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समाज | धर्म

क्या दुनिया का कोई देश वैसा धर्मनिरपेक्ष है जैसा होने की उम्मीद कई लोग भारत से करते हैं – 1/2

भारत में ‘धर्म’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ का अर्थ वह नहीं है जो लैटिन से निकले अंग्रेज़ी शब्दों ‘रिलिजन’ और ‘सेक्युलर’ का है

राम यादव | 01 नवंबर 2021 | फोटो: ट्विटर-बीजेपी

26 जनवरी का दिन भारत में गणराज्य दिवस के रूप में मनाया जाता है. 1950 में इसी दिन स्वतंत्र भारत का अपना संविधान लागू हुआ था. संविधान की मूल प्रस्तावना में लिखा था – “हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए,… इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.”

अमेरिकी और फ्रांसीसी संविधानों से प्रेरित भारतीय संविधान की इस मूल प्रस्तावना में न तो धर्मनिरपेक्षता या ‘पंथनिरपेक्षता’ का उल्लेख था और न ही ‘समाजवाद’ का. भारत को एक ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ देश घोषित करने वाले दोनों नये विशेषण, तथाकथित 42वें संविधान संशोधन द्वारा, 18 दिसंबर 1976 के दिन तब प्रस्तावना में जोड़ दिये गये, जब देश में आपातकाल लागू था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की इच्छानुसार, उन्हीं के विदेश और रक्षा मंत्री रहे सरदार स्वरण सिंह के नेतृत्व वाली एक समिति ने संविधान की प्रस्तावना में इस संशोधन का सुझाव दिया था.

आपातकाल में संविधान संशोधन

इंदिरा गांधी द्वारा 25 जून 1975 को घोषित और 21 मार्च 1977 तक चले 21 महीनों के आपातकाल में संविधानप्रदत्त सभी मौलिक अधिकार स्थगित कर दिये गये थे. सरकार की आलोचना और प्रदर्शनों पर प्रतिबंध था. विपक्षी नेता जेलों में थे और संसद सरकार की मुट्ठी में थी. प्रश्न उठता है कि ज़ोर-ज़बर्दस्ती के दिनों वाले उस आपातकाल में संविधान में किये गये परिवर्तन ‘अभिव्यक्ति’ की उस स्वतंत्रता के क्या सच्चे प्रतीक माने जा सकते हैं, जिसका इसी प्रस्तावना में उल्लेख है?

यही नहीं, 1976 में जोड़े गये ‘पंथनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ ऐसे शब्द हैं, जिनकी न तो संविधान में स्पष्ट परिभाषा दी गई है, और न ही कोई एक परिभाषा ही है. जिसे हम पंथ कहते हैं, बाक़ी दुनिया उसे धर्म मानती है. जिसे हम धर्म कहते हैं, शेष दुनिया के लिए वह इतनी अनोखी-अबूझ अवधारणा है कि उसके लिए किसी के पास कोई सही शब्द ही नहीं है. इसी प्रकार समाजवाद के भी मार्क्सवाद, लेनिनवाद, माओवाद, टीटोवाद जैसे कई अलग-अलग मॉडल हैं. उन्हें लोकतंत्रात्मक या जनवादी भी बताया जाता है, पर वे थे बहुत ही अत्याचारी व दमनकारी. यह अकारण ही नहीं था कि भारत के संविधान रचयिताओं ने उसकी मूल प्रस्तावना में ‘पंथनिरपेक्षता’ और ‘समाजवाद’ जैसे शब्दों से परहेज़ करना ही श्रेष्ठ समझा.

नेहरू समाजवाद के पक्ष में नहीं थे

संविधान बनाने वाली प्रारूप समिति में हुई बहसों से पता चलता है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू, प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ तो क्या, ‘सामाजिक न्याय’ शब्द लिखे जाने के भी पक्ष में नहीं थे. वे समाज में लोकतांत्रिक तरीकों से धीरे-धीरे समानता लाना चाहते थे, जबकि भीमराव अम्बेडकर लेनिन की समाजवादी अवधारणा से प्रेरित थे. वे बहुत दुखी थे कि उनका सुझाव माना नहीं गया. वे भूल रहे थे कि लेनिन की समाजवादी क्रांति रक्तरंजित थी.

