तमिलनाडु की राजनीति में सक्रिय होने का ऐलान करने के बाद अब रजनीकांत का यह कहना है कि उन्हें ईश्वर ने ऐसा न करने का संदेश दिया है
विकास बहुगुणा | 08 जनवरी 2021 | फोटो: यूट्यूब स्क्रीनशॉट
आखिरकार सुपरस्टार रजनीकांत ने राजनीति में आने से पहले ही इससे किनारा कर लिया. इसके पीछे उन्होंने स्वास्थ्य कारणों का हवाला दिया. हाल ही में रजनीकांत ने ऐलान किया था कि जनवरी में यानी इसी महीने वे अपनी पार्टी लॉन्च कर देंगे. लेकिन बीते दिनों जारी एक बयान में उन्होंने कहा कि वे चुनावी राजनीति में उतरे बिना जनता के लिए काम करना जारी रखेंगे. उन्होंने अपने प्रशंसकों से उनका यह फैसला स्वीकार करने का अनुरोध भी किया.
रजनीकांत का यह बयान हैदराबाद में एक फिल्म की शूटिंग के दौरान तबीयत खराब होने के बाद आया. उन्होंने कहा कि वे इसे ईश्वर के संदेश के रूप में देखते हैं. उन्होंने आगे जो कहा उसका सार यह था कि बढ़ती उम्र और सेहत के साथ न देने के चलते वे जमीन पर पर्याप्त मेहनत नहीं कर सकेंगे और सिर्फ सोशल मीडिया के सहारे राजनीति करने का कोई मतलब नहीं.
रजनीकांत के इस यूटर्न पर जानकारों की राय दो खेमों में बंटी दिखती है. कई मानते हैं कि यह अभिनेता राजनीति में भी एक सुपरस्टार वाली पारी खेल सकता था और इस लिहाज से रजनीकांत ने एक बड़ा मौका गंवा दिया है. उधर, एक वर्ग की राय इसके उलट है. उसके मुताबिक रजनीकांत में वह क्षमता ही नहीं है कि वे राजनीति में कोई कमाल कर पाते.
वैसे राजनीति में आने के संकेत देना और फिर पीछे हट जाना रजनीकांत के लिए नई बात नहीं है. उनके सियासी मैदान में उतरने के कयास करीब ढाई दशक पहले से ही लगने लगे थे. इनकी शुरुआत 1996 से हुई थी. उस साल विधानसभा चुनाव थे और रजनीकांत का यह बयान अचानक सुर्खियां बन गया था कि अगर जयललिता फिर जीत गईं तो तमिलनाडु को भगवान भी नहीं बचा सकता. उन दिनों जयललिता से जुड़ी भ्रष्टाचार की खबरें खूब चर्चा में थीं. रजनीकांत का यह बयान भी इसी सिलसिले में आया था. जयललिता की पार्टी यानी एआईएडीएमके वह चुनाव हार गई थी.
इस चुनाव में रजनीकांत ने एक ओर तो जयललिता और उनकी पार्टी का विरोध किया था और दूसरी तरफ डीएमके और तमिल मनीला कांग्रेस के गठबंधन का समर्थन. इस गठबंधन को शानदार जीत हासिल हुई थी. माना जाता है कि यह रजनीकांत की वजह से ही संभव हुआ था. ‘थलैवा’ (रजनीकांत को उनके प्रशंसक द्वारा दिया गया संबोधन जिसका मतलब ‘नेता’ होता है) के बयान तो अपनी जगह थे ही, उनके प्रशंसकों ने भी गठबंधन उम्मीदवारों के पक्ष में काम किया था. इसके बाद माना जाने लगा था कि रजनीकांत अब जल्द ही राजनीति में आ सकते हैं.
लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसकी वजह 1998 का आम चुनाव बताया जाता है. तब भी रजनीकांत ने डीएमके गठबंधन का समर्थन किया था. लेकिन चुनाव का नतीजा वैसा नहीं रहा जैसा विधानसभा चुनाव के दौरान दिखा था. राज्य की 39 लोकसभा सीटों में से 30 एआईएडीएमके ने जीत लीं. डीएमके को महज छह सीटों से संतोष करना पड़ा. इसके बाद राजनीति को लेकर रजनीकांत की मुखरता काफी हद तक कम हो गई. वे राजनीतिक बयान देने से बचने लगे. कभी उनसे राजनीति में आने के बारे में पूछा जाता तो वे यही कहते कि यह फैसला सही वक्त आने पर लिया जाएगा.
