हमारी जाती स्वतंत्रता, घटती समता और दुर्लभ न्याय से स्पष्ट है कि हम गहरे संकट में हैं
अशोक वाजपेयी | 15 अगस्त 2021 | फोटो: पिक्सबे
कहां
हमें स्वतन्त्रता पाये आज 74 वर्ष हो रहे हैं और हम 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं. यह एक ऐसा मुक़ाम है जहां हमें सोचना चाहिये कि हम कहां हैं. हमारे स्वतंत्रता-संग्राम में जिन मूल्यों के लिए संघर्ष किया गया और अन्ततः उन मूल्यों को भारतीय संविधान में आत्मसात किया, वे थे – स्वतंत्रता, समता और न्याय. इसलिए इस समय हम इन मूल्यों के सन्दर्भ में कहां पहुंच गये हैं यह आंकना लगभग अनिवार्य है. ज़ाहिर है यह आकलन हममें से हर कोई अपनी दृष्टि और सरोकारों की रोशनी में करेगा.
स्वतंत्रता हमें राजनैतिक रूप से तो मिल गयी थी पर हमने देश के सामाजिक आचरण, राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचे, आर्थिकी आदि में अमल करने का लम्बा प्रयत्न किया. इस प्रयत्न में सफलता-विफलता मिलती रही. कुल मिलाकर अब तक हमारी स्वतंत्रता अक्षुण्ण बनी रही है, भले उसकी काया पर कई घाव और खरोचें भी हैं. लेकिन आज यह स्वतंत्रता, अपने सभी रूपों में, क्षत-विक्षत है. अभिव्यक्ति, आस्था, विचार, सामाजिक आचरण, आलोचना, निजता आदि सभी प्रासंगिक क्षेत्रों में स्वतंत्रता में कटौती हो गयी है. असहमति, आलोचना, प्रश्नवाचकता, वाद-विवाद सभी अपराध की कोटि में ढकेल दिये गये हैं. एक ऐसा लोकतांत्रिक निज़ाम है जिसका एक लगभग अघोषित लक्ष्य हर सम्भव ढंग से, संवैधानिक संस्थाओं को निष्क्रिय और, मीडिया के अधिकांश को पालतू बना, विश्वविद्यालयों में ज्ञान के खुले विकास को बाधित कर, बन्दनयन भक्ति को प्रोत्साहित कर स्वतंत्रता में लगातार कटौती करना है. स्वतंत्रता के 74 वर्ष बाद हम ऐसे मुक़ाम पर हैं जहां हमारी स्वतंत्रता में इज़ाफा होने के बजाय उसमें गहरी कटौती हो रही है.
समता के लिए भी हमने लम्बे कठिन प्रयत्न किये. दलितों ने राजनैतिक शक्ति अर्जित की. करोड़ों लोग ग़रीबी रेखा से ऊपर जाकर आर्थिक समता पाने की ओर बढ़े. स्त्रियों का पुरुषों की बराबरी का हक़ पाने और बरतने का लम्बा संघर्ष अभी भी चल ही रहा है. लेकिन इधर यह बिलकुल स्पष्ट है कि हमारी आर्थिक प्रगति धीमी हुई है और बेरोज़गारी की व्याप्ति हमारे स्वतंत्र इतिहास में सबसे अधिक हो गयी है. समता का स्वप्न सत्ताधारी शक्तियों द्वारा नागरिकता के भेदभाव, साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता को बढ़ावा आदि द्वारा भंग किया जा रहा है. इधर हम समता का जो स्तर इतनी कठिनाई से हमने पाया था उससे पीछे फिसल गये हैं.
न्याय की स्थिति पिछले सात-आठ दशकों में कई दुविधाओं में फंसी रही है लेकिन, फिर भी, न्यायिक संस्थाएं इतनी राजभक्त पहले कभी नहीं हुई थीं जितनी आज हैं. नागरिक अधिकारों की रक्षा, प्रशासन पर निगरानी करने में, अपवादों को छोड़ दें तो ज़्यादातर न्याय व्यवस्था विफल हुई है. निज़ाम ने एक तरह का पुलिस राज क़ायम कर लिया है और उसमें न्याय दुर्लभ हो गया है. प्रचण्ड बहुमत की हेकड़ी है और उसे अनुशासित करने के न्यायिक प्रयत्न बहुत अशक्त हैं. हमारी जाती स्वतंत्रता, घटती समता और दुर्लभ न्याय से स्पष्ट है कि हम गहरे संकट में हैं.
क्यों
आज हम जहां पहुंचे हैं वहां पहुंचने की ज़िम्मेदारी हमारी ही है. हमने एक ऐसी लोकतांत्रिक व्यवस्था बनायी जिसमें कुल 38 प्रतिशत वोट पाकर भी कोई राजनैतिक दल संसद में सीटों का बहुमत प्राप्त कर सकता है और फिर इतने कम समर्थन के बावजूद सारे देश के लिए बोलने की धृष्टता, बिना किसी संकोच के, कर सकता है. अगर शाहीन बाग, किसान आन्दोलन जैसे अपवादों को छोड़े दें तो सत्ता द्वारा बरबाद की गयी आर्थिक प्रगति, बढ़ायी गयी बेरोज़गारी, निजी जीवन पर की गयी जासूसी, कोविड को लेकर किये कुप्रबन्ध आदि के विरुद्ध सामान्य नागरिकों की कोई ज़ाहिर प्रतिक्रिया नहीं है और ऐसा भ्रम फैल रहा है कि यह चुप्पी समर्थन का ही पर्याय है.
