एनटी रामाराव

राजनीति | जन्मदिन

जो रामाराव समाज सेवा करने राजनीति में आए थे वे इतनी जल्दी रास्ते से क्यों भटक गए?

आज मशहूर अभिनेता और राजनेता एनटी रामाराव का जन्मदिन है. जनसत्ता के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने एनटीआर पर यह आलेख ‘ऐसी रामाराव की गत हुई’ शीर्षक से लिखा था

सत्याग्रह ब्यूरो | 28 मई 2020

यहां अपनी चिंता यह नहीं है कि एनटीआर के जाने से आंध्र और राष्ट्रीय मोर्चे की राजनीति का क्या होगा. उनके निधन के पल से उनकी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती, बेटे-बेटियों और दामादों ने जो फूहड़ और बेशरम नाटक किया वह उनकी मृत्यु से ज्यादा दुखदायी है. एनटीआर ने भी लक्ष्मी पार्वती और बेटे-बेटियों और दामादों के साथ जो बरताव पिछले तीन साल में किया वह भी कोई कम दुखद और उदास कर देने वाला नहीं है.

एनटीआर न अंग्रेजी या अमेरिकी किस्म के भारतीय नेता थे न अपनी पार्टियों के ठप्पे वाले पेशेवर नेता. उन पर पश्चिमी लोकतांत्रिकता का मुलम्मा नहीं चढ़ा था न वे राजनीति को सत्ता औऱ धन दौलत बनाने का धंधा मान कर उसमे मुनीम से धन्ना सेठ हुए थे. देशी-विदेशी किसी राजनीति में उनकी कोई ट्रेनिंग नहीं हुई थी इसलिए उम्मीद की जा सकती थी कि परंपरा एक भारतीय के खून में जो पंचायत बोध देती है उसका कोई नया रूप देखने को मिलेगा. लेकिन वे एक मुगल बादशाह की तरह अपने दामाद को औरंगजेब और अपने से कहीं ज्यादा जवान और छोटी पत्नी को वाह, वाह, क्या खूब कहते हुए मर गए.

अशोक दास की सुनाई गई कहानी की मानें तो वे सत्ता को नाथने के लिए राजनीति में चले आए थे. किस्सा यह कि सन् बयासी में वे नेलोर आए और कार्यक्रम के लिए तरोताजा होने के लिए एक सरकारी गेस्ट हाउस में पहुंचे. वहां सभी कमरे भरे हुए थे. सिर्फ एक खाली था जो राजस्व मंत्री जनार्दन रेड्डी के लिए ही रखा रहता था. तीन सौ से ज्यादा फिल्मों के लिए तेलुगु सुपर स्टार के लिए कर्मचारियों ने कमरा तो खोल दिया पर यह भी साफ कहा कि मिनिस्टर साब आ गए तो हमारी खाल उधेड़ देंगे.

वही हुआ. रामाराव जब नहा रहे थे तो मंत्री महोदय आ टपके और अपने कमरे को इस्तेमाल पा कर आपा खो बैठे. उनने कर्मचारियों को ही नहीं दुनिया भर को चुन-चुन कर गालियां दीं और सब को रास्ते लगाने की धौंस दे कर चले गए. एनटीआर लौटते हुए मद्रास आए और वहां अपने दोस्त नागी रेड्डी को कहा कि कितनी ही दौलत और शोहरत हो राजनैतिक सत्ता के सामने सब बेकार है. वहीं उनने घोषणा कर दी कि वे राजनीति में जाएंगे.

एक बार तय कर चुके कि राजनीति में जाना है तो बाकायदा फिल्मी ढंग से उसकी घोषणा भी की. हैदराबाद के अपने रामकृष्ण स्टूडियोज में मार्च बयासी में उनने अखबार वालों को बुला कर कहा कि अब वे साठ बरस के हो रहे हैं और समाज सेवा करने के लिए राजनीति में उतर रहे हैं. ‘अपनी संपत्ति मैंने सात बेटों और चार बेटियों में बांट दी है ताकि परिवार की जिम्मेदारियों से मुक्त हो कर अपने बाकी के साल आंध्र के लोगों की सेवा में लगा सकूं.’

