कोरोना वायरस

विज्ञान-तकनीक | स्वास्थ्य

सदियों से कहर बरपा रहे वायरसों के आगे इंसान हर बार उतना ही लाचार क्यों दिखाई देता है?

कोविड-19 के पहले भी मानव सभ्यता वायरसों के कारण होने वाली अनगिनत महामारियों का सामना कर चुकी है लेकिन अब तक इनका कोई ठोस इलाज नहीं ढूंढा जा सका है

अंजलि मिश्रा | 17 मई 2020 | फोटो : पिक्साबे

‘होमो सेपियंस (मनुष्य) इकलौता ऐसा जीव है जिसने बाकी सभी जानवरों को अपने काबू में कर लिया है. सारी धरती उसके नियंत्रण में है. यहां तक कि वह चांद पर भी कदम रख चुका है. लेकिन अब एक सूक्ष्म जीव के सामने वह लाचार खड़ा है. हमें याद रखना चाहिए कि आखिर में मनुष्य एक ऐसा जीव मात्र ही है जो अपने जीवन के लिए बाकी जीवों पर निर्भर होता है. प्रकृति को नियंत्रित करने और अपने फायदे के लिए उसका दोहन करने की इंसान की लालसा को नंगी आंखों से दिखाई भी न देने वाला एक बेहद छोटा सा जीव एक झटके में खत्म कर कर सकता है. शायद इसीलिए हमारे पुरखे प्रकृति को मां कहते थे और उसका आदर करने की सीख देते थे.’ ये शब्द भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के हैं जो पिछले दिनों एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित हुए एक आलेख से लिए गए हैं.

राष्ट्रपति कोविंद ने जिस सूक्ष्मजीव के सामने मानव सभ्यता के बेबस खड़े होने का जिक्र किया है, वह नया कोरोना वायरस यानी सार्स-कोव-2 (SARS-CoV-2) है. लेकिन यह कोई पहला मौका नहीं है जब दुनिया किसी वायरस से डर रही है. दूसरी सदी में फैला एंटनाइन प्लेग हो या पांचवीं-छठी सदी में अस्तित्व में आया जस्टिनाइन प्लेग या चौदहवी शताब्दी में ब्लैक डेथ के नाम से आई महामारी या फिर सदियों से इंसानी मुश्किलों को बढ़ाता आ रहा पोलियो, इन सबके पीछे कोई न कोई वायरस ही जिम्मेदार रहा है. अगर ज्यादा पीछे न जाकर सिर्फ पिछली दो सदियों की ही बात करें तो 19वीं सदी में स्मालपॉक्स और इन्फ्लुएंजा करोड़ों लोगों की मौतों का कारण बने थे और 20वीं सदी में एच1एन1 (स्पैनिश फ्लू), एचआईवी, हैपेटाइटस, इबोला, नीपा, जीका जैसे तमाम वायरसों ने अपना प्रकोप फैलाया जो अब भी जारी है.

यहां पर यह सवाल किया जा सकता है कि ऐसा क्यों है कि तमाम तरह की बीमारियों, दुर्घटनाओं और आपदाओं से पार पाने वाला मनुष्य सदियों से इतनी बड़ी संख्या में वायरसों का शिकार होता है. बल्कि कहना चाहिए कि उनके सामने हर बार पिछली बार जितना ही लाचार दिखाई देता है? इसे समझने के लिए वायरसों से जितना हो सके हमारा उतना परिचय होना जरूरी है.

विषाणु क्या होते हैं?

विषाणु या वायरस, बहुत सूक्ष्म परजीवी होते हैं. ये जीवाणुओं (बैक्टीरिया) से 40-50 गुना तक छोटे हो सकते हैं. उदाहरण के लिए, 30 नैनोमीटर (1 सेंटीमीटर = 1,00,00,000 नैनोमीटर) के व्यास वाला पोलियो वायरस यूरीन इन्फेक्शन और दस्त का कारण बनने वाले ई-कोलाई बैक्टीरिया से 25 गुना छोटा होता है. अगर किसी नमक के एक दाने से इसकी तुलना करें तो यह उससे करीब 10,000 गुना छोटा होता है.

