कोविड-19 का एक मरीज़

समाज | कभी-कभार

आज देश में लोग कोरोना वायरस से नहीं कल्पनाशून्यता और कुप्रबन्ध से मर रहे हैं

यह हमारी अनिवार्य नश्वरता का मुक़ाम नहीं है बल्कि एक ऐसी मृत्यु है जिसे समय रहते किये गये उचित प्रयासों से टाला जा सकता था

अशोक वाजपेयी | 09 मई 2021 | फोटो: यूट्यूब

अंधेरा-उजाला

यह सोचना कठिन है कि कोरोना प्रकोप जो कहर ढा रहा है उसने सत्ताधारियों की नींद हराम कर दी है. उनकी ओर से जो कार्रवाइयां हो रही हैं उनमें पहले की सी संकीर्णता, अपनी ज़िम्मेदारी दूसरों पर ठेलने की वृत्ति, क्रूरता और असंवेदनशीलता बरक़रार है. जैसे-जैसे ब्योरे सामने आ रहे हैं, वैसे-वैसे यह स्पष्ट हो रहा है कि कोरोना विजय के झूठे अहंकार और सत्ता की सर्वज्ञता के छद्म ने वे सारी चेतावनियां अनदेखी कर दीं जो इस नयी लहर के बारे में विशेषज्ञ दे रहे थे. स्वयं संसद की सलाहकार समिति की विस्तृत रिपोर्ट थी जिसे सरकार ने अनदेखा किया. जिस देश में आक्सीजन का उत्पादन हमारी आवश्यकता से कहीं अधिक था, वहां लोग आक्सीजन के अभाव में रोज़ बड़ी संख्या में मर रहे हैं.

पिछले हफ्ते हम पास के निजी अस्पताल में वैक्सीन की दूसरी डोज़ लेने गये. उसके पिछले दिन वैक्सीन की सप्लाई नहीं हुई थी. उस दिन वह देर से आयी. हम जिस समय गये आम तौर पर भीड़ नहीं होती पर कल वैक्सीन के आने में देरी से हर चीज़ में देर हुई. हमने दो घण्टे इन्तज़ार किया. फिर जब नम्बर आया तो पता चला कि सरकारी पोर्टल काम नहीं कर रहा है. उसे गति पकड़ने में आधा घण्टा लगा. हमने जब अस्पताल साढ़े पांच बजे छोड़ा तो तीसेक लोग तब भी इन्तज़ार कर रहे थे. घर लौटने के कुछ ही समय बाद पत्नी रश्मि की बड़ी बहन उर्मि जी के, लम्बी बीमारी के बाद, अस्पताल में देहावसान की ख़बर आयी. उनका अन्तिम संस्कार बहुत विलंब से हो पाया. एक बार तो श्मशान से घर लौटना पड़ा. सैकड़ों ऐसे चित्र आ रहे हैं जिनमें शव रास्तों के किनारे पड़े हैं और उन्हें चिता के लिए जगह मिलने, अपनी बारी आने का इन्तज़ार है. ऐसी स्थिति, जिसमें मृत्यु के बाद भी देह का अपमान इतने बड़े पैमाने पर हो, हृदयविदारक है. पूरी राजव्यवस्था असहाय, साधारण लोग दारुण स्थिति में और मीडिया सत्ता के साथ अपने झूठ में आश्वस्त नज़र आ रहा है. भारत के साधारण नागरिक का जीवन में और मृत्यु के बाद भी ऐसा अभद्र अपमान अविस्मरणीय है. लोकतंत्र में राजनीति इतनी ओछी और अभद्र पहले कभी नहीं हुई थी. मनुष्यता, लग रहा है, अपने ध्रुवान्त पर पहुँच गयी है.

