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1957 में केरल में जो हुआ उसने संकेत दे दिया था कि आने वाला दौर इंदिरा गांधी का है

ईएमएस नंबूदरीपाद

1957 में देश में दूसरी बार चुनाव हुए थे. कांग्रेस केंद्र में तो जीत रही थी पर राज्यों में उसके विरोध के स्वर अब मुखर होने लगे थे. उड़ीसा में गणतंत्र परिषद ने कांग्रेस का सूर्य अस्त कर दिया था. पार्टी को 20 में महज़ सात सीटें ही मिली थीं. महाराष्ट्र और गुजरात में भी उसे कड़ी टक्कर मिली. उधर दक्षिण में ईवी रामास्वामी की अगुवाई में द्रविड़ मुनेत्र कषघम (डीएमके) पार्टी ने एक नये देश द्रविड़ नाडु की मांग को लेकर आंदोलन छेड़ दिया था.

पर सबसे बड़ी चुनौती अगर कहीं कांग्रेस को कहीं मिली थी तो वह केरल में थी. यहां कम्युनिस्ट पार्टी एक मजबूत विकल्प के तौर पर उभर रही थी. 1957 के चुनाव में उसे 18 लोकसभा सीटों में से नौ पर जीत मिली थी जबकि कांग्रेस को सिर्फ छह पर. राज्य विधानसभा चुनाव में 126 सीटों में से सीपीआई ने 60 सीटें जीती थीं. साफ़ था कि राज्य में कांग्रेस का विकल्प तैयार हो गया है. अब आगे बढ़ने से पहले केरल के बारे में कुछ दिलचस्प बातें जानना ज़रूरी है.

आजादी के बाद केरल अलग देश बनने का ख्व़ाब देख रहा था

तटीय राज्य और भारत का छोर होने की वजह से केरल का बाहरी दुनिया से संपर्क काफ़ी पहले से था. अरब से मुसलमानों ने आकर यहां व्यापार शुरू किया था. इसके साथ-साथ इसके यूरोप से भी व्यापारिक संबंध थे. आजादी के वक़्त केरल में हिन्दू आबादी लगभग 61 फीसदी थी जबकि ईसाई और मुस्लिम समुदाय के लिए यह आंकड़ा 21 और 18 फीसदी था. ऐसे में मुस्लिम और ईसाई संस्कृतियों का हिन्दू संस्कृति के साथ ज़बरदस्त तालमेल हुआ और समाज पर इसका काफ़ी असर रहा. सबसे बड़ा असर था यहां पर शिक्षा का प्रसार.

चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा केरल में हुए सामाजिक बदलावों के पीछे चार कारकों को जिम्मेदार मानते हैं. पहला, मिशनरियों का शिक्षा प्रसार का नेटवर्क. दूसरा कोचीन-त्रावनकोर के राजा और बाद में दीवान सर सीपी रामास्वामी अय्यर. तीसरा जातिगत संगठनों का उदय और आख़िरी कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी का प्रभाव.

भौगौलिक स्थिति और आर्थिक संपन्नता के साथ-साथ एक बात और थी जिसने दीवान सीपी रामास्वामी अय्यर के मन में राज्य को स्वतंत्र देश बनाने का बीज डाला. यह थी कोचीन की रेत में रेडियोधर्मी पदार्थ थोरियम की खोज. दीवान साहब के यूरोप के प्रभावशाली लोगों के साथ अच्छे संबंध थे. 1948 में लदन की लेबर सरकार में आपूर्ति मंत्री रहे विलमोंट और उनकी मुलाकात ने इस संभावना को बल दिया कि कोचीन-त्रावनकोर अलग देश बन सकता है. थोरियम आने वाले दिनों में रूस और अमेरिका की रणनीति पर असर डालने वाला था. संभव है इसीलिए रूस और अन्य कम्युनिस्ट देश वहां पर साम्यवाद को जिंदा रखना चाहते हों. एक बार जब दीवान साहब यूरोप के दौरे से कोचीन आये थे तो वहां के कम्युनिस्टों ने उन पर हमला बोल दिया था.