लेकिन जिस परिवार की जिम्मेदारियों से वे मुक्त हो कर राजनीति में आए थे उसी ने उनकी राजनीति को चौपट कर दिया. धन दौलत के लिए तो परिवार के लोगों ने नंगई दिखाई ही उनकी सत्ता को हथियाने और उसमें बंदरबांट कर ऐसा नाटक दिखाया कि दक्षिण की फिल्मों को भी पीछे छोड़ दिया.

दामाद चंद्रबाबू नायडू कोई पांच महीने पहले उनकी राजगद्दी छीन ही चुके थे. अपनी बनाई पार्टी तेलुगु देशम के वे आजन्म अध्यक्ष थे. दामाद ने उन्हें वहां से भी हटा दिया. जो विधायक एनटीआर के कारण ही चुनाव जीते थे उनमें से भी ज्यादातर दामाद के साथ चले गए. रामाराव के पास बची पुछल्ली पार्टी और कोई तीन दर्जन विधायक जबकि दिसंबर चौरानवे में वे कोई सवा दो सौ विधायकों के भाग्य विधाता थे. तीन दर्जन में भी ग्यारह तो उनके दूसरे दामाद वेंकेटेश्वर राव के साथ लौट कर आए थे. जो उपमुख्यमंत्री न बनाए जाने कारण मुख्यमंत्री नायडू से दुखी हो कर उनका खेमा छोड़ आए थे.

अपनी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती के साथ रामाराव एक तरफ थे और दूसरी तरफ उनका भरापूरा परिवार उनके खिलाफ था. एनटीआर का परिवार लक्ष्मी पार्वती को उनकी पत्नी मानने को भी तैयार नहीं था. उनके जीते जी परिवार ने लक्ष्मी पार्वती को सौतेली मां मानने से इनकार किया ही, जब वे नहीं रहे तो उनके साथ बासवतारकम्मा यानी पहली पत्नी की तस्वीरें बनवा कर लगवाईं. परिवारवालों के साफ-साफ कह देने पर पंडितों ने भी सारे उत्तर कार्य में जहां-जहां पत्नी का नाम लिया जाना था वहां पूर्व पत्नी बासवतारकम्मा का ही नाम लिया. और लक्ष्मी पार्वती ने अखबारवालों के सामने छाती-माथा कूटते हुए शिकायत की कि देखिए सिंदूर मेरा पुंछा, चूड़ियां मेरी फूटीं, विधवा मैं हुई और वे मेरा नाम तक नहीं लेने दे रहे. उस औरत का नाम ले रहे हैं जो ग्यारह साल पहले मर गई.

एनटीआर के परिवार वाले अगर लक्ष्मी पार्वती को सभी उत्तर कार्य से बाहर रखना चाहते थे तो उनकी दूसरी पत्नी परिवार वालों को पास भी नहीं फटकने नहीं देना चाहती थी. रामाराव का सबसे छोटा बेटा जयकृष्ण बंचारा हिल्स के बंगले में बाप के साथ ही रहता था. लेकिन उसे भी पिता के निधन की खबर दो घंटे बाद दी गई. चंद्रबाबू नायडू औऱ रामाराव के दूसरे बेटे जब मृत्यु की खबर पा कर पहुंचे तो घर में जमा लोगों ने उन्हें ताने मारे कि अब काहे को आए हो. और अब तो हो गई तुम्हारे मन की.

परिवार वाले चाहते थे कि रामाराव का शव उनके पुराने घर ले जाएं लेकिन लक्ष्मी पार्वती हाथ नहीं लगाने दे रही थीं. बड़ी मुश्किल से वे इस बात पर राजी हुईं कि शव लालबहादुर स्टेडियम में रखा जाए ताकि जनता उनके अंतिम दर्शन कर सके. वहां भी लक्ष्मी सारे समय उनके सिर के पास बनी रहीं और वीआईपियों से ढाढ़स और संवेदना लेती रहीं. कैमरों औऱ देखने वालों के लिए छाती कूटती हुई ढांडे मार कर रोती रहीं. उनने बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि रामाराव के शव पर उनका एकाधिकार है और बाकी के सब परिवार वाले धोखेबाज और पाखंडी हैं.

