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क्या शिवराज सिंह चौहान दोबारा वैसी राजनीति कर सकते हैं जो तीन दशकों तक उनकी पहचान रही है?

शिवराज सिंह चौहान

बीते साल जब इन दिनों सारी दुनिया कोरोना महामारी के चलते अपने कदमों की रफ्तार धीमी कर रही थी और घरों में सिमट रही थी तब मध्य प्रदेश के सियासी गलियारों में हलचल सबसे तेज़ थी. इस हलचल का नतीजा कमलनाथ के नेतृत्व वाली सवा साल पुरानी कांग्रेस सरकार के धराशायी होने और शिवराज सिंह चौहान के चौथी बार मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के रूप में सामने आया. अब जब इस सरकार को एक साल पूरे हो चुके हैं तो एक प्रशासनिक के तौर पर तो शिवराज का आकलन किया ही जा रहा है, एक राजनेता के तौर पर भी वे लगातार दिलचस्पी का कारण बन रहे हैं. राजनीति के जानकारों की मानें तो साल 2018 में कुर्सी से बस इंच भर की दूरी पर शिवराज सिंह चौहान का ठहर जाना, उसके बाद बेहद जटिल सियासी दांवपेचों का इस्तेमाल कर इसे फिर हासिल करना और उस पर बैठने के बाद सख्त हिंदुत्ववादी के रूप में नज़र आना, उनके राजनीतिक सफर के एक नए रास्ते पर मुड़ जाने की तरफ इशारा करता है.

अब तक भाजपा के सबसे मजबूत जमीनी नेताओं में गिने जाने वाले शिवराज सिंह चौहान के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरूआत नमक के दो बोरों पर खड़े होकर भाषण देने से की थी. उनसे जुड़े किस्सों में यह भी शामिल है कि 1991 के विधानसभा चुनावों में जब उन्हें बुधनी से भाजपा का टिकट मिला तो उनके पास चुनाव प्रचार के लिए पैसे ही नहीं थे. ऐसे में उन्होंने ‘एक वोट, एक नोट’ का नारा देते हुए लोगों से कहा वे उन्हें वोट देने के साथ-साथ एक नोट भी दें. कई लोगों ने ऐसा किया भी और इस तरह जनता के पैसे पर चुनाव लड़कर वे पहली बार विधानसभा पहुंचे थे. इसके अगले ही साल 1992 में शिवराज सिंह चौहान विदिशा से सांसद चुने गए जिसके बाद उन्होंने अपने इलाके में इतनी पदयात्राएं कीं कि उन्हें ‘पांव-पांव वाले भइया’ कहकर संबोधित किया जाने लगा.

‘पांव-पांव वाले भइया’ के संबोधन को ‘शिवराज मामा’ में बदलने में लगभग दो दशक लगे. लेकिन इस दौरान वे लगातार जमीन पर काम करने वाले और अटल बिहारी वाजपेयी और एक हद तक उमा भारती की परंपरा वाले राजनेता की तरह देखे जाते रहे. जबलपुर विश्वविद्यालय में राजनीति के शोधछात्र नीलेश पटले इसी बात का जिक्र करते हुए कहते हैं कि ‘इस समय हम जिन शिवराज सिंह चौहान को देख रहे हैं, ऐसा लगता है वे शिवराज सिंह हैं ही नहीं. शिवराज को तो अटल बिहारी वाजपेयी की विरासत संभालने वाला नेता माना जाता है. वे हमेशा मीठा बोलने वाले और पार्टी के नेताओं से लेकर आम लोगों तक से मिलने-जुलने वाले नेता के रूप में पहचाने जाते रहे हैं. इस समय उन्हें देखकर, खासकर उनकी भाषा सुनकर लगता है जैसे वे कुछ साबित कर देना चाहते हैं जबकि उनका यह मिजाज़ तब नहीं दिखाई देता था, जब सच में उन्हें राजनीति में खुद को साबित करना था.’

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो 2005 में जब शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बने तो एक तबके को यह भी लगा था कि हो सकता है वे केवल सरकार बचाए रखने के लिए लाए गए हों और कुछ समय बाद फिर से सांसद बनकर केंद्र की राजनीति संभालेंगे. और एमपी में भाजपा किसी और पहचाने हुए, मजबूत चेहरे के साथ दोबारा सरकार बनाने की कोशिश करेगी. लेकिन इन अनुमानों को गलत साबित करते हुए शिवराज सिंह चौहान न सिर्फ लगातार तीन बार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने में सफल रहे बल्कि राज्य में भाजपा के लिए अपरिहार्य भी बन गए.

