और फिर इसमें राजनीति घुस गई
विकास बहुगुणा | 07 सितंबर 2020 | फोटो : कंज्यूमर रिपोर्ट डॉट ओआरजी
‘मैंने 2010 में फेसबुक पर अकाउंट बनाया था. उस समय यह कनेक्ट होने का मीडियम था. स्कूल-कॉलेज के जमाने के कई दोस्त मुझे फेसबुक पर मिले. उस समय यहां पुराने दिनों की बातें होती थीं. फोटो शेयर किए जाते थे. हंसी-मजाक चलता था. कुल मिलाकर मजा आता था.’
उत्तर प्रदेश के नोएडा में रहने वाले और एक आईटी कंपनी में नौकरी कर रहे सलिल गुप्ता की आवाज इसके बाद बुझ जाती है. वे कहते हैं, ‘आज उन्हीं दोस्तों में से कुछ के साथ मेरी बातचीत लगभग बंद हो गई है.’ क्यों? पूछने पर वे कहते हैं, ‘वही, पॉलिटिक्स. अब तो फेसबुक लगभग बंद ही कर दिया. बीच में वाट्सएप पर खाली वक्त बिताने लगा था. लेकिन वहां भी हर दूसरी बात पर पॉलिटिक्स की बात होने लगी. सो अब वाट्सएप पर भी मन नहीं लगता.’
सलिल यह शिकायत करने वाले अकेले नहीं हैं. उन जैसे कई लोगों का किस्सा कमोबेश यही है. बड़े संदर्भ में यह उस सोशल मीडिया की कहानी भी है जो कभी सोशल हुआ करता था, लेकिन फिर राजनीति इसमें घुसी जिसने इसे एक बड़ी हद तक इसे एंटी सोशल बना दिया.
1970 के दशक में हंगेरियाई-अमेरिकी मनोवैज्ञानिक मीहाई चिकसेंटमीहाई ने उस स्थिति के लिए ‘फ्लो’ (बहाव) शब्द का इस्तेमाल किया था जिसमें कोई शख्स किसी काम में इस तरह मगन हो कि उसे बाकी किसी चीज की सुध न रहे. लगभग इसी समय वहां के समाजशास्त्री रेमंड विलियम्स ने यह शब्द उस प्रक्रिया के लिए इस्तेमाल किया जिसके जरिये अमेरिका में टीवी कार्यक्रमों और विज्ञापनों की ऐसी अनवरत धारा बहाई गई कि लोग घंटों टीवी के सामने बिताने लगे. इसके बाद ‘फ्लो’ का इस्तेमाल वीडियो गेम्स की डिजाइनिंग में भी होने लगा. टीवी से अलग वीडियो गेम में यूजर सक्रियता के साथ शामिल होता था और डिजाइनर उसे एक ऐसे ‘फ्लो चैनल’ में रखने की कोशिश करते थे जहां खेल न तो इतना मुश्किल हो कि यूजर निराश होकर उसे छोड़ दे और न ही इतना आसान कि यह उसके लिए ऊबाऊ हो जाए.
21वीं सदी के पहले दशक में उभरे सोशल मीडिया ने टीवी और वीडियो गेम के ‘फ्लो’ का मेल कर दिया. यानी यूजर टिप्पणियों से लेकर फोटो, वीडियो और चुटकुले तक पोस्ट दर पोस्ट देखता जाए और घंटों लैपटॉप या मोबाइल के आगे से न हटे. जाहिर तौर पर ऐसा करने का मकसद उसे वेबसाइट पर बनाए रखना था ताकि वह कंटेट के साथ एड भी देखता रहे और कंपनी की कमाई होती रहे. फेसबुक से लेकर टि्टर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब तक सारे ‘फ्लो मोडिया’ ने यही तरीका अपनाया. इसका नतीजा है कि आज दुनिया की एक बड़ी आबादी शब्दों, तस्वीरों और वीडियो के अनवरत ‘फ्लो’. में बहने लगी है. लेकिन समय के साथ यह बहाव समाज में तनाव का सबब भी बन गया है.
