विज्ञान-तकनीक | अंतरिक्ष

अपोलो मिशन : चांद की कहानी, जाने वालों की ज़बानी

16 जुलाई 1969 को चांद पर सबसे पहले कदम रखने वाले नील आर्मस्ट्रांग में दुनिया ने किसी अमेरिकी को नहीं, एक धरतीवासी को देखा था

राम यादव | 25 अगस्त 2021

भूतपूर्व सोवियत संघ ने 12 अप्रैल 1961 के दिन विश्व को स्तब्ध कर दिया था. उसने मानव इतिहास में पहली बार अपने एक वायुसैनिक विमान चालक यूरी गगारिन को अंतरिक्ष में भेजने का कारनामा कर दिखाया. संसार का सबसे अमीर देश अमेरिका तब तक ऐसा कोई चमत्कार नहीं कर पाया था. सोवियत संघ से पिछड़ जाने की इस कड़वाहट को उससे अगड़ जाने की मिठास में बदलने के लिए अमेरिका ने निश्चय किया कि चंद्रमा पर सबसे पहले उसी का कोई नागरिक पहुंचेगा. चंद्रमा ही पृथ्वी का सबसे निकट पड़ोसी होने के नाते हमारे कौतूहल का प्रमुख विषय रहा है.

अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जॉन एफ़ कैनडी ने गगारिन की अंतरिक्षयात्रा के एक ही महीने बाद 25 मई 1961 को, अमेरिकी कांग्रेस (संसद) को संबोधित करते हुए कहा, ‘अब समय आ गया है एक लंबी छलांग का. एक बड़े अमेरिकी कार्य का… मैं समझता हूं कि हमारे देश को इस दशक के पूरा होने से पहले ही चांद पर आदमी को उतारने और उसे पृथ्वी पर सुरक्षित वापस लाने का लक्ष्य प्राप्त कर लेना चाहिये.’

तैयारियां ज़ोर-शोर से शुरू हो गईं. ‘अपोलो’ नाम के नये अंतरिक्षयानों के द्वारा चंद्रमा तक पहुंचने की एक नयी योजना बनी. अपोलो यान चंद्रमा के पास पहुंच कर उसकी परिक्रमा करते और दो यात्रियों वाले अपने साथ के ‘ल्यूनर मॉड्यूल’ (अवतरणयान) को उसकी सतह पर उतारते. चंद्रमा पर पैर रखने वाले दोनों य़ात्री वहां कुछ अवलोकन-परीक्षण करते और वहां की मिट्टी तथा कंकड़-पत्थर के नमूने जमा कर अपने साथ ले आते.

‘अपोलो’ योजना में जर्मनों की भूमिका

‘अपोलो’ यानों को चंद्रमा की दिशा में प्रक्षेपित करने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध के समय के सौ से अधिक जर्मन इंजीनियरों एवं तकनीशियनों की सहायता से सैटर्न5’ नाम के महाशक्तिशाली रॉकेटों की एक नयी श्रृंखला विकसित की गयी. उस समय शायद ही कोई जानता था कि इन जर्मनों ने ही द्वितीय विश्वयुद्ध के अंतिम वर्षों में हिटलर के लिए वी-2 (फ़र्गेल्टुंग्स वाफ़े/प्रतिशोध अस्त्र) नाम का रॉकेट बनाया था. 1945 में जर्मनी के पराजित होते ही एक गोपनीय अभियान चला कर वेर्नहेर फ़ॉन ब्राउन और आर्थर रूडोल्फ जैसे उन सौ से अधिक जर्मन वैज्ञानिकों और इंजीनियरों को जमा किया और अमेरिका ले जाया गया, जो हिटलर की गोपनीय रॉकेट योजना के लिए काम कर रहे थे. चंद्रमा पर सबसे पहले पहुंचने का अमेरिकी सपना, रॉकेट बनाने में कुशल इन जर्मनों के बिना शायद ही साकार हो पाया होता.

अलग-अलग लेखों, साक्षात्कारों और संबोधनों में लगभग सभी चंद्रयात्रियों ने कहा कि अपोलो अभियान की अभिकल्पना के काम में इंजीनियरों और वैज्ञानिकों की तरह ही भावी अंतरिक्षयात्रियों को भी शामिल किया गया. उस समय तक कोई ठीक से नहीं जानता था कि चांद तक उड़ान होगी कैसे. रूपरेखाएं बहुत सी थीं. उन्हें आजमा कर देखना था.

अंतरिक्षयान की बनावट

अपोलो 11 अभियान के चंद्रमा की परिक्रमा करने वाले यान ‘कोलंबिया’ के चालक माइक कॉलिंस के अनुसार ‘शुरू-शुरू में हमने अंतरिक्षयान की बनावट को किसी केक की तरह आपस में बांट लिया. 10 या 15 हिस्सों में बांट कर हर अंतरिक्षयात्री के नाम किया और कहा कि अब तुम्हीं देखो, तुम इसके साथ क्या कर सकते हो. हमें भलीभांति मालूम था कि हम क्या ख़तरे मोल ले रहे हैं. हम उनके बारे में पूरी गहराई तक सोचते थे और उन्हें न्यूनतम रखने के लिए जो भी संभव था, कर रहे थे. लेकिन यान में 100 फीसदी ऑक्सीजन वाली समस्या की तह में हम नहीं गये.’

