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क्या कोविड-19 दुनिया की आखिरी महामारी हो सकती है?

कोरोना वायरस का प्रकोप और उससे दुनिया का ठहर जाना, भले ही हममें से ज्यादातर के लिए एक अप्रत्याशित घटना थी. लेकिन दुनिया भर में कुछ सौ या हजार लोग ऐसे भी थे जो इसके बारे में जानते थे. वे जानते थे कि जल्दी ही दुनिया पर किसी महामारी का प्रकोप होने वाला है. वे यह भी जानते थे कि यह महामारी रेस्पिरेटरी सिंड्रोम यानी सांस लेने से संबंधित परेशानियां पैदा करेगी. यहां तक कि उन्हें इस बात का भी अंदाज़ा था कि इसे पूरी धरती पर फैलने में कुछ महीनों से ज्यादा का वक्त नहीं लगेगा. और तो और, उन्हें यह भी पता था कि अगर ऐसा हुआ तो विश्व भर में चल रही आर्थिक गतिविधियां न सिर्फ लंबे समय के लिए रुक जाएंगी बल्कि इससे होने वाले नुकसान से उबरने में कई देशों को सालों या दशकों का समय भी लग सकता है. लेकिन फिर भी ये लोग दुनिया को महामारी से नहीं बचा सके. क्योंकि यह अंदाज़ा लगाना असंभव था कि यह महामारी कब और किस जगह से शुरू होगी?

महामारियों के संबंध में भविष्यवाणियां करने वाले ये लोग तमाम देशों के वैज्ञानिक और महामारी विशेषज्ञ हैं. ये बीते कई सालों से न केवल महामारी का प्रकोप होने की चेतावनियां लगातार दे रहे थे बल्कि दुनिया को इससे लड़ने के लिए तैयार करने की कोशिश भी कर रहे थे. इन्हीं की तैयारियों और कोशिशों का नतीजा कहा जाना चाहिए कि कोरोना वायरस के कई वैक्सीन एक साल से भी कम समय में बनकर तैयार हो गए और इस्तेमाल हो रहे हैं.

कोविड-19 जैसी महामारी से लड़ने की हमारी पिछली और आगामी कोशिशों का जिक्र करते हुए सबसे पहले जिस बात पर गौर किया जाना चाहिए, वह कोरोना वायरसों का इतिहास है. जानवरों में कोरोना समूह के वायरस की उपस्थिति का पता पहली बार साल 1920 में चला था. बीते सौ सालों में इस वायरस ने अपने आप को इस तरह बदला है कि आज मानव सभ्यता के सामने सबसे बड़ा खतरा बनकर खड़ा हो गया है. नया कोरोना वायरस यानी सार्स कोव-2 (SARS CoV-2) कोई पहला कोरोना वायरस नहीं है जो प्रकृति की तमाम पाबंदियों को पार करते हुए इंसान तक पहुंचा है. इससे पहले भी कोरोना वायरस के छह ज्ञात प्रकारों से इंसान का पाला पड़ चुका है. इनमें से दो – सार्स और मर्स – पहले ही कुछ क्षेत्रों में महामारियों का कारण बन चुके हैं.

सार्स कोव-2 से पहले सार्स कोव जुलाई 2003 [1] में 29 देशों के 8098 लोगों में संक्रमण की वजह बना था. इनमें से 774 लोगों की मौत हो गई थी. इस वायरस के चार वैरिएंट ज्ञात हैं. वहीं, 2012 में [1] मध्य-पूर्वी देशों से शुरू हुए मर्स (मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम) कोरोना वायरस ने लगभग ढाई हजार लोगों को अपनी चपेट में लिया. यह अब तक का सबसे घातक कोरोना वायरस कहा जा सकता है क्योंकि इसके संक्रमण की मृत्यु दर 35 फीसदी थी. यानी इस संक्रमण का शिकार हुए 2500 लोगों में से करीब 900 की मौत हो गई थी. मर्स कोरोना वायरस को लेकर वैज्ञानिकों का कहना है [2] कि यह लगातार अपने आप को विकसित कर रहा है और भविष्य में अगर इसका कोई वैरिएंट सामने आता है तो वह दुनिया के लिए एक बड़ी और भयानक चुनौती साबित हो सकता है.

