प्रेमचंद की तरह भीष्म साहनी ने भी समाज को उसी बारीकी से देखा-समझा था लेकिन, यह प्रेमचंद से आगे का समाज था इसलिए उनकी लेखनी ने विरोधाभासों को ज्यादा पकड़ा
कविता | 11 जुलाई 2020 | फोटो: स्क्रीनशॉट
आजकल महानगरों के कुछ ‘अतिकुलीन’ परिवारों में चलन शुरू हुआ है कि बच्चे अपने अभिभावकों को मम्मी-पापा कहने के बजाय उनका नाम लेते हैं. इस चलन के पीछे तर्क है कि एक उम्र के बाद मां-बाप बच्चों के दोस्त हो जाने चाहिए और वे जब दोस्त होंगे तो संबोधन भी बदल जाएगा. हो सकता है यही तर्क हो या इससे आगे की बात लेकिन, यह जानकारी आम पाठकों को हैरान करती है कि भीष्म साहनी की बेटी कल्पना अपने पिता को हमेशा भीष्म जी कहती थीं और इसपर कभी भीष्म साहनी को ऐतराज नहीं हुआ. दरअसल यही सहजता इस महान लेखक की काबिलियत थी और इसी ने उन्हें अपने और दूसरे इंसानों के अंतर्मन में छिपी कुरूपताओं और विरोधाभासों से नजर मिलाने की समझ दी थी. ऐसा न होता तो ‘तमस’ जैसी कृति कभी न रची जाती.
भीष्म साहनी को 1975 में तमस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था. इसी वर्ष वे पंजाब सरकार के शिरोमणि लेखक पुरस्कार से सम्मानित किए गए . उन्हें 1980 में एफ्रो-एशिया राइटर्स एसोसिएशन का लोटस अवॉर्ड और 1983 में सोवियत लैंड नेहरु अवॉर्ड दिया गया था. 1986 में भीष्म साहनी को पद्मभूषण अलंकरण से भी विभूषित किया गया. इन बड़े पुरस्कारों और सम्मानों की सूची बस यह बताने के लिए है कि पाठकों की तारीफें मिलने के साथ-साथ बतौर लेखक समाज-सरकार भी उन्हें सराहते रहे हैं फिर भी उनकी सहजता-सरलता कभी कम नहीं हुई. शायद इसी कारण उन्होंने जिस भी विधा को छुआ, कुछ अनमोल उसके लिए छोड़ ही गए. कहानियों में चाहे वह ‘चीफ की दावत’, हो या फिर ‘साग मीट’, उपन्यास में ‘तमस’ और नाटकों में ‘हानूश’ और ‘कबिरा खड़ा बजार में’ जैसी अनमोल कृतियां.
भीष्म साहनी के व्यक्तित्व की सहजता-सरलता वाले आयाम पर उनकी बेटी कल्पना साहनी की वह बात बेहद दिलचस्प है जो उन्होंने अपने पिता के आखिरी उपन्यास ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के विमोचन के मौके पर कही थी. यहां उन्होंने बताया, ‘वो जो कुछ भी लिखते थे सबसे पहले मेरी मां को सुनाते थे. मेरी मां उनकी सबसे पहली पाठक और सबसे बड़ी आलोचक थीं. इस उपन्यास को भी मां को सौंपकर भीष्म जी किसी बच्चे की तरह उत्सुकता और बेचैनी से उनकी राय की प्रतीक्षा कर रहे थे. जब मां ने किताब के ठीक होने की हामी भरी तब जाकर उन्होंने चैन की सांस ली थी.’
‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ सन 2000 में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ था और यह एक अद्भुत संयोग है कि उसी वक़्त इस प्रकाशन से दो और बड़े लेखकों के उपन्यास प्रकाशित हुए, निर्मल वर्मा का ‘अंतिम अरण्य’ और कृष्णा सोबती का ‘समय सरगम’. ध्यान देने वाली बात यह थी कि जहां अन्य दो लेखकों के उपन्यास के केंद्र में उनकी वृद्धावस्था और उसके एकांतिक अनुभव थे, वहीं भीष्म जी की किताब के केंद्र में एक प्रेमकथा थी. तब अंतर्धार्मिक प्रेम और विवाह के लिए ‘ऑनर किलिंग’ पहली बार किसी उपन्यास या कहें कि एक बड़े कद के लेखक की किताब का केंद्रबिंदु बनी थी.