जब रामाराव का तीसरा बेटा परिवहन मंत्री हरिकृष्ण हांगकांग से सरकारी यात्रा छोड़कर यात्रा आया तो उसने हुक्म दे दिया कि शव के पास मंच पर सिर्फ परिवार वाले बैठेंगे. यानी लक्ष्मी पार्वती और उनके लोग, विधायक आदि नीचे उतर जाएं. कुछ विधायकों को पीटा गया और लक्ष्मी पार्वती कुछ देर के लिए गुसलखाने गईं तो उनकी कुरसी हटा दी गई. लक्ष्मी पार्वती ने हंगामा कर के फिर अपनी कुर्सी प्राप्त की. लक्ष्मी पार्वती अंतिम यात्रा पर जाती पर तोपगाड़ी में बैठ गईं तो यह कह कर उन्हें उतार दिया गया कि हिंदू रिवाज के मुताबिक पत्नी श्मशान नहीं जाती. इस उतारे जाने के बाद भी लक्ष्मी पार्वती ने नाटक बनाया.

फिर जब उन्हें अस्थियां नहीं मिली तो जनता दल के नेताओं के साथ वे श्मशान पहुंच गईं. वहां से अस्थियां पहले ही घरवाले ले गए थे. लक्ष्मी पार्वती वहीं धरने पर बैठ गईं कि जब तक उन्हें पवित्र अस्थियां नहीं मिल जाएंगी वे धरने पर बैठी रहेंगी. उन्हें समझाया गया कि ले जाने के बाद अस्थि फिर श्मशान नहीं लाई जाती. लेकिन उनका धरना जारी रहा. जब उन्हें सूचना दे दी गई कि कलश बंजारा हिल्स पहुंच गया है तभी लक्ष्मी पार्वती धरने से उठ कर घर गईं.

परिवारवालों औऱ लक्ष्मी पार्वती ने अलग-अलग अस्थियां रखीं, घुमाईं औऱ विसर्जित कीं. खबर नहीं आई कि दशाकर्म को लेकर दोनो खेमे लड़े कि नहीं. लेकिन बंजारा हिल्स के भव्य मकान और एनटीआर की छोड़ी गई संपत्ति को ले कर झगड़ा चल रहा है और अदालत ने अभी यथास्थिति रखने को कहा है. लेकिन रामाराव की राजनैतिक वसीयत पर झगड़ा, रस्साकशी और तूतू मैंमैं खुल कर और जम कर चल रही है. दुनिया तमाशा देख रही है.

निधन के कुछ दिन पहले रामाराव ने अपने परिवार वालों से सार्वजनिक रुप से संबंध-विच्छेद कर लिया था लेकिन लक्ष्मी पार्वती को उत्तराधिकारिणी घोषित करते-करते रह गए थे. लेकिन वे चंद्रबाबू नायडू को ‘वो पीठ में छुरा मारने वाला धोखेबाज’ कहते थे. उसे औरंगजेब कहते थे जिसने अपने और बाप और भाईयों को जेल में डाल कर सत्ता हथिया ली थी. वे नायडू को माफ करने को कतई तैयार ना थे. वे धोखा देने वाले सभी परिवारजनों को सबक सिखाने के लिए लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रहे थे.

गए साल अगस्त में जब दामाद नायडू ने विद्रोह का झंडा उठा लिया था तो हालात संभालने के लिए एनटीआर लक्ष्मी पार्वती को राजनीति के बजाय घर में रखने को तैयार थे. खुद लक्ष्मी पार्वती ने भी माफी मांग कर घर गिरस्ती औऱ रामाराव की सेवा में लौट जाने की घोषणा कर दी थी. लेकिन जब ये कोशिशें फेल हो गईं और साफ हो गया कि चंद्रबाबू नायडू सत्ता पर काबिज हो गए तो लक्ष्मी पार्वती अपने पति की मदद में खुल कर मैदान में आ गईं और रामाराव भी बेटों, दामादों, बेटियों आदि से बदला लेने और लक्ष्मी पार्वती को अपने उत्तराधिकारी बनाकर स्थापित करने में लग गए थे.