दुनिया की सबसे बड़ी सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक ने जब 2010 में भारत में अपना पहला दफ्तर खोला तो देश में उसके यूजरों की संख्या सिर्फ 80 लाख ही थी. एक दशक बाद आज यह आंकड़ा 27 करोड़ से भी ज्यादा है. यानी फेसबुक के सबसे ज्यादा यूजर भारत में ही हैं. फेसबुक के ही स्वामित्व वाले वाट्सएप के लिए यह आंकड़ा करीब 40 करोड़ है जबकि कंपनी के एक और मशहूर ब्रांड इंस्टाग्राम के भारत में आठ करोड़ से ज्यादा यूजर हैं. सोशल मीडिया के दुनिया के एक और दिग्गज ट्विटर के लिए यह आंकड़ा करीब पौने दो करोड़ है और अमेरिका और जापान के बाद उसके सबसे ज्यादा यूजर भारत में ही हैं.
बीते एक दशक के दौरान इन आंकड़ों के साथ सोशल मीडिया का मिजाज भी बदला है. जैसा कि वरिष्ठ पत्रकार राहुल कोटियाल कहते हैं, ‘2010 में फेसबुक का इस्तेमाल हम ज्यादातर तस्वीरें या हंसी-मजाक के लिए करते थे. मुझे याद है कि एक बार मैंने राजनीति को लेकर एक टिप्पणी की तो मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा था कि ये राजनीति जैसे गंभीर विषय को बरतने का उचित मंच नहीं है.’ राहुल आगे जोड़ते हैं, ‘आज मेरे वही मित्र एक राजनीतिक पार्टी की आईटी सेल में हैं.’ चर्चित पत्रकार और लेखक प्रदीपिका सारस्वत कहती हैं, ‘दस साल पहले हम शायद ये सोच भी नहीं सकते थे लेकिन तब जो साइट हमें हमारे बिछड़े दोस्तों से मिला रही थी उसी के ज़रिए अब हमें उनकी पॉलिटिक्स पता चल रही है, जो शायद हमें उनसे नफ़रत करने या उन्हें कमतर आंकने पर मजबूर कर रही है.’
कई और जानकार भी मानते हैं कि एक दशक पहले तक सोशल मीडिया पर राजनीति की जगह इतनी ही थी जितनी खाने की थाली में पापड़ या अचार की होती है, लेकिन आज यह लगभग पूरी थाली घेर चुकी है. इसका नतीजा यह है कि आज सोशल मीडिया का एक बड़ा हिस्सा कड़वाहट से भरा दिखता है. लोगों के बीच होने वाले संवाद का गरिमा की सीमाएं लांघना आम बात हो चुकी है.
माना जाता है कि बदलाव की इस प्रक्रिया के बीज यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में पड़े जब 2010 में कॉमनवेल्थ खेलों में हुए घोटाले की खबरों ने देश भर में आक्रोश पैदा कर दिया. इसकी परिणति अगले ही साल हुए जन लोकपाल विधेयक आंदोलन में हुई. सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे की अगुवाई में हुए इस आंदोलन ने तत्कालीन यूपीए सरकार को हिलाकर रख दिया था. इस आंदोलन के दौरान लाखों लोगों को एकजुट करने में सोशल मीडिया खासकर फेसबुक और ट्विटर ने अहम भूमिका निभाई थी.
इससे पहले अरब क्रांति में भी यह देखने को मला था. इसके चलते सोशल मीडिया को ऐसे जरिये की तरह देखा जाने लगा था जो किसी आंदोलन को कम समय, मेहनत और लागत में ज्यादा और बेहतर भागीदार, कार्यकर्ता और फंड उपलब्ध करा सकता है. वह तस्वीरों और जानकारी को बहुत कम समय में दूर-दूर तक फैला सकता था, बहस और तर्क के लिए जगहें उपलब्ध करा सकता था और बड़ी संख्या में लोगों को जमीन पर कदम उठाने के लिए एकजुट भी कर सकता था.