ढाई दशक बाद इंदिरा गांधी ने अपने पिता की बातें भुलाते और आपातकाल का लाभ उठाते हुए ‘समाजवाद’ को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ दिया. इससे स्वयं को समाजवादी कहने वाले तत्कालीन सोवियत संघ सहित पूर्वी यूरोप के कम्युनिस्ट देशों के साथ भारत की यारी तो खूब बनी, किंतु उन पर आर्थिक-राजनैतिक निर्भरता भी उतनी ही बढ़ गयी.1990 वाले दशक में सोवियत गुट के विघटन के साथ यूरोप में समाजवाद की अर्थी उठने तक यही स्थिति बनी रही. भारत की विकास गति ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ से आगे नहीं बढ़ पायी.

पंथनिरपेक्षता यूरोप से ली गयी अवधारणा है

समाजवाद (सोशलिज़्म) की तरह ही धर्म या पंथनिरपेक्षता (सेक्युलरिज़्म) भी यूरोप से ली गयी एक नयी अवधारणा है. उसके भी कई मॉडल हैं. मूल भावना यही है कि लोकतंत्र में धर्म और राज्य (राजनीति) के बीच दूरी होनी चाहिये. दोनों को एक-दूसरे के काम में न तो दखल देना चाहिये और न एक-दूसरे के हित-अहित को बढ़ावा देना चाहिये. इसके पीछे यूरोपीय देशों के अपने विशिष्ट अनुभव हैं, जिनका भारत के इतिहास से मेल नहीं बैठता.

प्राचीन रोमन साम्राज्य के नमूने पर, 10वीं सदी से, मध्य और दक्षिणी यूरोप में एक ऐसा साम्राज्य पनपने लगा, जिसे 15वीं सदी से जर्मन राष्ट्रीयता वाला पवित्र रोमन साम्राज्य भी कहा जाता था. वह मध्य युग के भारत जैसे कई राजाओं-महाराजाओं के  किंतु भारत से भिन्न – एक ऐसे धार्मिकराजनैतिक गठबंधन के समान था, जिसके शीर्ष पर कोई सम्राट होता था. इस साम्राज्य में रोमन कैथलिक चर्च की तूती बोलती थी. राजा हो या रंक, चर्च के धर्माधिकारियों का संग सबको लेना पड़ता था. असली सत्ता उन्हीं के पास होती थी.

ईसाई धर्म में फूट पड़ी

किंतु 16वीं सदी के साथ ईसाई धर्म में फूट पड़ने लगी. जर्मनी में सैक्सनी प्रदेश के मार्टिन लूथर की मांगों वाला एक नया संप्रदाय उभरने लगा – प्रोटेस्टैंट. इससे सांप्रदायिक तनाव बढ़ने लगे. ‘पवित्र रोमन साम्राज्य’ के सत्ताधारियों के बीच भी लड़ाई-झगड़े होने लगे. जर्मनी के सैक्सनी प्रदेश के ड्यूक हाइनरिश ने, 1539-40 में सभी चर्चों (गिरजाघरों) की संपत्तियां ज़ब्त कर लीं. मठों को बेदखल कर दिया. इससे कुछ ही पहले इंग्लैंड में राजा हेनरी अष्टम ने भी, 1535 –38 के बीच, ईसाई मठों की संपत्तियां छीन ली थीं. अंधविश्वासों के विरुद्ध अभियान छेड़कर बहुत-सी मूर्तियों आदि को नष्ट-भ्रष्ट करवा दिया था. बड़े-बड़े तीर्थस्थान खंडहर बनवा दिये थे.

