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1950 : हमारे संविधान के केंद्र में सामाजिक हित तो हैं लेकिन, उसके सबसे बड़े पैरोकार गांधी नहीं हैं

संविधान सभा में जवाहर लाल नेहरू

संविधान का लागू किया जाना 1950 की नहीं बल्कि आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास की सबसे बड़ी घटना है और इसके पीछे का घटनाक्रम बेहद दिलचस्प. पर बात को शुरू करने से पहले आइए मशहूर लेखक और ब्रिटिश सरकार में मंत्री रहे जॉन स्ट्रेची के उस बयान को देखें जिसका आशय था कि स्कॉटलैंड और स्पेन में समानता हो सकती है पर हिंदुस्तान के बंगाल और पंजाब में बिलकुल नहीं. और यह कि हिंदुस्तान कोई एक देश नहीं बल्कि छोटे-छोटे देशों का समूह है. न कोई हिंदुस्तान जैसा देश था, न कोई होगा!

इस बात का समर्थन करने वाले कई थे जैसे विंस्टन चर्चिल, रुडयार्ड किपलिंग आदि. किपलिंग से हिंदुस्तान की आजादी पर एक बार पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वे लोग (हिंदुस्तानी) 4000 साल पुराने हैं, इतने पुराने कि आजादी जैसी नयी बात वे सीख ही नहीं पायेंगे. विंस्टन चर्चिल का भी कुछ ऐसा ही मानना था. उनके मुताबिक़ अगर गोरे हिंदुस्तान से गए तो यहां के लोग लड़ मरेंगे और उसी पुराने आदिम काल में चले जायेंगे.

पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.

चर्चिल की जीत और हार, कैबिनेट मिशन और अमेरिका का टेलीग्राम

जापान के हारने के बाद ख़त्म हुए विश्वयुद्ध से पनपने वाले हालात का असर इंग्लैंड पर पड़ना स्वाभाविक था. चर्चिल युद्ध तो जीते पर इंग्लैंड का चुनाव हार गए. क्लेमेंट रिचर्ड एटली की लेबर पार्टी की सरकार आने के साथ हिंदुस्तान में सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया शुरू हो गयी. और इस बाबत कैबिनेट मिशन भेजा गया.

मिशन असफल होकर इंग्लैंड चला गया था. पर जाते-जाते एक बात कहकर गया – भारत का संविधान भारत के ही लोग लिखें. यहीं से अपना संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी. नौ दिसंबर 1946 को संविधान सभा का गठन हुआ. इसके बाद पूरे दो साल, ग्यारह महीने और अट्ठारह दिन की मशक्कत के बाद बना था यह संविधान जिसे 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया. इस दौरान चली बहसों ने इसे वह शक्ल दी है जिसकी बिना पर आने वाले हिंदुस्तान की इबारत कुल 90 हज़ार शब्दों में लिखी गयी.

308 निर्वाचित सदस्यों वाली संविधान सभा की कुछ बहसें बेहद शानदार और झकझोर देने वाली थीं. आज लगभग सत्तर साल के बाद आप उन बहसों के बीच खुद को रखकर देखें तो पाएंगे कि जो लोग इस सभा के सदस्य थे वे कितने बौद्धिक और विचारवान थे. आज संविधान के अहम पहलुओं पर हुई कुछ बहसों से रूबरू होते हैं. पर पहले बात करें उस तार की जो अमेरिका से हिंदुस्तान आया था.

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद की अनुपस्थिति में सच्चिदानंद सिन्हा संविधान सभा के अध्यक्ष नियुक्त किये गए थे. नौ दिसंबर 1946 को अमेरिका के विदेश मंत्री डीन एचेसन ने सिन्हा को तार भेजकर संविधान समिति के गठन और उसके द्वारा संविधान बनाने पर अग्रिम बधाई पेश की थी.

क्यों जवाहर लाल नेहरू संविधान में लोकतंत्र का उल्लेख नहीं करना चाहते थे

वरिष्ठ अधिवक्ता श्री कनक तिवारी अपनी किताब ‘संविधान की पड़ताल’ में लिखते हैं, ‘बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि नेहरू ने जब संविधान संबंधी महत्वपूर्ण प्रस्ताव विचरण में लिया तब उसमें ‘लोकतंत्र’ शब्द का उल्लेख नहीं था.’ दरअसल, संविधान सभा चाहती थी कि पूरा देश एक ऐसा प्रभुत्वसंपन्न गणतंत्र बने जिसमें राष्ट्रप्रमुख को भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरीके से चुना जाए. वे सिर्फ इंग्लैंड जैसा लोकतंत्र नहीं चाहते थे जिसमें राष्ट्रप्रमुख का पद एक राजघराने तक सीमित है और प्रधानमंत्री को चुना जाता है. श्री कनक तिवारी बताते हैं कि नेहरू ने इसके बाबत सफ़ाई भी दी थी.

