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भूदान, ग्रामदान, उद्योगदान, जीवनदान और विचारदान वाले विनोबा भावे का यह दान आखिर गया कहां!

विनायक नरहरि भावे को ‘विनोबा’ का यह नाम महात्मा गांधी ने दिया था. नई पीढ़ी के लोग अक्सर इस बात का यकीन नहीं कर पाते कि भारत जैसे देश में लोगों ने अपने ही गांव-समाज के भूमिहीन लोगों के लिए जमीनें दान में दी होंगी. भारत के मौजूदा सामाजिक, राजनीतिक और वैचारिक वातावरण को देखते हुए सचमुच उनके लिए यह यकीन करना आसान भी नहीं है. लेकिन भारत और विनोबा के जीवन की इस सच्ची कहानी से गुजरना उनके लिए भी कम रोमांचक नहीं होगा.

विनोबा के व्यक्तिगत जीवन के बाकी प्रसंगों की कहानी फिर कभी. परिचय के रूप में भी अभी केवल इतना कि गणित और वैज्ञानिक अध्यात्म को अपने जीवन और चिंतन का आधार बनाने वाले विनोबा एक मौलिक विचारक, आजीवन शिक्षक और अहिंसक कर्मयोगी थे. किसी ने उन्हें आचार्य विनोबा कहा, तो किसी ने संत विनोबा और कईयों ने तो उन्हें ऋषि विनोबा और बाबा विनोबा तक कहकर संबोधित किया. लेकिन भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से के लिए वे केवल उनके अपने विनोबा रहे. गांधीजी के जाने के बाद भारतीय समाज के सभी तबकों ने जिस पर सहज और सबसे अधिक भरोसा किया, जिसकी तरफ मार्गदर्शन के लिए देखा, वह निर्विवाद रूप से विनोबा ही कहे जा सकते हैं.

ऐतिहासिक शख़्सियतों का मूल्यांकन आनेवाली पीढ़ियों के लिए आसान नहीं होता क्योंकि इसके लिए महज दस्तावेजी सबूत ही काफी नहीं होते. इसके लिए तटस्थता, विनम्रता, वैचारिक अनेकांतता और गहरी संवेदनशीलता के साथ-साथ स्वयं अपने जीवन के स्तर पर भी अनुभूतिजन्य प्रयोगशीलता की जरूरत होती है. विनोबा के जीवन को देखने के लिए ‘श्रद्धा’ और ‘भक्ति’ के प्रचलित नमूनों से ऊपर उठना होगा, क्योंकि विनोबा स्वयं ही ऐसा सोचते थे. उन्होंने किसी को भी अपना गुरू मानने और किसी को भी अपना चेला बनाने से इनकार कर दिया था.

विनोबा ने कभी कोई संस्था नहीं बनाई. किसी पक्षविशेष के समर्थन और विरोध में नहीं उलझे. गरीबी और हिंसा की शिकार देश भर की जनता के बीच पैदल ही अहिंसा और प्रेम की तलाश करते हुए उनका पूरा जीवन करुणामय हो गया था. शायद इसीलिए उन्हें ज्ञानदेव, नामदेव, तुकाराम, शंकरदेव-माधवदेव और एकनाथ जैसों की श्रृंखला में ही संत जैसा मान लिया गया था. लेकिन आधुनिक अर्थों में विनोबा मौलिकता से भरे अपनी तरह के एक ‘सोशल इनोवेटर’ कहे जा सकते हैं. जिनको अध्यात्म में रुचि हो, उनके लिए वे ‘स्पीरिच्युअल इनोवेटर’ भी कहे जा सकते हैं, क्योंकि उनके अध्यात्म में स्वाभाविक रूप से हद दर्जे की वैज्ञानिकता, मुक्तता और समावेशिकता मौजूद थी.

