- सत्याग्रह/Satyagrah - https://www.satyagrah.com -

सैयद हैदर रज़ा : जिनकी कला संसार के नाम प्रेमपत्र और आभार-पत्र हैं

सैयद हैदर रज़ा

पचास से अधिक वर्ष पहले मैंने मुक्तिबोध को अपनी आंखों के सामने अंतिम सांस लेते देखा था. 2016 में रज़ा का प्राणांत भी लगभग वैसा ही हुआ. यह संयोग की बात है कि दोनों ही – जैसे कि मैं भी – मध्‍यप्रदेश के हैं. रज़ा दिल्‍ली में लगभग साढ़े पांच बरसों से रह रहे थे. वे हर सप्ताह मंदिर, मसज़िद और चर्च जाते थे. उनका किसी कर्मकांड में रत्ती भर विश्वास नहीं था पर वे गहरी आस्था के आधुनिक थे, उस आधुनिकता का एक विकल्प जिसमें अनास्था केन्द्रीय है. उनका विराट् में भरोसा था और एक स्तर पर उनकी कला विराट् के स्पंदन को अपनी रंगकाया में निरंतर समाहित करती रही है.

यह स्पंदन ही उन्हें जीवन में बेहद उदारचरित बनाता था. उनसे अधिक मददगार भारतीय कलाकार, लगता है, दूसरा हुआ ही नहीं. आत्मनिष्ठ होते हुए भी रज़ा दूसरों के प्रति हमेशा बहुत खुले रहे. वे अपने सच्चे अध्यात्म को दूसरों से संवाद और संबंध रख-पोस कर ही अर्जित करते थे.

मैंने अपने लगभग चालीस बरसों के संबंध के दौरान उनको कभी किसी की बुराई करते नहीं सुना: कई बार मैं कुछ निंदाभाव या कटुता से बात करता था तो वे सुन तो लेते थे पर उसमें कभी शामिल नहीं होते थे. उनमें किसी तरह के चातुर्य का घोर अभाव था और इस कारण वे कुछ अवांछनीय व्यक्तियों के पोषक भी बने पर वे असंदिग्ध रूप से निश्छल और निष्कलंक रहे.

रज़ा का समय

ऐसा दावा उन्होंने अपनी स्वाभाविक विनयशीलता के रहते कभी नहीं किया पर रज़ा धार के विरुद्ध चले. उनकी जीवनदृष्टि और कलादृष्टि आधुनिकता के जो रूप प्रचलित और प्रतिष्ठित थे उनके मेल में नहीं थी. उनके सहचर-मित्र कलाकार जिस तरह का कलाकर्म आमतौर पर करते थे उससे रज़ा का कलाकर्म काफ़ी अलग था. उन्होंने एक बार लिखा था: ‘कलाकर्म विचित्र उन्माद है. इसे विश्वास से सहेजना है – सम्पूर्णता से, पहाड़ों के धैर्य के समान, मौन प्रतीक्षा में, अकेले ही. जो कुछ सामने है, प्रत्यक्ष है, पर केवल आंखें देख नहीं पातीं. रूप से अतिरूप तक, अनेक अपरिचित सम्भावनाएं हैं जहां सत्य छिपा है. निस्संदेह बुद्धि, तर्क और व्यवस्थित उन्माद के शिखर पर बसी दिव्य शक्ति ‘अन्तर्ज्योति’ ही कलाकर्म का सर्वश्रेष्ठ साधन है.’ यह उनकी अपनी सुन्दर लिपि में हमारी संयुक्त पुस्तक ‘आत्मा का ताप’ के पिछले कवर पर प्रकाशित है.

फ्रांस में रहकर भी रज़ा कभी अपनी मातृभाषा हिंदी नहीं भूले थे. वे पेरिस में लगभग दैनिक रूप से तीन भाषाओं का समान अधिकार से उपयोग करते थे: फ्रेंच लोगों से फ्रेंच में, अन्य विदेशों से आने या फ़ोन करने वालों से अंग्रेज़ी में और भारत से आनेवालों से हिंदी में. पिछले लगभग तीन दशकों से उन्होंने अपने अधिकाश चित्रों के शीर्षक हिंदी में देना शुरू किये थे. पेरिस से मुझे फ़ोन कर वे अपने चुने हिंदी शीर्षक पर मेरी राय पूछते और सही हिज्जे बताने को कहते थे. दिल्ली में आने के बाद तो हम दूसरे-तीसरे उनके नये चित्र का साथ बैठकर हिंदी शीर्षक खोजते और तय करते थे.

रज़ा की कविता में गहरी दिलचस्पी और सुरूचि थी. उनके प्रिय कवियों में रिल्के, बोदेलेयर, रैने शा आदि थे पर उन्होंने भारतीय लघुचित्रों की एक परंपरा का पुनराविष्कार करते हुए चित्रों में कविता की पंक्तियां अंकित करना शुरू किया था. ये कवितांश हमेशा हिंदी में ही रहे. ग़ालिब, मीर, महादेवी, अज्ञेय, मुक्तिबोध, शमशेर, केदानाथ सिंह, यहां तक कि मेरी कविताओं की पंक्तियाँ उनके चित्रों में हैं. वे अपनी एक निजी डायरी रखते थे जिसे उन्होंने नाम दिया था: ‘ढाई आखर’. उसकी कई ज़िल्दों में दार्शनिक उक्तियां, उपनिषद् और गीता से सूक्तियां, फ्रेंच, संस्कृत, अंग्रेज़ी, हिंदी, उर्दू में जो भी उन्हें उपयुक्त लगा वह मूलतः दर्ज़ है. बरसों तक वे रिल्के की एक कविता का प्रार्थना की तरह मौखिक पाठ करते थे, अपने स्टूडियो में दाखि़ल होने और काम शुरू करने के पहले.