वापस लोकपाल विधेयक के लिए हुए आंदोलन पर लौटते हैं. इस आंदोलन ने पहली बार भारत में सोशल मीडिया पर मौजूद एक बड़े वर्ग का राजनीतिकरण कर दिया था. यूपीए सरकार ने शुरुआत में इस आंदोलन की जिस तरह से उपेक्षा की उसने आग में घी डालने का काम किया. सोशल मीडिया पर सरकार के विरोध की बाढ़ आ गई. आलम यह हो गया कि उस दौरान दुनिया में सबसे ज्यादा ट्वीट जिस विषय को लेकर हो रहे थे उनमें यह आंदोलन भी शामिल था. विरोध की यह कवायद आखिरकार देश में एक नई राजनीतिक पार्टी के जन्म का कारण बनी. इसका नाम था आम आदमी पार्टी (आप.) बाद में आप ने लगातार दो बार दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस को धूल चटाने में किस तरह सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया, इससे जुड़ी तो खैर अब कई कहानियां हैं.
लेकिन लोकपाल आंदोलन तक भी सोशल मीडिया से वह विकृति काफी हद तक गायब थी जो आज एक बड़े वर्ग को परेशान करती है. उन दिनों फेसबुक और ट्विटर पर जो राजनीतिक हलचल होती थी उसका निशाना कांग्रेस की अगुवाई में चल रही सरकार थी. इस पार्टी का तब सोशल मीडिया से कोई खास वास्ता नहीं था, बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस उन दिनों सोशल मीडिया को गंभीरता से नहीं लेती थी. खुद पर हो रहे हमलों को लेकर उसकी प्रतिक्रिया का ज्यादातर हिस्सा पारंपरिक मीडिया पर ही दिखता था. कई जानकारों के मुताबिक यही वजह है कि सोशल मीडिया पर उबाल उन दिनों भी भले ही जबर्दस्त रहा हो, लेकिन उसमें वैसा कसैलापन नहीं था जो अब दिखता है.
2014 के बाद यह स्थिति बदल गई. यूपीए सरकार के घोटालों और लोकपाल विधेयक के लिए चले आंदोलन से जो आक्रोश पैदा हुआ उसे सबसे अच्छी तरह से भाजपा ने भुनाया और इसका माकूल नतीजा भी पाया. इसके पीछे एक वजह यह भी थी कि भाजपा ने यह समझने में देर नहीं लगाई कि वोटरों को अपने पाले में करने के लिहाज से अब सोशल मीडिया सबसे ताकतवर जरिया होने जा रहा है. आप जैसी नई पार्टी के मुकाबले वह संगठन और संसाधनों के मोर्चे पर कहीं ज्यादा संपन्न और नतीजनत इस नए चलन को भुनाने के मामले में सबसे बेहतर स्थिति में थी.
2013 को इस लिहाज से एक अहम मोड़ कहा जा सकता है. इसी साल आम चुनाव के लिए भाजपा के अभियान की कमान नरेंद्र मोदी को दी गई थी. बहुत से लोग मानते हैं कि नरेंद्र मोदी ने काफी पहले ही सोशल मीडिया के फायदे भांप लिए थे. इसका एक अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि उन्होंने 2009 में ही ट्विटर पर अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी थी जबकि उनसे करीब 20 साल छोटे राहुल गांधी ने यह काम 2015 में किया. नरेंद्र मोदी की प्रचार मशीनरी ने 2014 के आम चुनाव में भाजपा के लिए इतिहास रच दिया. पार्टी पहली बार अपने दम पर केंद्र की सत्ता में आ गई. राहुल कोटियाल कहते हैं, ‘उस चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए एक बड़े तबके के बीच नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता सोशल मीडिया से ही बनी थी. मसलन उत्तराखंड में भी लोग कह रहे थे कि गुजरात का शेर आ रहा है. ये सोशल मीडिया का ही कमाल था.’
कुल मिलाकर देखें तो बीते दशक का उत्तरार्ध अगर भारत में सोशल मीडिया का पहला चरण था तो 2010 से 2014 तक के अंतराल को इसका दूसरा चरण कहा जा सकता है. पहले चरण में यह उत्सुकता और हल्की-फुल्की गतिविधियों का केंद्र था. दूसरे चरण के दौरान इस मैदान में राजनीति दाखिल हुई. 2014 के बाद शुरु हुए तीसरे चरण में सोशल मीडिया का मतलब ही काफी हद तक राजनीति हो गया.
