विचार-मन्थन होना चाहिये कि हिन्दी समाज क्यों अपने अंचल में स्थित कला-साहित्य-भाषा संस्थानों के समर्थन और बचाव के प्रति इस क़दर उदासीन और निश्चेष्ट रहता है
अशोक वाजपेयी | 13 फरवरी 2022 | फोटो: विकीमीडिया कॉमन्स
चालीस वर्ष
आज ही के दिन यानी 13 फ़रवरी 1982 को भोपाल में भारत भवन का उदघाटन हुआ था. तब की प्रधान मंत्री ने उस समय भोपाल के देश की सांस्कृतिक राजधानी बनने का जिक्र किया था. लगभग दो सौ मूर्धन्य कलाकार, साहित्यकार, रंगकर्मी, संगीतकार, नृत्यकार, विद्वान, फिल्म निर्देशक, वास्तुकार, देश भर के, विशेष रूप से, मौजूद थे. उनमें से बड़ी संख्या में अब दिवंगत हैं. भारत के कला-साहित्य जगत में बड़ी उत्तेजना थी: बाद में रज़ा ने भारत भवन की स्थापना को शान्तिनिकेतन के बाद भारतीय संस्कृति जगत की सबसे रोमांचकारी संस्था बताया. जगदीश स्वामीनाथन और बीवी कारन्त ने उद्घाटन के साथ ही इस अनोखे संस्थान को अपनी उदार-उदात्त दृष्टि और अथक कर्म से उत्कृष्टता के स्तर पर स्थापित कर दिया था. उसके पहले नौ वर्षों में जो हुआ उसने उसे अन्तरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा दिलवायी: भारत में किसी कलाकार का भारत भवन में आमंत्रित होना प्रतिष्ठा की बात हो गया.
भोपाल के रसिक लोग अपने जीवन में पहली बार भारत भवन के आंगन में रविशंकर या विलायत खां, कुमार गन्धर्व या मल्लिकार्जुन मंसूर, पीटर बुक या हबीब तनवीर, निकानोर पार्रा या मिलोस्लाव होलुब, शमशेर बहादुर सिंह या रघुवीर सहाय, सुभाष मुखोपाध्याय या अख़्तर उल ईमान आदि से सहज भाव से मिलने-बतियाने-सुनने-देखने के दुर्लभ अवसर पा सके. भारतीय कविता समारोह, एशियाई कविता समारोह, विश्व कविता समारोह, सारंगी मेला, ध्रुपद सप्तक, अन्तरराष्ट्रीय प्रिण्ट बियेनाल, कामनवेल्थ थिएटर वर्कशाप, राष्ट्रीय नुक्कड़ नाटक मेला, राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर संस्कृति-विमर्श, देश भर के लोकमण्डलियों के प्रदर्शन, शहराती और लोक-आदिवासी कलाकारों की संयुक्त कर्मशालाएं आदि सब हुए और अपने क्षेत्र में मानक ही बन गये. ऐसे कई आयोजन वैसी सुरुचि और संवेदना के साथ फिर कहीं नहीं हो पाये. उस समय हर वर्ष लगभग एक लाख लोग भारत भवन में आते थे जो दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय, राष्ट्रीय आधुनिक कला-वीथिका और शिल्प संग्रहालय की सम्मिलित संख्या से कहीं अधिक थे.
हमने कोशिश की भारत भवन हमारी सांस्कृतिक और वैचारिक बहुलता, खुलेपन और समावेशी आधुनिकता पर संवाद का केन्द्र भी बने. समकालीनता, तब तक, सिर्फ़ शहराती कलाओं तक सीमित थी: भारत भवन में पहली बार आदिवासी-लोककलाओं को शहराती आधुनिकों के साथ स्थान दिया गया. मालवी, बुन्देलखण्डी, छत्तीसगढ़ी में पहली बार क्रमशः कालिदास और शूद्रक, कालिदास और बर्टोल्ट ब्रेख़्त और सेमुएल बैकेट के पूरे-पूरे नाटक खेले गये. जापान, अमरीका, फ्रांस, स्वीडेन आदि देशों में आयोजित ‘भारत उत्सव’ में भारत भवन की सक्रिय भागीदारी हुई. वहीं के एक प्रधान गोंड़ कलाकार जनगढ़ सिंह श्याम ने अपनी मुख्यतः सांगीतिक धरोहर को चित्रकला में बदल दिया और आदिवासी कला में ‘जनगढ़ कलम’ की शुरूआत हुई. किसी एक दृष्टि के वर्चस्व का शुरू से ही निषेध किया गया और विभिन्न परस्पर विरोधी विचारदृष्टियों के लेखक-कलाकार-चिन्तक भारत भवन में मिलते और संवाद करते रहे. वह शायद उस समय ऐसा एकमात्र मंच था जहां यह सहज भाव से संभव था.
