आज वैशाख पूर्णिमा है. भारतीय परंपरा में यह दिन पूरी तरह से बुद्ध को समर्पित है सो इसे बुद्ध पूर्णिमा कहा जाता है.
अव्यक्त | 26 मई 2020 | फोटो: स्क्रीनशॉट
आज वैशाख महीने की पूर्णिमा है. मान्यता है कि आज ही के दिन मां महामाया के गर्भ से शाक्यमुनि राजकुमार गौतम का जन्म हुआ था. यह भी संयोग माना जाता है कि इसके ठीक 35 वर्ष बाद इसी तिथि को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और इस तरह बुद्ध के रूप में उनका दूसरा जन्म हुआ. और एक और संयोग ऐसा कि 80 वर्ष की अवस्था में इसी तिथि को उन्होंने शरीर भी त्यागा. इस तरह भारतीय परंपरा में यह दिन पूरी तरह से बुद्ध को समर्पित हो गया. इसे बुद्ध पूर्णिमा ही कहा जाने लगा.
यह भी एक संयोग है कि बुद्धत्व प्राप्ति से पहले गौतम के समस्त चिंतन के केन्द्र में भी जन्म और मृत्यु का यही रहस्य जान लेने की उत्कंठा थी. दुख के इस कुचक्र से छूट निकलने की बेचैनी थी. हालांकि भारत की अति-प्राचीन ज्ञान परंपरा में जन्म और मृत्यु पर पहले से ही अथाह चिंतन होता चला आ रहा था. लेकिन बुद्ध ने उस चिंतन को अपनी आत्म-साधना और आत्मानुभूति की कसौटी पर कसने की कोशिश की. किसी भी विचार को सत्य मानने से पहले उसे इस कसौटी पर कसने की परंपरा यहां पहले से भी थी. तैत्तिरीय उपनिषद् का ऋषि अपने शिष्यों से कह चुका था – ‘यान्यनवद्यानि कर्माणि. तानि सेवितव्यानि. नो इतराणि. यान्यस्माकं सुचरितानि. तानि त्वयोपास्यानि…’ यानी हमने जो तुम्हें शिक्षा दी उसे ही पूरी तरह अनुकरणीय सत्य नहीं मान लेना. उसे अपने विवेक की कसौटी पर कसना. फिर तय करना कि यह अनुकरणीय है या नहीं.
बुद्ध वास्तव में ऐसे किसी भी सत्य को स्वयं परखने और हासिल कर लेने की आत्मप्रेरित जिद पर थे. और जब उन्हें सचमुच इसका ज्ञान अपने ही शरीर और मन की संवेदनाओं की अनुभूति करते हुआ, तो उन्होंने सबसे पहली बात यही कही कि न तो मुझे किसी और ने मुक्ति दी है और न ही मैं किसी दूसरे को मोक्ष देने की बात करता हूं. यह सबको अपनी ही अनुभूति से प्राप्त होगी. धोतक नाम के एक जिज्ञासु को उन्होंने कहा था – नाहं गमिस्सामि पमोचनाय, कथङ्कथिं धोतक कञ्चि लोके. धम्मं च सेट्ठं अभिजानमानो, एवं तुवं ओघमिमं तरेसी… यानी हे धोतक, मैं किसी संशयी को मुक्त करने नहीं जाता. जब तुम इस श्रेष्ठ धर्म को स्वयं अपने अनुभव से जान लोगे, तो अपने आप इस बाढ़ से पार हो जाओगे. तुम्हारे मन का संशय न तो किसी व्यक्ति या विचार के प्रति अंधश्रद्धा से दूर होगा और न तर्क-वितर्क से. यह प्रत्यक्ष अनुभूति तो तुम्हें स्वयं करनी पड़ेगी. स्वयं को देखना होगा, पहचानना होगा.
