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क्या विनोबा भावे ने वास्तव में आपातकाल का समर्थन किया था?

विनोबा भावे और इंदिरा गांधी

आपातकाल के बारे में गंभीर से गंभीर चर्चा में भी यदि विनोबा भावे का जिक्र आता है तो वह तुरंत ही इस आक्रोश के साथ समाप्त हो जाता है कि उनकी कौन कहे उन्होंने तो आपातकाल को ‘अनुशासन पर्व’ कह कर अपनी ‘मौन या अप्रत्यक्ष स्वीकृति’ दे दी थी. औरों की तो जाने दें, विनोबा की आध्यात्मिक गहराई को निकट से जानने-समझने वाले स्वयं सरल स्वभावी जयप्रकाश नारायण या जेपी तक ने विनोबा को तत्कालीन लोकप्रिय और संकीर्ण कसौटियों पर ही कस दिया.

वास्तव में उस समय सत्ता के दुरुपयोग और प्रचंड व्यवस्था-विरोध की दोतरफा लहर चल रही थी. ऐसे में कोई किसी को शुद्ध नज़रिए से समझ पाता इसकी गुंजाइश ही नहीं बची थी. जबकि विनोबा के समग्र साहित्य को पढ़ने और उनकी जीवन-वृत्ति को समझने के बाद कोई सामान्य शोधकर्ता भी समझ सकता था कि इस कहानी में जरूर कुछ न कुछ गड़बड़ है. दरअसल आपातकाल के इस घटनाक्रम की कुछ कड़ियां बीच से कहीं गायब कर दी गईं. इन कड़ियों को जोड़ते हुए स्पष्ट रूप से पता चल जाता है कि हमारे बुद्धिजीवी और हमारा समकालीन भारतीय समाज तक भारत के अपने शास्त्रीय प्रसंगों, शब्दों, मुहावरों से कितना कट चुका है और उनसे पूरी तरह अनभिज्ञ हो चुका है.

आइए देखते हैं कि इस आरोप के पीछे कि विनोबा ने आपातकाल को ‘अनुशासन-पर्व’ कहकर इसका समर्थन किया था, आखिर असल में हुआ क्या था.

विनोबा भावे का राजनीति से दूर-दूर तक वास्ता नहीं था

विनोबा ने अपने आजीवन आध्यात्मिक साधना के क्रम में ही 25 दिसंबर, 1974 को एक वर्ष के लिए मौन में जाने का व्रत लिया था. यानि आपातकाल और छात्र आंदोलन इत्यादि से छह महीने पूर्व ही. 25 जून, 1975 को आपातकाल की घोषणा हो गई. उसके बाद संजय गांधी के इशारों पर और इंदिरा गांधी के नाम से चलने वाली सरकार और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलनकारियों के बीच अपने-अपने रवैये को न्यायोचित ठहराने की होड़ शुरू हुई. लेकिन जेपी और इंदिरा गांधी के अलावा इस पूरी परिघटना का एक तीसरा कोण भी था. वह था आचार्य विनोबा भावे का.

विनोबा, बालकोवा और शिवाजी भावे के पिता नरहरि भावे ने अपनी तीनों के तीनों बेटों को महात्मा गांधी को लगभग दान में दे दिया था. तीनों ही नैष्ठिक बाल ब्रह्मचारी थे. विनोबा उस दौर के सबसे प्रखर और निर्विवाद व्यक्तित्वों में से थे. हालांकि बाद के इतिहास, राजनीति और समाज की बौद्धिक लापरवाही की वजह से आज हम विनोबा को भारत की सबसे गलत समझी और आंकी गई शख्सियत कह सकते हैं.

