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जहां फागुन में होली के साथ रामलीला भी होती है

रामलीला

फागुन में रामलीला! यों रामलीला कार्तिक के महीने में दशहरे से पहले खेली जाती है मगर बरेली के बमनपुरी मोहल्ले में होली के मौक़े पर रामलीला की बड़ी पुरानी परंपरा है. होली से दो रोज़ पहले धनुष यज्ञ का मंचन करने के अगले रोज़ यानी पूर्णिमा के दिन शहर में राम बारात निकलती है, जिसमें लोग रंगों से भरे ड्रम और बड़ी-बड़ी पिचकारियां लेकर शामिल होते हैं. पहले तो मोहल्ले के लोग ही मिलकर रामलीला करते थे लेकिन, बदले दौर की व्यस्तता के चलते अब मंडली बुलाई जाने लगी है. एक ख़ूबी यह भी है कि रामलीला के लिए कोई मैदान नहीं है. नृसिंह मंदिर परिसर में मंडली के कलाकारों के ठहरने का इंतज़ाम होता है और यही उनका ग्रीन रूम भी है. रामलीला के प्रसंग के मुताबिक इसके मंचन का ठिकाना भी बदलता रहता है – कभी सड़क पर, कभी किसी घर, मंदिर या दुकान के चबूतरे पर. लीला का मंच हनुमान मंदिर, छोटी बमनपुरी और साहूकारा मोहल्ले में भी सजता है.

बमनपुरी की इस रामलीला की शुरुआत सन् 1861 में हुई. अलबत्ता होली के मौक़े पर रामलीला के आयोजन की वजह के बारे में बहुत प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती. बमनपुरी में रहने वाले साहित्यकार मधुरेश बताते हैं, ‘हम अपने बचपन से ऐसे ही देखते आए हैं.’ यों लीला में वे छोटे-मोटे काम की ज़िम्मेदारी भी संभालते रहे मगर इस अनोखी शुरुआत के ब्योरे के बारे में वे अनभिज्ञता जताते हैं. मधुरेश को यह याद है कि पूरा मोहल्ला बड़ी तन्मयता से इस आयोजन में जुटा रहता. हर शाम मेला जुटता. चूंकि राधेश्याम रामायण के कई प्रसंग उन्हें कंठस्थ थे तो संवाद याद करने में कलाकारों की मदद करने का ख़ास रुतबा उन्हें हासिल था.

साहित्यकार और क्षेत्रीय इतिहास के विशेषज्ञ सुधीर विद्यार्थी के मुताबिक होली के मौक़े पर हुड़दंग को रोकने के इरादे से यह पहल की गई थी. वे बताते हैं, ‘हिन्दू धर्मावलंबियों और कुछ मुस्लिम संतों ने मिलकर हंगामा-हुड़दंग रोकने और सौहार्द बरक़रार रखने की नीयत से यह पहल की और इस तरह रामलीला के मंचन की नींव पड़ी.’ मोहल्ले के कुछ लोग भी इस बात से इत्तेफाक़ रखते हैं. अपने बड़ों से उन्होंने सुना था कि अंग्रेज़ अफ़सरों ने रामलीला मंचन रोकने की कोशिश की थी तो दरगाह-ए-आला हज़रत के सज्जादानशीं ने दख़ल देकर यह रवायत बरक़रार रखने में मदद की.

राम बारात | फोटो : प्रभात

नृसिंह मंदिर में बैठने वाले ज्योतिषी केसरी का मत है कि कुछ ग्रंथों में रावण के वध का दिन चैत्र सुदी द्वादशी बताया गया है, इसी आधार पर पुराने लोगों ने फागुन के आख़िर में रामलीला के बारे में सोचा होगा. हालांकि अब जब यह रवायत 158 साल पुरानी हो गई है तो किसी को यह जानना बहुत ज़रूरी नहीं लगता. धार्मिक विश्वास और मान्यताओं के अलावा मोहल्ले के लोगों को अब इस बात पर गर्व होता है कि इस वजह से उनकी ख्याति और पहचान शहर की हदों के बाहर भी बनी है.

वक्त के साथ बमनपुरी और उसके आसपास का माहौल कुछ बदला ज़रूर है मगर लोगों की शिरकत और जोश बरक़रार हैं. काफी लम्बी सड़क पर अयोध्या, चित्रकूट और लंका के ठिकाने कभी अलग औऱ दूर-दूर हुआ करते थे. नृसिंह मंदिर के पास जहां राम-लक्ष्मण का सिंहासन सजता, वहां अब हलवाई की दुकान खुल गई है. लेकिन अशोक वाटिका अब भी मूंछ वाले हनुमान जी के मंदिर पर ही बनाई जाती है.

पूरी रामलीला में तीन प्रसंग बहुत महत्व के माने जाते रहे हैं – धनुष यज्ञ, दशरथ की मृत्यु और अंगद-रावण संवाद. पुरानी कितनी ही रामलीलाओं की स्मृति संजोये मधुरेश याद करते हैं कि पहले रामलीला पूरी हो जाने के बाद बाहर से आई मंडली के कलाकार दो दिन और रुककर नाटक भी करते थे. इसके लिए वे अलग से कोई पैसा नहीं लेते थे लेकिन नाटक के दौरान आरती की थाली में लोगों से यथासंभव दक्षिणा की उम्मीद करते थे और लोग देते भी थे. वे यह ध्यान दिलाना भी नहीं भूलते कि बमनपुरी की रामलीला धार्मिक आयोजन होने के साथ-साथ आपसी मेल-मिलाप और धर्म की उदारता की बेहतरीन नज़ीर भी पेश करती थी. इसमें बच्चों के लिए खिलौने तो महिलाओं की ज़रूरत वाले बिसातख़ाने का सामान लेकर आने वाले अधिसंख्य लोग मुसलमान होते थे. मेले में उनकी बराबर की भागीदारी रहती थी.

पिछले कई सालों से अयोध्या से आने वाली जो मंडली यहां रामलीला करती रही है उसके संयोजक छोटे भइया शर्मा कहते हैं, ‘बमनपुरी’ के इस आयोजन सी कोई और मिसाल नहीं. उनके साथ बैठे व्यास यह भी जोड़ते हैं कि मतलब तो हरिनाम सुमिरने से है तो फिर क्या होली और क्या दशहरा?

तो बमनपुरी का दशहरा इस बार छह अप्रैल को है, रावण का पुतला भी उसी रोज़ जलेगा.