वायरस असल में कोशिकाओं में पाए जाने वाले अम्ल (न्यूक्लेइक एसिड) और प्रोटीन के बने सूक्ष्मजीव होते हैं. इन्हें एक जेनेटिक मटीरियल (आनुवांशिक सामग्री) भी कहा जा सकता है क्योंकि ये आरएनए और डीनए जैसी जेनेटिक सूचनाओं का एक सेट (जीनोम) होते हैं. जब कोई वायरस किसी जीवित कोशिका में पहुंचता है तो कोशिका के मूल आरएनए और डीएनए की जेनेटिक संरचना में अपनी जेनेटिक सूचनाएं डाल देता है. इससे वह कोशिका संक्रमित हो जाती है और अपने जैसी ही संक्रमित कोशिकाएं बनाने लगती है. यह ठीक वैसा ही है जैसा कोई सॉफ्टवेयर वायरस करता है. वह किसी सॉफ्टवेयर में प्रवेश करता है, उसे करप्ट करता है और उससे अपने मनचाहे काम करवाता है. इसीलिए ‘सॉफ्टवेयर वायरस’ होता है ‘सॉफ्टवेयर बैक्टीरिया’ नहीं.

किसी भी व्यक्ति का शरीर पूरी तरह से काम करता रहे, इसके लिए उसकी कोशिकाओं का काम करते रहते रहना जरूरी है. कह सकते हैं कि कोशिकाओं के भीतर हर समय जीवन के लिए जरूरी एक जैव-रासायनिक क्रिया चलती रहती है जिसे मेटाबॉलिज्म कहते हैं. किसी वायरस का हमला होते ही संक्रमित कोशिकाओं में यह प्रक्रिया बिगड़ या रुक जाती है और व्यक्ति में बीमारी के लक्षण दिखने लगते हैं. वायरस इंसानों के साथ-साथ जानवर और पेड़-पौधों समेत किसी भी सजीव की कोशिका में प्रवेश कर सकते हैं.

इस आलेख में आगे आने वाली कुछ बातों को समझने के लिए इस बात का भी जिक्र करते चलते हैं कि वायरसों की संरचना कैसी होती है. वायरस की जेनेटिक सूचना के ऊपर प्रोटीन की एक सुरक्षा परत होती है. इबोला और एचआईवी वायरस की संरचना कुछ इसी तरह की होती है. कुछ वायरसों में प्रोटीन की यह सुरक्षा परत एक लिपिड मेम्ब्रेन यानी तैलीय झिल्ली से ढंकी होती है. इन्फ्लुएंजा, मर्स, जीका और सार्स-कोव-2 इसका उदाहरण हैं. अगर आपने कोरोना वायरस की चर्चित तस्वीर पर ध्यान दिया हो तो इसके गोल ढांचे पर छोटे-छोटे कांटे होते हैं और उनके ऊपर कई सींगों जैसी संरचना होती है. यही लिपिड मेम्ब्रेन होती है. कोरोना वायरस में लिपिड मेम्ब्रेन की आकृति किसी क्राउन यानी ताज की तरह होती है. लैटिन में क्राउन को कोरोना कहा जाता है. यहीं से इस वायरस को कोरोना वायरस नाम दिया गया है.

वायरसों में मौजूद प्रोटीन की परत में एक हानिकारक या विषैला पदार्थ भी होता है जिसे एंटीजन कहा जाता है. एंटीजंस की वजह से ही, वायरस का संक्रमण होने पर हमारे शरीर का इम्यून रिस्पॉन्स ट्रिगर होता है और बुखार, जुकाम या खांसी होती है. और जैसा कि हम इस लेख के अंत में देखेंगे एंटीजंस ही किसी वायरस का टीका बनाने में मददगार भी साबित होते हैं.

वायरस कहां से आते हैं?

अगर वायरसों के अस्तित्व में आने पर बात करें तो जीवविज्ञानी इस बारे में कई तरह की बातें कहते हैं. जैसे, एक तबका मानता है कि वायरस, सेल यानी कोशिका के अस्तित्व में आने से पहले से ही धरती पर थे और ये जीवन की शुरूआती इकाइयों में से एक हैं. दूसरे समूह के जीवविज्ञानी मानते हैं कि वायरस असल में बैक्टीरिया के भीतर पनपने वाले परजीवी हैं. वहीं, एक तीसरी व्याख्या यह कहती है कि वायरस, कुछ ऐसे जेनेटिक मटीरियल हैं जो किसी तरह जीवों की कोशिकाओं से बाहर निकल गए थे. लेकिन ये तीनों परिभाषाएं सभी वायरसों पर फिट नहीं बैठती हैं, इसलिए इनमें से किसी को भी पूरी तरह सही या गलत नहीं माना जाता है.