जानकारों के मुताबिक इसमें चौहान द्वारा की जाने वाली समावेशी और विकास की राजनीति का सबसे बड़ा हाथ है. इसके उदाहरणों पर गौर करें तो बाकी राज्यों की तरह, गरीबी रेखा के नीचे बसर करने वाले लोगों के लिए सस्ती दर पर अनाज मुहैया करवाने के अलावा शिवराज सरकार ने ‘लाडली लक्ष्मी योजना,’ ‘मुख्यमंत्री कन्यादान योजना,’ ‘मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना,’ ‘साइकिल वितरण योजना’ जैसी अनगिनत लोकप्रिय योजनाएं न सिर्फ बनाईं, बल्कि लोगों तक पहुंचाईं भी. साथ ही, मध्य प्रदेश में किसानी की हालत सुधारने और सबसे ज्यादा औद्योगिक निवेश लाकर उसे बीमारू राज्य की सूची से बाहर लाने का श्रेय भी शिवराज सिंह को ही दिया जाता है. इसके अलावा इंदौर-भोपाल जैसे शहरों को देश के सबसे स्वच्छ नगर होने का तमगा भी उन्हीं के कार्यकाल में मिला है.

शिवराज सिंह भाजपा का सबसे सौम्य चेहरा जरूर माने जाते रहे लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उनके कार्यकाल में सबकुछ उजला या सतरंगी ही रहा हो. देश भर में चर्चा बटोरने वाले व्यापम भर्ती घोटाले [1] ने शिवराज सरकार को बुरी तरह हिला दिया था. इस मामले से जुड़े अनगिनत लोगों की अप्राकृतिक परिस्थितियों में मौत के बाद तो उनकी सरकार बुरी तरह से घिरती नज़र आई थी. बाद में यह मामला शिवराज सिंह को सीबीआई की क्लीनचिट मिलने के बाद खबरों से बाहर हो गया. इसके बाद ऑनलाइन टेंडर [2] और डंपर [3] की खरीद-फरोख्त से जुड़े घोटाले की खबरों में भी शिवराज सिंह और उनके परिजनों के शामिल होने की बात कही जा रही थी. और तो और, उन पर जमीन और खनिज माफियाओं को संरक्षण देने के आरोप भी लगते रहे हैं. लेकिन ये सब आरोप ही रहे और उनका राजनीतिक सफर निर्बाध रूप से चलता रहा. मध्य प्रदेश की राजनीति को करीब से देखने वाले कहते हैं कि इतनी अस्थिरता और दबाव की स्थिति में भी शिवराज सिंह चौहान कभी सार्वजनिक रूप से संतुलन खोते नहीं दिखाई दिए.

नीलेश कहते हैं कि ‘मध्य प्रदेश में इंफ्रास्ट्रक्चर पर सबसे ज्यादा काम शिवराज सरकार के समय में हुआ है. आम लोगों को इन्हीं चीजों से फर्क पड़ता है और इसीलिए वे इतने समय सत्ता में रह सके. अब उनके बदले हुए तेवर लोगों को खटक तो रहे हैं लेकिन उनका विकल्प अभी भी मध्य प्रदेश के पास नहीं है. यही वजह है कि भ्रष्टाचार के तमाम आरोप लगने और कर्मचारी वर्ग की असंतुष्टि के बाद भी शिवराज सिंह चौहान साल 2018 में हारे पर बुरी तरह नहीं हारे .’

नीलेश जो बात कह रहे हैं वह मध्य प्रदेश में लगभग सभी लोग कहते हैं. वे बताते हैं कि अगर उन्हें भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व से थोड़ा और सहायता और समर्थन मिला होता तो वे लगातार चौथी बार भी प्रदेश के मुख्यमंत्री बन सकते थे. लेकिन उन्होंने मध्य प्रदेश का चुनाव उस तरह की आक्रामकता के साथ नहीं लड़ा जिसके लिए आज की भाजपा या अब खुद वे जाने जाते हैं. और हारने के बाद भी उन्होंने कमलनाथ के शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचकर जिस तरह के बड़प्पन का परिचय दिया उसकी चर्चा आज भी की जाती है.