अपोलो 10 और 17 से उड़ चुके यूजीन सेर्नन का कहना था, ‘एक निरी परीक्षण उड़ान उस समय नियोजित नहीं थी. हमने या नासा में से किसी ने भी इस बारे में सोचा ही नहीं था कि यान में 100 फीसदी शुद्ध ऑक्सीजन के 1.1 बार दबाव वाले वातावरण में यदि कहीं से कोई चिंगारी आ गयी तो क्या होगा!’

पहली दुर्घटना

27 जनवरी 1967 शाम को एक ऐसी ही दुर्घटना आख़िर हो ही गयी. हुआ यह कि अपोलो यान के कमांडो कैप्सूल के साथ ज़मीन पर ही एक परीक्षण के समय उसमें आग लग गई. कैप्सूल में सामान्य हवा की जगह शुद्ध ऑक्सीजन भरी थी और उसका दबाव भी औसत वायुमंडलीय दबाव से अधिक था. कैप्सूल के भीतर बिजली की एक चिंगारी से आग लग गयी और उसमें बैठे तीनों अंतरिक्षयात्री एक मिनट के भीतर ही जलकर भस्म हो गये.

अपोलो 7 तक के सभी यान चंद्रमा तक की उड़ान से पहले किसी न किसी प्रकार के परीक्षण से गुजरे थे. अपोलो 8 और 10 ने तीन यात्रियों के साथ चंद्रमा की केवल परिक्रमा की और वापस लौट आये. अपोलो 11 ऐसा पहला यान था, जिसके जरिये तीन अंतरिक्षयात्री पहली बार चंद्रमा तक पहुंचे. नील आर्मस्ट्रांग और एडविन ‘बज़’ एल्ड्रिन, चंद्रमा पर उतर कर चले-फिरे. तीसरे यात्री माइक कॉलिंस को ‘कोलंबिया’ नाम वाले मुख्य (कमांडो) यान में रह कर चंद्रमा की परिक्रमा करनी पड़ी, ताकि नीचे उतरे दोनों अंतरिक्षयात्रियों तथा अमेरिका में ह्यूस्टन के ‘मिशन कंट्रोल सेंटर’ में बैठे वैज्ञानिकों व इंजीनियरों के साथ रेडियो-संपर्क बना रहे.

भाग्य की विडंबना

भाग्य की विडंबना थी कि चंद्रमा पर पहुंचने के अपोलो कार्यक्रम के प्रणेता राष्ट्रपति कैनेडी अपने सपने को साकार होते देखने के लिए ज़िंदा नहीं रहे. एक आततायी ने 22 नवंबर 1963 को उनकी हत्या कर दी. अपोलो कार्यक्रम पर काम तब भी पहले की तरह चलता रहा. दिसंबर 1968 में अपोलो का वाहक रॉकेट ‘सैटर्न5’ उड़ान के लिए तैयार था. अपोलो 10 और 17 के यूजीन सेर्नन ने एक साक्षात्कार में बताया, ‘हमने सीआईए से सुना था कि रूसी चांद की परिक्रमा के लिए समानव यान भेजने वाले हैं, ताकि हम नंबर दो रह जायें. रूसियों ने यदि हमारे वहां उतरने से पहले चंद्रमा की समानव परिक्रमा कर ली होती, तो हम पिछड़ गए होते.’

अपोलो 14 के एडगर मिचेल के शब्दों में ‘हमने अपोलो 8 की अपनी योजना बदल दी. पृथ्वी की परिक्रमा के बदले अब हम सीधे चांद पर जाना चाहते थे. यह एक जोखिमों भरी बहुत ही दुस्साहसिक बात रही होती. लेकिन, वह समय ही ऐसा था कि हम बैल को उसके सींग से पकड़ने को भी तैयार थे.’ अपोलो 8 को पृथ्वी से परे पहली बार दूर अंतरिक्ष में जाना था, पर उसे चांद पर उतरना नहीं, बल्कि उसकी परिक्रमा करके लौट आना था. चंद्रमा की दो और परीक्षणात्मक परिक्रमा उड़ानों के बाद नासा को लगा कि अब चंद्रमा पर किसी को उतारा भी जा सकता है.

अपोलो 11 की उड़ान से एक दिन पहले, 15 जुलाई 1969 को नील आर्मस्ट्रांग ने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए अपने सहयोगियों से कहा, ‘अपोलो 11 के हम क्रू वालों को कल आदमी को किसी दूसरे आकाशीय पिंड पर पहुंचाने के संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रथम प्रयास के प्रतिनिधित्व का सौभाग्य मिलेगा.’