इस तरह बुद्ध ने इस रहस्य को जान लेने के सूत्र को सर्वसुलभ कर दिया. अब कोई भी बुद्ध बन सकता था. इस तरह आज के शब्दों में कहें तो उन्होंने मुक्ति या मोक्ष का लोकतंत्रीकरण कर दिया. उनके इस सकारात्मक अनुभव मात्र से कई पुरानी मान्यताएं और रुढ़ियां अपने आप ध्वस्त होने लगीं. जैसे- भांति-भांति के ऐसे ईश्वरों की कल्पना जो चढ़ावा रूपी रिश्वत से प्रसन्न होकर सकाम भक्तों की उचित-अनुचित इच्छाएं पूरी करता हो. जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करता हो. जिसे निरीह जीवों का ताजा खून अच्छा लगता हो. ऐसी मान्यताएं अपने-आप टूटने लगीं. गांधी जी ने ठीक ही लिखा है – ‘बुद्ध ने असली ईश्वर को फिर से उसके उचित स्थान पर बिठा दिया, और जिस अनाधिकारी ईश्वर ने वह सिंहासन हथिया लिया था, उसे पदच्युत कर दिया. उन्होंने फिर से यह कहा कि विश्व का नैतिक शासन शाश्वत है और अपरिवर्तनीय है. उन्होंने निःसंकोच कहा कि प्रकृति का यह नियम ही ईश्वर है’ (यंग इंडिया, 24 नवंबर, 1927)
लेकिन बुद्ध ने इसके लिए कहीं भी नकारात्मक भाषा का इस्तेमाल नहीं किया. अपना पंथ चलाने के लिए उन्होंने स्वयं कोई अतिरिक्त राजनीतिक प्रयास नहीं किया. अप्रिय भाव में किसी वेद-उपनिषद् पर कोई तात्विक टीका-टिप्पणी नहीं की. एक बुद्ध हो चुका व्यक्ति जिसके हृदय में करुणा की अनंत धारा बह रही हो, वह क्यों किसी खंडन-मंडन में उलझेगा. वह सप्रयास और रणनीतिक रूप से तो ऐसा हरगिज नहीं करेगा. वे तो बस अपने धर्मबोध की आनंदलहर में मौन होकर विचरण करने लगे थे. समर्थ रामदास ने इस बारे में कहा- ‘कलि लागि झाला असे बुद्ध मौनी’ (यानी घोर कलियुग था इसलिए बुद्ध मौन हो गए).
बुद्ध ने आत्मा और ब्रह्म पर कोई शास्त्रार्थ या बहस नहीं की. वे प्रायः ध्यानमग्न रहते और मौन रहते. कोई कुछ पूछता तो कारुणिक स्वर में उनके मुंह से धर्म की उनकी स्वयं की अनुभूतियां ही निकलतीं. और वह भी ऐसे शीतल सूत्रवाक्य के रूप में जैसे कि वे प्यासे को पानी पिलाने का प्रयास कर रहे हों. उनका स्वर और उनके शब्द ऐसे होते, जैसे वे भयावह पीड़ा झेल रहे किसी रोगी को दवा दे रहे हों. उनके लिए न कोई जन्म से ब्राह्मण रह गया था, न वेश-भूषा से श्रमण. राजा या रंक जो सामने आता उसे वे समदर्शी की तरह एक ही दृष्टि से देखते और बरतते.
अंगणिक भारद्वाज नाम के एक जन्मना ब्राह्मण के साथ उनके एक ऐसे ही कारुणिक संवाद से जुड़ी कथा है. बुद्ध के धर्मोपदेश को अपनी अनुभूति पर उतारकर जब स्वयं भारद्वाज को भी बोधि प्राप्त हुई, तो उसके मुंह से निकला – ब्रह्मबंधु पुरे आसिं इदानि खोऽम्हि ब्राह्मणो. तेविज्जो न्हातको चम्हि सोत्थियो चम्हि वेदगू. यानी पहले तो ब्राह्मणी माता के कोख से जन्मने के कारण नाममात्र का ब्राह्मण था लेकिन अब तो नया जन्म हो गया. अब ब्रह्म का शुद्ध जीवन जीता हूं, इसलिए ही मायने में वेदज्ञ ब्राह्मण हूं.