जैसा कि दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक और मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार कहते हैं, ‘आज ये आलम है कि आप अपने बच्चे की भी तस्वीर लगाएंगे तो लोग उसमें भी कोई पॉलिटिक्स खोज ही लेंगे. मान लीजिए उसकी टीशर्ट का रंग केसरिया है तो कोई न कोई कमेंट कर देगा कि अच्छा, इसका भी भगवाकण कर दिया आपने.’ उनके मुताबिक शुरुआती दौर में रोज के आठ-दस घंटे के अपने काम से ऊबा हुआ आदमी एक तरह का ‘कॉमिक रिलीफ’ पाने के लिए सोशल मीडिया पर जाता था, लेकिन आज उस पर लिखने से पहले ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ होने का दबाव बहुत बढ़ गया है जिसने लोगों से वो पहले वाली राहत छीन ली है.
देखा जाए तो बीते छह साल के दौरान घरों से लेकर दफ्तरों और चाय के अड्डों तक भारत का एक बड़ा हिस्सा दो खेमों में बंट गया दिखता है. इनमें से एक हिस्सा नरेंद्र मोदी के समर्थकों का है तो दूसरा विकल्प चाहने वालों का. प्रदीपिका सारस्वत के मुताबिक इन दो खेमों के लोगों के बीच अलगाव और तनाव नफ़रत की हद तक बढ़ गया दिखता है. वे कहती हैं, ‘राजनीतिक झुकाव अब न सिर्फ़ पुरानी दोस्तियों बल्कि परिवारों और शादियों के आड़े भी आने लगा है. लोग अपने विचारों को लेकर अतिवाद की गिरफ्त में धंसते जा रहे हैं.’ जानकारों के मुताबिक इसका एक ही कारण है और वह है सोशल मीडिया.
ऐसा कैसे हो गया, इस सवाल पर विनीत कुमार कहते हैं, ‘2008-9 में जब हम सोशल मीडिया पर थे तो मनोरंजन अलग चीज थी और राजनीति अलग. लेकिन अब ऐसा नहीं है. मौजूदा दौर में जो हमारा ह्यूमर है, मनोरंजन है, चुटकुलेबाजी है वो सब पॉलिटिकल हो गया है. अब हमारे मन का हर भाव राजनीति की गैलरी से होकर जाता है. विचारों की बहुलता जाती रही है. उनके साथ अभिव्यक्ति का भी ध्रुवीकरण हो गया है.’ विनीत इसमें यह भी जोड़ते हैं कि राजनीतिकरण और राजनीतिक जागरूकता दो अलग-अलग बातें हैं और बीते कुछ समय के दौरान सोशल मीडिया और नतीजतन लोगों में फैली कड़वाहट एक बड़ी हद तक इस फर्क को न समझ पाने का भी नतीजा है.
कई जानकार मानते हैं कि राजनीति के सोशल मीडिया में दाखिल होने के बाद वहां अभिव्यक्ति का ध्रुवीकरण होना देर-सवेर तय था क्योंकि बीते कुछ समय से देश में उस तरह की राजनीति का ही बोलबाला है जो ध्रुवीकरण पर फलती-फूलती है . जानकारों के मुताबिक यह ध्रुवीकरण सोशल मीडिया पर भी राजनेताओं को फायदा पहुंचाता है क्योंकि इससे उन्हें लाइक, शेयर और फॉलोअर्स मिलते हैं जिससे उनका कद बढ़ता है और इसका फायदा उन्हें अपने पेशे यानी राजनीति में मिलता है. देखा जाए तो सोशल मीडिया पर फॉलोअर्स की संख्या भी एक तरह की शक्ति का प्रतीक है और यह बात सिर्फ राजनीति के मामले में लागू नहीं होती. जैसा कि विनीत कुमार कहते हैं, ‘जो ट्विटर और फेसबुक पर जितना ज्यादा एक्टिव है और उसके जितने ज्यादा फॉलोअर्स हैं वो आजकल अपनी प्रोफेशनल लाइफ में भी उतना ही ज्यादा सक्सेसफुल माना जाता है.’