बहरहाल, वक्त गुजरता गया और 2014 का आम चुनाव आ पहुंचा. इसी दौरान अचानक खबर आई कि भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी चेन्नई में रजनीकांत के घर पहुंचे हैं. इसके बाद रजनीकांत का बयान आया कि नरेंद्र मोदी एक असाधारण नेता और अच्छे प्रशासक हैं. फिर क्या था. इस सुपरस्टार के राजनीति में आने को लेकर एक बार फिर कयासबाजी होने लगी. बहुतों का मानना था कि भाजपा दक्षिण में अपने विस्तार के लिए चेहरा ढूंढ रही है और वह चेहरा रजनीकांत हो सकते हैं.
1998 के आम चुनाव में भी रजनीकांत ने डीएमके गठबंधन का समर्थन किया था. लेकिन चुनाव का नतीजा वैसा नहीं रहा जैसा विधानसभा चुनाव के दौरान दिखा था. इसके बाद राजनीति को लेकर रजनीकांत की मुखरता काफी हद तक कम हो गई.
इन अटकलों को थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद आने वाले रजनीकांत के बयान भी हवा देते रहे. मसलन कभी उन्होंने नरेंद्र मोदी और अमित शाह को कृष्ण और अर्जुन की जोड़ी बताया तो कभी कहा कि प्रधानमंत्री मोदी, जवाहरलाल नेहरू की तरह करिश्माई नेता हैं. हालांकि इन बयानों पर उठी आलोचनाओं के बाद सफाई देते हुए वे यह भी कहते रहे कि उनके पीछे भाजपा नहीं बल्कि जनता है.
आखिरकार 31 दिसंबर 2017 को रजनीकांत ने सस्पेंस खत्म कर दिया. चेन्नई में एक आयोजन में उन्होंंने कहा, ‘मैं अब राजनीति में आ रहा हूं. ये आज की सबसे बड़ी जरूरत है.’ उन्होंने ऐलान किया कि 2021 यानी अगले विधानसभा चुनावों में वे राज्य की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेंगे. खबरें आईं कि रजनीकांत मक्कल मंदरम नाम का एक संगठन बन गया है और प्रशंसकों से जमीनी स्तर पर काम करने को कह दिया गया है. फिर तीन साल हो गए और गाड़ी कुछ खास आगे बढ़ती नहीं दिखी. लेकिन बीते महीने अटकलों को विराम देते हुए रजनीकांत ने ऐलान किया कि जनवरी 2021 में उनकी पार्टी वजूद में आ जाएगी. एक ट्वीट में उनका कहना था, ‘अभी नहीं तो कभी नहीं.’ लेकिन इसके बाद उन्होंने यू-टर्न ले लिया.
70 साल के रजनीकांत ने कुछ महीने पहले अपनी भावी राजनीतिक कार्यशैली का मोटा-मोटा खाका भी सामने रखा था. खुद के मुख्यमंत्री बनने की संभावना को पूरी तरह नकारते हुए उनका कहना था कि उनकी उम्र ज्यादा हो चुकी है और वे अब राजनेता पैदा करना चाहते हैं. उन्होंने ऐलान किया कि उनकी पार्टी और सरकार की कमान अलग-अलग लोगों के पास होगी. रजनीकांत का कहना था, ‘पार्टी का मुखिया विपक्ष के नेता की तरह काम करेगा और सरकार के काम को आलोचनात्मक नजर से देखेगा.’
सवाल है कि रजनीकांत के आने से तमिलनाडु की राजनीतिक तस्वीर में क्या बदलाव आ सकता था. क्या अपनी फिल्मों से उपजी अपार लोकप्रियता को वे इतने वोटों में बदल पाते कि राज्य की सत्ता हासिल कर सकें जैसा कि एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) ने किया था? डीएमके से निकाले जाने के बाद तमिल फिल्मों के सुपरस्टार एमजीआर ने अपनी ही पार्टी यानी एआईएडीएमके बना ली थी. इसने अगले ही विधानसभा चुनाव में उसने डीएमके को हरा दिया था और इस तरह एमजीआर मुख्यमंत्री बन गए थे.
