फादर कामिल बुल्के 26 साल की उम्र में ईसाई धर्म का प्रचार करने भारत आए थे. लेकिन यहां आकर उन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदी भाषा के लिए खपा दिया
चंदन शर्मा | 17 अगस्त 2021 | फोटो: मनीषा यादव
कहा जाता है कि लॉर्ड थॉमस मैकाले वह शख्स था जिसने 1835 में देसी भाषाओं की जगह अंग्रेजी को भारतीय शिक्षा का मुख्य माध्यम बना डाला. मैकाले के सुझाव पर ही अंग्रेजों ने अपनी भाषा और ज्ञान विज्ञान को भारत पर थोपा. मकसद था कि अगली कुछ पीढ़ियों में भारतीय उन जैसे बन जाएं. मैकाले का मानना था कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान अंग्रेजी और यूरोपीय सभ्यता में निहित है. वह भारतीय भाषा और ज्ञान को दोयम दर्जे का मानता था.
हालांकि मैकाले की इस सोच से भारतीय तो छोड़िए कई यूरोपीय लोग ही सहमत नहीं हुए. वहां के कई ऐसे विद्वानों ने अपनी पूरी जिंदगी यहां के ज्ञान-विज्ञान और भाषा को संवारने में लगा दी. फादर कामिल बुल्के इन्हीं विभूतियों में से एक थे.
इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि मैकाले की शिक्षा और भाषा नीति के लागू होने के ठीक 100 साल बाद कामिल बुल्के पहली बार भारत आए और यहीं के होकर रह गए. हालांकि उन्हें यहां ईसाई धर्म-प्रचार के लिए भेजा गया था. लेकिन यहां आने पर उन्हें भारतीय भाषाओं विशेषकर हिंदी ने ऐसा मोहित किया कि उन्होंने अपना पूरा जीवन हिंदी की सेवा में खपा दिया. बेल्जियम में एक सितंबर 1909 को पैदा हुए फादर बुल्के ने 1950 में भारत की नागरिकता ली थी. हिंदी की अप्रतिम सेवा के लिए उन्हें 1974 में देश का तीसरे सर्वोच्च सम्मान पद्मभूषण तक से नवाजा गया.
मातृभाषा से अटूट प्रेम करने वाले शख्स
फादर कामिल बुल्के ने कहीं लिखा कि जब वे भारत पहुंचे तो उन्हें यह देखकर दुख और आश्चर्य हुआ कि पढ़े-लिखे लोग भी अपनी सांस्कृतिक परम्पराओं से अनजान थे. वे अंग्रेजी बोलना गर्व की बात समझते थे. तब उन्होंने निश्चय किया कि वे यहां की देशज भाषा की महत्ता को सिद्ध करेंगे.
हालांकि कामिल बुल्के का यहां की भाषाओं से यह लगाव अनायास नहीं था. वे अपनी मातृभाषा से भी अटूट प्यार करते थे. इसे उनके मूल देश की कहानी से भी समझा जा सकता है. वे उत्तरी बेल्जियम के रहने वाले थे जहां फ्लेमिश बोली जाती थी. यह डच भाषा का ही स्थानीय संस्करण थी. लेकिन वहां के दक्षिणी प्रदेश में फ्रेंच का दबदबा था, जो बेल्जियम के शासकों और संभ्रांत लोगों की भाषा थी. इस वजह से स्थानीय भाषा और फ्रेंच में अक्सर संघर्ष की स्थिति बनी रहती थी.
कामिल बुल्के जब कॉलेज में थे तो फ्रेंच के इस दबदबे को लेकर वहां एक बड़ा आंदोलन हुआ. उन्होंने इस आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया. इससे न केवल कॉलेज बल्कि पूरे इलाके में एक छात्र नेता के तौर पर उनकी पहचान बन गई थी. उस आंदोलन ने उनके अंदर अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति प्यार की आदत डाल दी. इसी आदत ने भारत आने पर उनके जीवन की दशा-दिशा तय की. उन्होंने जब निश्चय किया कि भारत ही उनकी कर्मभूमि रहेगी तो उन्होंने यहां की भाषा पर अधिकार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी.
बुद्धि से बेहद कुशाग्र कामिल बुल्के ने केवल पांच सालों में न केवल हिंदी बल्कि यहां की सभी उत्तर भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत पर पूरा अधिकार कर लिया. उन्होंने अवधी, ब्रज, पाली, प्राकृत और अपभ्रंश की भी अच्छी जानकारी हासिल कर ली. उन्होंने 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अपनी पीएचडी के लिए शोध प्रबंध अंग्रेजी के बजाय हिंदी में ही लिखा. उनसे पहले देश के सभी विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी के अलावा दूसरी भाषाओं में शोध प्रबंध लिखने का नियम नहीं था. हालांकि वे खुद अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन और ग्रीक भाषाओं में सहज थे. लेकिन उन्होंने अपने गाइड और हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान माता प्रसाद गुप्त से साफ कह दिया कि वे शोध-प्रबंध लिखेंगे तो हिंदी में ही.