अपोलो 11 की उड़ान

2940 टन भारी उस समय अमेरिका का सबसे शक्तिशाली रॉकेट ‘सैटर्न5’, अपोलो11 को ले कर 16 जुलाई 1969 को जब उड़ा, तब भारत में शाम के सात बज कर दो मिनट हुए थे. उड़ान से पहले के समय को याद करते हुए एडविन ‘बज़’ एल्ड्रिन का कहना था, ‘जहां तक मैं याद कर पाता हूं, स्टार्ट से कोई तीन सप्ताह पहले मैंने सिगरेट छोड़ दी. तीन दिन पहले अपना अंतिम ड्रिंक लिया. मैं समझता हूं कि उड़ान से पहले हममें से कोई भी ठीक से सो नहीं पाया. ऐसे समयों पर हम यही सोचते हैं कि हमारे सामने जो काम है, हमसे जो अपेक्षा है, उसे जहां तक हो सके पूरा कर सकें… हम लिफ्ट से प्रक्षेपण मंच की तरफ बढ़े. मेरे पास 10 मिनट का समय था सूर्योदय को और समुद्र तट पर ठांठे मारती लहरों को देखने का. वहां भारी संख्या में दर्शक जमा हो गये थे. मैंने अपने आप से कहा, इस क्षण को याद कर लो.’

अपोलो 11 में ‘बज़’ एल्ड्रिन के साथी माइक कॉलिंस ने उस दिन का याद करते हुए कहा है, ‘प्रक्षेपण वाले दिन अन्य दिनों से कुछ अलग ही होते हैं. आप एक मिनी बस से प्रक्षेपण मंच के पास पहुंचते हैं. लेकिन जब आप दैत्याकार मंच के पैर के पास खड़े होते हैं, तो कोई आदमी नहीं दिखता. एकदम निर्जनता. अन्यथा तो वहां लोगों के हुजूम लगे रहते हैं. बड़ी चहल-पहल, बड़ी भीड़-भाड़ रहती है. और तब, जब अचानक कोई दिखता ही नहीं, तो आप सोचने लगते हैं, कहीं ऐसा तो नहीं है कि दूसरे ऐसा कुछ जानते हैं जो आप नहीं जानते? मुझे लग रहा था कि सारी दुनिया हमारे ऊपर नज़र गड़ाए हुए है. ऐसा नहीं था कि हमसे ग़लतियां हो सकती थीं. संकोच इस बात का था कि हर ग़लती का नतीजा दुनिया के तीन अरब लोगों के सामने होगा.’

प्रक्षेपण का टेलीविज़न पर सजीव प्रसारण हो रहा था. योजना के मुताबिक ‘लिफ्ट ऑफ़’ (प्रक्षेपण) स्थानीय समय के अनुसार 13 बजकर 32 मिनट पर था. नौ सेकंड पहले रॉकेट के इंजन की प्रज्वलन कड़ी शुरू हुई…3, 2, 1, 0… आग का एक ज़बर्दस्त गोला रॉकेट के निचले भाग से फूट पड़ा. कान फाड़ देने वाले शोर के बीच रॉकेट उठने लगा.

‘अब हम ज़मीन पर नहीं हैं’

‘बज़’ एल्ड्रिन याद करते हैं, ‘रॉकेट के उठने के क्षण हमारे कैप्सूल के भीतर डिस्प्ले पर तरह-तरह के आंकड़े दिखायी पड़ने लगे. आवाज़ें भी सुनाई पड़ रही थीं. वायरलेस सेट पर हमें बताया गया कि हम उठ चुके हैं. लेकिन हम महसूस क्या कर रहे थे? मैं समझता हूं, ठीक उस समय हमारे मन में यही विचार आया कि अब हम ज़मीन पर नहीं हैं. एक हल्का-सा डगमगाव भी महसूस हुआ, जो शायद मार्ग नियंत्रण प्रणाली (गाइडेन्स सिस्टम) के कारण था.’

माइक कॉलिंस के शब्दों में ‘हम अपने नीचे रॉकेट के इंजनों की प्रचंड शक्ति को और सही दिशा में बने रहने की उसके प्रयासों को महसूस कर रहे थे. इतना बड़ा रॉकेट उठते समय किसी पेंसिल की नोक की तरह अपना संतुलन बनाये रखने की कोशिश करता है. इंजनों की इन हरक़तों को हम अपनी सीट पर महसूस कर रहे थे. आप केवल यही सोचते हैं कि रॉकेट कहीं इस या उस तरफ न झुक जाये.’

रॉकेट का तीसरा चरण उससे अलग होने के बाद पहली परिक्रमा कक्षा आई. एक साक्षात्कार में माइक कॉलिंस याद करते हैं, ‘हम एक बार पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं. करने के लिए बहुत कुछ होता है, क्योंकि हम चाहते हैं कि चांद की दिशा में आगे बढ़ने से पहले सब कुछ ठीक से काम करे. जब तीसरे चरण के इंजन को चालू करने का आदेश मिलता है, तो इसका मतलब है कि अब सीधे चांद की तरफ जाना है. अब आपको कोई रोक नहीं सकता.’

