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एक अच्छे डॉक्टर की पहचान कैसे करें?

डॉक्टर

आज राष्ट्रीय चिकित्सक दिवस (नेशनल डॉक्टर्स डे) है. मैं प्राय: अपने हर स्वास्थ्य विषयक लेख में सलाह दिया करता हूं कि आप फलानी तकलीफ के लिए ‘अच्छे डॉक्टर’ की सलाह ले लें. इसे पढ़कर कई बार, कई लोगों ने मुझसे पूछा है कि आखिर हम अच्छे डॉक्टर पहचानें कैसे? 

क्या बड़ी-सी कार से उतरने वाला, लकदक चैंबर में बैठने वाला, फिल्मी हीरो जैसा चमकने वाला, किसी मार्केटिंग मैनेजर वाली बनावटी मुस्कान और मीठी भाषा बरतने वाला डॉक्टर ‘अच्छा डॉक्टर’ है? क्या अखबारों, मीडिया, कॉन्फ्रेंसों आदि में लगातार महिमामंडित होने को ‘मैनेज’ करने वाला ही ‘अच्छा डॉक्टर’ होता है?… मुझे क्षमा करें, लेकिन मैं 21वीं सदी के गुंताड़ों, जुगाड़ों तथा बाजार की प्रतिस्पर्धा में, मरीजों की तरफ से आंखें मूंदकर ‘बड़ा डॉक्टर’ बनने के लिए भागने वालों की बात नहीं करता. माना कि हर सदी की अपनी चुनौतियां होती हैं और थोड़ी बहुत मार्केटिंग शायद आजकल की डॉक्टरी में भी लगती होगी पर हर सदी में ‘अच्छा डॉक्टर’ तो सबसे पहले ‘अच्छा’ ही होता है. वैसे, आज भी बहुमत अच्छों का ही है, पर चीजें धीरे धीरे गैर-अच्छों के हाथों में आ रही हैं.

यहां आप हमेशा याद रखें कि प्रश्न आपके स्वास्थ्य का है. असर तो आपके स्वास्थ्य पर होना है. ‘अच्छे डॉक्टर’ को पहचानेंगे और उसी को बरतेंगे तो अन्य डॉक्टर भी मजबूरी में ही सही, फिर अच्छे बनेंगे ही!

वैसे ‘अच्छे डॉक्टर’ की पहचान बड़ी सरल है.

डॉक्टरों से भी मेरा निवेदन रहेगा कि वे भी मेरे इस लेख को जरूर पढ़ें, और फिर अपने दिल पर हाथ रखकर स्वयं यह निर्णय करें कि क्या वे वास्तव में ‘अच्छे डॉक्टर’ हैं, न हों तो बनने की पूरी कोशिश जरूर करें. बहरहाल, आइये, देखें कि कौन सी ऐसी बातें हैं जो डॉक्टर को ‘अच्छा’ बनाती हैं. किसी भी डॉक्टर के पास जाने से पहले उसके बारे में इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के प्रयास करें :

1. क्या वह सहजता से उपलब्ध होता है?

जो मुझे बीमार होने पर सहज उपलब्ध हो जाए, वह मेरे लिए एक अच्छा डॉक्टर है. यहां मैं गली-मोहल्ले में दुकान सजाए, नीम-हकीम की बात कतई नहीं कर रहा. उसका तो एकमात्र गुण ही उसकी सहज उपलब्धता है. आप उसके पास न जाएं. आप बस ऐसा देखें कि डॉक्टर ज्ञानी हो पर मिल भी जाता हो, कोई डॉक्टर आपसे तीन-चार घंटे तक इंतजार कराये, स्वयं ही आपको नियत समय देकर बाद में गायब हो जाए, हर माह कॉन्फ्रेंस आदि के बहाने शहर से बाहर ही रहे – उस डॉक्टर पर कभी निर्भर न रहें. जो आपसे, चाहे चार दिन बाद शाम चार बजे आने को कहे पर उस दिन वह मिल भी जाए ऐसा डॉक्टर अच्छा है, बजाय उस डॉक्टर के जो यह कहे कि आप तो कभी-भी आ जाइये और पहुंचो तो कभी मिले ही नहीं!