बुद्धवाणी से जुड़ा पालि भाषा का संपूर्ण साहित्य 52,602 पृष्ठों और 74,48,248 शब्दों का माना जाता है. लेकिन इन सबमें ‘धम्मपदं’ को बहुत ऊंचा और विशेष माना गया है. इसकी पालि भी बहुत सरल और मीठी है. इसकी 423 गाथाओं या श्लोकों में ही बुद्ध के समस्त उपदेशों का सार मिल जाता है. बुद्ध के उपदेशों पर जितना भी तात्विक और दार्शनिक विमर्श देखने को मिलता है, वह उनके बहुत बाद हुआ. नागसेन, बुद्धघोष, अनिरुद्ध आचार्य, नागार्जुन और मैत्रेयनाथ जैसे विद्वानों और दार्शनिकों ने बुद्ध के दार्शनिक पक्ष को समाज के सामने रखा. ये ग्रंथ हमारी ज्ञान-परंपरा के लिए अमूल्य निधि की तरह हैं. लेकिन बुद्ध की कसौटी पर ये सारे विद्वान दार्शनिक भी स्रोतापन्न (जिन्हें सत्य की झलक दिख गई है लेकिन अभी मुक्ति नहीं मिली) बन गए हों, या अर्हत (सम्मानित या पूज्यनीय) और बुद्ध बन गए हों, ऐसा नहीं माना जा सकता. बुद्ध की नज़रों में शास्त्रीय या दार्शनिक ज्ञान एक सीमा तक ही लाभ दे सकते थे. हमारे यहां अमृतबिन्दु या ब्रह्मबिन्दु उपनिषद् में कहा गया था – ग्रन्थमभ्यस्य मेधावी ज्ञानविज्ञानतत्परः. पलालमिव धान्यार्थी त्यजेद् ग्रन्थमशेषतः॥ (यानी जो बुद्धिमान होते हैं वे शास्त्रों से ज्ञान हासिल कर लेने के बाद उसे उसी तरह छोड़ देते हैं, जैसे धान से चावल निकालने के बाद भूसे को फेंक दिया जाता है).
इसी बात को बुद्ध ने ‘मझ्झिम निकाय’ में नौका या बेड़ा का उपमा देकर समझाया. उन्होंने कहा कि यदि कोई मनुष्य नदी पार करने के लिए नौका बनाता है और नदी पार करने के बाद भी उसे पीठ पर लादे चलता है, तो उसे समझदार तो कतई नहीं कहा जाएगा. उन्होंने अपने धर्मोपदेशों को भी ऐसी ही नाव की संज्ञा दी थी. अंत में तो बुद्ध ने अपने बारे में इतना तक कह दिया – ‘दिट्ठिगतं ति खो वच्छ, अपनीतमेतं तथागतस्स.’— हे वत्स, तथागत की सारी दार्शनिक मान्यताएं दूर हो गई हैं यानी वे दार्शनिक मान्यताओं से ऊपर उठ गए हैं. और तुम भी किसी दार्शनिक मान्यता में न जकड़ जाओ.
बुद्ध ने कारुणिक स्वर में कहा – दिट्ठिगहनं- दार्शनिक मान्यता घना जंगल है.
दिट्ठिकंतारं – यह अनंत मरुस्थल है.
दिट्ठिविसूकं – यह खेल है, दिखावा है.
दिट्ठिविफ्फन्दितं – यह फड़कन है, तड़पन है.
दिट्ठिसञ्ञोजनं – दार्शनिक मान्यता फंदा है, बंधन है.
मञ्ञितं, भिक्खु, रोगो – मान्यता रोग है भिक्खु.
मञ्ञितं गण्डो – मान्यता फोड़ा है.
न परिमुच्चति दुक्खस्माति वदामि – ऐसी मान्यताओं में जकड़ा हुआ व्यक्ति दुःख से मुक्त नहीं होता, यही मैं कहता हूं.