शून्यमय कालिमा के बीच पृथ्वी

तीसरे चरण का इंजन चालू होते ही यान की गति 35 हज़ार फुट प्रति सेकेंड हो गयी. पृथ्वी की परिक्रमा कक्षा में क्षितिज बहुत हल्का-सा घुमाव लेता दिखता है. लेकिन सीधे चांद की दिशा में बढ़ते रहने पर यह घुमाव बढ़ता जाता है और एक समय पूरी पृथ्वी दिखायी पड़ने लगती है. अपोलो 16 के चार्ली ड्यूक याद करते हैं, ‘महासागर नीले और महाद्वीप भूरे रंग के दिखते हैं. बादलों और बर्फ का रंग चमकीला सफ़ेद हो जाता है. लगता है, पृथ्वी शून्यमय कालिमा के बीच किसी आभूषण जैसी लटकी हुई है.’

माइक कॉलिंस के शब्दों में ‘वह (पृथ्वी) बहुत शांत, स्वस्थिर और खुश लगती है. साथ ही बहुत ही भंगुर भी. बात अजीब-सी है लेकिन मन में जो पहला विचार आया, वह यही था कि हे भगवान, वह नन्हीं-सी चीज़ वहां कितनी क्षणभंगुर है!’ अपोलो 14 के यात्री रहे एडगर मिचेल का कहना था, ‘चांद जितना निकट आता है, पृथ्वी उतनी ही छोटी दिखने लगती है. यह सब (ईश्वर के प्रति) बहुत ही विनम्रतापूर्ण सम्मान से ओतप्रोत कर देता है. हम मन ही मन पृथ्वी से विदा लेने और चंद्रमा का अभिनंदन करने लगते हैं.’

अपोलो 11 अपने तीन यात्रियों के साथ तीन लाख 84 हजार 403 किलोमीटर की दूरी तय करते हुए 76 घंटे बाद चंद्रमा की परिक्रमा कक्षा में पहुंचा. भारतीय समय के अनुसार, 20 और 21 जुलाई के बीच की मध्यरात्रि को एक बजकर 47 मिनट और 40 सेकंड पर अवतरण यान ‘ईगल’, नील आर्मस्ट्रांग और एडविन ‘बज़’ एल्ड्रिन को ले कर चंद्रमा पर उतरा. उनके तीसरे साथी माइक कॉलिंस को परिक्रमायान ‘कोलंबिया’ में ही बैठे रह कर पृथ्वी और चंद्रमा के बीच रेडियो संपर्क बनाये रखना था. यह संपर्क उन क्षणों में बहुत ही निर्णायक सिद्ध होता है, जब कोई समस्या खड़ी हो जाये. अपोलो 11 के साथ भी एक ऐसी ही समस्या पैदा हुई थी, जो सारे किये-धरे पर पानी फेर सकती थी.

जब कंप्यूटर अलार्म बजाने लगा

अंतरिक्षयात्रियों को कब क्या करना होता है इसकी हर बारीक़ी के साथ उन्हें एक ‘चेकलिस्ट’ दी जाती है. अपोलो 11 के मुख्य कमांडर नील आर्मस्ट्रांग वैसे तो बहुत ही सूझबूझ से काम करने वाले व्यक्ति थे. लेकिन जब उन्हें चंद्रमा की सतह पर उतरने के उड़नखटोले ‘ईगल’ को परिक्रमायान ‘कोलंबिया’ से अलग करने की प्रक्रिया शुरू करनी थी, तब उन्होंने ‘ईगल’ के नीचे उतरने के अवतरण राडार और ‘कोलंबिया’ के पास वापसी के पुनर्मिलन राडार, दोनों को एक साथ सक्रिय कर दिया.

इससे ‘ईगल’ के नीचे उतरने के दौरान ‘कोलंबिया’ पर लगे बोर्ड-कंप्यूटर पर इतना बोझ पड़ गया कि वह गड़बड़ी का अलार्म बजाने लगा. आर्मस्ट्रांग ने सोचा था कि नीचे उतरने के दौरान यदि अचानक कोई समस्या पैदा होती है और उन्हें ‘कोलंबिया’ के पास तुरंत लौटना पड़ता है, तो दोनों राडार का एक साथ काम करना बेहतर रहेगा. यह बात पहले किसी ने सोची ही नहीं थी कि कभी दोनों राडार एक साथ चालू रखने पड़े, तब क्या होगा? इस विकट स्थिति में आर्मस्ट्रांग को सीधे ह्यूस्टन से मिल रहे मार्गदर्शन के अनुसार नीचे उतरना पड़ा.

‘ईगल’ के इंजन के लिए ईंधन इतना नपातुला था कि उतरने की सुरक्षित जगह का निर्णय भी कुछेक पलों में ही करना था. माइक कॉलिंस याद करते हैं, ‘वहां किसी कार जितनी बड़ी चट्टानें थीं. यदि ईगल का एक पैर ऐसी किसी चट्टान पर होता और दूसरा किसी गड्ढे में, तब तो और भी मुश्किल हो जाती.’