कैथलिक चर्च को चुनौती देने का यह दौर, जिसे ‘एनलाइटनमेंट’ (प्रबोधन या ज्ञानोदय) काल कहा जाता है, धर्म या पंथनिरपेक्षता की यूरोपीय चेतना का आरंभ था. कैथलिक चर्च की पवित्र (अलौकिक) संपत्तियों के अधिग्रहण को उनका ‘लौकिकीकरण’ बताया जाता था.

इस चेतना के लिए लैटिन भाषा की संज्ञा ‘सैकुलारिज़ात्सियो’ का फ्रेंच भाषा की एक क्रिया ‘सेकुलारिज़ेर’ (सेक्युलराइज़ेशन) के रूप में पहली बार प्रयोग, 8 मई 1646 के दिन, जर्मनी के म्युन्स्टर नगर में ‘वेस्टफेलिया शांति’ सम्मेलन के फ्रांसीसी प्रतिनिधि आंरी द्वितीय ने किया था. हालांकि उसके कहने का अभिप्राय था कि कैथलिक संपत्तियों पर अब प्रोटेस्टैंट का स्वामित्व होना चाहिये. यह सम्मेलन यूरोप में 1618 से 1648 तक चले 30 वर्षीय युद्ध के अंत के लिए हुआ था. उस समय दोनों ईसाई संप्रदाय, पवित्र रोमन साम्राज्य के राजवंश तथा फ्रांस, स्वीडन व डेनमार्क जैसे देश अपने-अपने वर्चस्व के लिए लड़ रहे थे.

चार सदी पूर्व का भारत

चार सदी पूर्व के उसी समय के भारत में मुगलों की तूती बोलती थी. हुमायूं की मृत्यु के बाद 1555 में उसके 15 साल के बेटे जलालुद्दीन अकबर को राजगद्दी मिली थी. 50 साल के अपने शासनकाल में उसने मुग़ल साम्राज्य का ख़ूब विस्तार किया. धार्मिक सहिष्णुता का भी परिचय दिया. किंतु उसके पोते शाहजहां और पड़पोते औरंगज़ेब ने, 1627 से 1707 के बीच के अपने शासनकाल के 80 वर्षों में, धार्मिक सहिष्णुता को धूल चटा दी. तब तक यूरोपीय उपनिवेशवादी और धर्मप्रचारक भी भारत में अपने पैर जमाने-पसारने लगे थे.

दूसरी ओर यूरोप में फ्रांस, ज्ञानोदय-काल के दौरान धार्मिक सत्ता को चुनौती दे रहे सुधारों में सबसे अग्रणी बन गया था. नेपोलियन प्रथम की फ्रांसीसी क्रांति के आरंभ में ही वहां की राष्ट्रीय संसद ने, 2 नवंबर 1789 को, सभी चर्च-संपत्तियों के राष्ट्रीयकरण का अध्यादेश पारित किया. राष्ट्रीयकृत कैथलिक-प्रोटेस्टैंट चर्चों के धर्माधिकारियों को सरकारी कर्मचारियों की तरह ही वेतन दिया जाने लगा. उन्हें देशभक्ति की और नये संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ी. उनकी शक्ति और उनके चर्च की राजनैतिक सत्ता को कतर दिया गया. छीन ली गयी चल-अचल संपत्तियां बाद में नीलाम कर दी गयीं.

इस तरह यूरोप में धर्म या पंथनिरपक्षता का युग शासन में चर्च के दखल को कम करने और शासकों द्वारा चर्च के कामों में भारी हस्तक्षेप के साथ शुरू हुआ था. यहूदियों के सिवाय इस्लाम या अन्य ग़ैर-ईसाई धर्मों का उस समय ही नहीं, बल्कि दूसरे विश्वयुद्ध तक, यूरोप में शायद ही कोई अस्तित्व था. अतः उनकी ओर से विरोध-प्रतिरोध का कोई प्रश्न ही नहीं था.