सब जानते थे कि दामाद के द्वारा गद्दी से उतारे परिवार वालों की और से मुंह मोड़े जाने के बाद रामाराव सिर्फ अपनी दूसरी पत्नी लक्ष्मी पार्वती के हो कर रह गए थे और उसी को अपनी राजनैतिक वसीयत लेने के लिए तैयार कर रहे थे. वे लक्ष्मी पार्वती को बेहद पढ़ी-लिखी, बुद्धिमान, समझदार और काबिल औरत बताने लगे थे. परिवार वाले जितने उस के पीछे पड़े हुए थे उतने ही रामाराव अपनी दूसरी पत्नी को स्थापित कर रहे थे .

तीसरे बेटे हरिकृष्ण ने तो हैदराबाद पहुंचने के पहले ही बंबई से बयान दे दिया था कि रामाराव की मृत्यु की परिस्थितियों की न्यायिक जांच होनी चाहिए. हरिकृष्ण और दूसरे बेटे अपने पिता की मृत्यु के लिए लक्ष्मी पार्वती को जिम्मेदार मानते हैं. इन्हीं की ओर से यह भी फैलाया गया कि लक्ष्मी पार्वती ने बूढ़े रामाराव से एक पुत्र उत्पन्न करने के लिए उन्हें तरह-तरह की दवाइयां दीं ताकि उनका पुंसत्व जाग सके. उन्होंने रामाराव को पुंसत्व की दवाइयां देने के अलावा खुद अपना भी इलाज-ऑपरेशन आदि करवा के अपने को गर्भधारण के लिए बिल्कुल तैयार कर लिया था. दवाएं अपना काम करें और दूसरे उपाय अपना इसलिए तरह-तरह की तांत्रिक पूजाएं, अनुष्ठान, टोटके और पुत्रकामेष्टि यज्ञ तक दोनों ने मिलकर किए.

पूरे आंध्र प्रदेश में भद्दे और अश्लील मजाक चल रहे हैं कि लक्ष्मी पार्वती ने तिहत्तर बरस के रामाराव से क्या-क्या करवाया. आम लोग मानते हैं कि लक्ष्मी पार्वती ने पुत्र प्राप्ति के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. यह इच्छा रामाराव की बत्तीस बरस छोटी पत्नी में सिर्फ मां बनने के लिए नहीं थी. मां तो वे पहले से हैं. अपने पूर्व पति वीरंगधम सुब्बाराव से उन्हें एक पुत्र है. रामाराव से उन्हें पुत्र राजनैतिक उत्तराधिकार के लिए चाहिए था. जानकार लोगों को कहना है कि रामाराव और लक्ष्मी पार्वती मानते थे उन्हें अगर पुत्र हो जाए तो एक दिन वह भारत पर राज करेगा. आंध्र प्रदेश में इस तरह के किस्से लक्ष्मी पार्वती को बदनाम करने के लिए ही नहीं रामाराव के राज परिवार का मखौल उड़ाने के लिए भी चल रहे हैं.

रामाराव का परिवार तो पहले से ही लक्ष्मी पार्वती को खलनायिका मानता रहा है. सितंबर तिरानवे में जब उनसे रामाराव ने विवाह किया उसके पहले से. लक्ष्मी पार्वती उनकी जीवनी लिखने के लिए नरसराउपेट से बस से हैदराबाद आती-जाती थीं. रामाराव ने उन्हें अपने ही घर रहने को जगह दे दी. रामाराव खुद ही कहते थे कि एक दिन खून में उनकी चीनी इतनी बढ़ गई कि वे बेहोशी की हालत में आ गए. तब लक्ष्मी पार्वती ही उन्हें अस्पताल ले गईं. वे नहीं ले जातीं तो मेरी जान नहीं बच सकती थी. फिर तिरानवे के शुरू में लकवे के वार से रामाराव बीमार हुए. लक्ष्मी पार्वती ने ही सेवा सुश्रूषा करके उन्हें ठीक किया. लकवा और दिल का एक आध हल्का दौरा और भी पड़ा जब लक्ष्मी पार्वती ने उनकी सेवा की.