भीष्म जी के आखिरी उपन्यास में तमस वाली वही साम्प्रदायिकता थी और उससे लड़ते हुए कुछ असहाय और गिनेचुने लोग, पर कथा के विमर्श का फलक कुछ नया सा था. यहां न सोबती जी के उपन्यास का केंद्र – मृत्यु से लड़ने का वह महान दर्शन स्थापित हो रहा था, न निर्मल जी के लेखन में पाया जाने वाला आत्मचिंतन. ‘नीलू, नीलिमा, नीलोफर’ के केंद्र में तत्कालीन समाज और उसकी जटिलताएं और उनसे पैदा होने वाली समस्याएं थीं. दरअसल यह भीष्म जी के लेखन की विशेषता थी जहां वे जीवन की सच्चाई से आंख मिलाते थे और उनके माध्यम से पाठक भी ऐसा कर पाते थे.
समाज को इस तरह देखने का काम मुंशी प्रेमचंद ने भी अपनी रचनाओं में किया लेकिन भीष्म साहनी का देखा-समझा समाज प्रेमचंद के आगे के समय का समाज है. साथ ही भीष्म जी ने अपनी भाषा में वैसी ही सादगी और सहजता रखी जो रचनाओं को बौद्धिकों के दायरे निकालकर आम लोगों तक पहुंचा देती है. यदि विष्णु प्रभाकर की अद्भुत रचना ‘आवारा मसीहा’ के बजाय तमस को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला तो इसकी एक वजह इस उपन्यास की वह भाषा भी होगी जिससे विषय की मार्मिकता लोगों को दिलों तक पहुंच जाती है. आलोचक नामवर सिंह ने भीष्म साहनी के लिए कहा था, ‘मुझे उनकी प्रतिभा पर आश्चर्य होता है कि कॉलेज में पढ़ते हुए वे लिखने, प्रगतिशील लेखक संघ से भी जुड़ने का समय निकाल लेते थे. मैं यह नहीं कहता कि उनकी सभी रचनाओं का स्तर ऊंचा है लेकिन अपनी हर रचना में उन्होंने एक स्तर बनाए रखा… हैरानी होती है यह देख कर कि रावलपिंडी से आया हुआ आदमी जो पेशे से अंग्रेज़ी का अध्यापक था और जिसकी भाषा पंजाबी थी, वह हिंदी साहित्य में एक प्रतिमान स्थापित कर रहा था.’
यह भी एक दिलचस्प बात है कि कहानी-उपन्यास में प्रेमचंद के साथ खड़े भीष्म साहनी जब नाटक लिखते हैं तो फिर उनके समकालीन और पहले के लेखकों में ढूंढ़ने पर भी कोई एक नाम उनके साथ खड़ा नजर नहीं आता. बाद में जरूर मोहन राकेश ने नाटक लिखे थे लेकिन इस विधा के इतने प्रभावशाली होने के बावजूद भीष्म जी के किसी समकालीन लेखक ने नाटक लेखन में हाथ नहीं आजमाया. भीष्म साहनी के पहले नाटक ‘हानूश’ से जुड़ा भी एक दिलचस्प वाकया है. यह लिखने के पहले तक वे हिंदी के प्रतिष्ठित कहानीकार-उपन्यासकार बन चुके थे. पर जब उन्होंने पहली बार नाटक लिखा तो इसे लेकर उनके मन में कई तरह के संदेह आ गए. इसी वजह से वे ‘हानूश’ को लेकर अपने बड़े भाई और फिल्म अभिनेता बलराज साहनी के पास जाते थे, और वहां से खारिज होकर हरबार मुंह लटकाए वापस आते थे. बाद में उन्होंने यह नाटक एक थियेटर निर्देशक को दिया लेकिन उसने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. आखिरकार भीष्म जी ने वह किताब मूल रूप में ही प्रकाशित करवाई. उन्होंने हानूश की भूमिका में इन सब वाकयों का मजे के साथ वर्णन किया है.
वैसे भीष्म साहनी के मन-मस्तिष्क में ‘तमस’ के लेखन बीज पड़वाने में उनके बड़े भाई बलराज साहनी का भी योगदान था. एक बार जब भिवंडी में दंगे हुए तो भीष्म साहनी अपने बड़े भाई के साथ यहां दौरे पर गए थे. यहां जब उन्होंने उजड़े मकानों, तबाही और बर्बादी का मंजर देखा तो उन्हें 1947 के दंगाग्रस्त रावलपिंडी के दृश्य याद आ गए. भीष्म साहनी फिर जब दिल्ली लौटे तो उन्होंने इन्हीं घटनाओं को आधार बनाकर तमस लिखना शुरू किया था. ‘तमस’ सिर्फ दंगे और कत्लेआम की कहानी नहीं कहता. वह उस सांप्रदायिकता का रेशा-रेशा भी पकड़ता है जिसके नतीजे में ये घटनाएं होने लगती हैं. उतनी भयावह न सही लेकिन आज हमारे आसपास जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं वे इस उपन्यास और भीष्म साहनी जैसे लेखकों को और प्रासंगिक बना देती हैं.
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