अगर इस सवाल को कुछ इस तरह से पूछा जाए कि इंसानों तक नए-नए वायरस कैसे पहुंचते हैं तो किसी ठोस जवाब तक पहुंचा जा सकता है. ऐसा माना जाता है कि सभी जीवों में किसी न किसी तरह या कई तरह के वायरसों का संक्रमण हमेशा मौजूद होता है और उनका शरीर इससे लड़कर जीवन को बनाए रखने में सक्षम होता है. मनुष्य के शरीर में भी कई ऐसे वायरस होते हैं जो या तो उसे नुकसान नहीं पहुंचाते या फिर कुछ घातक बीमारियों से बचाते हैं. बीमारी से बचाने वाले वायरसों को फ्रेंडली वायरस कहा जाता है. पेजिवायरस और जीबीवी-सी कुछ इसी तरह के ह्यूमन फ्रेंडली वायरस हैं. शोध बताते हैं कि अगर कोई एचआईवी संक्रमित व्यक्ति जीबीवी-सी वायरस से भी संक्रमित है तो वह उस एचआईवी संक्रमित व्यक्ति की तुलना में ज्यादा जीवित रहता है जिसे जीबीवी-सी का संक्रमण नहीं है. वायरसों का यही गुण उन्हें किसी दूसरे वायरस के संक्रमण के लिए एंटीबॉडीज या वैक्सीन बनाने के लिए उपयोगी बनाता है.

आम तौर पर इंसान को वही वायरस नुकसान पहुंचाते हैं जो दूसरे जीव-जंतुओं से उस तक पहुंचते हैं. शोध बताते हैं कि 80 फीसदी वायरस मनुष्य तक पालतू जानवरों, मुर्गियों, जंगली जानवरों के जरिए या फिर उन नए इलाकों की खोज के दौरान पहुंचते हैं, जहां वह पहले कभी न गया हो. हालांकि वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि वायरसों का एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति के जीव तक पहुंचना बहुत दुर्लभ घटना है. लेकिन अगर ऐसा हो भी जाए तो भी इनके कोरोना वायरस जैसा असर दिखाने की संभावना तो लाखों में एक बार ही हो सकती है.

जीवविज्ञानी बताते हैं कि ऐसी भयंकर महामारी में बदलने के लिए वायरसों में कई तरह की खासियतें होनी चाहिए. उदाहरण के लिए, सबसे पहले उनमें किसी भी जीव की कोशिका में घुसकर अपनी क्लोनिंग कराने की क्षमता होनी चाहिए. सभी वायरसों में यह क्षमता नहीं होती है. अगर होती भी है तो इनमें से कुछ शरीर के खास अंगों जैसे लीवर या फेफड़ों पर ही असर डाल सकते हैं और इसके लिए उनका उस अंग विशेष तक पहुंचना जरूरी होता है.

इसके अलावा, कोशिकाओं को हाइजैक करने की यह क्षमता उनमें इतनी होनी चाहिए कि वह वायरस को आगे बढ़ाने के लिए होस्ट सेल की तरह इस्तेमाल की जा सके. जैसे कि सामान्य वायरल इंफेक्शन की वजह बनने वाले राइनोवायरस में यह क्षमता इतनी होती है कि मरीज की एक छींक के साथ 10,000 ऐसी बूंदें बाहर आती हैं जो अपने संपर्क में आने वाले लोगों को संक्रमित कर सकती हैं. किसी वायरस का इतना शक्तिशाली होना भी दुर्लभ है. आम तौर पर वायरस जानवरों से जिस व्यक्ति तक पहुंचते हैं, उसी के शरीर में खत्म हो जाते हैं. इन्हें डेड एंड होस्ट कहा जाता है. जैसे कि एच1एन1 वायरस (स्वाइल फ्लू) या बर्ड फ्लू. ये वायरस जिसे संक्रमित करते हैं, उससे किसी और को संक्रमण होने का खतरा न के बराबर होता है. जब कोई वायरस डेड एंड होस्ट वाली इस श्रेणी को पार कर जाता है तो दुनिया को कोविड-19 जैसी महामारी का सामना करना पड़ता है.