उधर भारत में मुग़ल शासनकाल का सूर्यास्त होते ही ब्रिटिश शासनकाल का सूर्योदय होने लगा. देश की बहुसंख्य जनता को आत्ममंथन का न तो समय मिल पाया और न उसके पास आत्मनिर्णय का अधिकार था. एक बार फिर से अपनी सांस्कृतिक-आध्यात्मिक अस्मिता की जैसे-तैसे रक्षा ही उसकी सबसे बड़ी चिंता थी. सबसे बड़ी विडंबना तो यह थी कि इस अस्मिता के लिए जिस नाम का सबसे अधिक प्रचलन था, वह भी भारतीयों का खुद का दिया नहीं था.

‘हिंदू’ नाम अरबों ने दिया

जिसे आज हम भी ‘हिंदू’ या ‘हिंदू धर्म’ कहते हैं, उसे यह नाम सदियों पहले अरबों ने दिया है, किसी भारतीय ने नहीं. अरबी-फ़ारसी में भारत को आज भी ‘’हिंद’’ ही कहा जाता है. ‘’हिंद’’ नाम भारत के विभाजन के बाद से पाकिस्तान में पड़ने वाली ‘सिंधु’ नदी के नाम का अपभ्रंश है. अरबों-ईरानियों के लिए आरंभ में सिंधु नदी वाले देश ‘हिंद’ के निवासी ‘हिंदू’, ‘हिंदी’ या ‘हिंदवी’ थे. यह नाम केवल धर्मसूचक नहीं था. एशिया में इस्लाम के विस्तार के साथ जिस तरह कज़ाकों का देश कज़ाकस्तान, उज़बेकों का देश उज़बेकिस्तान या अफ़ग़ानों का देश अफ़ग़ानिस्तान कहलाया, उसी तरह ‘हिंद’ में रहने वाले हिंदुओं के देश भारत को हिंदुस्तान कहा जाने लगा.

अरब-ईरान से आया इस्लाम जिन्हें ‘हिंदू’ कह रहा था, वे स्वयं को वैदिक, ब्राह्मण, आर्य या सनातन धर्मी कहते थे. ये सब एक ही आध्यात्मिक दर्शन की अलग-अलग अभिव्यक्तियां थे. किंतु दूसरों द्वारा दिया गया ‘हिंदू’ शब्द ही, समय के साथ, इन सारे नामों का सामूहिक पर्याय बन गया. कुछ लोग आज भी अपने आप को ‘सनातनी’ या ‘सनातन धर्मी’ ही कहते हैं, हालांकि सरकारी दस्तावेज़ों में उनके लिए ‘हिंदू’ शब्द का ही प्रयोग होता है. विडंबना तो यह भी है कि भारतीय देश-विदेश में जब कभी भारत की बात करते हैं, तब उसे हिंदुस्तान या इंडिया कहना अधिक पसंद करते हैं. ‘इंडिया’ नाम भी सिंधु नदी के लैटिन नाम ‘इन्डस’ से बना है.

‘धर्म’ का वही अर्थ नहीं है जो ‘रिलिजन’ का है

संविधान में 42वें संशोधन वाले उसके मूल अंग्रेज़ी संस्करण की प्रस्तावना में सेक्युलर शब्द का, और हिंदी संस्करण में धर्मनिरपेक्ष के बदले पंथनिरपेक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है. ऐसा इसलिए है, क्योंकि धर्म शब्द भारतीय सभ्यता-संस्कृति की अनोखी देन है. भारत में ‘धर्म’ का वही अर्थ नहीं है जो लैटिन भाषा के ‘रेलीगियो’ से बने अंग्रेज़ी भाषा के ‘रिलिजन’ शब्द का है.

हिंदुओं का धर्म, कर्म और फल से जुड़ा एक अलौकिक नियम या सिद्धांत है. सांसारिक जीवन में इसका अर्थ निष्कामभाव से कर्तव्यपालन, सदाचारी आचरण, जीवदया और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता है. पतिधर्म, पत्नीधर्म, पशुओं की सहजवृत्ति के लिए पशुधर्म या शासकों के लिए ‘राजधर्म’ जैसे शब्द भी केवल हिंदू शब्दावली में ही मिलते हैं. कोई व्यक्ति इन संस्कारों से हिंदू (सनातनी) बनता है, न कि किसी धर्मांतरण से.