विषयांतर न हो, इसलिए आज हम उनके भूदान आंदोलन और इसकी मौजूदा स्थिति के बारे में बात करेंगे. आज़ादी के बाद भारत की सरकार के सामने सबसे बड़ा प्रश्न जमीन के बंटवारे का था. एक तरफ राजे-रजवाड़ों से लेकर जमींदारों और बड़े भूमिपतियों के पास बेहिसाब जमीनें थीं, और दूसरी ओर देश की बहुसंख्यक जनता भूमिहीन थी. वह भी तब जबकि इस कृषि प्रधान देश में जमीन ही सबसे आधारभूत पूंजी और संसाधन थी. जहां एक ओर जमींदारी उन्मूलन और भू-हदबंदी जैसे सरकारी प्रयास चल रहे थे, वहीं दूसरी ओर तेलंगाना में बंदूक के जरिए जमीन और संपत्ति छीन लेने का चरम-वामपंथी खूनी-संघर्ष भी छिड़ चुका था. सरकार ने भी हिंसा का जवाब हिंसा से और गोली का जवाब गोली से देना शुरू कर दिया. परिणाम यह हो रहा था कि रात में वाम-चरमपंथी और दिन में पुलिस उन लोगों को पकड़ती थी जिनपर उन्हें शक होता. फिर वे लोग या तो गोलियों से भून दिए जाते थे या गिरफ्तारी के बाद हवालात में उन पर अत्याचार होता था. इसके चलते आम लोगों में हाहाकार मचा हुआ था.

ऐसे हिंसारत इलाके में 15 अप्रैल, 1951 को विनोबा ने अपनी पदयात्रा शुरू की. पहला पड़ाव हैदराबाद में रहा. वहां की जेल में जाकर विनोबा हिंसामार्गी वाम-चरमपंथियों से भी मिले. बहुत गहरी सहानुभूति के साथ उन्होंने उनसे बातें कीं. हिंसा-अहिंसा की चर्चा से लेकर जेल जीवन को सुसह्य बनाने के लिए जेल की परिस्थितियों तक के ऊपर प्रकट और व्यक्तिगत बातें हुईं. पदयात्रा करते हुए 18 अप्रैल की सुबह विनोबा नलगोंडा जिले के पोचमपल्ली गांव में पहुंचे. यह कम्यूनिस्ट चरमपंथियों का गढ़ माना जाता था. गांव में चार खून हो चुके थे. आस-पास के गांवों को मिलाकर दो साल के भीतर इस इलाके में 22 हत्याएं हो चुकी थीं.

पड़ाव पर पहुंचने के बाद विनोबा गांव घूमने निकले. पहले हरिजनों की बस्ती में पहुंचे. एक-एक घर में जाकर उन्होंने अपनी आंखों से वहां के लोगों की हालत देखी. हरिजनों ने अपना दुःख सुनाते हुए कहा- ‘हम बहुत गरीब हैं, बेकार हैं. आप हमें थोड़ी जमीन दिलाइये. उस पर मेहनत करके हम अपना पेट भर सकेंगे.’ विनोबा ने पूछा- ‘कितनी जमीन चाहिए?’

हरिजनों ने कहा- ‘यहां हमारे 40 परिवार हैं. हमें 80 एकड़ जमीन भी मिल जाए, तो बहुत हो.’

विनोबा गहरी सोच में पड़ गए. उन्हें कुछ सूझ ही नहीं रहा था. वे बोले- ‘सरकार से बात करके आपको जमीन दिलाने की कोशिश करूंगा.’ लेकिन विनोबा स्वयं अपने इस आश्वासन से संतुष्ट नहीं थे. सरकारों के काम करने का रवैया उन्हें मालूम था. एक बार अपने ऐसे ही किसी अन्य अनुशंसात्मक प्रयास के बाद नेहरू की सदिच्छा और कहने के बावजूद विनोबा को सरकार से निराशा ही हाथ लगी थी, और उन्होंने नेहरू को उनके सामने ही सहृदय विनोद में कहा था- ‘व्हेन ए किंग स्पीक्स, हिज़ आर्मी मूव्ह्स, व्हेन ए बीर्डेड मैन स्पीक्स, हिज़ बीर्ड मूव्स, बट व्हेन नेहरू स्पीक्स, नथिंग मूव्ह्स’ (जब कोई राजा बोलता है, तो उसकी सेना हिलती है, जब कोई दाढ़ीवाला बोलता है, तो उसकी दाढ़ी हिलती है, लेकिन जब नेहरू बोलते हैं, तो कुछ भी नहीं हिलता.) शायद यही सोचकर विनोबा ने सरकार के भरोसे नहीं रहने की सोची.

