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क्यों रफाल सौदे पर उठने वाले सवालों को सिर्फ विपक्ष की राजनीति बता देना सही नहीं है

रफाल विमान सौदा

अक्टूबर 1953. फ्रांस से चार लड़ाकू विमानों ने भारत के लिए उड़ान भरी. इन्हें बनाने वाली कंपनी ने इनका नाम ऊरागां रखा था जिसका हिंदी में अर्थ होता है तूफान. इन विमानों को भारतीय वायु सेना में शामिल होना था. एक पखवाड़े का सफर तय करते हुए चारों विमान भारत पहुंच गए. भारतीय वायु सेना ने इन्हें नाम दिया – तूफानी.

68 साल बाद बीते मार्च में यह कहानी कमोबेश इसी तरह दोहराई गई जब फ्रांस से उड़ान भरते हुए तीन रफाल विमान भारत पहुंचे [1]. यह दोनों देशों के बीच हुए 36 विमानों के सौदे की चौथी खेप थी. इस तरह अब भारत के पास अब ऐसे 14 विमान हो गए हैं. रफाल को भी उसी फ्रांसीसी कंपनी दसॉ ने बनाया है जिसने तूफानी को बनाया था. तूफानी की तरह रफाल भी वायु सेना की दो टुकड़ियों (स्क्वैड्रन्स) का हिस्सा बनेंगे.

हालांकि 67 साल के अंतराल पर हुई इन दोनों घटनाओं में कुछ अंतर भी हैं. रफाल की हर खेप के भारत पहुंचने की खूब चर्चा रही. टीवी चैनलों से लेकर अखबारों और सोशल मीडिया तक हर जगह इसका खुमार देखा गया. करीब सात दशक पहले जब तूफानी अंबाला बेस में उतरे थे तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था. बताया जाता है कि तब बेस पर महज दस-ग्यारह अधिकारियों ने ही इन विमानों का स्वागत किया था.

रफाल विमानों ने फ्रांस से भारत की अपनी यात्रा में सिर्फ एक विराम लिया, हालांकि वे इसके बिना भी यह सफर पूरा कर सकते थे. उधर, 1953 में आए विमानों की यात्रा एक पखवाड़े की थी और इस दौरान ये 11 जगहों पर रुके. विडंबना देखिए कि उनका आखिरी स्टॉप कराची था जहां 12 साल बाद यानी 1965 की लड़ाई में उन्होंने बम बरसाए. तूफानी विमानों ने गोवा की पुर्तगाली शासन से मुक्ति से लेकर मिजोरम में अलगाववाद को कुचलने तक कई मोर्चों पर शानदार प्रदर्शन किया. उधर, रफाल के बारे में कहा जा रहा है कि ये लड़ाकू विमान पाकिस्तान और चीन यानी दो तरफ से बढ़ रहे खतरे के बीच वायु सेना को नई ताकत देने जा रहे हैं.

ऐसा कहने की वजह वे हथियार [2] हैं जो रफाल में लगने हैं और जो इस विमान की क्षमताओं को चीन और पाकिस्तान के पास मौजूद लड़ाकू विमानों से कुछ आगे ले जाते हैं. इनमें सबसे खतरनाक है हवा से हवा में मार करने वाली मिटिऑर मिसाइल. वैसे तो ऐसी मिसाइलें दूसरे विमानों में भी होती हैं लेकिन, मिटिऑर 120 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर स्थित लक्ष्य को भेद सकती है. यानी रफाल का पायलट दुश्मन के विमान की मिसाइल से बिलकुल सुरक्षित रहते हुए ही उसे बड़े आराम से उड़ा सकता है.