विनोबा मूलतः एक संत थे और उन्होंने अभी तक राजनीति और राजसत्ता से स्वयं को बचाकर रखा था. उन्होंने आज़ादी के बाद भी खुलकर कई अवसरों पर राजनीति के प्रचलित स्वरूप की मौलिक आलोचनाएं की थीं और किसी चुनाव में वोट डालने नहीं गए थे. वे एक स्वतंत्रचेत्ता और प्रयोगधर्मी आचार्य थे जिन्हें किसी का भय और किसी के प्रति राग-द्वेष की भावना नहीं थी. इसलिए उनकी स्वीकार्यता, निर्भीकता और तटस्थता का स्तर ऐसा था कि भूदान आंदोलन के दौरान जहां कहीं संभव होता था छोटे से छोटे मदरसे तक उनके रात्रि-विश्राम और प्रवचन के लिए बढ़-चढ़ कर प्रबंध करते थे.

यह वह दौर था जब भारत के देहाती क्षेत्रों में भी महिलाएं हथेली में समा जाने वाली पुस्तिका ‘विनोबा भावे का अरमान’ को हनुमान चालीसा की तरह पढ़ती थीं. लेकिन अन्य सभी शुद्ध संस्थाओं और व्यक्तित्वों की भांति ही राजनीति उन्हें भी अपवित्र करने के अपने लोभ से बाज नहीं आई. इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण दोनों से ही इतने आत्मीय और गुरुवत संबंध होने की वजह से आपातकाल का यह तीसरा कोण सबके लिए एक बहुत बड़ा प्रश्न बन गया था. धुर-विरोधी दोनों ही पक्षों ने समाधान और हस्तक्षेप के लिए विनोबा की ओर सहज ही देखा. विनोबा की अध्यात्मनिष्ठ निष्पक्षता को बिना समझे दोनों ही पक्ष उन्हें अपने-अपने पाले में ले लेने की जिद और हड़बड़ाहट में थे.

लेकिन जहां एक ओर जेपी के नाम पर इकट्ठा हुआ विपक्ष भयानक प्रतिक्रिया, भय और द्रोह की आग में जल रहा था, वहीं इंदिरा गांधी के नाम पर शासन चला रहे संजय गांधी का दमनकारी कुनबा भी अहंकार और सत्ता के नशे में अंधा हो चुका था. एक बात और ध्यान देने की थी कि जयप्रकाश नारायण के खेमे में उनके इर्द-गिर्द इकट्ठी भेड़ियाधसान भीड़ में जिस प्रकार के लोग थे उनको विनोबा के जीवन और चिंतन की वह आध्यात्मिक समझ नहीं थी जिसके कायल स्वयं जेपी थे. वहीं दूसरी ओर भी इंदिरा गांधी को जिस चांडाल चौकड़ी ने अपने मोहजाल में कैद कर रखा था, उसे भी विनोबा और इंदिरा के बीच के शर्तरहित स्नेह के आध्यात्मिक धरातल का ज्ञान दूर-दूर तक नहीं था.

लेकिन दोनों ही पक्षों के सिपहसालारों को विनोबा की निर्भीक तटस्थता और निष्पक्षता के प्रति पूरा भरोसा था. इसलिए जहां जयप्रकाश जी के खेमे ने उन्हें खुद से ही ‘अपना’ खैरख्वाह मान लिया था. वहीं दूसरी तरफ विनोबा का व्यक्तित्व इतना विराट और सामाजिक रूप से इतना सर्वमान्य था कि राजसत्ता ने सोचा होगा कि यदि विनोबा जैसे ऋषि कुछ सरल, सहज और अहिंसापूर्ण संदेश भी दे देते हैं तो वह उसे अपने पक्ष में प्रचारकर अपने लिए नैतिक समर्थन हासिल कर लेगी.

सो राजसत्ता यानी तत्कालीन केंद्र सरकार ने अपने एक विश्वसनीय नेता वसंत साठे (जो बाद में सूचना और प्रसारण मंत्री भी बने) को पवनार स्थित विनोबा के आश्रम ब्रह्म विद्या मंदिर में भेजा. विनोबा मौन में थे, और उन्हें अपना मौन तोड़ने का कोई कारण नहीं जान पड़ा. लेकिन विनोबा ने तभी अपने पास रखे ग्रंथ महाभारत के उस अध्याय का शीर्षक साठे को दिखाया जिसमें लिखा था- ‘अनुशासन पर्व’.