इस पर छिड़ी बहस में सभा के सदस्य केटी शाह ने दलील दी कि भारतीय संविधान की आत्मा में लोकतंत्र का तत्व तो है और लक्ष्य भी यही होना चाहिए. पर लिंकन वाली अवधारणा, ‘जनता के लिए, जनता के द्वारा, और जनता का’ अभी दूर है. कुल मिलाकर वे यह कहना चाहते थे कि इसकी उम्मीद कम ही है कि ऐसा कोई लोकतंत्र स्थापित होने जा रहा हो जो बंधनों, पूर्वाग्रहों, पराधीनता से मुक्त हो, वर्गहीन हो और सभी को समान रूप से प्राप्त हो.

महात्मा गांधी ने इससे करीब 30 साल पहले लिखी अपनी किताब ‘हिंद स्वराज’ में ब्रिटिश पार्लियामेंट को वेश्या और बांझ तक कह डाला था. वे देश में एक ग्राम आधारित स्वराज का सपना देखते थे. नेहरू न तो गांधी वाला प्रजातंत्र अपनाना चाहते थे और न ही यूरोप का लोकतंत्र. उनकी कल्पना में यूनान की गणतंत्रीय व्यवस्था या रिपब्लिक रहा था. आज हिंदुस्तान एक सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ-साथ एक गणतंत्र भी है.

मसौदा समिति के सदस्यों पर अंग्रेजियत के प्रभाव का इल्ज़ाम लगा

गांधी ने हिंद स्वराज में ज़िक्र किया था कि होम रूल स्वराज होगा. उनका मानना था कि अंग्रेजों वाली शासन व्यवस्था से देश हिंदुस्तान न रहकर इंगलिस्तान बन जाएगा. संविधान समिति के एक सदस्य के हनुमंतैया गांधीवादी विचारधारा के प्रबल समर्थक थे. उन्हें संविधान और इसे बनाने की प्रक्रिया में गांधीवाद की अनदेखी खल रही थी. उन्होंने दो टूक शब्दों में कह दिया कि मसौदा समिति के सदस्यों ने उस तरह से आजादी के आंदोलन में भाग नहीं लिया जिस तरह से अन्य लोगों ने लिया था.

बात कुछ हद तक ठीक भी थी. बीआर अंबेडकर की अध्यक्षता वाली संविधान की मसौदा समिति यानी ‘ड्राफ्टिंग कमेटी’, के ज्यादातर सदस्य कानूनविद थे और कुछेक व्यापारिक पृष्ठभूमि से आते थे. के हनुमंतैया का मानना था कि इन लोगों ने पश्चिम से प्रेरित ज्ञान को संविधान में झोंक दिया है. पर संविधान बनाने वालों के पास इस तरह का व्यावहारिक ज्ञान होना ज़रूरी था.

संविधान की मूल उद्देशिका में ‘समाजवाद’ पारित नहीं हुआ था

ग्रैन्विल ऑस्टिन ने भारतीय संविधान पर लिखी क़िताब में कहा है कि भारतीय संविधान की मूल धारणा सामाजिक हित और न्याय के इर्द-गिर्द ही घूमती है. बावजूद इसके नेहरू के प्रस्तावों में भी सामाजिक न्याय की बात उतने पुरज़ोर तरीके से नहीं उठाई गयी थी. जब संविधान की मूल उद्देशिका में ‘समाजवाद’ शब्द पारित नहीं हुआ तो अंबेडकर उखड़ गए. इस दौरान चली बहस में उन्होंने नेहरु की निंदा तक कर डाली. उन्होंने कहा कि उन्होंने जो गोलमोल प्रस्ताव पेश किया है उसकी पालना के लिए ऐसी व्यवस्था के गठन किये जाने की बात भी साफ़-साफ़ कही जाती जिससे राज्य सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रदान कर सके.

बीसवीं शताब्दी का दौर लेनिनवाद से प्रेरित था. उस वक्त पूंजीवादी देशों को छोड़कर पूरी दुनिया में समाजवाद को हर समस्या का हल माना जाता था. यों तो नेहरू और अंबेडकर दोनों ही समाजवादी थे पर दोनों में समाजवाद के क्रियान्वयन को लेकर मतभेद था. नेहरु फेबियन यानी ऐसे समाजवाद के हामी थे जो धीरे-धीरे लोकतांत्रिक तरीकों से समाज में समानता लाने की बात करता है.