2. क्या वह आपकी सुनता है ?

इसे यूं कह लें कि क्या उसके पास आपकी व्यथा सुनने का पर्याप्त समय तथा मन है भी? आज के युग में जब हर तकलीफ के लिए ‘बैटरी ऑफ टेस्ट’ आ गए हैं, कहीं वह आपकी पूरी बात सुने बिना ही दस तरह के टेस्ट तो लिखने नहीं बैठ जाता? टेस्ट की भी अपनी अहमियत है पर उनका महत्व तभी है जब डॉक्टर ने आपकी तकलीफें तफसील से सुनी हों और आपकी क्लीनिकल जांच तसल्ली से करी हो. यदि डॉक्टर मरीज की ठीक से सुने तो उसे अमूमन बीमारी की दिशा समझ आ ही जाती है.

मरीज की बात सुन-समझ ली जाए तो 90 प्रतिशत तक तय हो जाता है कि आखिर बीमारी क्या हो सकती है. वैसे मरीज की बातें विस्तार से सुनने के अन्य और भी बड़े फायदे हैं. मरीज को सुनने से डॉक्टर को उस मरीज का व्यक्तित्व, मरीज के विश्वास-अंधविश्वास, उसके भय, उसकी सोच, ईश्वर पर उसका विश्वास आदि भी समझ में आता है. ये सारी बातें भी इस मरीज का इलाज तय करने में डॉक्टर के लिए बेहद मददगार होती हैं. एक ‘अच्छा डॉक्टर’ जानता है कि हर मरीज एक अलग व्यक्ति भी है – वह केवल मलेरिया, टाइफाइड, किडनी या बीमार दिल मात्र नहीं है. मरीज मात्र एक बेड नंबर या रजिस्ट्रेशन नंबर नहीं है. जब तक डॉक्टर मरीज की सुनता नहीं वह कभी भी ‘अच्छा डॉक्टर’ नहीं हो सकता.

3. डॉक्टर का व्यवहार कैसा है?

यह बड़ा ‘ट्रिकी’ सवाल है. फिर भी, कुछ बातें तो साफ की जा सकती हैं. मार्केटिंग और बाजारवाद के इस ‘बेईमान समय’ ने डॉक्टर को भी अपनी ही तरह से बदला तो है. आजकल वे भी प्राय: बनावटी मीठा बोलने लगे हैं. आखिर धंधे की बात है! प्रतियोगिता है तो यह सब भी करना पड़ता है. हर दुकानदार को, विशेषतौर पर फीके पकवानों को खूब बेचने वाले को तो खूब मीठा बोलना पड़ता है. आप ऊंची दुकान पर बिक रहे इस फीके माल को खूब आसानी से पहचान सकते हैं. आंखें खुली रखेंगे तो बनावटी मीठापन तुरंत पकड़ लेंगे.

एक ‘अच्छा डॉक्टर’ सबसे पहले एक अच्छा इंसान भी होगा जो उसके व्यवहार से तुरंत दिख भी जाएगा. उसे इसके लिये अलग से कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती. वह होता है तो दिखता भी है. बस, आप उसे ठीक से देखें, समझने का प्रयास करें कि वह आपकी पीड़ा को महसूस भी कर पाता है कि नहीं? वह आपके लिए वास्तव में चिंतित होता भी है या नहीं? वह आपकी आर्थिक तथा पारिवारिक परेशानियों के साथ सामंजस्य बिठाकर इलाज करने की कोशिश करता है या नहीं? वह धैर्य का प्रदर्शन करता है या बात-बात पर उखड़ जाता है? खासतौर पर, बच्चों, औरतों तथा वयोवृद्ध मरीजों से वह कैसा बर्ताव करता है? बूढ़े मरीज ऊंचा सुन सकते हैं, शायद ठीक से अपनी बात बोल भी न पाएं, शायद छोटी सी बात को भी अनावश्यक विस्तार से कहने की कोशिश करें – परंतु क्या यह सब कुछ समझते हुए डॉक्टर उनकी जांच चतुराई तथा धैर्य से करता है?