अंग्रेज़ी में धर्म’ का निकटतम अर्थ ‘मॉरल ड्यूटी’ (नैतिक कर्तव्य) हो सकता है, न कि ‘रिलिजन’. अतः संविधान में भारत को ‘धर्मनिरपेक्ष’ देश कहने का अर्थ होता उसे एक ऐसा देश बताना, जहां जनता और सरकारों को अपने नैतिक कर्तव्यपालन के प्रति तटस्थ रहना है, उदासीन रहना है! बिना कर्तव्यपालन के देश और समाज चलता कैसे? इसीलिए संशोधन के समय संविधान के हिंदी संस्करण की प्रस्तावना में धर्म के बदले पंथनिरपेक्षता शब्द लिखा गया. भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं, पंथनिरपेक्ष देश है. धर्म शब्द की व्युत्पत्ति ‘धृ’ धातु से हुई है, अर्थ है ‘धारण करना.’ महाभारत में कहा गया है कि जो कार्य समाज को धारण करे, वही धर्म है.

अंग्रेज़ी में जिसे ‘रिलिजन’ या उर्दू में ‘मज़हब’ कहते हैं, हिंदू-अवधारणा के अनुसार वह ईश्वर की आराधना का केवल ‘पंथ’ (पथ, मार्ग) हो सकता है, न कि समाजधारक धर्म. पंथ तो हिंदू धर्म के भीतर भी अनेक हैं. यहां तक कि कोई ईश्वर की सत्ता से इनकार करके भी यानी कि किसी पंथ का हिस्सा बने बिना भी हिंदू बना रह सकता है. इसी प्रकार धर्म और सम्प्रदाय में भी अंतर है. एक ही धर्म की अलग-अलग परम्परा या विचारधारा मानने वाले वर्गों को सम्प्रदाय कहते हैं. कैथलिक और प्रोटेस्टैंट ईसाई सम्प्रदाय हैं. शिया और सुन्नी इस्लामी संम्प्रदाय हैं. शैव और वैश्णव हिंदू संप्रदाय कहलायेंगे.

‘रिलिजन’ या मज़हब का अर्थ

‘रिलिजन’ या मज़हब (पन्थ) वह आस्था-पद्धति है, जिसका अतीत में कोई न कोई प्रवर्तक (संस्थापक) था. उसे पैगंबर (ईश्वर का दूत) न कि अवतार माना जाता है. ईसा मसीह ईसाइयत के और पैगंबर मोहम्मद इस्लाम के प्रवर्तक थे. ईसाइयत में बाइबल और इस्लाम में कुरान-जैसी हर प्रवर्तक के कथनों की कोई एक ‘पवित्र पुस्तक’ होती है, जिसे सभी लोग ‘ईश्वरीय शब्द’ की तरह बिना किसी वाद-विवाद के स्वीकार करते और पूजते हैं. इसी प्रकार हर ‘रिलिजन’ का  इस्लाम में मक्का और ईसायत में बेथलेहम जैसा  अपना कोई ऐतिहासिक तीर्थस्थान होता है. चर्च में प्रार्थना या मस्जिद में नमाज़ अदायगी जैसी अपनी एक विशिष्ट पूजापद्धति भी होती है.

अतीत में सनातन धर्म कहलाने वाला आज का हिंदू धर्म ही विश्व का एकमात्र इतना बड़ा और पुराना धर्म है, जिसका कोई एक ही जऩ्मदाता या प्रवर्तक नहीं है. एक ही भगवान, पूजनीय पुस्तक या पूजा-पद्धति नहीं है. सबको अपनी इच्छानुसार आस्तिक या नास्तिक होने, किसी या किंन्ही देवी-देवताओं को पूजने-न पूजने या कोई नया देवी-देवता गढ़ने की छूट है. जिसका आरंभ और विकास अनेक ऋषियों-मुनियों व महत्माओं के चिंतन-मनन के सामूहिक मंथन से हुआ है, और आज भी हो रहा है. जो सिंधु नदी की तरह निरंतर बहती सनातन जलधारा है, न कि किसी झील-तालाब का ठहरा हुआ पानी. 1918 तक रहे शिर्ड़ी के सांई बाबा की हिंदू घरों-मंदिरों में पूजा इस धर्म के निरंतर नवीकरण का नवीनतम प्रमाण है. उनके सही नाम, जन्मस्थान व हिंदू होने-न होने के विवाद से भक्तों की श्रद्धा को कोई आंच नहीं पहुंचती.