एमजीआर से रजनीकांत की तुलना स्वाभाविक है. एमजीआर की तरह वे भी सुपरस्टार हैं. उनके प्रशंसक भी उन्हें भगवान मानते हैं. समानता का यह सिलसिला आगे भी जाता है. एमजीआर की तरह रजनीकांत भी मूल रूप से तमिलनाडु के और तमिल नहीं हैं. एमजीआर श्रीलंका के कैंडी में एक मलयाली परिवार में पैदा हुए. उधर, रजनीकांत की पैदाइश बेंगलुरु की है और वे एक मराठी हैं. उनका नाम पहले शिवाजीराव गायकवाड़ था. रजनीकांत नाम उन्हें 1975 में तमिल फिल्मों के मशहूर निर्देशक के बालचंदर ने दिया जिनके साथ उन्होंने इसी साल फिल्म अपूर्वा रागांगल के रूप में अपने फिल्म करियर की शुरुआत की थी.
एमजीआर की तरह रजनीकांत भी लोकप्रियता के शीर्ष पर रहते हुए फिल्मों से राजनीति में जाने की तैयारी कर रहे थे. उनका करिश्मा भी वैसा ही है जैसा 70 के दशक में एमजीआर (एमजी रामचंद्रन) का था. एमजीआर की तरह रजनीकांत की छवि भी फिल्म स्टार के साथ-साथ एक अच्छे इंसान की भी है. फिल्म जगत और इसके बाहर भी वे लोगों की मदद करते रहते हैं. कई लोग मानते हैं कि वे एक ईमानदार शख्स हैं जो तमिलनाडु के लिए कुछ अच्छा करना चाहता है. एमजीआर की तरह रजनीकांत भी राष्ट्रवादी हैं.
इतिहास गवाह है कि राजनीति में सफलता कई बार परिस्थितियों पर भी निर्भर करती है. तमिलनाडु में मौजूदा हालात रजनीकांत के अनुकूल थे. राज्य में करीब पांच दशक से सत्ता या तो डीएमके के पास रही है या फिर उस पर एआईएडीएमके का कब्जा रहा है. यही वजह है कि लोगों का एक बड़ा तबका इन पार्टियों से ऊबा दिखता है. द हिंदू से बातचीत में वरिष्ठ पत्रकार और चर्चित तमिल पत्रिका तुगलक के संपादक एस गुरुमूर्ति कहते हैं, ‘राज्य के लोग इन दोनों पार्टियों से ऊब चुके हैं…. ये ऊब इस बार और भी ज्यादा है क्योंकि इससे निपटने की क्षमता रखने वाले दो बड़े नेता (एम करुणानिधि और जयललिता) अब इस दुनिया में नहीं हैं.’ गुरुमूर्ति सहित कइयों का मानना है कि इन कद्दावर नेताओं की गैरमौजूदगी से उभरे शून्य को रजनीकांत भर सकते थे.
रजनीकांत के आने का तमिलनाडु की सियासत पर क्या असर हो सकता था, इसका अंदाजा राज्य के राजनीतिक समीकरणों से भी लगाया जा सकता है. एस गुरुमूर्ति के मुताबिक सत्ताधारी एआईएडीएमके और विपक्षी डीएमके के पास 18-20 फीसदी कोर वोट हैं. यानी ये ऐसे वोट हैं जो हमेशा उनके पास ही रहते हैं. बाकी के जो वोट उन्हें मिलते हैं वे उन लोगों के होते हैं जो इस खेमे से नाराज होने पर उस खेमे के पास चले जाते हैं. यानी दोनों पार्टियों का आधार उतना बड़ा नहीं है जैसा उनके वोटों को देखकर लगता है. ऐसे में रजनीकांत इधर से उधर जाने वाले वोटों के लिए एक मजबूत विकल्प बन सकते थे जिससे तमिलनाडु की राजनीति में एक तीसरी ताकत का रास्ता खुल सकता था.