क्या वह स्थानीय संस्कृति तथा समाज को समझकर व्यवहार करता है? वह मरीज की विशेष तौर पर गरीब बेसहारा मरीज की डिग्निटी (आत्मसम्मान) की रक्षा करता है या नहीं? अपना नंबर आने तक आप अपने डॉक्टर को ध्यान से देखते रहें कि वह आपसे पहले वाले मरीजों से कैसा व्यवहार करता रहा है? अपना नंबर आते ही आपको स्पष्ट हो जाएगा कि आप सही जगह आ गए हैं या गलत जगह?

4. क्या वह एक अच्छा विद्यार्थी है और अच्छा गुरु भी?

यह पॉइंट भी बेहद ‘ट्रिकी’ है. पहले यह सवाल ही ठीक से समझते हैं.

आखिर यहां शिष्य या विद्यार्थी होने का अर्थ क्या है? और फिर उसी डॉक्टर के गुरु भी होने का मतलब क्या हुआ? देखिए, विज्ञान बेहद तेजी से बढ़ रहा है. एक बार डिग्री हासिल करके फिर यदि डॉक्टर अपने पांव फैलाकर आराम से बैठ जाये तो अगले चंद वर्षों में ही वह बस एक ‘क्वालीफाइड’ नीम-हकीम बनकर रह जाता है. इसके बरक्स एक अच्छा डॉक्टर निरंतर नई किताबों, जर्नल्स आदि को एक अच्छे विद्यार्थी की तरह पढ़ता, गुनता और उनसे सीखता रहता है.

वही डॉक्टर ज्यादा अच्छा डॉक्टर है जो आपसे ईमानदारीपूर्वक यह कह सके कि आप दो दिन बाद आएं, तब तक मैं आपकी बीमारी का और अध्ययन करके, पढ़कर, फिर आप से फाइनल बात करूंगा. वह डॉक्टर खतरनाक है जो सोचता, मानता और कहता है कि उसे अब सब कुछ आता है… अच्छा डॉक्टर वह है जो विद्यार्थी की भांति नित्य अपने को डॉक्टरी के इम्तिहान के लिए तैयार करता है. साथ ही साथ, वह अपने जूनियर स्टॉफ को एक अच्छे गुरु की भांति सिखाता पढ़ाता भी रहता है. वह जानता है कि वह अकेले मरीज को ठीक नहीं कर सकता- मरीज का ठीक होना सीनियर डॉक्टर, जूनियर डॉक्टर, नर्स, कंपाउंडर से लेकर सफाई कर्मचारी तक की टीम के ज्ञान तथा उत्साह पर निर्भर होता है. इसीलिए एक अच्छा डॉक्टर अपनी टीम का गुरु भी होता है.

बातें तो अभी और भी हैं, प्रश्न भी बहुत बचे हैं. जैसे कि क्या डॉक्टर मरीज की प्रॉइवेसी का ख्याल रखता है? वह खुद से ज्यादा जांचों पर भरोसा तो नहीं करता? वह आंखें मूंदकर दस तरह की जांच कराने की बात तो नहीं करता? वह मरीज का सगा है या दवाई कंपनियों का? क्या आपकी हर तकलीफ के जवाब में वह एक नई गोली लिख देता है? क्या वह ‘प्रमाणित तथ्य आधारित डॉक्टरी’ से हटकर अपना ही इलाज देता रहता है? वह आपको आशा बंधाता है कि नहीं? … अनेक ऐसे प्रश्न है. उनक जिक्र अगले लेख में.