उन्हें एक बात सूझी. गांव के जो थोड़े लोग उनके सामने खड़े थे, उनसे उन्होंने पूछा- ‘क्या आप में से कोई ऐसे हैं, जो इन हरिजन भाइयों की मदद कर सकें? अगर इन्हें जमीन मिल जाए तो ये उस पर मेहनत करने के लिए तैयार हैं.’

इस पर रामचन्द्र रेड्डी नाम के एक भाई सामने आए और बोले- ‘मेरे पिताजी चाहते थे कि हमारी 200 एकड़ जमीन में से आधी जमीन कुछ सुपात्र लोगों में बांट दी जाए. कृपा कर मेरी 100 एकड़ जमीन का दान आप स्वीकार कीजिए.’ विनोबा की आंखों से आंसू की धारा बह चली. सुननेवाले अपने कानों पर विश्वास नहीं कर पाए. रामचन्द्र रेड्डी ने तुरंत ही लिखकर दिया कि मैं अमुक गांव की अमुक जमीन हरिजनों को दान में देता हूं.

इसी बीच विनोबा की पदयात्रा के दौरान 24 मई, 1952 को एक अनोखी घटना हुई. उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले के मंगरोठ गांव के लोगों ने विनोबा के पास आकर पूरे गांव की जमीन ही विनोबा को दान कर दी. इस तरह ग्रामदान के विचार का जन्म हुआ. यह घटना गांधीजी के ट्रस्टीशिप के विचार को चरितार्थ कर देने जैसी थी. मंगरोठ गांव के लोगों ने कहा कि हमारा गांव अब एक परिवार बन गया है, इसलिए पूरे गांव का लगान ग्रामसभा एक साथ जमा कर देगी. लेकिन राजस्व विभाग के अधिकारी ने कहा कि हम आपके ग्रामदान को नहीं मानते. इस तरह लगान की इकट्ठा वसूली करने का हमें कोई अधिकार नहीं है. उन दिनों गोविंद वल्लभ पंत उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. बात उनके पास पहुंची. वे तुरंत समझ गए कि अगर इस अच्छी बात को नहीं माना जाएगा तो सरकार की बदनामी होगी. उन्होंने फौरन हुक्म जारी किया कि पूरे गांव का लगान इकट्ठा वसूल कर लिया जाए.

ग्रामदान एक ऐसा अनोखा विचार था जिसने जेपी जैसे समाजवादी को भी विनोबा का भक्त बना दिया और जेपी ने इसके लिए अपने जीवनदान की घोषणा कर दी. 1962 में चीनी आक्रमण के बाद साम्यवादी चीन के विचारधारात्मक आक्रमण से निपटने के लिए भी इसे एक वैचारिक ‘डिफेंस मेजर’ के रूप में देखा गया. 1969 तक देशभर में लगभग सवा लाख ग्रामदानी गांव बन चुके थे. इस आंदोलन का नारा था- ‘सबै भूमि गोपाल की, नहीं किसी की मालिकी’. उस समय के दुनिया के सबसे प्रसिद्ध लेखकों में से एक अमेरिकी पत्रकार लुई फिशर ने कहा था- ‘ग्रामदान पूरब की ओर से आनेवाला सबसे अधिक रचनात्मक विचार है.’