पूंजीवादी पश्चिम यानी इंग्लैंड, आयरलैंड और अमेरिका के संविधान से प्रेरित हिंदुस्तान का संविधान साफ़-साफ़ समाजवाद की बात नहीं कर पा रहा था. यही अंबेडकर की दिक्कत थी. हिंदुस्तान जैसा देश जो विसंगतियों का भंडार था, उसमें समाजवाद को हर ताले की चाबी माना जाने लगा था. अंततः अंबेडकर भी कहीं हार गए थे.

खैर, इसकी तथाकथित ‘भरपाई’ इंदिरा गांधी ने 42 वें संशोधन में की और भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष एवं ‘समाजवाद’ शब्दों को जोड़ दिया गया. यह तब हुआ जब इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया था. इसके पीछे तर्क यह दिया गया कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ तो संविधान की मूल भावना में ही निहित हैं और इनके जोड़े जाने से कुछ बदलेगा नहीं.

संविधान को ‘अंबानी’ और ‘अडानी’ वाली सोच से दूर रखने के प्रयास

संविधान निर्माता सामाजिक हितों की अवधारणा को लेकर इतने उत्साहित थे कि उन्होंने पूंजीवाद को संविधान की आत्मा में न घुसने देने के लिए हरसंभव प्रयास किये थे. श्री कनक तिवारी लिखते हैं कि संविधान समिति के सदस्य विशंभर दयाल त्रिपाठी ने बहस के दौरान कहा कि संविधान में स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए कि राज्य किसी भी स्थिति में पूंजीवादी विचारधारा के आधार पर स्थापित नहीं किया जायेगा. उन्होंने कहा कि ‘सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय अच्छा सिद्धांत है पर अगर आने वाले दिनों में सत्ता पूंजीवादियों के हाथ में आ जाती है तो वे आर्थिक और सामाजिक न्याय का अर्थ अपने ही ढंग से निकालेंगे. यह कितनी ज़बरदस्त बात थी जो आज तब और कुछ ज्यादा समझ में आती है जब सरकार कॉर्पोरेट कल्चर से प्रभावित होकर सामाजिक न्याय की बात करती है.

पर्सनल लॉ

रामचंद्र गुहा, ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि जवाहर लाल नेहरू और बीआर अंबेडकर हिंदुस्तान में समान नागरिक संहिता यानी यूनिफार्म सिविल कोड लागू करवाना चाहते थे. जब इस मुद्दे पर बहस छिड़ी तो संविधान समिति लगभग बिखर ही गयी. इसका सबसे ज़्यादा प्रतिरोध मुस्लिम लीग के सदस्यों ने किया. उनकी दलील थी कि जब पिछले दो सौ सालों से अंग्रेजों ने ऐसी कोई हिमाक़त नहीं की, तो अब इसकी क्या ज़रूरत है. एक मुस्लिम सदस्य ने दलील दी कि उनके यहां शादियां, तलाक, जायदाद आदि बातों पर फैसले शरियत के मुताबिक़ लिए जाते हैं. कुछ ने कहा कि यह यूनिफार्म सिविल कोड लगाने का वक़्त सही नहीं है.

अंबेडकर ने इसकी पुरज़ोर मुखालफ़त की. उनका मानना था कि पर्सनल लॉ देश को आगे नहीं ले जा पाएंगे. बात बनती न देख अंबेडकर ने प्रस्ताव दिया कि इस पर आम सहमति से आगे बढ़ा जाए. इसका नतीजा यह हुआ कि हिंदू कोड बिल प्रस्तावित किया गया जो सिख, जैन और बौद्ध धर्मों को मानने वालों पर भी लागू किया जाना था.

अंबेडकर ने शास्त्रों के हवाले से इसका विरोध किया पर समस्या तब खड़ी हो गयी जब संविधान सभा के मौजूदा अध्यक्ष डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद और सरदार पटेल इसके विरोध में हो गए और उनके साथ-साथ अन्य लोग भी आ गए. बाद में यह बहस और तीखी होती गयी. हिंदू शास्त्रों में से ही इसके पक्ष और विपक्ष में दलीलें खोज-खोज कर दी जाने लगीं. संविधान लागू होने तक इस बिल को पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका था. बाद में अंबेडकर और सरदार पटेल की मृत्यु के पश्चात इस पर बहस धीमी पड़ने लगी थी और नेहरू ने हिंदुओं को समाज के सामने इसे अपनाकर एक मिसाल पेश करने की दुहाई दी.

हथियार रखने की आजादी पर श्यामाप्रसाद मुख़र्जी और सरदार पटेल की बहस

फंडामेंटल राइट्स या मूल अधिकार और डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स या नीति निदेशक तत्व इस संविधान का दिल हैं. इसके लिए बनी उपसमिति के अध्यक्ष थे सरदार पटेल. संविधान के बुनियादी अधिकारों पर अमल सबसे बड़ा सवाल बनकर उभरा. पटेल ने अप्रैल 1947 को एक रिपोर्ट संविधान सभा को सौंपी. हमारे संविधान में मौजूद अधिकांश बुनियादी अधिकार ‘अमेरिकन डिक्लेरेशन ऑफ़ राइट्स’ और यूरोपीय अवधारणाओं से प्रेरित हैं और कुछ प्राचीन रोमन न्यायिक प्रणाली से लिए गए हैं.