हिंदी भाषा के प्रति किसी विदेशी छात्र के इस लगाव ने तमाम लोगों को अचंभित कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि विश्वविद्यालय को अपने नियम बदलने पड़े. इसके बाद ही देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में शोधकर्ताओं को अपनी भाषा में थीसिस जमा करने की अनुमति मिलने लगी.
उनके शब्दकोश लोगों के लिए जरूरी दस्तावेज बन गए
फादर कामिल बुल्के ने तब के बिहार और अब के झारखंड को अपनी कर्मस्थली बनाया था. शुरुआती दिनों में गुमला में गणित पढ़ाने के बाद वे रांची के संत जेवियर्स कॉलेज में हिंदी और संस्कृत के प्रोफेसर बन गए. हालांकि बाद में उन्होंने खुद को पूरी तरह से हिंदी साहित्य और भाषा के लिए समर्पित कर दिया. इसका परिणाम उनके द्वारा रचे गए कई अमूल्य ग्रंथ हैं.
अकादमिक लिहाज से उनकी सबसे मशहूर कृति अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश कही जाती है. आलोचकों के अनुसार यह अपने प्रकाशन के 49 साल बाद भी अंग्रेजी से हिंदी में शब्दों का अर्थ बताने वाला सबसे बढ़िया कोश है. इसे उनकी 30 सालों की हिंदी साधना का जीवंत दस्तावेज भी माना जाता है. यही नहीं, उन्होंने इसके प्रकाशन के 13 साल पहले एक हिंदी-अंग्रेजी शब्दकोश भी तैयार किया था. ये दोनों ग्रंथ एक समय इतने लोकप्रिय हो गए कि लगभग सभी विद्यार्थियों की दराजों में फादर कामिल बुल्के रचित ये ग्रंथ मिल ही जाते थे. ज्यादातर लोग तो उन्हें उनके शब्दकोशों के लिए ही जानते हैं. आलोचकों का मानना है कि उन्होंने इन ग्रंथों के जरिए हिंदी भाषा की जितनी सेवा की उसे बता पाना काफी मुश्किल है.
‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’
यह जानकर आश्चर्य होता है कि किसी ईसाई मिशनरी की सर्वश्रेष्ठ कृति हिंदू देवता राम से संबंधित हो सकती है. लेकिन यह सच है कि ज्यादातर आलोचकों की नजर में फादर कामिल बुल्के रचित ‘रामकथा : उत्पत्ति और विकास’ उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति है. यूं तो उन्होंने इस विषय पर ही अपनी पीएचडी थीसिस जमा की थी. लेकिन इस विषय पर वे बाद में 18 साल तक काम करते रहे. इस ग्रंथ के बारे में उनके गुरु और हिंदी के प्रसिद्ध विद्वान डॉ धीरेंद्र वर्मा ने लिखा, ‘इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है. वास्तव में यह शोध पत्र अपने ढंग की पहली रचना है. हिंदी क्या किसी भी यूरोपीय या भारतीय भाषा में इस प्रकार का कोई दूसरा अध्ययन उपलब्ध नहीं है.’
राम के बारे में फादर कामिल बुल्के लिखते हैं कि वे वाल्मीकि के कल्पित पात्र नहीं बल्कि एक इतिहास पुरुष थे. उनका मानना है कि उनके बारे में कालक्रम में थोड़ी बहुत चूक हो सकती है, लेकिन वे कोई मिथकीय पात्र नहीं हैं. उन्होंने कई उदाहरणों से साबित किया कि रामकथा अंतरराष्ट्रीय कथा है जो वियतनाम से लेकर इंडोनेशिया तक फैली है. उन्होंने यह भी लिखा कि रामायण केवल धार्मिक साहित्य नहीं बल्कि जीवन जीने का दस्तावेज भी है.
फादर कामिल बुल्के की नजर में हिंदी के सर्वश्रेष्ठ कवि तुलसीदास थे. तुलसीदास की रचनाओं को समझने के लिए उन्होंने अवधी और ब्रज तक सीखी. उन्होंने रामकथा और तुलसीदास और मानस-कौमुदी जैसी रचनाएं तुलसीदास के योगदान पर ही लिखी थीं. उन्होंने ईसाई धर्म के बारे में भी हिंदी में कई ग्रंथ रचे. उन्होंने हिंदी में बाइबिल का अनुवाद भी किया था. यह महान विभूति 17 अगस्त, 1982 को दुनिया से कूच कर गई.
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