शिवराज सिंह चौहान के बदले स्वभाव की बात [4] करें तो साल 2016 में वे पहली बार सार्वजनिक रूप से धर्म से जुड़ी राजनीति की तरफ कद बढ़ाते दिखाई दिए. इस साल मध्य प्रदेश के स्थापना दिवस पर बोलते हुए चौहान ने पहली बार विकास पर बात करने की अपनी ही बनाई परंपरा को तोड़ा था. इस मौके पर उन्होंने एक दिन पहले हुए विवादित भोपाल एनकाउंटर कांड का जिक्र किया था. इस एनकाउंटर कांड में सिमी से संबंध रखने वाले कथित आतंकियों को मार गिराया गया था. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक साल 2016-17 से शिवराज अलग-अलग मंदिरों में पूजा करते, अपनी हिंदू पहचान से जुड़ी टिप्पणियां करते और आरएसएस या साधु-संतों से जुड़े धार्मिक आयोजनों में शामिल होते अधिक दिखाई देने लगे.

यही वह दौर भी था जब शिवराज सिंह को लगातार घोषणाएं करते जाने वाला मुख्यमंत्री कहा जाने [5] लगा. कांग्रेस तो इसके लिए उनकी आलोचना करती दिखाई ही दी, कुछ मौके ऐसे भी आए जब आरएसएस से जुड़े संगठनों [6] ने भी उन्हें पुराने-अधूरे वादे याद दिलाने के लिए होर्डिंग्स लगाए. ऐसे ही एक संगठन से जुड़े रहे एक सदस्य नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि ‘शिवराज सिंह चौहान का नया रूप आज की राजनीति की असलियत है. आम जन को अब मजबूती से बात करने वाले नेता ही पसंद आते हैं. अच्छा हो अगर वे तमाम दबावों से मुक्त होकर फैसले ले सकें लेकिन राजनीति में ऐसा कहां हो पाता है. उनकी कई योजनाएं राजनीति के कारण नहीं प्रशासनिक या आर्थिक कारणों से अटकी पड़ी हैं. लेकिन ज़मीन पर काम करने वाले हमारे जैसे लोगों को या हम जिनसे संवाद करते हैं, उनके लिए ये बातें मायने नहीं रखती हैं. उन्हें काम होता दिखना चाहिए. जैसे मध्य प्रदेश में लव जिहाद कानून के रूप में हुआ है. ऐसा होता लगेगा तो ही वे मुख्यमंत्री को दोबारा बहुमत के साथ वापस लाएंगे.’

जानकारों का मानना है कि शायद मजबूत दिखने का यह दबाव ही है जो दिनों-दिन कमजोर पड़ रहे शिवराज सिंह चौहान के तल्ख बयानों के रूप में दिखाई दे रहा है. बीते दिसंबर में माफियाओं की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा [7] था कि ‘आजकल अपन खतरनाक मूड में है. गड़बड़ करने वालों को छोड़ेंगे नहीं. … मध्य प्रदेश छोड़ देना नहीं तो जमीन में गाड़ दूंगा, पता नहीं चलेगा कहीं.’ इसी तरह बीती 9 मार्च को इंदौर में एक बार फिर भूमाफियाओं पर बोलते हुए उन्होंने फिर दोहराया [8] कि ‘मैंने कहा था टाइगर अभी ज़िंदा है और टाइगर शिकार पर निकला है, भू-माफियाओं के शिकार पर…’ इंदौर में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक नवनीत शुक्ला कहते हैं कि ‘जिन लोगों पर आज मुख्यमंत्री कार्रवाई करते दिख रहे हैं, इन सभी को बीते 15 सालों में ही जगह मिली है. इसके रिकॉर्ड भी मौजूद हैं. अब वे जमीन में गाड़ने की बात करते हैं. सच तो ये है कि आपके ही शासनकाल में ये लोग इतने जम चुके हैं कि अब समय इन्हें खोदकर निकालने का है.’

माफियाओं को खत्म करने के अलावा पिछले दिनों शिवराज सिंह दो और वजहों को लेकर खबरों में रहे थे. पहली यह कि उन्होंने होशंगाबाद जिले का नाम नर्मदापुरम और सीहोर के पास पड़ने वाले कस्बे नसरुल्लागंज का नाम बदलकर भेरंदा करने की बात कही थी. और मध्य प्रदेश ‘लव जिहाद’ पर कानून [9] बनाने वाला देश का दूसरा राज्य है. जानकारों के मुताबिक ये कदम उनकी हिंदुत्ववादी छवि को मजबूत करने की सबसे बड़ी कोशिशों में गिने जा सकते हैं.

