनियों के हवाले करने से निजी एकाधिकार का रास्ता खुल सकता है जिसके कामगारों और उपभोक्ताओं के शोषण जैसे अपने खतरे हैं. कुछ विश्लेषक यह भी मानते हैं कि इस रास्ते पर आगे बढ़ा गया तो आय और संपत्ति से जुड़ी असमानताएं और बढ़ेंगी. दिलचस्प बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की स्थापना के पीछे की एक सोच इन विषमताओं में कमी लाना भी थी.

इसके अलावा कोविड-19 की मार के बाद सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को एक नई रोशनी में भी देखा जाने लगा है, खासकर स्वास्थ्य जैसे रणनीतिक क्षेत्रों में जो किसी भी समाज की बुनियादी जरूरतों का हिस्सा होते हैं. कई जानकारों के मुताबिक इस संकट के दौरान वही संसाधन सरकार और जनता के सबसे ज्यादा काम आए जो आजादी के बाद सार्वजनिक क्षेत्र पर जोर देने की नीति का नतीजा हैं.

इन वजहों के चलते ही ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो मानते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को लेकर विनिवेश या निजीकरण का फैसला करते हुए एक दूरदृष्टि और स्पष्ट रणनीति की जरूरत है. ब्रिटेन की एसेक्स यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर टी अरुण और नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट फॉर स्टडीज इन इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट में एसोसिएट प्रोफेसर रेजी के जोसेफ ऐसे ही लोगों में शामिल हैं. अपने एक लेख [12] में उनका मानना है कि अगर भारत को पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना है तो इसमें सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों की भी अहम भूमिका हो सकती है. उनके मुताबिक सार्वजनिक क्षेत्र का विचार अभी अप्रासंगिक नहीं हुआ है. 2018 में विश्व बैंक की तरफ से कराए गए एक अध्ययन में पता चला था कि सरकारों के स्वामित्व वाली कंपनियां दुनिया में हर साल कुल मिलाकर करीब आठ ट्रिलियन डॉलर का राजस्व पैदा कर रही हैं. यह आंकड़ा जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के योग के लगभग बराबर है.

सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पेशेवर प्रबंधन के मामले में दो उदाहरणों पर गौर किया जा सकता है. पहला उदाहरण सिंगापुर का है. यहां टुमासेक होल्डिंग्स नाम की एक कंपनी सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी और इन कंपनियों की परिसंपत्तियों का प्रबंधन करती है. भारत की तरह सिंगापुर सरकार ने भी 1965 में अपनी आजादी के बाद औद्योगिक विकास को गति देने के लिए कई कंपनियां स्थापित की थीं. 1974 में टुमासेक की स्थापना हुई जिसे इन कंपनियों के प्रबंधन का काम दे दिया गया और वित्त और उद्योग मंत्रालय ने खुद को वित्तीय और औद्योगिक नीतियां बनाने तक सीमित कर लिया.

आज स्थिति यह है कि टुमासेक होल्डिंग के पास 300 अरब डॉलर से भी ज्यादा का पोर्टफोलियो है और वह सिंगापुर एयरलाइंस सहित कई बड़ी कंपनियां चलाती है. दुनिया की अग्रणी निवेश कंपनियों में शुमार और वित्तीय विशेषज्ञों की अगुवाई वाली टुमासेक के फैसले पूरी तरह से पेशेवर होते हैं और सिंगापुर सरकार का उनमें कोई दखल नहीं होता. किसी भी दूसरी व्यावसायिक फर्म की तरह वह सरकार को टैक्स देती है और सामुदायिक कल्याण से जुड़े कार्यक्रमों का भी बढ़-चढ़कर समर्थन करती है.

सिंगापुर के ठीक उलट चीन का उदाहरण है. वहां सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का प्रबंधन स्टेट ओन्ड एसेट सुपरविजन एंड एडमिनिस्ट्रेशन कमीशन देखता है. सरकार ने कानूनी रूप से कंपनियों को खुद से अलग कर लिया है, लेकिन इन कंपनियों के कारोबारी फैसलों में उसका दखल रहता है. हालांकि ये कंपनियां कॉरपोरेट गवर्नेंस के ऊंचे मानदंडों के हिसाब से ही चलती हैं और यही वजह है कि चीन की जीडीपी में उनका करीब 30 फीसदी योगदान है. इनमें बैंक ऑफ चाइना जैसे 76 नाम फॉर्च्यून 500 में भी शामिल हैं. ऊर्जा, दूरसंचार, उड्डयन और रक्षा क्षेत्र में सक्रिय इन कंपनियों को सरकार पूरा समर्थन देती है. नई तकनीक के क्षेत्र में देश का अलग मुकाम बनाने की रणनीति के लिहाज से वह इन कंपनियों को अहम भूमिका में देखती है.