उस दौर में ज्यादातर सत्ताधारी और सत्ता के करीबी लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए प्रोपेगेंडा का महत्व बखूबी जानने-समझने लगे थे. संभव है तब साठे ने सोचा हो कि विनोबा तो फिलहाल अपना मौन तोड़ने से रहे तो क्यों न वे उनके इस भाव की अपने पक्ष में व्याख्या करते हुए इसका राजनीतिक फायदा उठाएं. साठे को संदेह का लाभ दें, तो यह भी संभव है कि किसी प्रकार की आध्यात्मिक दृष्टि से हीन राजनेता साठे को विनोबा के इस इशारे का मूल भाव समझ में न आया हो. जो भी हो, साठे ने आकाशवाणी, दूरदर्शन और अखबारों का खूब इस्तेमाल करते हुए इसे बार-बार प्रचारित किया कि विनोबा ने आपातकाल को ‘अनुशासन-पर्व’ यानि सरकार की दृष्टि में देश को ‘अनुशासन सिखाने का समय’ करार दिया, और इसलिए राज्य सत्ता को कुछ भी करने का असीमित अधिकार है.

यूथ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने देश में जगह-जगह दीवारों पर विनोबा के नाम से बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिया- आपातकाल ‘अनुशासन-पर्व’ है. भोले पत्रकारों, प्रतिक्रिया की आग में जल रहे आंदोलनकारियों और यहां तक कि ज्यादातर सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने भी साठे के इस मूर्खतापूर्ण बयान को सच मान लिया. इसे बार-बार दुहराया गया और जम कर दुरुपयोग किया गया. आने वाली कई पीढ़ियां आज तक इसे ही सत्य मानती रही हैं.

सारे अपमानों को झेलते हुए और सब कुछ सुनते-जानते भी आचार्यवृत्ति वाले विनोबा ने एक वर्ष पूरा किए बिना अपना मौन-व्रत नहीं तोड़ा. 25 दिसंबर, 1975 को जब विनोबा ने अपना मौन तोड़ा तो किसी के पूछने पर उन्होंने ‘अनुशासन-पर्व’ की वास्तविक व्याख्या की. लेकिन हमारी राजनीति, राजनेता और कथित बुद्धिजीवी वर्ग में उनकी उस सरल-सहज भावना को सुनने-समझने का धैर्य और गांभीर्य बचा ही नहीं था. इसलिए अनुशासन पर्व की विनोबा की निरपेक्ष व्याख्या को भी मीडिया की प्रचलित भाषा में ‘डैमेज कंट्रोल’ जैसे प्रयास के रूप में देखा गया. फिर उस समय सरकारी दुष्प्रयासों और अतिचारों का प्रचंड दौर चल रहा था. इसलिए विनोबा ने जब इसका वास्तविक आशय स्पष्ट भी किया तो न ही शासन न ही आंदोलनकारियों और न ही मीडिया ने उसे स्वीकार किया.

वह राजनेताओं का नहीं, आचार्यों का ‘अनुशासन पर्व’ था

आपातकाल के ठीक छह महीने बाद यानि 25 दिसंबर, 1975 को अपना एक-वर्षीय मौन-व्रत तोड़ने के उपरांत विनोबा ने जो कहा वह अक्षरशः इस प्रकार है –

‘अनुशासन-पर्व’ शब्द महाभारत का है. परंतु उसके पहले वह उपनिषद् में आया है. प्राचीन काल का रिवाज था. विद्यार्थी आचार्य के पास रह कर बारह साल विद्याभ्यास करता था. विद्याभ्यास पूरा कर जब वह घर जाने निकलता था तब आचार्य अंतिम उपदेश देते थे. उसका जिक्र उपनिषद् में आया है- एतत् अनुशासनम्, एवं उपासित्व्यम् – यानि इस अनुशासन पर आपको जिंदगीभर चलना है….’