सन उननवे (नवासी) में सत्ता से बाहर होने के बाद रामाराव बहुत अकेले पड़ गए थे. कहते हैं परिवार वालों ने उन्हें देखना-भालना तक छोड़ दिया था. सब अपने काम-धंधों और मौज मजे में लगे थे. कई बार रामाराव दौरा करके लौटते और भूखे पेट ही सो जाते. अकेले खाना खाते-खाते वे इतने तंग आ गए थे कि एक बार तो साथ खाना खाने के लिए उनने अपने एक पत्रकार दोस्त को ही बुला लिया. सन् चौरासी में उनकी पहली पत्नी बासवतारकम्मा की कैंसर से मृत्यु हो गई थी. तब से वे भगवा धारण करके रहते और अपने को राजनीति में लगाए रखते.

जब तक सत्ता में रहे तब तक तो आसपास बहुत भीड़ रही और बेटे-बेटी, बहू-दामाद भी घेरे रहे. लेकिन सत्ता गई तो बिल्कुल अकेलेपन ने पकड़ लिया. लक्ष्मी पार्वती ने उन्हें न सिर्फ इस अकेलेपन से ऊबारा उन्हें नया जीवन देकर नए राजनैतिक संघर्ष के लिए तैयार भी किया. एक तरह से नवजीवन से भर दिया. रामाराव भगवा छोड़कर पैंट-बुशर्ट और हैट में चुनाव अभियान पर निकले और लक्ष्मी पार्वती उनके साथ रहीं. इस बार वे सन् तिरयासी और पिच्चासी से भी बड़े बहुमत से जीते.

लक्ष्मी पार्वती राजनीति में उनके साथ, उनकी सलाहकार और सहकर्मी की तरह हो गईं. इसी से पार्टी और फिर सरकार में उनका पव्वा बढ़ा. वे असंवैधानिक सत्ता केंद्र हो गईं. कभी चंद्रबाबू नायडू भी ऐसे ही सत्ता केंद्र थे. रामाराव के बेटे-बेटी, बेटी-दामाद इसीलिए लक्ष्मी पार्वती से कुपित और दुखी थे कि उनके पिता पर विमाता का लगभग पूरा और अटूट नियंत्रण था और अब तक पिता की जो सत्ता उनके पास थी वह छिन कर विमाता की मुट्ठी में चली गई थी. पिता की संपत्ति और सत्ता पर जो अधिकार रामाराव के बेटे-दामाद अपना मानते थे वह अब पूरी तरह लक्ष्मी पार्वती का हो गया था क्योंकि रामाराव उनके सामने किसी की सुनते नहीं थे.

यह संभव है कि लक्ष्मी पार्वती की लपलपाती महत्वाकांक्षी मात्र राजनैतिक थी और उसे पूरी करने के लिए वे बूढ़े रामाराव का इस्तेमाल कर रही थीं. हो सकता है इसीलिए वे रामाराव की सत्ताकांक्षा और कामाक्षा दोनों को सुलगाए रखती थीं क्योंकि इन्हीं से रामाराव की उन पर निर्भरता लगभग संपूर्ण और दयनीय हो जाती थी. सन् तिरानवे में रामाराव से विवाह और उनके निधन के बाद तक लक्ष्मी पार्वती के तौर-तरीकों से साफ है कि वे एनटीआर की पत्नी होने और उनकी सेवा सुश्रूषा को अपने लिए राजनैतिक लाभ में बदलने को तत्पर रही हैं. लेकिन, यही सब आरोप तो रामाराव के दोनों दामादों और राजनीति में सक्रिय बेटों पर भी आसानी से लगते हैं.