नवनीत शुक्ला कहते हैं, ‘यह सरकार ( ज्योतिरादित्य ) सिंधिया की आश्रित सरकार है. पार्टी भी कई गुटों में बंटी हुई है. नरेंद्र तोमर, कैलाश विजयवर्गीय सरीखे कई लोग हैं जो मुख्यमंत्री बनने की इच्छा रखते हैं. सोचिए, सत्ता हासिल करने के सौ दिनों बाद तो वे मंत्रिमंडल बना पाए और एक साल होने को आया मंत्रियों को अब तक उनका प्रभार नहीं दे पाए हैं. शिवराज सिंह चौहान में निर्णय लेने की क्षमता नहीं रह गई है. वे कुछ नहीं कर पा रहे है. अगर किसी को लग रहा है कि उनके लिए सिंधिया खतरा है तो ऐसा नहीं है, खतरा उन्हें केंद्र और पार्टी की अंदरूनी राजनीति से है. ऐसे में जब वे कुछ नहीं कर पा रहे हैं तो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं या बहुसंख्यकों को खुश करने वाला कोई काम कर देते हैं.’

अब सवाल उठता है कि शिवराज सिंह चौहान की राजनीति ने जो दिशा पकड़ी है, उससे उनके राजनीतिक भविष्य के बारे में क्या अंदाज़ा लगाया जा सकता है. इस पर बात करते हुए नवनीत कहते हैं कि ‘भाजपा की राजनीति का भविष्य इन पांच विधानसभा राज्यों के नतीजों से भी तय हो सकता है. ये पार्टी एक खास तरह के चाल चरित्र चेहरे की बात करती थी लेकिन अब किसी भी दल से आने वाले इसमें शामिल हो सकते हैं. उम्र की पाबंदियां लगाई जा रही हैं. इन तमाम बातों से नाराज़ लोग बस एक मौके का इंतज़ार कर रहे हैं. ऐसे में हो सकता है शिवराज सिंह चौहान जैसे लोगों को इसका फायदा मिल जाए.’

वहीं, दिल्ली स्थित एक राजनीतिक विश्लेषक, सत्याग्रह से हुई अनौपचारिक बातचीत में एक अलग राय रखते हैं, वे कहते हैं कि ‘एक तरफ तो ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं जो केवल मुख्यमंत्री बनने के लिए ही बीजेपी में आए हैं. और दूसरी तरफ उनकी सरकार भी डेढ़ टांग की ही है जिसके पास स्वतंत्र रूप से बड़े निर्णय लेने के उतने मौके नहीं हैं. ऐसे में अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए वे मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स कर रहे हैं और धीरे-धीरे अपनी तीन दशकों की उस कमाई को खोते जा रहे हैं जो आज की भाजपा में बहुत कम लोगों के पास है. ऐसा लगता है कि उनका वर्तमान और भविष्य अब यही है.’ कुल मिलाकर, इन राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो शिवराज सिंह चौहान आगे भी मध्य प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण बने तो रह सकते हैं, लेकिन यह तय करना अब उनके हाथ में नहीं रह गया है.

शिवराज सिंह चौहान के राजनीतिक भविष्य का अंदाजा भोपाल के एक भाजपा कार्यकर्ता की दिलचस्प टिप्पणी से भी लगाया जा सकता है. ‘मैं मोदी जी का फैन नहीं हूं लेकिन मैं शिवराज सिंह का कार्यकर्ता हूं. फिलहाल जो मुझे खटक रहा है वो ये है कि ‘एक वोट एक नोट’ का नारा देने वाले शिवराज अब ‘अब की बार, दो सौ पार’ का नारा देने लगे हैं. ये शिवराज सिंह का तरीका नहीं है. हम लोगों में रहते हैं, हम बता सकते हैं कि मोदी वेव में शिवराज हो सकता है हिल गए हों, लेकिन उखड़े नहीं हैं. पर अब जो चल रहा है उसके बाद कुछ ऐसा भी हो सकता है, जो हम नहीं चाहेंगे.’