इसके अलावा रफाल एमआईसीए मिसाइल लेकर भी उड़ेगा. यह मिसाइल 500 मीटर से लेकर 80 किलोमीटर तक मार कर सकती है. यानी यह आमने-सामने की लड़ाई के लिए भी उतनी ही सटीक है जितनी बहुत दूर मौजूद किसी लक्ष्य को भेदने के लिए. एमआईसीए को बनाने वाली कंपनी एमबीडीए के मुताबिक यह दुनिया में इस तरह की अकेली मिसाइल है. इसकी एक और खास बात यह है कि लंबी दूरी का एक बड़ा हिस्सा यह कोई रडार तरंग छोड़े बगैर तय करती है. यानी जब तक दुश्मन खबरदार हो पाता है तब तक वह अपने बचने का हर मौका खो चुका होता है. इसके अलावा रफाल अपने साथ हवा से जमीन में मार करने वाली स्कैल्प डीप स्ट्राइक क्रूज मिसाइल लेकर भी उड़ेगा. इसकी मदद से अपनी सीमा के भीतर रहकर ही दुश्मन की सीमा के काफी भीतर तक स्थित ठिकानों को भी तबाह किया जा सकता है. इसकी खासियत यह भी है कि लक्ष्य से टकराने के बाद यह कई धमाके करती है और इस तरह अपने लक्ष्य को व्यापक नुकसान पहुंचाती है.

लेकिन क्या ये खूबियां उस कीमत को न्यायसंगत साबित करती हैं जिसे चुकाकर रफाल को खरीदा गया है? यह सवाल एक बार फिर मौजूं हो गया है. इसकी वजह वह खबर है जिसके मुताबिक फ्रांस सरकार ने भारत के साथ हुए रफाल सौदे में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की अगुवाई के लिए एक जज की नियुक्ति कर दी है. खोजी पत्रकारिता के लिए लिए चर्चित फ्रांस की ही वेबसाइट मीडियापार्ट [3] का कहना है कि बीती 14 जून से इस मामले की जांच औपचारिक रूप से शुरू भी हो गई है.

रफाल सौदे की कहानी 2006 से शुरू होती है जब भारत के रक्षा मंत्रालय ने लड़ाकू विमानों को खरीदने की प्रक्रिया की औपचारिक शुरुआत की. इसके बाद 2011 तक भारतीय वायु सेना ने विभिन्न कंपनियों के विमान का फील्ड ट्रायल किया. फील्ड ट्रायल के बाद दो कंपनियों दसॉ और यूरोफाइटर टाइफून नाम का विमान बनाने वाली यूरोपीय कंपनियों के एक कंसॉर्टियम को शाॅर्टलिस्ट किया गया. दोनों ने अपना प्रस्ताव भारत सरकार के पास रखा. इसके बाद जनवरी 2012 में खबर [4] आई कि कम कीमत की पेशकश के चलते दसॉ ने बाजी मार ली है.

इस सौदे के तहत 126 विमान खरीदे जाने थे. इनमें से 18 को फ्लाइअवे यानी रेडीमेड हालत में दिया जाना था और 108 सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी हिंदुस्तान एयरोनाॅटिक्स लिमिटेड (एचएएल) द्वारा असेंबल किये जाने थे. मतलब कि 108 रफाल विमानों के पुर्जे दसॉ देती और उन्हें विमान की शक्ल देने का काम एचएएल करती. सौदे के तहत एचएएल को तकनीक का हस्तांतरण यानी टेक्नॉलाॅजी ट्रांसफर भी होना था.

मार्च 2015 तक इसी सौदे पर बात चल रही थी. लेकिन अगले ही महीने अपनी फ्रांस यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक ऐलान [5] किया कि भारत सरकार दसॉ से 36 रफाल विमान खरीदने जा रही है. बाद में आधिकारिक सूत्रों के हवाले से खबरें आईं कि इस सौदे की कीमत आखिर में 60 हजार करोड़ रु तक जा सकती है. इस हिसाब से देखें तो एक रफाल विमान 1600 करोड़ रु से भी ज्यादा का पड़ रहा है.

मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस इस आंकड़े को लेकर ही मोदी सरकार पर हमलावर रहा है. उसके मुताबिक उसकी अगुवाई वाली यूपीए सरकार ने यह सौदा 526 करोड़ रु प्रति विमान के हिसाब से तय किया था तो मोदी सरकार के समय यह रकम तिगुनी से भी ज्यादा क्यों हो गई है. बीते साल रफाल विमानों की पहली खेप भारत आने के बाद वायु सेना को बधाई देते हुए कांंग्रेस नेता राहुल गांधी का कहना था, ‘क्या भारत सरकार इसका जवाब दे सकती है: (1) क्यों हर विमान की कीमत 526 के बजाय 1670 करोड़ बैठ रही है? (2) 126 के बजाय 36 विमान क्यों खरीदे गए? (3) क्यों एचएएल के बजाय दिवालिया अनिल (अंबानी) को 30 हजार करोड़ का ठेका दिया गया?’

मीडियापार्ट ने कुछ समय पहले इस सौदे की पड़ताल [6] भी की थी. रफाल पेपर्स नाम की तीन हिस्सों वाली इस पड़ताल के पहले भाग में दावा किया गया कि फ्रांस के अधिकारियों को रफाल सौदे में हुई गड़बड़ियों के सिलसिले में काफी अहम जानकारियां मिली थीं, लेकिन प्राथमिक जांच के बाद यह मामला बंद कर दिया गया.

मीडियापार्ट के मुताबिक दसॉ के खातों के ऑडिट के दौरान फ्रांस की भ्रष्टाचार निरोधक संस्था एएफए को एक ऐसे भुगतान की जानकारी मिली थी जो संदिग्ध था. उसकी मानें तो एएफए के जांचकर्ताओं को पता चला था कि 2016 में रफाल सौदे पर दस्तखत होने के तुरंत बाद ही दसॉ एक बिचौलिये को 10 लाख यूरो (करीब साढ़े आठ करोड़ रुपये) देने के लिए राज़ी हो गई थी. सुषेन गुप्ता नाम का यह बिचौलिया वही शख्स है जिसे मार्च 2019 में प्रवर्तन निदेशालय ने अगस्ता वेस्टलैंड मामले में गिरफ्तार किया था. आरोप है कि गुप्ता और उसके साथियों को हेलिकॉप्टरों के इस सौदे में करीब पांच करोड़ यूरो का कमीशन मिला था. माना जा रहा है कि यह रकम भारतीय अधिकारियों को रिश्वत देने के लिए इस्तेमाल की गई.

दसॉ का कहना है कि रफाल सौदे को लेकर 10 लाख यूरो की यह रकम इस लड़ाकू विमान के 50 मॉडल बनाने के लिए दी गई. ये मॉडल अलग-अलग जगहों पर लगने थे. लेकिन एएफए के जांचकर्ताओं को ऐसा कोई सबूत नहीं मिला कि ऐसे मॉडल वास्तव में बनाए गए थे. 2017 में दसॉ के खातों को खंगालने के दौरान पांच लाख यूरो की एक ऐसी एंट्री दिखी जिसके आगे ‘गिफ्ट टू क्लाइंट’ लिखा था. उपहार के लिहाज से यह आंकड़ा काफी बड़ा था. जब कंपनी से जवाब मांगा गया तो उसने एएफए को एक इनवॉयस दी. करीब पांच लाख यूरो की यह इनवॉयस डेफसिस सॉल्यूशंस नाम की एक भारतीय कंपनी की तरफ से दसॉ को भेजी गई थी. यह रसीद उसी ऑर्डर से जुड़ी हुई थी जिसके तहत रफाल के 50 मॉडलों का निर्माण किया जाना था. मीडियापार्ट के मुताबिक डेफसिस सॉल्यूशंस सुषेन गुप्ता के परिवार की कंपनी है जिसके सदस्य तमाम रक्षा सौदों में बिचौलियों की भूमिका निभाते रहे हैं..