इसी ग्रामदान के प्रति अपना जीवनदान देने वाले जेपी के मन में एक और अनोखा विचार आया और वह था ‘उद्योग-दान’ का. पूंजीवादी श्रम शोषण का बहुत बड़ा समाधान इसमें छिपा था. गुजरात के प्रबोध चौकसी ने भी वर्षों तक इस उद्योग-दान के लिए अहिंसक संघर्ष किया. स्वयं विनोबा ने इसे ग्रामदान का ही एक हिस्सा बताते हुए राजगृह सम्मेलन में कहा था- ‘ग्रामदान आन्दोलन का एक उद्देश्य यह भी है कि मिलों और कारखानों के मालिक और व्यापारी तथा उद्योगपति आदि लोग समाज की साझेदारी के विचार को कबूल करें. हम इसकी मांग उनके सामने रखें और अपनी ऐसी शक्ति खड़ी करें कि वे इनकार न कर सकें.’

इस सबके बीच विनोबा कहीं भी जाते तो अन्य बातों के अलावा सर्वधर्म प्रार्थना सभा अनिवार्य रूप से होती. कई बार केवल मौन प्रार्थना होती. और इसके बाद विनोबा का अपनी ओर से कुछ विचार-दान होता. ये विचार इतने मानवीय, वैज्ञानिक और उदात्त होते कि लोगों का सहज ही इनमें मन रम जाता. विनोबा के हृदय की करुणा का संचार उनको सुनने वालों में भी हो जाता. एक बार तो ऐसा हुआ कि मंगरू नाम के एक फटेहाल मजदूर अपनी आधी एकड़ जमीन में से पांच कट्ठा जमीन विनोबा को दान करने की जिद करने लगे. रामचरण नाम के एक दृष्टिहीन 11 बजे रात को विनोबा के शिविर में पहुंचे और जमीन का दानपत्र विनोबा को सौंप कर गए. वहीं एक तीन सौ एकड़ जमीन के मालिक एक बार केवल एक एकड़ दान करने के लिए विनोबा के पास पहुंचे, लेकिन विनोबा के विचार सुनकर उन्होंने लज्जित हो तीस एकड़ जमीन दान में दी. विनोबा के विचारों की यह धरोहर आज भी सर्व सेवा संघ और ब्रह्म विद्या मंदिर जैसे परिवारों ने संभाल कर रखी है और यथाशक्ति उसके प्रसार की भी कोशिश की है. आज के हिंसारत और युद्धरत विश्व में ऐसे अहिंसक और वैज्ञानिक विचार ही हमें राह दिखा सकती हैं. लेकिन दुर्भाग्य है कि औपचारिक स्कूली शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक में विनोबा के विचारों और प्रयासों की जानकारी सिरे से गायब है.

वैसे यह एक लिहाज से अच्छा भी है. विचार से लेकर प्रयासों तक के सरकारीकरण में अच्छी खासी चीजों की भी कई बार दुर्गति हो जाती है. इसे सबसे अच्छी तरह तो भूदान आंदोलन के उदाहरण से ही समझा जा सकता है. भूदान आंदोलन में मिली जमीनों में से 10 लाख एकड़ जमीन आज भी बिना बंटे ही सरकारी राजस्व विभाग की फाइलों में धूल फांक रही है. विनोबा को इस सरकारी अकर्मण्यता का भान आंदोलन के दौरान ही हो गया था. इसलिए उन्होंने 1963 में कहा था- ‘मैं पहले यह मानता था कि जब कोई दान दे चुकता है, तो दान में दी गई जमीन को बांटने का उसे कोई अधिकार नहीं रहता. यह एक बहुत बड़ी भूल हो गई. क्रांति की जिद और पुण्य-मोह के कारण यह स्थिति बनी. यदि उस समय यह निश्चय किया गया होता कि दाता खुद ही जमीन बांट दे, तो बहुत सी जमीन झटपट बंट जाती और दाता-आदाता दोनों के बीच प्रेम का नाता भी बनता.’