इनके अलावा, नए वायरस पुराने वायरसों के जीनोम में जेनेटिक म्यूटेशन होने पर भी बनते हैं. ऐसा होने पर किसी पुराने वायरस की डीएनए या आरएनए संरचना में कुछ बदलाव आते हैं और वे अपने ज्यादा खतरनाक अवतार में लोगों तक पहुंचते हैं. जैसे कि नये कोरोना वायरस यानी सार्स कोव-2 के मामले में भी कहा जा रहा है कि यह 2003 में फैले सार्स का अधिक घातक रूप है.

विषाणु संक्रमणों का इलाज खोजना कठिन क्यों है?

जीवविज्ञानी बताते हैं कि एक तरफ तो वायरस में हमारी शरीर की तरह ही आरएनए और डीएनए जैसे वे मुख्य घटक होते हैं जो जीवन के लिए जरूरी हैं. लेकिन इनमें स्वतंत्र रूप से खुद में ही मौजूद सूचनाओं को समझने और उस पर प्रतिक्रिया देने की क्षमता नहीं होती है. इसीलिए शरीर के बाहर ये एकदम निष्क्रिय होते हैं यानी अगर इन्हें होस्ट कोशिकाएं न मिलें तो ये अपनी संख्या नहीं बढ़ा सकते हैं. इसीलिए इस बात पर हमेशा संशय बना रहता है कि वायरसों को सजीव माना जाए या निर्जीव.

लेकिन एक बार शरीर में पहुंचते ही वायरस हमारे शरीर का इस्तेमाल करने लगते हैं. हमारी कोशिकाओं से वे कुछ इस तरह गुंथ जाते हैं कि उनका प्रोटीन हमारा प्रोटीन बन जाता है. ऐसे में वायरस को नष्ट करने के लिए जो दवा दी जाएगी, वह हमारी कोशिकाओं को भी नष्ट करेगी यानी हमारे शरीर के लिए भी नुकसानदेह होगी. इस वजह से किसी भी वायरस का इलाज कर पाना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है. इनका इलाज करते हुए दी जाने वाली दवा बहुत टारगेटेड रखी जाती है ताकि वह केवल उस प्रोटीन को खत्म कर सके जिसे वायरस हमारी कोशिका की मशीनरी का इस्तेमाल करते हुए बनाता है. इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि यह दवा वायरस द्वारा की जाने वाली क्लोनिंग को रोकने के लिए दी जाती हैं.

शरीर पर एक जैसा ही असर डालने के बावजूद हर वायरस में यह प्रोटीन अलग-अलग होता है, इसी कारण एक वायरस की दवा से दूसरे का इलाज कर पाना मुश्किल होता है. इसके अलावा, कुछ वायरसों जैसे एचआईवी, में पाया जाने वाला यह प्रोटीन बहुत तेजी से बदलता रहता है. इससे कुछ समय बाद शरीर का इम्यून सिस्टम या पहले से ली जा रही दवाएं इसकी पहचान नहीं कर पाते हैं. इसी कारण थोड़े-थोड़े समय बाद इसकी दवाओं को बदला जाता है और कई दवाओं का कॉम्बिनेशन दिया जाता है. वायरसों के इलाज से जुड़ी एक खतरनाक बात यह भी है कि दवाएं केवल संक्रमण का फैलाव ही रोक सकती हैं. इसी कारण, अक्सर यह होता है कि किसी वायरस का संक्रमण होने के बाद और इलाज होने से पहले तक शरीर को कम या ज्यादा नुकसान हो चुका होता है. जैसे, सार्स का संक्रमण होने पर फेफड़ों का डैमेज होना या फिर स्मालपॉक्स होने पर कमजोरी होना या आंखों की रोशनी चले जाना. इसीलिए, वायरसों के मामले में बचाव यानी वैक्सीन को ही सबसे बेहतर इलाज माना जाता है.

क्या वायरस प्रयोगशालाओं में बनाए जा सकते हैं?

इस सवाल का जवाब नहीं भी है और हां भी. नहीं, इसलिए कि एकदम ही नए वायरसों को प्रयोगशाला में नहीं बनाया जा सकता है. हां, इसलिए कि धरती पर मौजूद वायरसों के जीनोम में बदलाव कर नए तरह के वायरस को बनाना संभव है. इस तरह के वायरसों को न सिर्फ प्रयोगशाला में बनाया जा सकता है बल्कि सालों से ऐसा किया भी जा रहा है. इसे जेनेटिक इंजीनियरिंग कहा जाता है. हालांकि दुनिया की बहुत कम प्रयोगशालाएं ऐसा करने में सक्षम हैं और उससे भी कम को ऐसा करने की अनुमति मिल पाती है.