संविधान सभा जब संविधान बना रही थी

1946 और1949 के दौरान भारत की संविधान सभा जब संविधान बना रही थी, तब सबका एक ही लक्ष्य था – भारत को एक आधुनिक लोकतंत्र बनाना. इस लोकतंत्र की परिकल्पना पश्चिमी मापदंडों पर टिकी हुई थी. उसे ‘सेक्युलर’ भी होना था, हालांकि भारत के संदर्भ में ‘सेक्युलर’ होने का अर्थ स्पष्ट नहीं था. 17 अक्टूबर 1949 को संविधान की प्रस्तावना पर पूरे दिन बहस हुई थी. सभा के सदस्य एचवी कामत, शिबनलाल सक्सेना और पंडित गोविंद मालवीय ने प्रस्ताव रखा कि भारत के संविधान की प्रस्तावना ईश्वर का नाम लेकर शुरू की जाये. भारत की जनता का ईश्वर में अटूट विश्वास है. यह प्रस्ताव पास नहीं हो पाया.

कहा गया कि ‘ईश्वर’ शब्द किसी आधुनिक, ‘सेक्युलर’ लोकतांत्रिक संविधान का हिस्सा नहीं हो सकता. वह सांप्रदायिक और पुरातन है. इसी दिन सभा के सदस्य ब्रजेश्वर प्रसाद ने संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर और सोशलिस्ट’ शब्द जो़ड़ने का सुझाव दिया. उसे भी ठुकरा दिया गया. ‘सेक्युलर’ शब्द को लेकर दो विचारधाराएं थीं. पहली यह कि संविधान का ईश्वर से कुछ भी लेना-देना नहीं हो सकता. राष्ट्र में राष्ट्रवाद से बड़ा कोई ‘रिलिजन’ नहीं हो सकता. भारतवासी होना एक ऐसी पहचान है, जो किसी पंथ अथवा साम्प्रदायिक पहचान से बड़ी होनी चाहिये.

राष्ट्रवाद रिलिजन (पंथ) से बड़ा होता है

संविधान सभा की 13 दिसंबर 1946 की बैठक में भारत के दूसरे राष्ट्रपति रहे, दर्शनशास्त्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा कि राष्ट्रवाद किसी भी रिलिजन (पंथ) से बड़ा होता है. अतः राष्ट्रवाद को पुष्ट करने के लिए राज्य (सरकार) को उसे रिलिजन से अलग करना होगा. उन्हीं दिनों गोविंद वल्लभ पंत ने भी कहा था कि ‘’राज्य सभी भगवानों से ऊपर होता है. वह भगवानों का भगवान है.’’ सभा के सदस्य सजामुल हुसैन ने तो यहां तक कहा कि रिलिजन की शिक्षा देने का अधिकार ‘’केवल घर के भीतर और केवल माता-पिता को होना चाहिये.’’ किसी भी व्यक्ति को अपना रिलिजन दर्शाने वाले कपड़े, चिन्ह या प्रतीक पहनने-ओढ़ने की छूट नहीं होनी चाहिये. ग़नीमत रही कि उनकी बात मानी नहीं गयी.

दूसरी विचारधारा यह थी कि सरकार देश के सभी पंथों का आदर करने वाली हो, सबके प्रति समभाव रखे. दोनों विचारधाराएं ‘सेक्युलर’ शब्द को संविधान में लिखने के पक्ष में नहीं थीं. इसी कारण संविधान की मूल प्रस्तावना में यह शब्द नहीं था.