अंतरिक्षयात्रा के इतिहास का अमर वाक्य

‘ईगल’ चार पायों वाले किसी भद्दे उड़नखटोले के समान था. आर्मस्ट्रांग और एल्ड्रिन को चंद्रमा पर उतरने के बाद ‘ईगल’ में क़रीब पांच घंटे तक बैठे रह कर परिक्रमायान कोलंबिया की तरफ वापसी के लिए आवश्यक तैयारियां करनी और ‘ईगल’ की खिड़कियों के पीछे से आस-पास की दृश्यावली के फ़ोटो लेने थे. यह सब करने के बाद, 21 जुलाई 1969 को, भारतीय समय के अनुसार सुबह आठ बज कर 26 मिनट पर, नील आर्मस्ट्रांग ‘ईगल’ से बाहर निकले. उनके शब्द थे, ‘मैं अब सीढ़ी से नीचे उतर रहा हूं. फेरी (ईगल) के पैर 3-4 सेंटीमीटर मिट्टी में धंस गये लगते हैं. (चांद की) ऊपरी सतह बहुत ही महीन रेत की बनी हुई लगती है. इतनी बारीक है कि पाउडर जैसी दिखती है…. अब मैं सीढ़ी से परे हटूंगा.’ और तब नील आर्मस्ट्रांग ने वह वाक्य कहा, जो अंतरिक्षयात्रा के इतिहास का अमर वाक्य बन गया हैः ‘आदमी के लिए यह एक छोटा-सा क़दम है, लेकिन मनुष्यजाति की एक लंबी छलांग है.’

20 मिनट बाद बज़ एल्ड्रिन ने भी ‘ईगल’ से बाहर निकल कर चंद्रमा की मिट्टी पर अपने पैर रखे. उनके शब्दों में ‘हमने (अमेरिका का) ध्वज खोला और उसका डंडा मिट्टी में गाड़ा, हालांकि हमने इससे पहले इसका अभ्यास नहीं किया था. हम चांद पर खड़े थे और मुझे महसूस हुआ कि इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ होगा कि केवल दो आदमियों को इतने सारे लोग देख रहे हों. और यह भी पहले कभी नहीं हुआ होगा कि दूरी की दृष्टि से ही नहीं, हर तरह से (पृथ्वी से) जितनी दूर हम थे, उतनी दूर दूसरा कोई गया हो. इस मरुस्थल से अपने घर लौटने तक हमारे सामने अभी ढेर सारी चुनौतियां भी थीं.’

दुनिया झूम उठी

चंद्रमा की सतह पर पड़ते किसी धरतीवासी के पहले क़दमों को देख कर सारी दुनिया झूम उठी. नील आर्मस्ट्रांग में दुनिया ने किसी अमेरिकी को नहीं, एक धरतीवासी को देखा. चंद्रमा की रेतीली ज़मीन पर पैर रखते ही वे पूरी मानवजाति का प्रतिनिधि बन गये. पृथ्वी के इस सुनसान-वीरान उपग्रह के बारे में आर्मस्ट्रांग के शब्द थे, ‘यहां अपने ढंग की एक अनोखी सुंदरता पसरी हुई है, कुछ वैसी ही, जैसी अमेरिका के पहाड़ी मरुस्थलों में दिखती है. दोनों की तुलना नहीं हो सकती, फिर भी बहुत ही सुंदर.’

आर्मस्ट्रांग और बज़ एल्ड्रिन, दोनों ने वहां कई वैज्ञानिक उपकरण आदि रखे और पृथ्वी पर लाने के लिए कुछ मिट्टी और 21 किलो 600 ग्राम कंकड़-पत्थर जमा किये. चांद की धरती पर यह पहला विचरण दो घंटे 31 मिनट चला. इस दृश्य की सजीव तस्वीरें टेलीविज़न पर प्रसारित हो रही थीं. लोग चंद्रयात्रियों और ह्यूस्टन स्थित मिशन कंट्रोल के लोगों के बीच बातचीत भी सुन सकते थे. अपोलो 15 के डेव स्कॉट याद करते हैं, ‘सांइस फिक्शन के जिन लेखकों ने चंद्रमा पर उतरने की जो भी कथा-कहानियां लिखीं हैं, उन्होंने ये कभी नहीं सोचा था कि इस तरह के अवतरण को सारी दुनिया उसी क्षण देख भी रही होगी.’

इस सारे समय माइक कॉलिंस कोलंबिया में अकेले बैठे चंद्रमा की परिक्रमा करते रहे. उनके शब्दों में ‘मैंने सुना कि मुझे पूरे ब्रह्मांड में सबसे अकेला आदमी बताया गया. एकदम बकवास! मैं तो कहूंगा कि नियंत्रण केंद्र सारे समय मुझे से बातें करता रहा. मुझे अच्छा लग रहा था. मैं भलीभांति जानता था कि (परिक्रमायान में) मैं अकेला था. मैं उस समय चंद्रमा के पृष्ठभाग में था. मैं सोच रहा था, दूसरी ओर (पृथ्वी पर) तीन अरब लोग रहते हैं, दो आदमी वहां नीचे कहीं चांद पर हैं, और यहां मैं हूं. मैं न तो एकाकी था और न डरा-सहमा, बल्कि पूरी गहनता के साथ सचेत था, प्रफुल्लित था कि सब कुछ ठीक चल रहा था. मुझे वाकई बहुत अच्छा लग रहा था. मेरे कमान-कैप्सूल में सब कुछ बिना किसी गड़बड़ी के बढ़िया चल रहा था. वह मेरा अपना एक छोटा-सा घरौंदा था. रोशनी थी. मुझे मज़ा आ रहा था.’