इसलिए जब कोई व्यक्ति उनसे आत्मा, परलोक, विश्व का मूल कारण आदि दार्शनिक बातों के बारे में पूछता, तो वे इसे व्यर्थ की चर्चा कह कर टाल देते. वे कारुणिक होकर कहते कि जिस व्यक्ति की छाती में तीर घुसा हुआ है और खून बह रहा है, उसका पहला काम तीर को बाहर निकालना है. ‘तीर’ को बनानेवाला कौन है, उसे किसने चलाया, वह किस चीज का बना हुआ है इत्यादि प्रश्नों की चर्चा में यदि वह पड़ता है, तो उसे मूर्ख ही कहा जाएगा.
मुक्त मनुष्य ऐसे ही होते हैं. यह इस बात से भी जाहिर होता है कि बुद्ध और वर्द्धमान महावीर एक-दूसरे के लगभग समकालीन ही थे. दोनों का विहार-क्षेत्र भी लगभग एक ही था. राजगृह और वैशाली दोनों के ही प्रमुख केन्द्र थे. उनके अनुयायियों में परस्पर छींटाकशी भी चलती रहती थी. लेकिन कहीं भी ऐसा प्रमाण नहीं मिलता कि स्वयं बुद्ध ने महावीर के प्रति या महावीर ने बुद्ध के प्रति कोई व्यक्तिगत या वैचारिक टीका-टिप्पणी की हो.
बुद्ध को जिस साधना से बोधि की प्राप्ति हुई उसे विपश्यना कहते हैं. विपश्यना या विपस्सना यानी आत्मनिरीक्षण के लिए अपने भीतर की ओर देखना. बुद्ध ने इस विद्या को भी अपना आविष्कार या उपलब्धि नहीं माना. उन्होंने बस इतना कहा कि मुझसे पहले के जिन बुद्धों ने, अर्हतों ने जिस तरह स्वयं को जाना था, मैंने भी उसी विधि से स्वयं को जान लिया है. मुझे उस तरीके का ज्ञान हो गया है. तुम चाहो तो तुम्हें भी मैं वह तरीका बता सकता हूं. जिस तरह मुझमें यह मैत्री जागी है, वैसे ही तुममें भी यह मैत्री जाग जाए. तुम भी बुद्ध बन जाओ. और फिर तुम भी बुद्ध बनने का यह मार्ग सबको बताओ.
आज हम अपनी मान्यताओं का शिकार होकर, अपनी हड़बड़ाहट में बुद्ध को एक राजनीतिक कार्यकर्ता की तरह प्रस्तुत करने लगते हैं. इससे उस ‘कारुण्यावतार’ की भेदरहित करुणा का अपमान ही होता है. विनोबा ने एक स्थान पर लिखा है – ‘कई लोगों का मानना है कि बुद्ध ने जातिभेद-निरसन (जाति व्यवस्था खत्म करने) का कार्य किया. परन्तु ऐसा हो तो वह बुद्ध की असफलता ही मानी जाएगी क्योंकि आज ढ़ाई हजार वर्ष के बाद भी जातिभेद कायम है. इसलिए यह मानना सही नहीं है. ऊंच-नीचपन न हो, केवल गुणों की ओर ध्यान दें, ये बातें बुद्ध ने कहीं. परन्तु जातिभेद-निरसन उनका अवतार कार्य नहीं कहा जा सकता. …हां, यह कह सकते हैं कि अन्य संतों की अपेक्षा बुद्ध इस विषय में तीव्रतर थे. लेकिन वैसा उनका उपदेश था, उनका कार्यक्रम नहीं था.’ इसी तरह उन्होंने शराब और मांसाहार से भी बचने की बात कही. विवेकानन्द ने बुद्ध के बारे में कहा है- ‘मनुष्य और मनुष्य, या मनुष्य और पशु के बीच की असमानता के विरुद्ध उन्होंने आपत्ति की. उनका उपदेश था कि सब जीव समान हैं. वे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने मद्यनिषेध के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया.’