इसके तीन और कारण भी बताये जाते हैंः पहला, यदि भारत ‘सेक्युलर’ होता, तो सबको अपने ढंग से पूजा-पाठ की स्वतंत्रता तो होती, पर अपने ‘रिलिजन’ के प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता नहीं होती. दूसरा, ‘सेक्युलर’ देश में किसी व्यक्ति को इस आधार पर आरक्षण इत्यादि का लाभ नहीं दिया जा सकता कि वह दलित हिंदू है या किसी अल्पसंख्यक संप्रदाय से आता है. यानी, अनुसूचित जातियों-जनजातियों के सामाजिक उत्थान के लिए उन्हें कोई वरीयता देना संभव नहीं होता. तीसरा, ‘रिलिजिन’ पर आधारित ‘निजी नागरिक संहिता’ (पर्सनल लॉ) के लिए भी तब कोई जगह नहीं होती. सबके लिए एकसमान नागरिक संहिता (यूनीफॉर्म सिविल कोड) का होना अनिवार्य हो जाता. इस सबको जानते हुए भी आपातकाल में संविधान की प्रस्तावना में एक ओर तो ‘सेक्युलर’ शब्द को जोड़ा गया, दूसरी ओर उसका अनादर करते हुए आरक्षण एवं तुष्टीकरण की नीतियां भी चलती रहीं.

अम्बेडकर एक समान नागरिक संहिता चाहते थे

बीआर अम्बेडकर भी यही चाहते थे कि भारत में एक समान नागरिक संहिता लागू हो. पर संविधान सभा के सदस्य मोहम्मद इस्माइल और महमूद अली बेग ने इसका विरोध किया. उन्होंने और कुछ अन्य सदस्यों ने ‘रिलिजन’ के आधार पर आरक्षण की तथा अलग ‘इलेक्टोरेट’ की भी मांग की. इसका अर्थ होता कि चुनाव में किसी अल्पसंख्यक को उसका अल्पसंख्यक समाज ही चुनता. संविधान सभा के सदस्य और भारत के प्रथम शिक्षामंत्री रहे मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद भी ऐसे आरक्षण के विरुद्ध थे. इसलिए ‘रिलिजन’ पर आधारित आरक्षण की मांग कमज़ोर पड़ गयी. 25 मई 1949 को सरदार वल्लभ भाई पटेल ने यह कहकर इस चर्चा का अंत कर दिया किया था कि भारत में कोई अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक है, इसे भूल जायें. भारत पंथ (रिलिजन) निरपेक्ष तो हो सकता है, पर धर्मनिरपेक्ष नहीं.

भारत के सर्वोच्च न्यायालय को भी जब कभी हिंदू धर्म के बारे में कुछ कहना पड़ा है, तब न्यायाधीशों को ‘हिंदुत्व’ या ‘हिंदू धर्म’ को परभाषित करने में बड़ी कठिनाई हुई है. 1966 के ऐसे ही एक फ़ैसले में तत्कालीन मुख्य न्यायधीश गजेंद्र गड़कर ने इसकी अनेक स्वतंत्रताओं को गिनाते हुए लिखा, ‘’बृहद रूप में हम इसे एक जीवन पद्धति के रूप में ही परिभाषित कर सकते हैं  इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं.”

हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दुइज्म क्या है

1996 में विधानसभा चुनावों में ‘हिंदुत्व’ के नाम पर वोट मांगने के एक केस में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “हिन्दू, हिन्दुत्व, हिन्दूइज्म को संक्षिप्त अर्थों में परिभाषित कर किन्हीं मज़हबी संकीर्ण सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता. इसे भारतीय संस्कृति और परंपरा से अलग नहीं किया जा सकता.’’ यह दर्शाता है कि हिन्दुत्व शब्द भी भारत के लोगों की जीवन पद्धति का ही द्योतक है, न कि ऐसी किसी कट्टरपंथी हिंदू मज़हबी संकीर्णता का, जिसका आजकल कथित राजनैतिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल करने का गोरखधंधा चल पड़ा है.