कुछ लोगों का मानना है कि एमजीआर कई मायनों में रजनीकांत से अलग थे और इसी भिन्नता का उन्हें राज्य के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी तक पहुंचाने में अहम योगदान रहा.
कई मानते हैं कि रजनीकांत के राजनीति में आने का असर विधानसभा चुनाव से पहले ही दिखने लगता जो अभी करीब चार महीने दूर हैं. जानकारों के मुताबिक इसकी चपेट में राज्य की सभी पार्टियां आ सकती थीं. मसलन डीएमके में काफी लोग पार्टी मुखिया स्टालिन के बेटे उदयनिधि (पार्टी की युवा इकाई के सेक्रेटरी) को मिल रही बहुत ज्यादा तवज्जो से खुश नहीं हैं. इसी तरह एआईएडीमके के भीतर भी असंतोष है. करुणानिधि और जयललिता इससे निपट सकते थे. लेकिन अब चूंकि वे नहीं हैं तो दोनों पार्टियों के असंतुष्टों का एक तबका रजनीकांत को विकल्प की तरह देख सकता था. इसके चलते कई लोग यह मानते हैं कि वे तमिलनाडु में तीसरी नहीं बल्कि मुख्य ताकत बन सकते थे.
हालांकि सब इससे सहमत नहीं दिखते. कुछ लोगों का मानना है कि एमजीआर कई मायनों में रजनीकांत से अलग थे और इसी भिन्नता का उन्हें राज्य के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी तक पहुंचाने में अहम योगदान रहा. मसलन एमजीआर शुरुआत से ही सिनेमा के साथ-साथ राजनीति में भी सक्रिय थे. 1953 तक वे कांग्रेस में रहे, फिर डीएमके के साथ हुए और जब उनका इसके शीर्ष नेतृत्व से टकराव हुआ तो उन्होंने एआईएडीएमके बना ली और फिर लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रहे. 1987 में इसी पद पर रहते हुए उनका निधन हुआ. यानी जीते जी उन्हें कोई इस कुर्सी से हटा नहीं सका. यह बताता है कि राजनीति के मोर्चे पर एमजीआर की क्षमताएं किस स्तर की थीं.
एमजीआर ने फिल्मों को भी अपनी एक खास छवि बनाने के लिए इस्तेमाल किया था जिसने राजनीति में उनकी मदद की. मसलन उन्होंने परदे पर कभी शराब और सिगरेट नहीं पी. न ही उन्होंने कभी खलनायक के रोल किए. मुख्यमंत्री बनने से पहले वे विधायक भी रहे और विधान परिषद के सदस्य भी. यानी एमजीआर शुरुआत से ही अपने राजनीतिक लक्ष्यों पर बेहद सावधानी के साथ काम कर रहे थे. 1978 में इंडिया टुडे को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा भी था, ‘मेरी नीतियां और कार्यक्रम क्या होंगे, लोगों को ये समझाने के लिए मैंने अपनी फिल्मों का इस्तेमाल किया है. ये काम मैंने उनकी कहानियों और संवादों के जरिये किया है.’
इन तथ्यों पर नजर डालें तो रजनीकांत, एमजीआर से बहुत पीछे नजर आते हैं. दोनों में फर्क यहीं खत्म नहीं होता. जैसा कि तमिलनाडु की राजनीति को बहुत करीब से देखने वाली वरिष्ठ पत्रकार वासंती कहती हैं, ‘एमजीआर के प्रशंसकों ने अपने क्लब बनाए थे. लेकिन ये उनके नेता की राजनीतिक विचारधारा का हिस्सा भी थे. इन क्लबों ने 1962 से चुनाव प्रचार और बूथ प्रबंधन के मोर्चे पर अपनी सक्रियता की शुरुआत कर दी थी.’ वासंती के मुताबिक जब एमजीआर ने डीएमके से नाता तोड़कर अलग पार्टी बनाई तब तक ये क्लब चुनाव प्रबंधन के काम में माहिर हो चुके थे. रजनीकांत के मामले में ऐसा नहीं है.