कई विश्लेषक मानते हैं कि भारत इस मामले में सिंगापुर की राह जा सकता है. उनके मुताबिक यहां भी इसी तरह की एक संस्था की जरूरत है जो अपने कारोबारी फैसलों में किसी भी सरकारी दखल से मुक्त हो और जो सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को पेशेवर बना सके. 2020-21 के आर्थिक सर्वे में भी ऐसी एक संस्था की परिकल्पना की गई थी, लेकिन इस पर बात कितनी आगे बढ़ी है, यह साफ नहीं है. सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में केंद्र सरकार की हिस्सेदारी बेचने से संबंधित काम के लिए अभी एक निवेश और लोक परिसंपत्ति प्रबंधन विभाग [13] जरूर है, लेकिन यह वित्त मंत्रालय के अधीन है.

प्रोफेसर टी अरुण और रेजी के जोसेफ का मानना है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को लोककल्याण से जुड़ी नीतियों को प्रभावी बनाने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. वे केरल स्टेट ड्रग्स एंड फार्मास्यूटिक्लस लिमिटेड (केएसडीपी) का उदाहरण देते हैं. यह सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी है जिसका स्वामित्व केरल सरकार के पास है. एक समय घाटे में चल रही इस कंपनी का कायाकल्प किया गया और 2019 में यह फायदे में आ गई. जानकारों के मुताबिक इस कायाकल्प के पीछे की सोच लोककल्याण से जुड़ी नीतियों में केएसडीपी का इस्तेमाल ही थी. अब यह कंपनी उन दवाइयों की आपूर्ति करती है जो अंग प्रत्यारोपण के बाद लेनी पड़ती हैं. उसकी दवाइयों की कीमत औसतन 28 रु रोज पड़ती है जबकि दूसरी कंपनियों की दवाइयां इससे करीब दस गुना महंगी होती हैं.

इसी तरह केएसडीपी की अगुवाई में केरल सरकार एक ऑन्कॉलॉजी [14] पार्क भी बना रही है जिसका मकसद कैंसर के इलाज में काम आने वाली दवाइयों को सस्ते दाम पर उपलब्ध करवाना है. यहां पर यह जिक्र करना जरूरी है कि आबादी के अनुपात में कैंसर के मामलों के लिहाज से केरल देश में सबसे आगे है. कई मानते हैं कि केएसडीपी जैसा मॉडल दूसरे क्षेत्रों में भी अपनाया जा सकता है और इसलिए सरकार को विनिवेश या निजीकरण में इतनी जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिए. उनके मुताबिक इस कवायद को सिर्फ पैसा जुटाने वाली जादू की छड़ी की तरह इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए बल्कि इसके दूरगामी रणनीतिक लक्ष्य होने चाहिए.

हालांकि यह सरकार की मजबूरी भी हो सकती है. कुछ अर्थशास्त्रियों के मुताबिक सरकार का खर्च बढ़ रहा है जबकि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष करों से होने वाली उसकी कमाई में उस हिसाब से बढ़ोतरी नहीं हो रही है. कोरोना संकट के बाद अर्थव्यवस्था का जो हाल है उससे लगता नहीं कि यह स्थिति जल्द सुधरने वाली है. विश्लेषकों के मुताबिक यही वजह है कि सरकार के पास विनिवेश और निजीकरण का सहारा लेने के अलावा और कोई चारा नहीं है. जैसा कि अपने एक लेख [15] में वरिष्ठ पत्रकार टीएन नायनन लिखते हैं, ‘खर्च बढ़ गया है और टैक्स से होने वाली कमाई पूरी नहीं पड़ रही. कहीं न कहीं से तो पैसा लाना ही होगा ताकि वित्तीय घाटा सरकार की किरकिरी न कराए.’