नए कोरोना वायरस या सार्स कोव-2 की बात करें तो इसके अपेक्षाकृत घातक वैरिएंट्स ब्राज़ील, यूनाइटेड किंगडम, अफ्रीका और भारत में देखने को मिल रहे हैं. हालांकि अब वैक्सीनों को नए वैरिएंट्स से बचाव के लिए भी अपडेट किया जाने [3] लगा है लेकिन यह पूरी प्रक्रिया बहुत समय और संसाधन लेने वाली है. इसलिए वैज्ञानिक एक यूनिवर्सल वैक्सीन की ज़रूरत महसूस करते हैं जो सार्स कोव-2 के नए वैरिएंट्स और भविष्य में किसी नए कोरोना वायरस के चलते होने वाली महामारी से बचाव में तुरंत मददगार साबित हो सके.

इस दिशा में चल रहे प्रयासों की बात करें तो सबसे पहले वैज्ञानिक कोरोना फैमिली के वैरिएंट्स में कॉमन एलीमेंट्स की पहचान करके इस वायरस की यूनिवर्सल वैक्सीन तैयार करने की कोशिश में हैं. इन वायरसों में मौजूद एक आम कॉमन एलीमेंट इनकी ऊपरी संरचना यानी स्पाइक्स पर पाये जाने वाले प्रोटीन का कोई हिस्सा हो सकता है. इसके जरिये हमारे शरीर के इम्यून सिस्टम को सभी कोरोना वायरसों की पहचान करके उनसे मुकाबले के लिए तैयार किया जा सकता है.

कोरोना वायरस के कॉमन एलीमेंट्स के जरिये यूनिवर्सल वैक्सीन बनाने का एक और तरीका हो सकता है. इसमें संक्रमण से उबर चुके लोगों के शरीर में मौजूद उन कॉमन इम्यून सेल्स की पहचान की जा सकती है जिन्होंने वायरस के सभी वैरिएंट्स से मुकाबला किया था. ये कॉमन इम्यून सेल्स एंटीबॉडीज या टी-सेल्स (वायरस से संक्रमित कोशिकाओं से लड़ने वाली कोशिकाएं) हो सकती हैं. इसके बाद वायरस के उस विशेष हिस्से की पहचान की जा सकती है जिसे ये इम्यून सेल्स टारगेट करती हैं. फिर एक ऐसी वैक्सीन बनाई जा सकती है जो हमारे इम्यून सिस्टम को वायरस के उस विशेष हिस्से के जरिये हर कोरोना वायरस को पहचानना सिखा देगी.

कुल मिलाकर, वैज्ञानिक कोरोना वायरस में मौजूद ऐसे कॉमन एलीमेंट्स की तलाश में हैं जिसके जरिये शरीर को उनके सभी वैरिएंट्स की पहचान करना सिखाया जा सके.

कोविड-19 के संदर्भ में वैज्ञानिक तबका इन दिनों जिस पर सबसे ज्यादा ध्यान दे रहा है, वह मोजेइक वैक्सीन [4] है. इस वैक्सीन में कोरोना वायरस के कई वैरिएंट्स के एंटीजन्स (वायरस का वह हिस्सा जो शरीर की प्रतिरोध क्षमता को सक्रिय कर देता है) होते हैं. जैसा कि इसके नाम मोजेइक (यानी पच्चीकारी) से स्पष्ट होता है, इसमें वायरसों के प्रोटीन से बने बहुत छोटे-छोटे बायोलॉजिकल स्ट्रक्चर्स की व्यवस्था बनाई जाती है. वैक्सीन के लिए यह तरीका अपनाने का फायदा यह होता है कि हमारा इम्यून सिस्टम कई तरह के वैरिएंट्स के खिलाफ एंटीबॉडीज तैयार कर देता है.