लोकतंत्र में नागरिकता को सीमित और संकीर्ण करने के क़ानूनी क़दम उठाए जा रहे हैं और नागरिक इसको लेकर उत्तेजित नहीं हैं. लगातार जातिवाद, धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता में आक्रामक इज़ाफ़ा हो रहा है और हमें कोई चिन्ता नहीं सताती. कई बार यह सन्देह होने लगता है कि अगर व्यापक जनमत यही सब चाहता या कि इसकी ताईद करता है तो स्वतंत्रता-समता-न्याय के मूल्य उसके लिए अप्रासंगिक हो चुके हैं. सही है कि उनके अमल में बड़ी कमियां रही हैं. लेकिन अगर वे एक सपना ही हैं तो क्या व्यापक भारतीय समाज ने यह सपना देखना बन्द कर दिया है?
स्थिति हिन्दी अंचल में बहुत ख़राब है. वहां धार्मिक घृणा, जातिगत भेदभाव और अत्याचार, स्त्रियों के साथ हिंसा और बलात्कार, दलितों और अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय और हिंसा तेज़ी से फैलते रहे हैं और उनको लेकर कोई नागरिक प्रतिरोध मुखर या सक्रिय नहीं है. सिर्फ़ लेखकों-कलाकारों का एक बड़ा समूह भर लोकतांत्रिक विपक्ष की भूमिका निभा रहा है. पर उसकी इस भूमिका का न तो कोई सामाजिक एहतराम है और न ही व्यापक प्रभाव. लग यह रहा है कि समूचे भारतीय परिदृश्य में हिन्दी अंचल न केवल सबसे पिछड़ा, ग़रीब और बेरोज़गार अंचल बल्कि सबसे हिंसक और अन्यायी अंचल होकर उभरने जा रहा है. परम्परा की बहुलता, ज्ञान, नागरिक आचरण, नैतिक बोध की जितनी अवज्ञा और अवमानना आज हिन्दी अंचल में है उसकी और कहीं नहीं. अपसंस्कृति के सभी लक्षण इस समय सबसे अधिक हिन्दी अंचल में ही नज़र आ रहे हैं. अपनी मातृभाषा को विकृत और प्रदूषित करने का उत्साह भी इसी अंचल में सबसे अधिक है.
ज़ाहिर है कि यह सब रातोंरात नहीं हो गया है. न ही यह ऐसा है कि इससे विरत होना असम्भव हो. कुछ तो करना होगा कि धर्मान्धता, जाति-विद्वेष, बेरोजगारी, हिंसा-हत्या-घृणा का यह भयानक गठजोड़ टूटे या ढीला पड़े. आसार तो यह हैं कि कम से कम उत्तर प्रदेश में अगले चुनाव तक ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है: कोई पहल कहीं नहीं है और इतने कम समय में प्रभावशील भी नहीं हो पायेगी अगर होती भी. ऐसी वीरविहीन मही तो नहीं हो सकती! हम प्रतीक्षा ही कर सकते हैं, हताश और लाचार प्रतीक्षा, पर अथक प्रतीक्षा!
प्रेम में
जैसे भारत में वैसे ही चीन में प्रेम कविता की एक लम्बी परम्परा है जो प्राचीनों से लेकर आधुनिकों तक लगभग अबाध चली आती है. कुछ बरस पहले ब्रिटिश म्यूज़ियम लन्दन में वहां के चीनी संकलन से चुनकर कुछ चित्र और उनके साथ चीनी प्रेम कविताओं के अनुवाद पुस्तकाकार ‘चाइनीज लव पोएट्री’ शीर्षक से, जेन पोर्टल द्वारा किये गये, प्रकाशित हुए थे. वह पुस्तक मैं ले आया था. उसे उलट-पुलट रहा था तो दो कविताओं ने अपनी सादगी से ध्यान खींचा. उनके हिन्दी अनुवाद यों हैं:
1
फूल खिलते हैं,
कोई नहीं
जिसके साथ उनका आनन्द लिया जा सके.
फूल गिरते हैं,
कोई नहीं
जिसके साथ दुख मनाया जा सके.
मैं सोचता हूं कब प्रेम की
उत्कंठाएं
कब हमें सबसे अधिक झकझोरती हैं—
जब फूल खिलते हैं
या जब फूल गिरते हैं?
(ज़्यूताओ 7-8 शताब्दी)
2
पूरब में सूरज!
यह प्यारा आदमी
मेरे मकान में है
मेरे घर में है,
उसका पांव मेरी दहलीज पर.
पूरब में चन्द्रमा!
यह प्यारा आदमी
मेरे कुंज में है,
मेरे कुंज में है,
उसका पांव मेरी दहलीज पर.
(अनाम)
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