घर वापसी

चंद्रमा पर घूमने-फिरने और अवतरणयान ‘ईगल’ में कुछ समय विश्राम करने के बाद दोनों चंद्रयात्रियों ने चंद्रमा की परिक्रमा कर रहे ‘कोलंबिया’ से पुनर्मिलन के लिए ‘ईगल’ का इंजन चालू किया और क़रीब चार घंटे की उड़ान के बाद उससे जुड़ गये. दोनों ‘ईगल’ से निकल कर ‘कोलंबिया’ में चले गये. ‘ईगल’ को ‘कोलंबिया’ से अलग कर दिया गया और ‘कोलंबिया’ को वापसी के लिए पृथ्वी की दिशा में मोड़ दिया गया.

24 जुलाई 1969 को, भारतीय समय के अनुसार रात 10 बजकर 20 मिनट पर, ‘कोलंबिया’ अमेरिका के जॉन्स्टन द्वीप के पास प्रशांत महासागर में गिरा. वहां उसे एक अमेरिकी जहाज़ के हेलीकॉप्टर ने उठाया. इस डर से कि चंद्रयात्रियों के साथ कहीं कोई अज्ञात कीटाणु वगैरह न आ गये हों, उन्हें 17 दिनों तक सबसे अलग-थलग (क्वारन्टीन) रख कर उनकी जांच-परख की गई. इस के बाद ही वे देश-दुनिया के सामने आ सके और अपने अनुभव सुना सके.

1972 तक चंद्रमा पर उतरने और विचरण करने की कुल छह अपोलो उड़ानें हुईं. इनके जरिये कुल 12 अमेरिकी अंतिरक्षयात्रियों ने उसकी ज़मीन पर अपने पैर रखे. सभी के अनुभवों में कुछ समानताएं हैं तो कुछ अंतर भी हैं. चंद्रमा की धरती पर पहला क़दम रखने के सौभाग्यशाली नील आर्मस्ट्रांग 25 अगस्त 2012 को इस दुनिया से चल बसे. 21 दिसंबर 1968 से 18 दिसंबर 1972 के बीच कुल 24 अमेरिकी अंतरिक्षयात्री चंद्रमा तक गये, भले ही उस पर उतरे हो या न उतरे हों. मई 2019 तक उनमें से केवल 12 जीवित थे.

तय की गई जगहों पर उतरना था

अपोलो 12 के एलन बीन के शब्दों में ‘हम सबको शांति सागर (ट्रैंक्विलिटी मारे) में तय की गई जगहों पर उतरने के लिए तैयार किया जा रहा था. तीन क्रू (यात्रीदल) बनाए गए. अपोलो 11 को जुलाई में जाना था. यदि कोई गड़बड़ होती तो दो महीने बाद हमारी (एलन बीन और डेव स्कॉट की) बारी आती. यदि यह भी नहीं हो पाता, तो दो महीने बाद नवंबर में अपोलो 13 की बारी होती. यानी (1960 वाले) दशक के अंत तक चांद पर उतरने के हमारे पास तीन मौके होते. नील आर्मस्ट्रांग और माइक कॉलिंस को अपोलो 11 से जाना था. उन्हें पहला प्रयास करना था. वे बहुत ही कुशल क्रू थे और एक-दूसरे को अच्छी तरह समझते थे. माइक निश्चिंत कि़स्म का आदमी था. वह चीज़ों को हल्के- से लेता था.’

अपोलो 11 के माइक कॉलिंस याद करते हैं, ‘मुझे दुख था कि मैं चांद की सतह पर उतरने वाले फेरी यान में नहीं जा सका. यह एक ऐसा निर्णय था, जो ऊपर से आया था. एक जने को कमान कैप्सूल में रहना था. बाक़ी दोनों को चांद पर उतरना था. इस तरह कैप्सूल-पायलट होने के नाते मैं (एक तरह से) कैप्सूल-क़ैदी था. चांद पर पैर रखने का अवसर तो मुझे नहीं मिला, लेकिन यह भी क्या कम है कि मुझे चंद्रयात्रा का और उस कर्मीदल का सदस्य होने का सुअवसर मिला, जो पहली बार चांद पर उतरा था.’

चांद पर क्रिसमस मनाया

अपोलो 14 के एडगर मिचेल ने याद करते हैं, ‘हमने पहली बार जब चांद को बिल्कुल पास से देखा, तब उसके क्रेटरों से केवल 60 मील की दूरी पर से चक्कर लगा रहे थे. हम इतने उत्तेजित थे कि अपने उड़ान कार्यक्रम को ही कुछ समय के लिए भूल गये. खूब फ़ोटो खींचे. वह प्रसिद्ध फ़ोटो भी खींचा जिसमें नीले रंग की पृथ्वी चांद के पीछे से उदय हो रही थी. क्रिसमस वाली रात चांद के पास होना एक रोमांचक अनुभूति थी. हमने तय किया कि हम ओल्ड टेस्टामेंट से कुछ पढ़ कर सुनाते हैं. उसका एक पाठ था : ‘परमात्मा ने सबसे पहले धरती और आकाश बनाया. पृथ्वी एक मरुस्थल थी ओर ख़ाली थी. नीचे घना अंधकार था. परमात्मा की आत्मा पानी के ऊपर हवा में तैर रही थी. परमात्मा ने कहा, प्रकाश हो जाये. और तब सर्वत्र प्रकाश जगमगा उठा.’