एएफए ने इसके बाद कई सवाल किए. मसलन दसॉ को अपने ही एक विमान का मॉडल किसी भारतीय कंपनी से बनवाने की जरूरत क्यों आन पड़ी? इस खर्च को खाते में गिफ्ट टू क्लाइंट के रूप में क्यों दिखाया गया? एक छोटी कार जितने साइज के ये मॉडल वास्तव में बने या नहीं? और बने भी तो क्या ऐसे हर मॉडल के लिए 20 हजार यूरो (करीब 17 लाख रुपये) की रकम उचित थी. मीडियापार्ट के मुताबिक दसॉ एएफए को एक भी ऐसा दस्तावेज नहीं दे पाई जिससे यह साबित हो सके कि ये मॉडल वास्तव में बने थे. दिलचस्प बात यह भी है कि 170 कर्मचारियों वाली डेफसिस सॉल्यूशंस की ऐसे मॉडल बनाने में कोई विशेषज्ञता नहीं है. कंपनी एयरोनॉटिकल इंडस्ट्री के लिए फ्लाइट स्टिम्युलेटर्स और इलेक्ट्रॉनिक सिस्टम्स बनाती है.

रफाल सौदे का मामला लेकर सुप्रीम कोर्ट जा चुके पूर्व केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी व यशवंत सिन्हा और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण भी मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा कर चुके हैं. उनका भी दावा है कि इस सौदे में बोफोर्स से कहीं बड़ा घोटाला हुआ है. सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की जांच की मांग करने वाली एक याचिका [7] दाखिल करके उन्होंने दावा किया था कि इस सौदे से देश को 36,000 करोड़ रु की चपत लगी है. हालांकि शीर्ष अदालत ने इस याचिका को खारिज कर दिया था.

कुछ मीडिया रिपोर्टों की भी मानें तो भारत ने रफाल के लिए दूसरे देशों से ज्यादा कीमत चुकाई है. ऐसी एक रिपोर्ट [8] के मुताबिक कतर ने भी फ्रांस से 36 रफाल खरीदने के लिए समझौता किया था और उसने एक विमान के लिए करीब 108 मिलियन डॉलर चुकाए. 2015 में हुए इस समझौते के हिसाब से देखें तो कतर को हर रफाल करीब 700 करोड़ रु का पड़ा.

उधर, केंद्र में सत्ताधारी भाजपा इस सौदे को लेकर लगने वाले सभी आरोपों को खारिज [9] करती रही है. बल्कि उसका दावा है कि उसकी सरकार ने यूपीए सरकार के समझौते की तुलना में कम कीमत पर यह समझौता किया है. करीब तीन साल पहले तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना [10] था कि यूपीए सरकार के समय इस सौदे की जो कीमत थी, उसकी तुलना में एनडीए सरकार की ओर से तय कीमत 20 फीसदी कम है. इससे करीब दो महीने पहले ही तत्कालीन रक्षा राज्य मंत्री सुभाष भामरे ने एक सवाल के जवाब [11] में राज्य सभा में कहा था कि एक विमान 670 करोड़ रु का पड़ा है. हालांकि उन्होंने इस सबंध में और कोई ब्योरा नहीं दिया जिससे कयास लगे कि सरकार ने खाली विमान की कीमत (बेस प्राइस) बताकर मामले से पल्ला झाड़ लिया है. वैसे भी सरकार रफाल सौदे की वास्तविक कीमत बताने के मामले में कभी हां, कभी ना वाले अंदाज में बर्ताव करती रही है.