‘आचार्यों का होता है अनुशासन, और सत्तावालों का होता है शासन. अगर शासन के मार्गदर्शन में दुनिया रहेगी तो दुनिया में कभी भी समाधान रहनेवाला नहीं है. शासन के मार्गदर्शन में क्या होगा? समस्या सुलझेगी; लेकिन सुलझी हुई फिर से उलझेगी. यह तमाशा आज दुनियाभर में चल रहा है. ‘ए’ से ‘जेड’ तक, अफगानिस्तान से ज़ांबिया तक 300-350 शासन दुनिया में होंगे. फिर उनकी गुटबंदी चलती है. सबदूर असंतोष, मारकाट! शासन के आदेश के अनुसार चलनेवालों की यह स्थिति है. उसके बदले अगर आचार्यों के अनुशासन में दुनिया चलेगी तो दुनिया में शांति रहेगी…’

‘आचार्य होते हैं, जिनका वर्णन मैंने किया है गुरु नानक की भाषा में – निर्भय, निर्वैर, और उसमें मैंने जोड़ दिया है निष्पक्ष! और जो कभी अशांत होते नहीं, जिनके मन में क्षोभ कभी नहीं होता. हर बात में शांति से सोचते हैं और जितना सर्वसम्मत होता है विचार, उतना लोगों के सामने रखते हैं. उस मार्गदर्शन में लोग अगर चलेंगे, तो लोगों का भला होगा और दुनिया में शांति रहेगी. यह अनुशासन का अर्थ है – आचार्यों का अनुशासन! ऐसे निर्भय, निर्वैर, निष्पक्ष आचार्य जो मार्गदर्शन देंगे उसका, उनके अनुशासन का विरोध अगर शासन करेगा तो उसके सामने सत्याग्रह करने का प्रसंग आयेगा. लेकिन मेरा पूरा विश्वास है भारत का शासन ऐसा कोई काम नहीं करेगा, जो आचार्यों के अनुशासन के खिलाफ होगा.’

वास्तव में, विनोबा ‘अनुशासन’ को इसके प्रचलित अर्थ में प्रयोग करते ही नहीं थे. इसे उन्होंने और साफ करते हुए एक स्थान पर विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए इस बारे में जो कहा था उसका जिक्र इसी स्तंभ के अंतर्गत प्रकाशित पिछले आलेख में [1] किया गया है. आचार्य की राजसत्ता से स्वतंत्रता की बात उन्होंने जीवनभर की, और व्यक्तिगत स्तर पर निभाया भी.

आपातकाल से जुड़े इस प्रकरण को पूरी तरह समझने के लिए हमें यह समझना भी जरूरी है कि विनोबा के जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी से कैसे संबंध थे.

जेपी और विनोबा का आपसी संबंध

जयप्रकाश नारायण और विनोबा का एक-दूसरे से अटूट संबंध था. एक-दूसरे के प्रति अनन्य आध्यात्मिक स्नेह था. 1955 में विनोबा के सामने ही जेपी ने सर्वोदय कार्यकर्ता के रूप में ‘जीवनदान’ की घोषणा की थी. समाजवादी जेपी के जीवन का एक आध्यात्मिक पक्ष भी था जो विनोबा का सान्निध्य पाकर और भी मुखरित होता था. पवनार में विनोबा के ऋषि-खेती के प्रयोग को देखने और कुएं पर रहट चलाते हुए उनकी प्रार्थना में शामिल होने के बाद जेपी ने कहा था- ‘आई सी सम लाईट हिअर- मुझे यहां कुछ प्रकाश दीखता है.’ भूदान आंदोलन के संदर्भ में एक बार उन्होंने कहा था- ‘मैं तो विनोबा जी का भक्त बन गया हूं.’

विनोबा की पुस्तक ‘गीता-प्रवचन’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘टॉक्स ऑन दी गीता’ जब पहली बार 1960 में लंदन में जॉर्ज एलेन एंड अनविन द्वारा प्रकाशित हुआ, तो उस संस्करण में विनोबा का परिचय लिखने के लिए प्रकाशकों ने विशेष रूप से जयप्रकाश नारायण से आग्रह किया. ‘लिटिल बिट अबाऊट विनोबा’ शीर्षक से जयप्रकाश जी ने लिखा था –