कई एनटी रामाराव से रजनीकांत की तुलना को भी सही नहीं मानते. तेलुगू फिल्मों के सुपरस्टार एनटी रामाराव ने 1982 में टीडीपी की स्थापना करके राजनीति में कदम रखा था. अगले ही साल पार्टी ने विधानसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल की और वे प्रदेश के दसवें मुख्यमंत्री बन गए. उनके करिश्मे को इस बात से भी समझा जा सकता है कि इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद 1984 में हुए आम चुनाव में उनकी तेलुगू देशम पार्टी लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल बन गई थी. इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को टीडीपी की 30 सीटों के मुकाबले केवल दो सीटें ही मिली थीं. लेकिन जानकारों के मुताबिक तब आंध्र प्रदेश की राजनीति में एक मजबूत विपक्ष की कमी थी जिसे एनटी रामाराव ने अच्छी तरह भुनाया. आज के तमिलनाडु में ऐसा नहीं है जहां डीएमके के रूप में एक मजबूत विपक्ष मौजूद है.
इसके अलावा विश्लेषकों के एक वर्ग का मानना है कि रजनीकांत की एमजीआर से तुलना करने वालों को चिरंजीवी का उदाहरण भी देखना चाहिए. चिरंजीवी भी तेलुगू फिल्मों के सुपरस्टार रहे हैं. 2008 में उन्होंने प्रजा राज्यम के नाम से अपनी पार्टी बनाई और अगले ही साल विधानसभा चुनावों में ताल ठोक दी. लेकिन तत्कालीन आंध्र प्रदेश की कुल 295 विधानसभा सीटों में से यह पार्टी जैसे-तैसे 18 सीटें ही जीत पाई. चिरंजीवी दो सीटों से चुनाव लड़े थे. इनमें से वे एक सीट – तिरुपति – से तो जीत गए लेकिन पल्लाकोलू में उनकी हार हुई. इसके बाद उनकी पार्टी का हाल ढुलमुल ही रहा और 2011 में चिरंजीवी को कांग्रेस में इसका विलय करना पड़ा. इसके बाद कांग्रेस उन्हें राज्यसभा में ले आई और केंद्र में स्वतंत्र प्रभार वाला राज्यमंत्री बनाया. यानी उन्हें कैबिनेट मंत्री बनाने लायक भी नहीं समझा गया. यह उदाहरण देते हुए कई कहते हैं कि दक्षिण भारत की राजनीति अब पहले की तरह नहीं रही कि लोग किसी सुपरस्टार पर आंख मूंदकर भरोसा कर लें. तमिलनाडु में ही शिवाजी गणेशन और विजयकांत जैसे अभिनेताओं के उदाहरण हैं जो अपनी अपार लोकप्रियता के बावजूद राजनीति के मैदान में कुछ खास नहीं कर सके.
शायद रजनीकांत भी इस बात को समझते रहे होंगे और उनके निर्णय पर उनके खराव स्वास्थ्य और कोरोना महामारी का भी कुछ असर रहा होगा. मार्च 2018 में एक आयोजन के दौरान उन्होंने कहा था, ‘एमजीआर एक क्रांतिकारी थे. अगले हजारों सालों में भी कोई दूसरा एमजीआर नहीं होगा. अगर कोई कह रहा है कि वो अगला एमजीआर है तो उसका दिमाग ठिकाने पर नहीं है. लेकिन मुझे पूरा यकीन है कि मैं जनता की वही सरकार दे सकता हूं जो एमजीआर ने तमिलनाडु को दी थी.’
हालांकि यह यकीन अब बीते वक्त की बात हो चुका है. चर्चित राजनीतिक विश्लेषक बद्री शेषाद्री अपने एक लेख में कहते हैं, ‘हो सकता है कि रजनीकांत के आसपास मौजूद कुछ लोगों ने उन्हें मुख्यमंत्री बनने का सपना दिखाया होगा, ठीक उसी तरह जैसे कि वो किसी फ़िल्म में सिर्फ़ एक गाने से ही लखपति बन जाते हैं. उन्होंने ना सिर्फ़ ख़ुद इस बात पर भरोसा किया बल्कि अपने प्रशंसकों को भी ये सपना दिखाया और अब हर कोई निराश है.’
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