पिछले कुछ समय के दौरान सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में दक्षिणपंथी, राष्ट्रवादी और लोकप्रियतावादी ताकतों के उभार में बढ़ोतरी हुई है. यह बात तमाम शोध भी साबित कर चुके हैं कि दक्षिणपंथी राजनीति भय और तनाव पर फलती-फूलती है. प्रदीपिका सारस्वत कहती हैं, ‘इसी तरह लोकप्रियतावादी राजनीति के लिए जनता को दो खेमों में बांटा जाना ज़रूरी है – सिद्धांतों पर चलने वाले और भ्रष्ट कुलीन लोग. सोशल मीडिया पर किसी भी ख़बर या विचार को बिना किसी जवाबदेही या विश्वसनीयता तय किए फैलाया जा सकता है, इसलिए वो ऐसी ताक़तों के लिए सबसे मुफ़ीद, सस्ता और कारगर हथियार बनकर सामने आता है. यहां अक्सर तर्क और तथ्यों की बात नहीं की जाती बल्कि डर और भावनात्मक बातों के ज़रिए लोगों को बरगलाया जाता है.’ इस सबका नतीजा बढ़ते अतिवाद के रूप में सामने आता है. अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से गुज़रते हुए हम यह सब हर वक्त होते देख रहे हैं.
ब्रिटिश अखबार द गार्जिअन में आइरिश अकादमिक और पत्रकार जॉन नॉटन लिखते हैं कि अब सोशल मीडिया चुनावों को प्रभावित करने वाला एक उपयोगी औज़ार भर नहीं रह गया है. उनके मुताबिक यह ऐसी ज़मीन बन गया है जिसकी चोटियां और घाटियां हमारे रोज़मर्रा के संवाद तय करती हैं और जिसके दुरुपयोग की संभावनाओं की कोई सीमा नहीं है.
कुछ जानकारों का मानना है कि सोशल मीडिया पर आए इस बदलाव की जड़ें राजनीति के अलावा मीडिया से भी जुड़ी हैं क्योंकि सोशल मीडिया को वह भी प्रभावित कर रहा है. जनसत्ता के संपादक रहे और इन दिनों जयपुर के हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति ओम थानवी कहते हैं, ‘सोशल और अनसोशल हर तरह के लोग समाज में हैं, लेकिन ये कहना होगा कि बीते कुछ समय से (मीडिया में) थोड़ी सी अनसोशल एक्टिविटी बढ़ गई है बल्कि कहना चाहिए कि स्पॉन्सर्ड एक्टिविटी बढ़ गई है.’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘इसकी वजह यह है कि मीडिया खुद भी पेड एक्टिविटी में शामिल हो गया है. पेड न्यूज का दायरा बढ़कर पेड पार्टिसिपेशन तक आ गया है. आपको पता ही नहीं चलता कि कौन असली है और कौन नकली.’ उनके मुताबिक इसका नतीजा यह है कि कुछ भी कहा जा सकता है.
सवाल यह है कि इस समस्या का समाधान कैसे निकले? ओम थानवी कहते हैं, ‘यह कोई मुश्किल काम नहीं है. लेकिन, सोशल मीडिया के लिए कोई अथॉरिटी ही नहीं है जो इसे चेक कर सके.’ उनके मुताबिक यह चिंता की बात है और ‘पेड पार्टिसिपेशन’ को आपराधिक गतिविधि घोषित किया जाना चाहिए तभी इस किस्म के पतन और फूहड़पन को रोका जा सकता है. उधर, विनीत कुमार का मानना है कि समाधान इसके भीतर से ही निकलेगा. वे बताते हैं कि लोगों का एक वर्ग अब आम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स से दूर जा रहा है और ऐसे विकल्पों को तरजीह दे रहा है जिन तक कुछ चुनिंदा लोगों की पहुंच होती है और जिन पर आने की शर्त ही स्वस्थ बहस और संवाद होती है.
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