अपोलो12 के एलन बीन के शब्दों में ‘यदि आप चांद पर पहुंच गये हैं और (यान से) बाहर उतरते हैं, तो वहां (आपके स्वागत के लिए) कोई नहीं होता. केवल हमारा फेरी यान और (उससे आये) हम दोनों जने ही वहां थे. दूर-दूर तक फैली उस मरुभूमि पर केवल हम दोनों ही थे! एक बहुत ही अजीब-सी अनुभूति थी वह. बहुत ही अजीब लग रहा था कि केवल हम दो लोग वहां हैं, बस!’

विधाता के प्रति विनयभाव

अपोलो 16 के चार्ली ड्यूक याद करते हैं, ‘मुझे विधाता के प्रति गहरे विनयभाव की अनुभूति होती थी. चांद ऐसा सबसे सुंदर मरुस्थल है, जिसकी हम कल्पना कर सकते हैं. पूरी तरह कौमार्यपूर्ण और अनछुआ. उसकी अपनी ही आभा है. चांद की अपनी दृश्यावली और उसके ऊपर छाये आकाश के बीच का विरोधाभास ऐसा अनोखा है कि हम बस ठगे-से रह जाते हैं.

अपोलो 18 के हैरिसन श्मिट के शब्दों में ‘हम विज्ञान की सेवा में शोधक थे. हम चीज़ें देख रहे थे, जिन्हें हम से पहले किसी ने नहीं देखा था. यदि देखा भी रहा होगा, तो हमारे दष्टिकोण से नहीं देखा होगा. हम चांद, अपनी पृथ्वी, सौरमंडल और समग्र ब्रह्मांड बीच एकत्व देख रहे थे.’

अपोलो 11 के माइक कॉलिंस याद करते हैं, ‘मुझे ऐसा नहीं लग रहा था कि हम कोई बड़ा काम कर पाये. हमने किसी हद तक कुछ किया है, पर मेरे लिए चांद पर उतरने की अपेक्षा वहां से वापसी की उड़ान कहीं अधिक महत्वपूर्ण थी. चांद पर उतरने के फ़ेरी यान (ईगल) में केवल एक ही इंजन था. यदि वह चालू नहीं हो पाया होता तो दोनों जन ज़िंदा नहीं बचे होते. हमारे पास वहां से वापस आने का कोई विकल्प नहीं होता. भाग्य नहीं चाहता था कि जो पुरुष चांद का शांतपूर्ण अन्वेषण करने गये थे, उन्हें वहीं अंतिम शांति मिले. उनमें से हर एक, नील आर्मस्ट्रंग और एल्ड्रिन, अच्छी तरह जानते थे कि कि यदि कोई गड़बड़ी हुई, तो उनके उद्धार की कोई आशा नहीं है. पर वे यह भी जानते थे कि उनके बलिदान में संपूर्ण मानवजाति की आशा निहित है.’

शोकसंदेश पहले से ही रिकार्ड

चंद्रयात्रियों के लौट नहीं पाने या दुर्घटनाग्रस्त हो जाने की स्थिति में रेडियो और टेलीविज़न के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की आवाज़ में एक शोकसंदेश पहले से ही रिकार्ड कर लिया गाय था, ‘प्रिय देशवासियों, मैं संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति बोल रहा हूं. मैं आपको एक ऐसे तथ्य से परिचित कराने के लिए विवश हूं, जो बहुत से अमेरिकियों और विश्व के बहुत सारे लोगों को बहुत ही शोकसंतप्त कर देगा….’

अपोलो 11 के माइक कॉलिंस याद करते हैं, ‘जब वे (आर्मस्ट्रांग और एल्ड्रिन) कमांडो मॉड्यूल (परिक्रमायान) में वापस आ गये, तो मैंने आ्रमस्ट्रांग को कानों के पास पकड़ा और उसे माथे पर चूमना चाहा. मुझे अच्छी तरह याद है. लेकिन तभी मेरे मन में विचार आय़ा कि यह शायद जंचेगा नहीं. मैं नहीं जानता कि मैने उसके कंधे थपथपाये, हाथ मिलाया या क्या किया. दूसरी ओर, पुनर्मिलन मनाने का हमारे पास समय भी नहीं था. हमें तुरंत पृथ्वी की तरफ़ वापसी की, घर जाने की तैयारी करनी थी.’