मोजेइक वैक्सीन से जुड़ी अच्छी खबर यह है कि अमेरिका में इसका सफल परीक्षण चूहों पर किया जा चुका है. इसके नतीजे [5] बीती फरवरी में ही आए हैं. ये बताते हैं कि वैक्सीनेटेड चूहों में सार्स कोव-2 के कई वैरिएंट्स के खिलाफ बढ़िया इम्यून रिस्पॉन्स देखने को मिला है. वैज्ञानिकों के मुताबिक [6] इन नतीजों में शामिल दो बातें ध्यान खींचने वाली हैं. पहली यह कि अगर चूहों के शरीर में कई तरह के वैरिएंट्स से पूरी सुरक्षा देने के लिए एंटीबॉडीज बन रही हैं तो इसका मतलब है कि वैक्सीन का पहला और मुख्य उद्देश्य पूरा हो रहा है. दूसरी यह कि यह इम्यून रिस्पॉन्स चमगादड़ों में पाए जाने वाले कोरोना वायरसों के खिलाफ भी प्रभावी पाया गया है. यानी कि यह वैक्सीन तब भी हमारे काम आ सकती है जब चमगादड़ों में पाया जाने वाले कोरोना वायरस इंसानों को संक्रमित करने लगे.

मोज़ेइक वैक्सीन से जुड़े शोधों में शुरूआती नतीजे सकारात्मक दिखाई देने के बावजूद वैज्ञानिक अभी इसे दूर की कौड़ी ही मानते हैं. निश्चित रूप से ऐसा मानने के पीछे एचआईवी और इन्फ्लुएंजा वायरस के लिए वैक्सीन बनाने का हमारा अनुभव भी हैं. इनके कई वैक्सीन या तो पूरी तरह से असफल रहे हैं या फिर शुरूआती सफलता मिलने के बाद आगे नहीं बढ़ सके. इनमें से कुछ ह्यूमन ट्रायल में सुरक्षित पाए जाने के बाद प्रभावी होने (एफिकेसी) के मामले में चूक गए.

यूनिवर्सल वैक्सीन से जुड़ी चुनौतियों पर वैज्ञानिकों का कहना है कि वायरस बहुत छलिया सूक्ष्मजीव होते हैं और इसका सबसे बड़ा उदाहरण एचआईवी है. एचआईवी इंसान की रोग प्रतिरोधक क्षमता और बाहरी इलाज को चकमा देते हुए सालों तक किसी व्यक्ति के शरीर में रह सकता है. वायरस के इस व्यवहार को इम्यून एस्केप कहा जाता है. एचआईवी वायरस इसमें इतना माहिर है कि एक संक्रमित व्यक्ति के शरीर में उसके एक लाख से ज्यादा स्ट्रेन्स देखने को मिल सकते हैं और इनमें से कोई भी एक से दूसरे व्यक्ति तक पहुंच सकता है. यही वजह है कि वैज्ञानिक एचआईवी वैक्सीन को सैद्धांतिक रूप से संभव बताते हुए भी यह कहते हैं कि इसमें अभी काफी लंबा समय और लग सकता है.