सच ही है, जब कोई ऐसा व्यक्ति महामानव की तरह समाज को मुक्ति का मार्ग दिखाता है तो हम सब उसका अतिशयोक्तिपूर्ण महिमामंडन भी कर बैठते हैं. उसके साथ चमत्कारों के प्रसंग भी जोड़ बैठते हैं. ऐसा बुद्ध के साथ भी हुआ. ईसा, कबीर और नानक के साथ भी ऐसा हुआ. हमने उनका भी प्रचलित अर्थों में ही दैवीकरण करने की कोशिश की. हमारे जीवन के दुखों और हमारी दुर्बलताओं को देखते हुए यह स्वाभाविक ही जान पड़ता है. लेकिन बुद्ध जिस अनंत मैत्री और करुणा से भर चुके थे, उससे उनका सारा राग-द्वेष समाप्त हो चुका था. हम उन्हें ‘भगवान बुद्ध’ कहते हैं. ‘भगवान’ कौन होता है इस पर स्वयं बुद्ध ने कहा था – ‘भग्ग रागो, भग्ग दोसो, भग्ग मोहोति भगवा।’ यानी जिसने अपने राग भग्न कर लिए, द्वेष भग्न कर लिए, मोह भग्न कर लिए, वह भगवान है. यानी इस अवस्था को प्राप्त कर कोई भी व्यक्ति भगवान बन सकता है.
वे गीता के शब्दों में ‘स्थितप्रज्ञ’ हो चुके थे. गीता के ही शब्दों में कहें तो उन्हें ‘ब्रह्म-निर्वाण’ का साक्षात्कार हो चुका था. इन अर्थों में उन्होंने देवत्व प्राप्त कर लिया था. उन्होंने स्वयं कह भी दिया था – ‘अयं अन्तिमा जाति नत्थिदानि पुनब्भवोति’ यानी यह अंतिम जन्म है. अब पुनर्जन्म नहीं होगा. पुनर्जन्म नहीं होगा तो पुनर्मृत्यु भी नहीं होगी. इस तरह जन्म और मृत्यु पर उन्हें सहज ही विजय प्राप्त हो गई थी.
आज हम बुद्ध की जयंती मना रहे हैं. उनकी बुद्धत्व-प्राप्ति और महापरिनिर्वाण का दिन भी आज ही मना रहे हैं. पहला जन्म तो मां के गर्भ से ही होता है. इसी से जुड़ी घटना है कि उनकी माता महामाया उन्हें जन्म देने के सातवें दिन ही चल बसी थीं. पिता शुद्धोधन की दूसरी पत्नी और महामाया की छोटी बहन महाप्रजापति गौतमी ने ही बुद्ध को पाला-पोसा.
पति की मृत्यु के बाद गौतमी ने बुद्ध हो चुके गौतम से भिक्षुणी होने की अनुमति मांगी और उनके शिष्य आनन्द पहल से उन्हें इसमें सफलता भी मिली. माता होते हुए भी वे बुद्ध की शिष्या बनीं. गौतमी के ही बहाने फिर पूरे स्त्री समुदाय को प्रव्रज्या (संघ में दीक्षा) का अवसर मिला. माना जाता है कि 120 वर्ष की आयु में गौतमी ने परिनिर्वाण प्राप्त किया था. राग-द्वेष से ऊपर उठ चुके बुद्ध अपनी इस अतिवृद्ध माता का बड़ा आदर करते थे और उनके शारीरिक स्वास्थ्य का भी ख्याल रखते थे. एक बार वे बीमार पड़ीं. संघ के नियम के अनुसार भिक्षु उनकी सेवा में नहीं जा सकते थे. बुद्ध इस अवस्था में स्वयं ही उनकी सेवा में उपस्थित हुए और उपदेश के माध्यम से उन्हें सान्त्वना दी. इसपर गौतमी कहना था – ‘बहूनं वत अत्थाय माया जनयि गोतमं’ यानी बहुतों के कल्याण के लिए ही माया ने गौतम को जन्म दिया है. एक छोटी बहन का अपनी स्वर्गीया बहन के लिए और एक मौसी-माता का अपने बेटे के लिए इनसे बढ़कर भावपूर्ण शब्द भला क्या हो सकते थे.
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