आपको जानकर ताज्जुब होगा कि नागरिकों द्वारा हथियार रखने को भी मूल अधिकारों में शामिल किया गया था. पटेल ने इसे यह कहकर ख़ारिज करवा दिया कि यह इसके लिए सही वक़्त नहीं है. हांलाकि, श्यामाप्रसाद मुख़र्जी ने हथियार रखने की आजादी पर ज़ोर दिया था. शुक्र है, पटेल नहीं माने. वरना हिंदुस्तान भी अमेरिका की तरह ही बंदूक संस्कृति से त्रस्त होता.

मोर की जगह शुतुरमुर्ग को राष्ट्रीय पक्षी नहीं बना सकते

संविधान पर बहस तब भी थी, आज भी जारी है और आगे भी रहेंगी. पर यहां प्रसिद्ध कानूनविद ननी ए पालकीवाला के लेख के कुछ अंशों का ज़िक्र करते हैं जो सितंबर 1979 में एक अखबार में छपा था. इसका उन्वान था – क्या संविधान असफल हो गया है? इस लेख का ज़िक्र श्री पालकीवाला अपनी बेहद मशहूर किताब ‘वी द पीपल’ में भी करते हैं.

‘…कोई भी ये उम्मीद नहीं कर सकता कि राजनीति और सामाजिक मूल्य एक दूसरे के पूरक हैं. पर समस्या इस बात की है कि आज 5000 सांसद और विधायक इतने गिर चुके हैं कि उन्हें चुनाव के अलावा कुछ नहीं दीखता. देश का जनतंत्र अब निम्नतम स्तर पर आ चुका है.

समाज के ईमानदार और ज्ञानी लोगों को अब इस दिशा को बदलने की ज़रूरत है… जो लोग कम जानते हैं उन्हें तीन बातों पर बरगलाया जा रहा है. ये हैं – समता, कानून के आगे समता का अधिकार, और समता के अवसर. कानून के आगे समता का अधिकार गणतंत्र की बुनियाद है. समता के अवसर सामाजिक न्याय का आधार हैं. पर समता तो सिर्फ मरने पर ही मिल सकती है. प्रगतिशील समाज में कहीं भी समता नहीं है. उन देशों में भी जहां कानून ने समता का अधिकार और अवसर दिए हैं, वहां भी समता नहीं पायी जा सकी है. अगर जनतंत्र को देश में बचाना है तो हमे यकीनन काबिल, ईमानदार, और तेज़ दिमाग़ लोगों को आगे लाना ही होगा. मोर की जगह आप शुतुरमुर्ग को राष्ट्रीय पक्षी नहीं चुन सकते. संविधान असफल नहीं हुआ है, इसकी पालना करने वाले असफल हुए हैं. हमें राष्ट्रव्यापी बहस करनी होगी और उसमें से हल निकालना ही होगा कि आखिर देशव्यापी पेशेवर राजनीतिकों की बनिस्पत क़ाबिल लोगों की सरकार कैसे बनायी जाए.’

गांधी और संविधान

महात्मा गांधी ने जिस तरह वास्तविक सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात कही थी देश में वैसा नहीं हो सका है. पंचायत तक जाने के ख्व़ाब को नीति निदेशक तत्व वाली किसी कोने में पड़ी टोकरी में डाल दिया गया है. पंचायतों तक सरकार के पंहुचने की ज़ल्दी के पीछे सामाजिक नहीं बल्कि राजनीतिक और बाजार के हित ज्यादा नज़र आते हैं. मोबाइल तो वहां छलांगें मारकर पहुंच गया है पर साफ़ पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य लड़खड़ाता हुआ जा रहा है.

हो सकता है कि संविधान के केंद्र में सामाजिक हित हो. पर सामाजिक हित के सबसे बड़े पैरोकार गांधी भारतीय संविधान में कहीं-कहीं ही नज़र आते हैं. और उनका वह सिद्धांत भी कि जब भी कोई फ़ैसला लेने में मुश्किल आये तो अपने सामने सबसे कमज़ोर व्यक्ति को रखना और सोचना कि उस पर क्या प्रभाव पड़ेगा.

बात ख़त्म करने के लिए कनक तिवारी जी की किताब की पहली पंक्ति ही सबसे उपयुक्त लगती है – ‘संविधान एक प्राणवान दस्तावेज है.’