उदघाटन के समय मेरी उम्र 41 वर्ष की थी और जब वहां से हटाया गया तो 50 का होने जा रहा था. यह सब सम्भव इसलिए हुआ कि तबके सत्ताधारियों ने भारत भवन की स्वायत्तता का सम्मान किया और कभी वैचारिक हस्तक्षेप नहीं किया. हमने एक समय उसका नाम ‘इन्दिरा भारत भवन’ करने और वहां मप्र कांग्रेस के किसी अधिवेशन को आयोजित करने का विरोध किया और हम सफल हुए. उस समय हमारी सलाहकार समितियों में देश के सबसे महत्वपूर्ण संस्कृतिकर्मी थे और उनमें परस्पर कई वैचारिक मतभेद थे. भारत भवन का यह विश्वास था कि उदग्र सर्जनात्मकता, खुले वैचारिक विमर्श और साहित्य और कलाओं में अनेकमुखी पहलों में ये मतभेद आड़े नहीं आते, नहीं आये. जगदीश स्वामीनाथन और बीवी कारन्त, दिलीप चित्रे, कृष्ण बलदेव वेद आदि की कर्मठता, अथक श्रम ने यह पूर्वग्रह भी ध्वस्त किया कि कला-संस्थाओं का प्रशासन कलाकार नहीं कर सकते.
वह भारत भवन अब कहां-कैसा है यह मुझे ठीक से पता नहीं क्योंकि मेरा बरसों से उससे कोई सम्पर्क नहीं रहा है. कुछ मित्रों ने यह उचित ही पहचाना है कि रज़ा फ़ाउण्डेशन इस समय जो कर रहा है वह वही है जो कि, बिना इमारत के, एक भारत भवन कर सकता है. जो हो, भारत भवन भोपाल में एक उल्लेखनीय और लोकप्रिय कला केन्द्र है. उसके संग्रह में 1980 के आसपास की श्रेष्ठ कलाकृतियों का संग्रह है, जो उस समय कुल 35 लाख रुपयों में ली गयी थीं और जिनका आज मूल्य सौ करोड़ से अधिक का है.
उत्तर राग
1990 के दिसम्बर महीने में तब सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने मुझे संस्कृति सचिव के पद से हटाते हुए ग्वालियर तबादला कर दिया. जगदीश स्वामीनाथन और अन्य ने, अन्ततः पुपुल जयकर की अध्यक्षता में चल रहे न्यास ने इस्तीफ़ा दे दिया: उनमें कुमार गन्धर्व, हवीब तनवीर, मक़बूल फ़िदा हुसैन, बिरजू महाराज, पुल देशपाण्डे, शिवमंगल सिंह सुमन शामिल थे. देश भर में इस हस्तक्षेप के विरुद्ध धरने दिये गये जिनमें दिल्ली, बंगलेरू, कोलकाता, भोपाल आदि शहर शामिल थे. इन धरनों में और कई वक्तव्यों में देश के पांच सौ से अधिक मूर्धन्य शामिल हुए. किसी संस्थान को लेकर, उसे बचाने के लिए, भारत के समूचे लोकतांत्रिक इतिहास में इतने लेखक-कलाकार-संगीतकार-रंगकर्मी, विद्वान् इससे पहले या बाद में इस क़दर एकजुट नहीं हुए जितने भारत भवन के लिए हुए. उस सूची में, फिर, अनेक वैचारिक दृष्टियों के लोग शामिल हुए जिनमें स्वतंत्रचेताओं से लेकर प्रगतिशील, जनवाद, समाजवादी आदि थे. देश के अनेक अख़बारों में, अनेक भाषाओं में इस हस्तक्षेप का विरोध करते हुए संपादकीय लिखे गये. उस समय मैंने कभी प्रेस को यह वक्तव्य नहीं दिया था कि भारत भवन जैसी सचमुच अखिल भारतीय संस्था हिन्दी प्रदेश में ही बन सकती है पर वह वहां चल नहीं सकती. भारत भवन का वही हश्र हुआ जो नागरी प्रचारिणी सभा और हिन्दी साहित्य सम्मेलन का हुआ या उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद का हुआ जो कि अपने आरंभिक समय में उत्कृष्ट और बड़ी पहल थी. इस पर विचार-मन्थन होना चाहिये कि हिन्दी समाज क्यों अपने अंचल में स्थित कला-साहित्य-भाषा संस्थानों के समर्थन और बचाव के प्रति इस क़दर उदासीन और निश्चेष्ट रहता है.