एन्फ्लुएंजा भी इसी तरह का रूप बदलने वाला जिद्दी वायरस है. फिलहाल, एन्फ्लुएंजा वायरस के खिलाफ अपनाई जा रही अस्थाई रणनीति यह है कि हर साल पहले अंदाज़ा लगाया जाता है कि इस बार इसके किस स्ट्रेन के वायरस का प्रकोप हो सकता है. फिर उसी के मुताबिक फ्लू सीजन और वैक्सीन की तैयारी की जाती है. पिछली सदी में आई महामारी की वजह एन्फ्लुएंजा वायरस होने के चलते इसकी यूनिवर्सल वैक्सीन बनाए जाने पर सबसे ज्यादा काम चल रहा है और ये शोध बड़ी उम्मीद जगाने वाले हैं. अमेरिकी सरकार ने हाल ही में एक और यूनिवर्सल फ्लू वैक्सीन कैंडिडेट को पहले चरण के ट्रायल [7] की अनुमति दी है. इसके अलावा भी, बीते कुछ सालों में इसके दस से ज्यादा वैक्सीन कैंडिडेट्स [8] दूसरे और तीसरे चरण के ट्रायल तक पहुंच चुके हैं और इनमें से एक से ज्यादा वैक्सीनों के सफल होने की उम्मीद जताई जा रही है.

अब अगर कोरोना वायरस की यूनिवर्सल वैक्सीन पर लौटें तो यह एन्फ्लुएंजा या एचआईवी वैक्सीन से ज्यादा उम्मीद जगाने वाली लग सकती है. कोरोना वायरस इन दोनों की तुलना में धीमी गति से [9] रूप बदलता है या कहें कि इसके नये स्ट्रेन्स के आने में अपेक्षाकृत ज्यादा समय लगता है. और इसके इलाज और वैक्सीन्स पर जिस तरह से युद्ध स्तर पर काम हुआ है और हो रहा है, उसने वायरसों को लेकर हमारी समझ में कई गुना बढ़ोत्तरी भी की है. यानी कि अब हम वायरसों के मामले में इतनी प्रगति कर चुके हैं कि कभी भी ज़रूरत पड़ने पर पहले से कई गुना ज्यादा तेज़ी से वैक्सीनों का निर्माण कर सकते हैं. तो अब इस मामले में इतना आगे बढ़ने के बाद क्या यह कहा जा सकता है कि कोरोना वायरस दुनिया की आखिरी महामारी हो सकती है? इसका जवाब है [10] – नहीं.

हालांकि इस नहीं में कई अगर-मगर शामिल हैं. जैसा कि वैज्ञानिक कहते हैं कि आने वाले समय में सवाल यह नहीं होगा कि क्या कोई वायरस फिर इंसानों के लिए खतरा बनेगा या नहीं, बल्कि यह होगा कि ऐसा कब या कितनी जल्दी होगा? लेकिन ऐसा ज़रूर हो सकता है कि उनके चलते लाखों लोगों के मरने और महामारियों के दुनिया के हर कोने तक पहुंचने का सिलसिला थम जाए. इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि भविष्य में वायरल आउटब्रेक यानी कोरोना वायरस जितनी ही घातक और वैश्विक महामारी बनने की संभावना रखने वाली बीमारियों का प्रकोप होना तय है. लेकिन मानव सभ्यता की वैज्ञानिक प्रगति और सावधानी के कारण इन्हें कोई क्षेत्रीय बीमारी (एपिडेमिक या एंडेमिक) होने तक ही सीमित किया जा सकता है.

जानकार इस मामले में 2021-22 के समय को बेहद महत्वपूर्ण मानते हैं. इस समय दुनिया भर की सरकारों, संस्थाओं समेत आम लोग भी कोरोना महामारी की भयावहता से जूझ रहे हैं. इससे जुड़ी जानकारी के प्रसार के लिए आनन-फानन में कई कारगर सिस्टम भी खड़े कर लिए गए हैं, जिन्हें आसानी से विस्तार दिया जा सकता है. इसके अलावा बीते दो दशकों में कोविड-19 कोरोना वायरस के कारण फैली तीसरी घातक महामारी है और वैज्ञानिक आशंका जताते हैं कि अगली महामारी भी बहुत जल्द देखने को मिल सकती है. इसीलिए वे आगामी महामारियों के लिए तुरंत कई स्तरों पर काम करने की सलाह देते हैं.