सुप्रीम कोर्ट में खारिज हो चुकी अपनी याचिका में अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और प्रशांत भूषण का आरोप था कि रफाल के साथ मंगाए गए अतिरिक्त हथियारों की कीमत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाई गई ताकि नरेंद्र मोदी अपने मित्र अनिल अंबानी को फायदा पहुंचा सकें. असल में सौदे के ऑफसेट प्रावधान के तहत दसॉ को उसे मिलने वाली कुल रकम का 50 फीसदी यानी करीब 30 हजार करोड़ रु भारत में निवेश करना था. इसके तहत उसे अपने लिए एक भारतीय साझीदार चुनकर एक ऐसा संयुक्त उपक्रम भी बनाना था जो रफाल विमानों के रखरखाव और मरम्मत का काम देख सके. कंपनी ने भारतीय साझीदार के रूप में अनिल अंबानी का चयन किया.

इस पर सवाल इसलिए उठे कि एक तो अनिल अंबानी को रक्षा क्षेत्र में उत्पादन का कोई अनुभव नहीं था और दूसरा, उस समय वे दिवालिया होने के कगार पर होने के साथ-साथ 2जी घोटाला मामले में सीबीआई जांच का सामना भी कर रहे थे. इसी दौरान सितंबर 2018 में फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलांद ने भी अपने इस बयान  [12] से हंगामा खड़ा कर दिया था कि भारत सरकार ने ही फ्रांस सरकार से इस सौदे के भारतीय साझेदार के रूप में अनिल अंबानी की कंपनी के नाम का प्रस्ताव देने को कहा था. इससे पहले मोदी सरकार ने कहा था कि यह दो कंपनियों के बीच की बात है जिसमें उसकी कोई भूमिका नहीं है.

किस्सा कुल यह कि दावों और आरोपों के जवाब में हर पक्ष के अपने-अपने दावे और प्रत्यारोप हैं. लेकिन मूल सवाल अपनी जगह पर है कि आखिर प्रति विमान भारत को कितना खर्च करना पड़ा, 1670 करोड़ रुपये या 670 करोड़ रुपये. द क्विंट [13] से बातचीत में रक्षा विशेषज्ञ अजय शुक्ला कहते हैं, ‘कांग्रेस विमान की कीमत ज्यादा बता रही है और भाजपा कम. कुछ चीजें होती हैं जिनकी कीमत विमान की कीमत से अलग होती है और कुछ ऐसी होती हैं जो निश्चित रूप से इसमें शामिल होती हैं. उदाहरण के लिए स्पेयर पार्ट्स के लिए 1.8 अरब यूरो, रख-रखाव के लिए 30 करोड़ यूरो और हथियारों के लिए 70 करोड़ यूरो की रकम को विमान की कीमत में नहीं जोड़ा जा सकता जो कांग्रेस कर रही है.’ वे आगे कहते हैं, ‘लेकिन यह भी है कि एवियॉनिक्स और रडार जैसी जिन चीजों को भारत के हिसाब से जरूरी बदलाव कहा जा रहा है वे विमान की कीमत में शामिल होती हैं.’ अजय शुक्ला के मुताबिक अगर इन सब तकनीकी बातों को ध्यान में रखें तो एक विमान की कीमत 13.8 करोड़ यूरो यानी लगभग 917 करोड़ रु बैठती है.

तो क्या मोदी सरकार ने जरूरत से ज्यादा कीमत चुकाई? इस सवाल पर द क्विंट से ही बातचीत में दिल्ली स्थित चर्चित थिंक टैंक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च से जुड़े भरत कर्नाड कहते हैं, ‘यूपीए सरकार की योजना टोटल ट्रांसफर ऑफ टेक्नॉलॉजी यानी तकनीकी के पूर्ण हस्तांतरण की थी. कांग्रेस ने अपने वक्त में सौदेबाजी के बाद जो कीमत तय की थी वह उस रकम से करीब दो अरब डॉलर ज्यादा थी जो आज हम 36 विमानों के लिए दे रहे हैं, और वह सौदा 126 रफाल विमानों के लिए था. यह सही है कि यह 2010 की बात है, लेकिन अगर आप समय के साथ महंगाई में बढ़ोतरी वाला पहलू भी देखें तो भी मुझे नहीं लगता कि इतने कम विमानों के लिए यह आंकड़ा इतना ज्यादा हो जाना चाहिए और वह भी तब जब टेक्नॉलॉजी ट्रांसफर नहीं हो रहा है.’ वे आगे कहते हैं, ‘तकनीक ही वह बुनियादी कारण था जिसके चलते रफाल को भारतीय वायुसेना के लिए एक बढ़िया खरीद बताया गया था. सरकार ने भी तब इसे इस सौदे का मुख्य आकर्षण बताया था.’