इसी तरह 1957 में केरल यात्रा के दौरान विनोबा ने लोगों से कहा- ‘मुझे दान-पत्र नहीं, प्राप्ति पत्र दीजिए. आप अपनी जो जमीन भूदान में देना चाहते हैं, उसे आप ही बांट दीजिए, और जिसे आप बांटें, कागज पर उसका हस्ताक्षर और साक्षी का हस्ताक्षर प्राप्त कर लीजिए. यही प्राप्ति पत्र होगा. नहीं तो जमीन यों ही पड़ी रह जाएगी.’

इन पंक्तियों के लेखक को कुछ समय पहले एक जिला सर्वोदय मंडल के कार्यक्रम में जाने का अवसर मिला. यह संगठन भूदान में मिली जमीनों को बंटवाने के प्रयास में आज भी संलग्न है. दूर-दूर से आए ग्रामीणों ने अपनी-अपनी आपबीती सुनाई. सबके हाथों में भूदान वाली जमीन से संबंधित कागजात थे. लेकिन कई लोगों का उन जमीनों पर कब्जा न था. कइयों से वे जमीनें बाद में जबरन छीन ली गईं. भूदान की कई जमीनें ऐसी भी हैं जिनको लेकर भाई-भाई में विवाद है, यानी जमीन बड़े भाई ने अपने नाम करा ली और बाकी भाइयों को देने से इंकार कर दिया. कई मामलों में राजस्व विभाग भूदान की जमीनों पर लोगों से राजस्व तो वसूलता है, लेकिन वह जमीन कहां है या उसका कब्जा कैसे मिलेगा, इसके लिए कुछ भी करना नहीं चाहता.

और तो और, कुछ साल पहले करीब नौ राज्यों से ऐसी घटनाएं प्रकाश में आईं, जहां सरकारें स्वयं ही भूदान की जमीनों को कार्पोरेट समूहों और हाउसिंग समूहों को पैसों के एवज में हस्तांतरित कर रही थीं. आंध्र प्रदेश शहरी विकास प्राधिकरण ने भूदान अधिनियम के प्रावधानों को ताक पर रखते हुए विशाखापत्तनम में भूदान की जमीनें हाउसिंग परियोजनाओं के लिए आवंटित कर दी. रंगारेड्डी जिले में भूदान की ही करीब 1500 करोड़ रुपये की जमीन उद्योगपतियों को बेच दी गई. महाराष्ट्र में भी राजनीतिज्ञों, बिल्डरों और हाउसिंग सोसायटियों द्वारा भूदान की जमीनें हड़पे जाने पर जांच चल रही है. बिहार में तो भूदान की जमीनें विधायकों द्वारा ही हथिया लिए जाने के मामले प्रकाश में आए हैं, जिनमें सभी दलों के विधायक शामिल हैं.

इस सबके बावजूद आपको आज भी देश के कई कोनों में हरे-भरे ‘विनोबा ग्राम’ मिल जाएंगे. भूदान में जमीन पाकर अपना जीवन संवारने वाले लाखों परिवार आज भी देश में मौजूद हैं. कमियों के बावजूद इतना तो था ही कि इस आंदोलन ने भूमिहीनता की समस्या और भूमि-सुधार की जरूरत को लेकर एक अनोखा नैतिक वातावरण पूरे देश में तैयार कर दिया था. जमीन का सवाल आज भी खासकर हरिजनों और आदिवासियों के सामने खड़ा है. और हम हैं कि भूदान आंदोलन की खामियां गिनाकर विनोबा को असफल करार देने का आत्मघाती और कृतघ्नभावी लोभ छोड़ नहीं पा रहे हैं. एक ऐसे समय में जब विचारों की जमीन ही इतनी दलदली होती जा रही हो, जहां हृदय की जमीन बंजर और प्रतिक्रियावादी हिंसा की जमीन उर्वर होती जा रही हो, वहां दान, त्याग, सेवा और सद्भाव की ऐसी जमीनी कहानियां हमें अविश्वनीय, काल्पनिक और असंभव इत्यादि लगें तो इसमें आश्चर्य क्या है!