“हिन्दुत्व” शब्द को कट्टरपंथी राजनैतिक महत्वाकांक्षा का रंग देकर अपने आपको परम धर्मनिरपेक्षी भलामानुस दिखाने का वामपंथी गोरखधंधा भी इसमें शामिल है. इन लोगों ने अपनी सुविधा के लिए स्वयं को ‘धर्मनिरपेक्ष’ सिद्ध करने की सारी ज़िम्मेदारी केवल बहुसंख्यक समाज पर डाल दी है. मानो, देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समाज, धार्मिक अल्पसंख्यक होने के नाते, स्वयंसिद्ध स्वमयेव धर्मनिरपेक्ष है, उसे कुछ नहीं करना है. अन्य अल्पसंख्यकों के बारे में सोचने की भी कोई ज़रूरत नहीं है.

‘नागरिकता संशोधन क़ानून’ का, अगली (1881 से हर दस वर्षों पर होने वाली) जनगणना के आधार पर ‘राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर’ (एनपीआर) बनाने का और 2003 के ‘नागरिक पंजीकरण एवं राष्ट्रीय पहचान-पत्र अधिनियम’ के अंतर्गत हर नागरिक के लिए एकसमान पहचान-पत्र (इडेंटिटी कार्ड) की योजना का सबसे अधिक विरोध वही लोग कर रहे हैं, जो ‘सेक्युलरिज़्म’ को ‘धर्मनिरपेक्षता’ कहते हैं.

‘सेक्युलरिज़्म’ के ये भारतीय पैरोकार जान-बूझकर भूल जाते हैं कि यह अंग्रेज़ी शब्द यूरोप से जब आयातित किया गया था, तब यूरोपीय देशों में केवल ईसाइयों के कैथलिक, प्रोटेस्टैंट या ऑर्थोडॉक्स (पुरातनपंथी) समाज ही हुआ करते थे. यहूदी यदि कहीं थे, तो इतने कम और घृणित कि उन्हें गिना ही नहीं जाता था. द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले अन्य किसी पंथ या संप्रदाय के लोग यहां इक्के-दुक्के ही नज़र आते थे. अपने-अपनों के बीच रहकर सहिष्णुता और ‘सेक्युलरिज़्म’ की जुगाली करना तब बहुत आसान होता था.

अफ़लातूनी मज़हबी मांगें

किंतु अब, जब यूरोपीय देशों के मानवतावादी लोकतांत्रिक संविधानों का लाभ उठाकर बड़ी संख्या में विधर्मी भी वहां बस गये हैं, शरणार्थियों के रूप में नये विधर्मी लगातार आ रहे हैं, तब उनकी अफ़लातूनी मज़हबी मांगों से यूरोप वालों को भी छठीं का दूध याद आ रहा है. लगभग सभी देशों में घोर दक्षिणपंथी पार्टियों का अपूर्व पुनरुत्थान यूरोप में ग़ैर ईसाइयों की इसी अपू्र्व बाढ़ का परिणाम है. लोग अपनी सरकारों को कोस रहे हैं. अपनी सभ्यता और संस्कृति के भविष्य को लेकर बेचैन हैं. भारतीय वामपंथियों की तरह ही यूरोपीय वामपंथी भी ऐसी वास्तविकताओं से मुंह मोड़ लेते हैं.

भारत में सबने यह भ्रम भी पाल रखा है कि आस्था निरपेक्ष राज्य होना इतना आधुनिक और आसान है कि भारत को छोड़कर सभी लोकतांत्रिक देश सच्चे लोकतंत्र ही नहीं, परम धर्म या पंथनिरपेक्ष राज्य भी बन गये हैं. इस लेख की अगली कड़ी में हम कुछ उदाहरणों के साथ देखेंगे कि बहुतेरे देशों के इस सेक्युलर ढोल की पोल क्या है.

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