कुछ अन्य विशेषज्ञ भी मानते हैं कि तकनीकी हस्तांतरण के प्रावधान को हटाकर नया सौदा ही करना था तो फिर और भी विकल्प हो सकते थे जो रफाल जितने ही प्रभावी लेकिन इससे काफी सस्ते होते. रक्षा मामलों को कवर करने वाले वरिष्ठ पत्रकार मनु पब्बी के मुताबिक जुलाई 2014 में यानी दसॉ के साथ 36 विमानों के नए सौदे से कुछ ही महीने पहले यूरोफाइटर टाइफून बनाने वाली यूरोपीय कंपनियों के कंसॉर्टियम ने तत्कालीन रक्षा अरुण जेटली को एक चिट्ठी [14] लिखी थी. यूपीए सरकार के समय शुरू हुई खरीद प्रक्रिया में अपनी कम बोली के साथ रफाल ने यूरोपीय टाइफून को ही पछाड़ा था. इस चिट्ठी में यह विमान 5.9 करोड़ यूरो यानी करीब 453 रु में देने की पेशकश की गई थी. इस पेशकश में तकनीक के पूर्ण हस्तांतरण की बात भी थी जिसके तहत भारत में यूरोफाइटर के उत्पादन और रखरखाव के लिए इकाइयां लगाई जातीं. लेकिन सरकार ने इस पर विचार नहीं किया.

इस मुद्दे पर सरकार यह भी तर्क देती रही है कि ऑफसेट प्रावधान के तहत आधा पैसा वापस भारत में ही निवेश होना है. लेकिन विशेषज्ञ इस पर भी सवाल उठाते हैं. दिल्ली स्थित थिंक टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन से जुड़े और सेना के आधुनिकीकरण पर नजर रखने वाले पूषन दास कहते [13] हैं, ‘जो सौदा हुआ है उसके तहत दसॉ को यह छूट है कि वह ऑफसेट प्रावधान के तहत लगने वाला पैसा भारत में जहां और जैसे चाहे लगाए. इसका ज्यादातर हिस्सा दसॉ के असैन्य कारोबारों पर लग रहा है. उदाहरण के लिए फाल्कन (छोटा विमान) और जेट विमानों पर. तो क्या इस प्रावधान से भारत की सैन्य क्षमताओं को कोई फायदा हो रहा है? नहीं.’ सुप्रीम कोर्ट में दायर अपनी याचिका में अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और प्रशांत भूषण ने भी यह सवाल उठाया था.

सवाल और भी हैं. रफाल भारतीय वायु सेना के पास आने वाला सातवां लड़ाकू विमान है जो सुखोई और मिराज जैसे दूसरे विमानों के साथ अपनी सेवाएं देगा. अपने एक लेख [15] में रक्षा विशेषज्ञ राहुल बेदी कहते हैं कि इससे पहले से ही कम बजट के चलते रखरखाव की चुनौतियों से जूझ रही वायुसेना की मुश्किलें बढ़ना भी तय है. इसे इस बात से भी समझा जा सकता है कि किसी अभियान के लिए उपलब्ध (सही) लड़ाकू विमानों की संख्या का औसत आंकड़ा कई साल से 55 से 60 फीसदी पर ही अटका हुआ है. यानी वायु सेना का एयरक्राफ्ट ऑन ग्राउंड रेट (खराब विमानों का आंकड़ा) काफी ज्यादा है. यह भी एक प्रमुख वजह है कि उसे निर्धारित 42 स्क्वैड्रन्स के बजाय 28 स्क्वैड्रन्स से ही काम चलाना पड़ रहा है. नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) से लेकर रक्षा समिति की कई रिपोर्टों में यह मुद्दा उठाया गया, लेकिन बात वहीं की वहीं है.