असहमति की परंपरा
जब हम कुछ लोगों ने, भारतीय भाषा के लगभग साठ लेखकों ने, देश में बढ़ती असहिष्णुता के विरोध में साहित्य अकादेमी और अन्य राज्यपोषित संस्थाओं द्वारा दिये गये पुरस्कार वापस किये 2015 में, तो इस स्वतःस्फूर्त अभियान के पीछे षड्यन्त्र आदि का लांछन सत्ताधारी शक्तियों ने लगाया. तर्क कुछ यह दिया गया कि लोकतंत्र में असहमति एक ग़ैरज़िम्मेदार कार्रवाई है क्योंकि वह लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी सत्ता के विरुद्ध होती है. यह भी जोड़ा गया कि भारतीय परंपरा में असहमति की कोई जगह नहीं रही है. इन दोनों ही तर्कों में साक्ष्य का बल तो बिलकुल नहीं था पर गोदी मीडिया में इन्हें फैलाने का अभियान चलाया. उस समय हमने तय किया कि एक ऐसा संचयन तैयार किया जाये जो पिछले तीन हज़ार वर्षों में राजनीति और आस्था के क्षेत्रों में असहमति की उपस्थिति, विवाद, वादविवाद की उपस्थिति और मान्यता को भारतीय परंपरा के एक प्रमुख तत्व के रूप में प्रमाणित करता हो. बहरहाल, 2017 में स्पीकिंग टाइगर्स प्रकाशन ने अंग्रेज़ी में यह लगभग साढ़ पांच सौ पृष्ठों का संचयन छापा ‘इण्डिया डिसेण्ट्स’.
सप्ताह भर पहले विजयवाड़ा से एक सज्जन का फ़ोन आया कि वे इस पुस्तक पर ऑन लाइन चर्चा करना चाहते हैं. 12 जनवरी, 2022 को इस पुस्तक को लेकर अपूर्वानन्द और मैंने बातचीत की. हमारे वक्तव्यों का तुरन्त तेलुगु में अनुवाद भी किया गया. इन पांच वर्षों में स्थिति बदतर हुई है. हमने, इस ऑनलाइन, बातचीत में यह रेखांकित करने की भी कोशिश की कि देश इस ध्रुवान्त पर लाया गया है जहां एक हिन्दू धर्मसंसद मुसलमानों के नरसंहार का आवाहन करती है और इस देशद्रोही संविधानविरोधी बयान पर कोई कारगर कार्रवाई नहीं होती; उत्तर प्रदेश में मुख्य मंत्री खुलेआम आगामी विधानसभा चुना को अस्सी फ़ीसदी और बीस फ़ीसदी के बीच चुनाव कहकर एक निहायत साम्प्रदायिक वक्तव्य देते हैं और चुनाव आयोग इसका संज्ञान नहीं लेता. शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता, पाठ्यक्रम निर्धारित करने की उनकी स्वतंत्रता बाधित की जा रही है और व्यापक शिक्षा-समुदाय कायर और मूक दर्शक बना हुआ है. मीडिया का एक बहुत बड़ा सक्षम-सशक्त और लोकप्रिय हिस्सा पालतू होकर सत्ता के सामने पूंछ हिलाता रहता है और कोई सवाल पूछने की हिम्मत नहीं करता. धर्म, विशेषतः हिन्दू धर्म, अब पूरी तरह से राजनीति और सत्ता का अनुचर हो गया है और उसकी समावेशिता और अन्य धर्मों से संवाद-सहकार की लोकतांत्रिक इच्छा पूरी तरह से ग़ायब हो गयी है. चारों ओर तरह-तरह के भय व्याप्त हैं और चालू निज़ाम नित-नये ढंग से डराने के काम में व्यस्त हैं.
यह सब हर तरह से लोकतंत्र, भारतीय सभ्यता और संस्कृति और परम्परा के विरूद्ध है. इस समय हमारा संकट भारतीय सभ्यता का संकट है, सिर्फ़ लोकतंत्र का संकट नहीं. ज्ञान की अवमानना और अज्ञान की प्रतिष्ठा के इस कुसमय में, फिर भी, ऐसे लोग और समूह हैं जो अपनी उजली-उदात्त-समावेशी विरासत को बचाने की चेष्टा में लगे हैं. उनकी निर्भयता और निर्भीकता, उनका विवेक और साहस हमारी आखि़री उम्मीद है. वे असहमति की रौशन इबारत हैं.
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