इनमें वैक्सीन की नई और बेहतर तकनीक विकसित करने का काम तो चल ही रहा है लेकिन सिर्फ यही काफी नहीं है. क्योंकि यूनिवर्सल वैक्सीन बनाने की भी एक सीमा है और कितनी भी आधुनिक तकनीक क्यों न विकसित हो जाए किसी नये वायरस के लिए टीका बनाने में कुछ महीनों का समय तो लगेगा ही. इसलिए वैक्सीन के साथ-साथ, लोगों, विभिन्न संस्थाओं और सरकारों में महामारी के प्रति और जागरुकता फैलाना भी जरूरी है. कोरोना वायरस के दौरान देखा यह गया कि आम लोगों से लेकर खास लोगों और संस्थाओं तक ने वह नहीं किया जो इस महामारी को शुरुआत में ही नियंत्रित करने में मदद कर सकता था. अगर ऐसा किया जा सकता तो लाखों लोगों की जान बच सकती थी.

इस मामले में अगला कदम दुनिया भर में आधारभूत स्वास्थ्य व्यवस्थाओं को बिलकुल निचले स्थर पर पहुंचाने का होना चाहिए. महामारी जैसी वैश्विक आपदाओं से निपटने के लिए नीचे से ऊपर तक सुदृढ़ योजनाओं, कारगर व्यवस्था और समझदार नेतृत्व की ज़रूरत होगी. ऐसे में महामारी विशेषज्ञ तमाम देशों की सरकारों को बायोफार्मा इंडस्ट्री, वैज्ञानिकों और स्वास्थ्य कल्याण से जुड़ी संस्थाओं के साथ मिलकर महामारियों की तैयारी का इकोसिस्टम बनाने की सलाह देते हैं.

अगली महामारियों से निपटने में सबसे बड़ी भूमिका जिन संस्थाओं की है उनमें सबसे आगे संयुक्त राष्ट्र या कहें विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) है. इस संस्था को और मजबूत किए जाने, इसकी सीमाओं को कम किए जाने और इसकी आर्थिक मुश्किलों को हल किए जाने की ज़रूरत अब और भी शिद्दत से महसूस की जा रही है. इस दिशा में ताकतवर देशों से यह उम्मीद लगाई जा रही है कि अपने व्यापारिक हितों और दबदबा बनाए रखने की कोशिशों को छोड़, वे महामारियों के खिलाफ एक पारदर्शी अंतर्राष्ट्रीय सहभागिता बनाने की कोशिश करें. यह सहभागिता संभावित बीमारियों की लिस्ट तैयार करने या जिन जगहों से इनके शुरू होने की आशंका है, उनकी पहचान करने और फैलाव होने की सूरत में सही और निष्पक्ष जांच का माहौल तैयार करने का काम कर सकती है. इसके अलावा, इससे आर्थिक मदद, तकनीकी साझेदारी की नई वैश्विक व्यवस्था और जांच- इलाज-बचाव के संसाधन विकसित करने के साझे प्रयास भी किए जा सकते हैं.

डब्ल्यूएचओ जैसी संस्थाओं को सशक्त बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर काम कर रहे समूहों की मदद लिए जाने की भी बात कही जा सकती है. इस तरह के दो सबसे बड़े नाम ‘दि ग्लोबल फंड’ और ‘गावी – द वैक्सीन अलायंस’ हैं जिनका सम्मिलित बजट डब्ल्यूएचओ का लगभग दोगुना है. ग्लोबल फंड जहां टीबी, मलेरिया और एड्स से प्रभावित लोगों के लिए काम करता है, वहीं गावी पिछड़े और गरीब देशों तक वैक्सीन पहुंचा रहा है. इनके अलावा, जानकार ‘वेलकम फंड’ और ‘बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन’ जैसी अंतर्राष्ट्रीय समाजसेवी संस्थाओं से सहयोग लेने पर विचार करने का सुझाव भी देते हैं.