इसे इन आंकड़ों से भी समझा जा सकता है कि पिछले वित्तीय वर्ष में वायु सेना को जो करीब 30 हजार करोड़ रु का आवंटन हुआ उसमें से 9100 करोड़ रु एमआरओ यानी मेंटेनेंस, रिपेयर और ओवरहॉल के लिए रखा गया. हैरानी की बात है कि यह आंकड़ा उससे पिछले वित्तीय वर्ष यानी 2019-20 में आवंटित किए गए आंकड़े से करीब 600 करोड़ रु कम था जबकि पहले से ही मौजूद चुनौतियों और रफाल के आने के चलते इसे बढ़ना चाहिए था. ऐसे में विशेषज्ञों का मानना है कि सिर्फ 36 विमानों के लिहाज से उनके रखरखाव सहित तमाम जरूरतों के लिए मंहगा बुनियादी ढांचा जोड़ना तर्कसंगत नहीं लगता.

‘महज 36 विमान खरीदने के पीछे एक ही तर्क हो सकता है और वह यह है कि इसे विशेष रूप से परमाणु हथियारों की तैनाती के लिए खरीदा गया है’ अजय शुक्ला आगे जोड़ते हैं, ‘लेकिन भारत के पास इस मोर्चे पर भी कहीं बेहतर विकल्प मौजूद हैं. अगर यही जरूरत थी तो बह्मोस मिसाइल में सुधार करके उसमें परमाणु हथियार लगाए जा सकते थे और उन्हें सुखोई-30 से लॉन्च किया जा सकता था. तो रफाल खरीदने के लिए कोई बढ़िया दलील नहीं है.’

जानकारों के मुताबिक इसमें कोई शक नहीं है कि वायु सेना को लड़ाकू विमानों की काफी जरूरत है. लेकिन वह रफाल जैसे विमानों के लिए बेचैन नहीं है. उसे ऐसे विमान चाहिए जो कीमत के हिसाब से ठीक हों, और जिन्हें वह ज्यादा संख्या में खरीद सके, जिनके लिए बुनियादी ढांचा विकसित किया जा सके और जिन्हें इस्तेमाल करना भी किफायती हो. जैसा कि अजय शुक्ला कहते हैं, ‘रफाल इनमें से किसी भी शर्त पर खरा नहीं उतरता.’

रफाल को लेकर ऐसे तमाम सवालों पर मोदी सरकार का रुख स्पष्ट तथ्य सामने रखने के बजाय नकार या प्रतिकार या फिर राष्ट्रवाद की हुंकार वाला ही रहा है. इससे निकालने वाले यह मतलब भी निकाल सकते हैं कि उसके पास शायद ऐसे तथ्य हैं ही नहीं जो इस मामले में उसके विरोधियों की बोलती बंद कर सकें. और इसीलिए वह अपने बचाव में शायद यह भी कहती रही कि इस सौदे के बारे में जानकारी देना उस समझौते का उल्लंघन होगा जो उसके और फ्रांस के बीच हुआ है. इसका आशय यह है कि इस सौदे से जुड़ी जानकारियां सार्वजनिक होने पर फ्रांस रफाल के दूसरे संभावित खरीदारों से मोल-भाव करने की स्थिति में नहीं रहेगा इसलिए रफाल सौदे से जुड़े समझौते की कई बातों को गुप्त रखने की शर्त भी इसी समझौते में है. मोदी सरकार का एक तर्क यह भी रहा है कि यह राष्ट्रीय सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए भी भारत को मिलने वाले रफाल विमान के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं दे सकती.