सवाल यह है कि इतने भूरे-पूरे परिवार और फिल्मों और राजनीति में सफल जीवन वाले रामाराव इतने अकेले क्यों हो गए थे? और वे ऐसी बुरी तरह लक्ष्मी पार्वती पर आश्रित कैसे हो गए कि बुढ़ापे के इस प्रेम और जवान पत्नी ने उन्हें अपने परिवार से इतना काट दिया और अध्यक्ष के नाते अपनी पार्टी और मुख्यमंत्री के नाते अपने राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों को भी वे भूल गए? क्यों उनके बेटे-बेटियों और बहुओं-दामादों ने उन्हें ऐसा अकेला छोड़ दिया कि उनकी जीवनी लिखने आई एक तलाकशुदा औरत उनके जीवन की सबसे महत्वपूर्ण महिला हो गई?

परिवारवालों को एनटीआर ने न सिर्फ अपनी संपत्ति बांट दी थी बल्कि उन्हें सत्ता में भी ऐसी भूमिकाएं दे दी थीं जो लोकतंत्र में परिवार के लोगों को नहीं दी जानी चाहिए. फिर भी वे इतने असुरक्षित क्यों हो गए कि लक्ष्मी पार्वती के राजनीति में रुचि लेने से उन्हें इतना डर लगने लगा? क्यों रामाराव के बेटों-दामादों को यह नहीं लगा कि उनके पास जो भी है सब उन्हीं का दिया हुआ है और ऐसे पितृ पुरुष की प्रेम और सम्मान के साथ सार-संभाल करनी चाहिए? और जिस महिला ने उनके पिता की इतनी सेवा की और जिससे पिता ने विवाह कर लिया उसे वे सम्मान की जगह क्यों नहीं दे सके?

और आखिर में यह कि खुद रामाराव जो समाज सेवा करने और तेलगु लोगों के आत्मसम्मान को स्थापित करने राजनीति में आए थे इतनी जल्दी रास्ते से क्यों भटक गए? कहते हैं कि नंदेला भास्कर राव ने जब दलबदल करके उन्हें सन् चौरासी में अपदस्थ किया और उसके महीने भर बाद जब वे फिर सत्ता में आए तो उसके बाद उन्होंने सत्ता के मामले में किसी पर विश्वास नहीं किया. थोड़ा बहुत किया भी तो पहले दामाद पर और फिर पत्नी पर.

मृत्यु के पहले रामाराव दामाद चंद्रबाबू नायडू को औरंगजेब कहने लगे थे. अगर कोई पिता सारी सत्ता अपने हाथों में केंद्रित कर ले तो उसे औरंगजेब नहीं मिलेंगे तो क्या श्रवण कुमार मिलेंगे? लोकतंत्र में जनता से प्राप्त सत्ता का जो ऐसा निजीकरण कर ले और उसमें किसी भी भागीदार के लिए मौका ही नहीं छोड़े तो उसे तो धोखाधड़ी के साथ पीठ में छुरा भोंक कर ही हटाया जाएगा.

और ऐसे भरे-पूरे परिवार के रामाराव कैसे पितृ पुरुष थे जो सत्तर की उमर और इतनी बीमारियों के बावजूद ऐसे प्रेम जाल में फंसे और अपने से बत्तीस साल छोटी महिला की वासनाओं पर खेलने लगे. बेटे-बेटियों, नाती-पोतों और परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों को भूलकर ऐसे दीवाने हो गए. समाज सेवा के लिए राजनीति में उतरे रामाराव दूसरी पत्नी की सेवा से ऐसे अभिभूत क्यों हो गए कि दीन-दुनिया ही भूल गए. जो तांत्रिक क्रियाओं में लाशों पर बैठकर पूजा करने और तिहत्तर बरस की उमर में इकतालीस बरस की महिला से पुत्र उत्पन्न करने के लिए यज्ञ करने लगे उस रामाराव की ऐसी फजीहत नहीं होती तो क्या होना चाहिए? रामाराव की जो गत हुई क्या वे उसके योग्य नहीं थे?

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