शंकर घोष की लिखी जवाहरलाल नेहरू की जीवनी में भी इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि कोचीन-त्रावनकोर के दीवान सर सीपी रामास्वामी अय्यर ने अपने महाराजा को भारत में विलय न करने के लिए समझाया था. पर सरदार पटेल की समझाइश, सीपीआई कार्यकर्ताओं के हमले और साम्यवाद के प्रति उनकी नापसंदगी ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया था.

तो स्पष्ट था कि कोचीन में साम्यवाद का असर दिख रहा था. आइये, अब वापस केरल के चुनाव पर नज़र डालते हैं

केरल के चुनाव में रूस और अमेरिका की दिलचस्पी

जानकार बताते हैं कि केरल का चुनाव दुनिया भर में दिलचस्पी का मुद्दा बन गया था क्योंकि पहली बार ऐसा हो रहा था कि किसी बड़े देश के प्रांत में कम्युनिस्ट सरकार बनाने जा रहे थे. सोवियत रूस के लिए यह एक अच्छा प्रयोग था और इसलिए पूंजीवादी अमेरिका को दिक्कत हो रही थी. कांग्रेस हैरान थी क्योंकि जो पार्टी कल तक भूमिगत थी और हथियार संस्कृति को बढ़ावा देती थी, आज उसके हाथ में सत्ता की डोर आ गयी थी. रामचंद्र गुहा अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि 1947 में रूस के इशारे पर सीपीआई भूमिगत हो गयी थी. यह वही सीपीआई थी जिसने हैदराबाद का देश में एकीकरण न होने देने के लिए सशस्त्र विद्रोह किया था जिसे सरदार वल्लभभाई पटेल ने कुचल दिया था.

हालांकि, सीपीआई के ज़्यादातर लीडरों का उदय कांग्रेस में ही हुआ था पर बाद में साम्यवाद की धारा ने उन पर अपना रंग जमा लिया था. केरल में उन्होंने किसान संगठनों का गठन करके काश्तकारों के हित में आवाज़ उठाई और कामगारों के लिए बेहतर सुविधाओं और दिहाड़ी की मांग रखी. इन सब बातों का असर यह हुआ कि सीपीआई की पहुंच गांव-गांव तक हो गयी. 1952 के चुनावों में भी उनका प्रदर्शन ठीक था और 1957 के आते-आते वे बेहद मज़बूत हो गए. कुछ अच्छे चुनावी वायदों और उनकी पकड़ का नतीजा ये रहा कि केरल में पहली बार कम्युनिस्ट सरकार बनाने जा रहे थे और उनके नेता थे- ईलमकुलम मनक्कल संकरन नंबूदरीपाद, जो ईएमएस नंबूदरीपाद के नाम से भी जाने गए. सरकार बनते ही उन्होंने सामाजिक सुधार के कई कार्यक्रम लागू किये. लेकिन अतिरेक उनको ले बैठा

ईएमएस नंबूदरीपाद का भू-सुधार कार्यक्रम

ईएमएस की सरकार ने आते ही तेज़ी से काम करना शुरू किया. इनमें भू-सुधार सबसे अहम था. ताज्जुब की बात है जिस भूमि-सुधार आन्दोलन के प्रणेता गांधी और बाद में विनोबा भावे थे उन्हीं की कांग्रेस पार्टी से पहले सीपीआई ने केरल में इन्हें लागू करना शुरू कर दिया था. भूमिहीन किसानों को खेती के लिए उपयुक्त ज़मीन दिलाना, ऋण माफ़ी और ज़मींदारों की ताक़त कम करने जैसे कई काम इसका हिस्सा थे. कुछ इसी तरह और कम्युनिस्ट विचारधारा के उलट जाते हुए उन्होंने निजी कंपनियों को बुलावा देकर अपने राज्य में निवेश और उद्योग स्थापित करने के लिए निमंत्रण दिया.