‘ईश्वपरायण, गहरी अंतर्दृष्टि संपन्न साधुपुरुष, उद्भट विद्वान तथा विचारक, तीक्ष्ण बुद्धि व असाधारण शक्तिसंपन्न, भाषावेत्ता, उच्चकोटि के लेखक, जन्मजात शिक्षक और मौलिक शिक्षा-विचारक, मनुष्य के नेता और निर्माता, समग्र राष्ट्र-स्तर पर दूसरों को क्रियाशील बनाने वाले, तथा बाल-ब्रह्मचारी विनोबा का व्यक्तित्व सचमुच अनुपम है. अध्यात्म विज्ञान, तत्त्वदर्शन, समाज विज्ञान तथा समाज रचना के क्षेत्रों में उनकी देन यथार्थतः मौलिक तथा स्फूर्तिदायक है, जोकि ज्यों-ज्यों वर्तमान दकियानूसी विचारपद्धति के स्थान पर नयी जिज्ञासा और तर्क को स्थान मिलता जायेगा, त्यों-त्यों अधिकाधिक प्रशंसित होगी. परम्परागत भारतीय विचार के अनुसार कहा जा सकता है कि विनोबा में एक साथ ज्ञानयोगी, भक्तियोगी और कर्मयोगी का दुर्लभ समन्वय है.’

जेपी और विनोबा के संबंध ऐसे थे कि उनके बीच स्थाई खटास की कभी कोई गुंजाइश ही नहीं रही. विनोबा भी जयप्रकाश नारायण को अपने काफी निकट मानते थे. ‘समाजवाद से सर्वोदय की ओर’ पुस्तक की प्रस्तावना में विनोबा ने उनके बारे में जो लिखा था, उसमें उनकी ऋषि दृष्टि और आचार्यत्व की झलक मिलती है – ‘जयप्रकाश जी के साथ जब से मेरा परिचय हुआ, उनके अनेक गुणों का मुझ पर असर हुआ है. उन सबमें उनके हृदय की सरलता मुझे अधिक खींचती है. उसी सरलता के कारण वे स्वयं गलतियां भी कर सकते हैं. गांधीजी ने स्वराज्य की एक व्याख्या की थी, ‘गलतियां करने का हक़’. जो गलतियां नहीं कर सकता, वह कुछ भी नहीं कर सकता. जयप्रकाश जी के निवेदन में पाठकों को एक सरल हृदय का स्वच्छ चित्र देखने को मिलेगा.’

आपातकाल के बाद जुलाई, 1978 में इंडिया टुडे की पत्रकार रामी छाबड़ा को अपने इंटरव्यू में जयप्रकाशजी ने कहा था- ‘हमारी मुख्य चिंता राष्ट्र-निर्माण के काम पर केन्द्रित होनी चाहिए थी. लेकिन राजनीतिक गतिविधियों ने वैसा होने नहीं दिया. …इस देश में बहुत कम लोगों ने राष्ट्र के पुनरुत्थान के विषय में सोचा है. गांधी ने सोचा था और विनोबा भावे ने सोचा था. शायद सुनकर आश्चर्य होगा, लेकिन आप सच मानिए कि विनोबाजी इस देश की शकल बदल सकते थे. किन्तु अब वे कर्म-क्षेत्र से संन्यास ले चुके हैं. उनके कारण जो जगह खाली हुई है, वह अभी तक भरी नहीं जा सकी है.’

विनोबा और जेपी का परस्पर स्नेह और प्रेम आजीवन बना रहा. जेपी की अस्थियां विनोबा ने ब्रह्म विद्या मंदिर में उसी चम्पे के पेड़ के नीचे विसर्जित कीं जहां विनोबा के निकट के साथियों का होता रहा था. जयप्रकाशजी और प्रभावती ने विनोबा आश्रम में जो पेड़ लगाए थे, उनपर विनोबा ने स्वयं उनके नाम की तख्तियां लगवाईं.