ब्रह्मांड के साथ एकत्व और अपनत्व की अनुभूति

अपोलो 14 के एडगर मिचेल के शब्दों में ‘पृथ्वी की तरफ वापसी उड़ान सबसे सुखद अनुभूति थी. मैं कॉकपिट की खिड़की से हर दो मिनट पर पृथ्वी, चांद, सूर्य और 360 अंश के पूरे अंतरिक्ष का परिदृश्य देखा करता था. बहुत ही अभिभूत कर देने वाला परिदृश्य था. मुझे इस में भी कोई संदेह नहीं रहा कि मेरे शरीर के, हमारे अंतरिक्षयान के और मेरे साथियों के अणु-परमाणु अकल्पनीय चिरकाल पहले रचे-बनाये गये थे. यह ब्रह्मांड के साथ एकत्व और अपनत्व की एक गहरी अनुभूति थी. मैं, हम सभी, सब कुछ से जुड़े हैं. यह मेरे लिए यह परमानंद के समाऩ था. हे भगवान! वह किसी धार्मिक-आध्यात्मिक सत्ता के दर्शन से कम नहीं था. एक नया ज्ञान-बोध था.

अपोलो 10 और 17 के यूजीन सेर्नन याद करते हैं, ‘(चांद पर होने की) वह एक ऐसी अनुभूति थी, मानो मैं अंतरिक्ष में कहीं वैज्ञानिकों और तकनीशियनों के बनाये किसी पठार पर खड़ा हूं. मुझे यह महसूस हुआ कि ठीक इन्हीं वैज्ञानिकों और तकनाशियनों के पास (हमारे) सबसे निर्णायक प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है. मैं यहां खड़ा था और पृथ्वी वहां थी, बहुत ही अभिभूत कर देने वाली थी. मुझे लगा कि यह दुनिया इतनी जटिल, इतनी तार्किक और सुंदर है कि यह हो नहीं सकता कि वह मात्र किसी संयोगवश बन गयी हो सकती है. ज़रूर कोई ऐसी सत्ता है जो आप से और मुझ से भी बड़ी है. मैं यह बात किसी धार्मिक अर्थ में नहीं, आध्यात्मिक अर्थ में कह रहा हूं. ज़रूर कोई सृष्टा भी है, जो धर्मों से ऊपर है, हमें बनाता है और हमारे जीवन को दिशा देता है.’

जीवन बदल गया

अपोलो 11 के बज़ एल्ड्रिन याद करते हैं, ‘मुझे पता था कि चांद पर गये हम पहले लोगों की वापसी पर हमारा ज़ोरदार स्वागत होगा. मिशन के दौरान यह बोध एक अजीब-सा बोझ था. लेकिन वापसी के बाद जीवन भर के लिए सब कुछ बदल गया था. हम युद्धक विमान के पायलट भर नहीं रह गये थे, जिसने सब कुछ शायद ठीक-ठाक ही किया था, बल्कि वह आदमी थे, जिसने चांद पर अपने पैर रखे थे. मेरे साथ यह विशेषण अब मेरे बाक़ी सारे जीवनकाल के लिए जुड़ा रहेगा, में चाहे जो काम करूं.

अपोलो 12 के एलन बीन के शब्दों में ‘सच- सच कहूं, तो मैं नहीं जानता कि मुझे किस बात के लिए नील आर्मस्ट्रांग की आलोचना करनी चाहिये. मुझे इस बात की सचमुच बहुत खुशी है कि वही चांद पर सबसे पहले अपने पैर रखने वाला पहला मनुष्य था. वह अंतर्मुख़ी क़िस्म का ज़रूर था, पर यही उसके व्यक्तित्व के साथ सबसे अधिक फ़बता भी था. हां, मुझे थोड़ी ईर्ष्या भी ज़रूर होती है, लेकिन यह ठीक ही था कि वही सबसे पहला था. मैं उसकी जगह नहीं लेना चाहता. यह कोई आसान बात नहीं है.’

वापसी के बाद विश्व-यात्रा

अपोलो 11 के माइक कॉलिंस याद करते हैं, ‘अपनी वापसी के बाद हम तीनों विश्व-यात्रा पर निकले. जहां कहीं हम गये, लोगों ने कहा, यह ‘हमारी’ उपलब्धि है न कि अमेरिकियों की. हमारी, हमारी, इस दुनिया के ‘हम मनुष्यों’ की यह सफलता है. मैंने इससे पहले कभी नहीं सुना था कि विभिन्न देशों के इतने सारे लोग इतने हर्षोल्लास के साथ हम-हम कह रहे हों, चाहे वे यूरोपीय हों या एशियाई या फिर अफ्रीकी. सब जगह यही कहा जा रहा था कि ‘हमने’ इसे कर दिखाया. यह भावविभोर कर देने वाला था, बहुत ही सुखद अनुभव था.’

अपोलो 11 के तीनों अंतरिक्षयात्री 26 अक्टूबर 1969 को मुंबई (तब बंबई) भी पहुंचे. हवाई अड्डे से ताज महल होटल जाने के 20 किलोमीटर लंबे रास्ते पर कड़ी धूप और गर्मी में 10 लाख से अधिक लोगों ने उनका अभिनंदन किया. भीड़ में मैं भी शामिल था.

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