ये तर्क नरेंद्र मोदी सरकार ने पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान तब भी दिये जब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अपना पूरा चुनाव अभियान रफाल सौदे के इर्द-गिर्द ही इस नारे के साथ चला रहे थे कि ‘चौकीदार चोर है’. इसके चलते चुनावी रैलियों के मोर्चे पर प्रधानमंत्री को अतिरिक्त जोर लगाना पड़ा था. ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या किसी दूसरे देश के साथ किये गये किसी समझौते का अक्षरश: पालन करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह अपनी कुर्सी और राजनीति को दांव पर लगा सकते थे? क्या जब इतना कुछ दांव पर लगा हो तब भी वे कोई ऐसा तरीका निकालने से चूक सकते थे जो रफाल समझौते के ऐसे तथ्यों को सामने रखता जो यह साबित करते कि मोदी सरकार ने यह सौदा मनमोहन सरकार से ज्यादा अच्छी शर्तों के साथ किया है? क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किये बिना सौदे से जुड़े मोटे-मोटे ऐसे तथ्यों को वे हमारे सामने नहीं रखते जो विपक्ष की बोलती पूरी तरह से बंद कर देते? लेकिन उन्होंने अगर ऐसा नहीं किया तो यह सवाल उठना कोई बड़ी बात नहीं लगती कि क्या इस समझौते में ऐसा कुछ भी है जो सामने आने पर मोदी सरकार को असहज कर सकता है?

अगर यह बात सच है और मोदी सरकार का यह दावा भी कि इस समझौते में कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ है, तो एक अनुमान यह भी लगाया जा सकता है कि इस सौदे को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शायद तय प्रक्रियाओं से ज्यादा अपनी उस राजनीतिक शैली पर भरोसा किया जिसके लिए वे जाने जाते हैं. यानी अचानक कोई बड़ा फैसला लेकर सबको चकित कर देना. 2015 में जब यह फैसला लिया गया उस वक्त तक नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने ज्यादा समय नहीं हुआ था. तो हो सकता है इस मामले में अनुभव की कमी ने भी कुछ भूमिका निभाई हो. चूंकि सौदे का फैसला करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही थे (यहां तक कि तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर तक को इसके बारे में पहले से पता नहीं था) तो चूक की जिम्मेदारी उन पर ही आनी थी. और यह सरकार के लिए बड़ी किरकिरी का विषय होता, इसलिए कुछ लोग मानते हैं कि इससे निपटने के लिए कुछ भी साफ-साफ न बताने की रणनीति अपनाई गई.

वैसे कुछ समय पहले ही यह खबर [16] भी आई थी कि रक्षा मंत्रालय ने 2015 में ही प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) पर रफाल सौदे के मामले में समानांतर बातचीत का आरोप लगाते हुए इस पर नाराजगी जाहिर की थी. मंत्रालय का कहना था कि इससे सौदेबाजी के मोर्चे पर उसकी स्थिति कमजोर हुई है.

जैसा कि अपेक्षित था. रफाल सौदे की फ्रांस में जांच शुरू होने के बाद भारत में भी इस पर राजनीति गर्मा गई है. कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला के मुताबिक [17]इससे साफ है कि सौदे में भ्रष्टाचार हुआ है जिसका आरोप वह शुरुआत से लगाती रही है. उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मांग की है कि जांच के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जाए. उधर, भाजपा ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया दी है. पार्टी प्रवक्ता संबित पात्रा का कहना है कि फ्रांस के एक एनजीओ ने भ्रष्टाचार के आरोप लगाए हैं और वहां की सरकार ने मामले की जांच के आदेश दिए हैं. भाजपा प्रवक्ता का तर्क है कि यह एक औपचारिक प्रक्रिया है और इससे कोई भ्रष्टाचार साबित नहीं होता जैसा कि कांग्रेस कह रही है.