उनके पेरिस के स्टूडियो में जो सामग्री सुनियोजित थी उनमें उनके स्कूली अध्यापकों के छायाचित्र भी थे. जब मैं उनके साथ वर्ष में लगभग दो बार कई सप्ताह बिताने लगा तो मैंने पाया कि उन्हें उन अध्यापकों के नाम याद थे. उनके प्रति उनके मन में गहरा आदर था जो कि असाधारण तो था ही लगभग दैनिक होने के कारण अनोखा भी था. भारत की अपनी यात्राओं में वे कई बार, बहुत कष्ट उठाकर भी, अपने पुराने स्कूल, अपने अध्यापकों के घर जाते थे. नागपुर के अपने वयोवृद्ध और बीमार कला-अध्यापक के समक्ष साष्टांग दंडवत् करते मैंने उन्हें तब देखा जब वे स्वयं 80 से ऊपर की उमर में पहुंच गये थे.

जिंदगी को बड़ी नियामत माननेवाले रज़ा के मन में संसार, प्रकृति, पूर्वजों, अध्यापकों, मित्रों, साधारण लोगों के प्रति गहरी कृतज्ञता का भाव था. इसी कृतज्ञता ने उन्हें अचूक ढंग से उदार-चरित बनाया

आभार-चित्र

जिंदगी को बड़ी नियामत माननेवाले रज़ा के मन में संसार, प्रकृति, पूर्वजों, अध्यापकों, मित्रों, साधारण लोगों के प्रति गहरी कृतज्ञता का भाव था. इसी कृतज्ञता ने उन्हें अचूक ढंग से उदार-चरित बनाया. उन्हें हर दम लगता था कि उन पर संसार का, दूसरों का बहुत कर्ज है जिसे उन्हें जैसे हो, जितनी जल्दी मुमकिन हो, लौटाना है. उनकी कलाकृतियों की एक व्याख्या इस तरह भी की जा सकती है कि वे अपने परिष्कार में, अपने रंग-वैभव में, अपने कठोर संयम में, अपनी सुविचारित ज्यामिति में सिर्फ़ संसार का, प्रकृति का, पंच तत्वों आदि का गुणगान भर नहीं हैं, वे संसार के नाम प्रेमपत्र और आभार-पत्र भी हैं.

आधुनिकता का एक पक्ष अपने से पहले को अस्वीकार करने, तनाव और विस्थापन, विसंगति और विकृति को केंद्र में लाने का रहा है. रज़ा के यहां इस सबका एक सर्जनात्मक प्रतिलोम विकसित हुआ. उन्हें शांति, लय-विलय, शक्ति और संतुलन, सुसंगति और आभा की तलाश रही. वे, सारे सांसारिक झंझटों और बाधाओं के रहते, इन्हें संभव मानते थे. उन्होंने महादेवी की एक कविता पंक्ति का अपने एक चित्र में इस्तेमाल किया था – ‘पंथ होने दो अपरिचित, प्राण रहने दो अकेला.’ रज़ा जिस पंथ पर चले उस पर वे प्रायः अकेले थे. पर इस कारण दुखी या तनावग्रस्त कभी नहीं हुए. उन्होंने अपनी राह खुद जानबूझकर चुनी थी और उस पर ज़िद कर, भले अकेले, वे आजीवन बिना रूके चलते रहे.

यह अकेलापन, यह ज़िद उन्हें, विलक्षण ढंग से, दूसरों से जोड़ते थे. ख़ासकर युवाओं की रचनाशीलता में उनकी गहरी दिलचस्पी थी और उसमें जो भी उन्हें प्रतिभाशाली लगते उनकी जी खोलकर मदद करते थे. वे एकमात्र शीर्षस्थानीय चित्रकार हैं जिन्होंने अनेक युवाओं जैसे सुजाता बजाज, अखिलेश, मनीष पुष्कले, सीमा घुरैया आदि के साथ संयुक्त प्रदर्शनियां की. उन्होंने अनेक युवाओं के काम खरीदे और अंततः युवाओं के लिए ही अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा देकर रज़ा फाउंडेशन की स्थापना की.

आधुनिक भारतीय चित्रकला को अब तो व्यापक अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिल गयी है. पर यह जब परिदृश्य पर कहीं दूर-दूर तक दिखायी नहीं देती थी तब रज़ा इस पर कई बार लिख और बोलकर इसरार कर चुके थे कि भारतीय कला विश्व स्तर की है; कि उसकी आधुनिकता पश्चिमी कला का एक संस्करण नहीं है और उसके कारक और मूल तत्व बिलकुल अलग और अनोखे हैं.

स्वयं उनकी कला को एक तरह की शास्त्रीयता के आयाम में देखा जा सकता है. उनके कई अभिप्राय रूढ़ हो गये थे पर उनकी कला आवृत्तिमूलक नहीं थी, हमारे शास्त्रीय संगीत की ही तरह. वही राग बार-बार उसी स्वरसंयोजन में गाया-बजाया जाता है पर एक प्रस्तुति दूसरी की आवृत्ति नहीं करती. रज़ा के चित्रों को ऐसे ही रागरूप की तरह समझा-देखा जा सकता है. उन्होंने बिंदु की अनंत संभावनाओं का दावा अकारण नहीं किया था – उनके काम में बिंदु जितनी बार आता है कोई-न-कोई नया आशय, नयी आभा लेकर आता है. उनके चित्रों में संसार के प्रति आभार की छाया आध्यात्मिक चमक की तरह देखी जा सकती है.