अक्सर वायरसों के जीनोम में बदलाव पुराने वायरस का इलाज करने के लिए किया जाता है. प्रयोगशालाओं में किसी हानिकारक वायरस की बाहरी परत यानी एंटीजंस का अध्ययन करके पहले इनमें बदलाव किया जाता है और फिर इन्हें किसी होस्ट सेल – आम तौर पर बैक्टीरिया या यीस्ट – में रखा जाता है, ताकि ये अपनी संख्या को बढ़ा सकें. इन्हें ही वैक्सीन कहा जाता है जिसे बाद में मानव शरीर के भीतर पहुंचाकर वायरस से सुरक्षा के लिए मेमोरी बी-सेल्स तैयार की जाती हैं. इसके चलते आगे कभी वायरस का संक्रमण होने पर शरीर उसका मुकाबला आसानी से कर सकता है.

दुनिया भर में कोरोना संक्रमण फैलने के साथ ही यह कॉन्सपिरेसी थ्योरी भी चर्चित हो रही थी कि यह चीन द्वारा बनाया गया जैविक हथियार है जो उसने दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बनने के लिए इस्तेमाल किया है. जनवरी में कोरोना वायरस का प्रकोप बढ़ने के साथ ही, ये दावे चर्चा में आ गए थे लेकिन इन्होंने जोर तब पकड़ लिया जब आईआईटी दिल्ली और दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ शोधकर्ताओं ने भी ऐसी ही बात कही. इनका कहना था कि कोरोना वायरस की संरचना में सबसे बाहरी परत में नज़र आने वाले प्रोटीन स्पाइक्स के साथ छेड़छाड़ की गई है. इनमें मौजूद अमीनो एसिड्स एचआईवी वायरसों से मिलते-जुलते हैं. इसके आधार पर उनका कहना था कि हो सकता है कि कोरोना वायरस लैब में बनाया गया हो.

कुछ इसी तरह की बात पिछले दिनों चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले फ्रांस के वैज्ञानिक ल्यूक मॉन्टेनियर ने एक साक्षात्कार के दौरान कही. उनका कहना था कि कोरोना वायरस प्राकृतिक नहीं है बल्कि इसे किसी लैब में बनाया गया है. ल्यूक मॉन्टेनियर के मुताबिक उनका शोध बताता है कि कोरोना वायरस में कुछ हिस्से एचआईवी वायरस के भी हैं. भारतीय वैज्ञानिकों का जिक्र करते हुए उनका यह भी कहना है कि अब कई और शोधकर्ता भी इसी निष्कर्ष पर पहुंच रहे हैं लेकिन इससे जुड़े सबूत और शोध पत्र दबाए जा रहे हैं.

लेकिन इस मामले में ज्यादातर वैज्ञानिकों का कहना है कि इसे प्रयोगशाला में नहीं बनाया गया है. प्रतिष्ठित मेडिकल जरनल नेचर  में मार्च में प्रकाशित एक आलेख में कहा गया है कि सार्स-कोव-2, पुराने कोरोना वायरसों यानी सार्स और मर्स से ही विकसित हुआ है. साथ ही, वैज्ञानिकों का कहना है कि इस वायरस के कुछ लक्षण चमगादड़ में पाए जाने वाले वायरसों से मिलते हैं और यह पैंगोलिन (चीन और अफ्रीका के कुछ इलाकों में पाया जाने वाला एक दुर्लभ जीव) में भी पाया जाता है. इसलिए इसके प्राकृतिक तौर पर विकसित होने की संभावना ज्यादा है.

इसके अलावा, वैज्ञानिक आर्थिक कारणों का हवाला देते हुए भी नए कोरोना वायरस को लैब में बनाए जाने की संभावना से इनकार करते हैं. वे कहते हैं कि इसके लिए सालों की मेहनत, अनगिनत बुद्धिमान वैज्ञानिकों और भारी मात्रा में संसाधनों की जरूरत होगी. इसके लिए जितनी भारी फंडिंग की जरूरत होगी, वह किसी वैज्ञानिक या संस्था को अकेले मिल पाना संभव नहीं है. और इसके बाद भी सार्स-कोव-2 जैसे वायरस का बन पाना बहुत ही अच्छी या कहें कि दुनिया की बहुत ही बुरी किस्मत होने की सूरत में ही संभव है.

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