शिक्षा में बदलाव की कोशिश और सड़कों पर क्रांति

शिक्षा के क्षेत्र में भी बदलाव लाए गए. शिक्षकों की अच्छी तनख्वाह के साथ काम करने के घंटे तय किए गए. यह भी तय हुआ कि जो निजी स्कूल राज्य की नीतियों का पालन नहीं करेंगे उनका अधिग्रहण हो जाएगा. जैसा कि ऊपर जिक्र हुआ, केरल में ईसाई मिशनरी और कुछ हिन्दू संगठनों द्वारा संचालित शिक्षा का एक बहुत बड़ा तंत्र था. इस तंत्र को को चलाने वालों का इस बदलाव से नाराज़ होना लाज़मी था. इस नाराजगी को तब और हवा मिली जब केरल के स्कूलों के पाठ्यक्रम में साम्यवाद की विचारधारा झलकने लगी.

इस मुद्दे पर कांग्रेस ने राज्य में आंदोलन की आग फूंक दी. ईसाई मिशनरी, हिन्दू संगठन और यहां तक कि कुछ मुस्लिम संगठन भी उसके साथ खड़े हो गए. नायर समाज के मन्नथ पद्मनाभन, जो सरकार से इस बात के लिए नाराज़ थे कि ईएमएस की सरकार ने उन्हें एक कॉलेज खोलने से मना कर दिया था, ने सरकार को सबक सिखाने की ठान ली.

शिक्षा में सुधार बिल बनकर पारित हुआ तो केरल में आंदोलन की आग और तेज हो गई. जुलाई 1959 में हज़ारों लोग सड़कों पर उतर आये. ईएमएस ने आंदोलन को कुचलने के लिए पूरी ताक़त झोंक दी. कई जगहों पर लाठीचार्ज हुए और गोलियां चलीं. कुछ लोगों की मौत भी हो गई. कांग्रेस के हाथ जादुई चिराग़ लग गया था. राज्य में बिगड़े हुए हालात के चलते केंद्र से दखल और राज्य सरकार को बर्खास्त करने की मांग हुई.

नेहरू का धर्मसंकट और इंदिरा गांधी का उदय

जुलाई में केरल में हुए आंदोलन से पहले जवाहरलाल नेहरू वहां गए थे. वहां वे ईएमएस के भूमि सुधार और अन्य कार्यक्रमों से प्रभावित हुए थे. इसलिए जब केरल जल रहा था तो वे कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे. तब इंदिरा गांधी कांग्रेस की अध्यक्ष नियुक्त ही हुई थीं. वे ईएमएस से प्रभावित नहीं थीं. नेहरू के धर्मसंकट का हल उनके पास था. उन्होंने और अन्य कांग्रेसियों में मिलकर नेहरू पर फैसला लेने का दबाव बनाया. उधर, 80 साल के मन्नथ पद्मनाभन ने आख़िरी लड़ाई का बन मना लिया था. 26 जुलाई को हज़ारों लोगों ने मिलकर सड़क से संसद तक मार्च करके सरकार को ठप करने की रणनीति बनाई.

ईएमएस के सामने भी धर्मसंकट खड़ा हो गया था कि सरकार चलायें या इस्तीफ़ा देकर नए सिरे से चुनाव करवाएं. समय बीतता जा रहा था. केरल के गवर्नर ने जब केंद्र को हस्तक्षेप करने की लिखित मांग की तो केंद्र सरकार ने आर्टिकल 356 का सहारा लेकर ईएमएस नंबूदरीपाद की सरकार को बर्खास्त कर दिया.

दोबारा चुनाव हुए तो उनमें कांग्रेस को बहुमत मिल गया. कहा जाता है कि नेहरू अंत तक इस अपराधबोध से नहीं निकल पाए. एक तरफ उनका अवसान हो रहा था तो दूसरी ओर उनकी बेटी इंदिरा गांधी, केरल की तकदीर लिखकर अपने उदय होने का उद्घोष कर चुकी थीं.