इंदिरा गांधी और विनोबा का आपसी संबंध

इंदिरा गांधी के साथ भी विनोबा का संबंध गुरुवत, भ्रातृवत और पितृवत ही कहा जा सकता है. लेकिन विनोबा जैसे संन्यासी के लिए यह संबंध किसी निजी मोह से नहीं बंधा था. वह तटस्थता की बुनियाद पर ही था. सार्वजनिक रूप से उन्होंने हमेशा उन्हें प्रधानमंत्री इंदिरा जी कहकर ही संबोधित किया. गोहत्या के खिलाफ संसद के घेराव और सत्याग्रह की स्थिति भी इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री रहते ही आई. आपातकाल के दौरान विनोबा के आश्रम से निकलने वाली प्रसिद्ध पत्रिका ‘मैत्री’ ने गोवध के मुद्दे पर सरकार की तीखी आलोचना की थी. फिर क्या था. पहली बार पुलिस इस आश्रम में घुसी और ‘मैत्री’ की सारी प्रतियां जब्त कर लीं.

इंदिरा गांधी के जीवन-प्रसंगों ने विनोबा को एक महिला राजनेता की नैतिक, प्रकृतिगत और मातृवत परिस्थितियों को समझने में मदद की थी. और अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि महिला को राजनीति में उस रूप में नहीं उतरना चाहिए जैसा वह आज उतर रही हैं. अपनी पुस्तक ‘स्त्री शक्ति’ और ‘नारी की महिमा’ में उन्होंने स्पष्ट रूप से इसपर अपने विचार रखे.

सत्ता से बाहर रहते हुए इंदिरा गांधी विनोबा का आशीर्वाद लेने पवनार आश्रम पहुंची थीं. तब के अखबारों ने इस घटना को इस तरह प्रचारित किया कि विनोबा खुलकर इंदिरा के पक्ष में आ गए हैं. बाद में विनोबा के निधन पर रूस की अपनी विदेशयात्रा बीच में ही छोड़कर इंदिरा गांधी सीधे पवनार पहुंची तो मीडिया ने अपने पहले वाले कोण को और विस्तार देते हुए इस घटना को कवर किया था.

इसे सीधे-सीधे उस समय के मीडियाकर्मियों की गलती भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि चाहे वह दौर हो या आज की बात, हम सब स्वयं ही चारों ओर से रणनीतिक, कूटनीतिक और राजनीतिक वातावरण में घिरकर हर व्यक्ति को और हर घटना को एक निश्चित दायरे में समझने और व्याख्यायित करने के अभ्यस्त हो चुके हैं. आपातकाल के समय विनोबा का जीवन भी इन दुर्व्याख्यायों से बच नहीं पाया.

आपातकाल के बाद बनी जनता पार्टी के सरकार के दौरान केवल इंदिरा ही विनोबा से मिलने नहीं गई थीं. 18 जुलाई, 1978 को जब विनोबा अस्वस्थ थे, तो उन्हें देखने जयप्रकाश जी स्वयं पवनार आश्रम गए थे. उसी साल 30 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई भी उनसे मिले थे. यह विनोबा की सर्वप्रियता और सर्वस्वीकार्यता का ही परिचायक थी. लेकिन इसे उदारतापूर्वक समझ पाने की दृष्टि और आध्यात्मिक गहराई परवर्ती राजनीतिक अनुयायियों और अध्येताओं में कम ही देखी जाती है.

महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ शब्द और प्रसंग का चलताऊ राजनीतिक अर्थ निकालने वाले बौद्धिक और राजनीतिक समुदाय को आज भी इस पर आत्मचिंतन करने की जरूरत है कि भारतीय परिप्रेक्ष्य तथा संदर्भों को समझ पाने की अक्षमता का हम किस हद तक शिकार हो चुके हैं. विनोबा का ‘अनुशासन पर्व’ वास्तव में निर्भयी, निर्वैर और निष्पक्ष आचार्यों के ‘अनुशासन’ की परंपरा को याद दिलाने वाला इशारा था. वह राजनेताओं के अर्थों वाला दुःशासन पर्व नहीं था. हम उसे समझ नहीं पाए. हम शायद उस दौर में ही यह उम्मीद खो चुके थे कि हमारे बीच ऐसे तटस्थ और स्थितप्रज्ञ ऋषि और संत मौजूद भी हो सकते हैं.