ऐसे अभागे समय में, फिर भी, कुछ व्यक्ति, कुछ संस्थाएं, कुछ धार्मिक हदारे, कुछ सजग नागरिक हैं जो लोगों की मदद और राहत के लिए सामने आये हैं. वे किसी एक धर्म, एक वर्ण, एक सम्प्रदाय या विचार के लोग नहीं हैं. उनमें सभी तरह के लोग शामिल हैं. उनके प्रति हम सभी को गहरे में कृतज्ञ होना चाहिये कि वे वह सब कर रहे हैं जो सत्ताएं और राजनीति करने में विफल रही है. इस समय के मुंह पर जो कालिख पुती है उसमें इनके नाम और काम सुनहरे अक्षरों में लिखे और दमकते रहेंगे. हम इन्हीं का उदाहरण देकर कहेंगे कि ऐसे काले समय में भारतीय मनुष्यता मरी नहीं थी और इन उजली शबीहों में जीवित और सक्रिय थी.

हममें से कौन बचेगा यह कहना मुश्किल है. पर जो बचेंगे वे इन काले दिनों की तथा-कथा जब कहेंगे तो इन सबका ज़िक्र करना भी नहीं भूलेंगे. इन्हें भूलना अनैतिक होगा.

 जो है सो

जो हत्यारा है उसे हत्यारा कहा जायेगा. जो हिंसक और दंगाई है उसे हिंसक और दंगाई कहा जायेगा. जो अश्लील और अभद्र है उसे अश्लील और अभद्र कहा जायेगा. जो संकीर्ण है उसे संकीर्ण कहा जायेगा. जो अज्ञानी है उसे अज्ञानी कहा जायेगा. जो डंके की चोट पर झूठा है, उसे डंके की चोट पर झूठा कहा जायेगा. जो कायर है उसे कायर कहा जायेगा.

जो मददगार है उसे मददगार कहा जायेगा. जो साहसी है उसे साहसी कहा जायेगा. जो सच बोलता है, वही सच बोलने वाला कहा जायेगा. जो संस्कारी है, उसे संस्कारी कहा जायेगा. जो राहत देगा उसे राहत देने वाला कहा जायेगा. जो भेदभाव से ऊपर रहेगा, उसे निष्पक्ष कहा जायेगा.

यह एक दिवास्वप्न है कि ऐसा होगा. जो यह मानता है कि सच वही होता है जिसका पहले सपना देखा गया हो, जैसे कि मैं, उसे यह दिवास्वप्न कल का सच लगता है. देर-सबेर ऐसा होकर रहेगा. हम कितने ही अधम और नीचे गिर गये हों, हम वापस, हर हालत में, सचाई पर लौटेंगे ही. इस होने को होने से रोकने के लिए कई शक्तियां सदल-बल सक्रिय हैं और उनकी व्याप्ति और प्रभाव बहुत विस्तृत है. बहुसंख्यक लोग, ऐसा लगता है, झूठ में भरोसा करने लग गये हैं और सच कम लोगों को मिल पा रहा है. लेकिन झूठ के राज का खोखलापन भी अब आम लोगों के सामने ज़ाहिर हो रहा है. जिस मरणान्तक हाहाकार से अब हम हर रोज़ घिरे हैं उसकी ज़िम्मेदारी तय करने से साधारण लोग भी बहुत देर बच नहीं सकते. उन्हें समझ में आयेगा ही कि हमारे साथ कितना छल किया गया है और हम ऐसी हालत में पहुंच गये हैं कि जीना और मरना दोनों मुश्किल हो गये हैं. जीने के लिए, बीमारी की दशा में जो तेज़ी से फैल रही है, आक्सीजन की कमी है और मर जायें तो अन्तिम संस्कार के लिए श्मशान या कब्रिस्तान में जगह नहीं है. साधारण और साधनहीन लोगों की जान के साथ भयानक खिलवाड़ हो रहा है. इस सचाई से हम कब तक अपने को अनभिज्ञ या असूचित रखेंगे. यह हमारी अनिवार्य नश्वरता का मुक़ाम नहीं है, यह हम पर पूरी निर्ममता से लादी गयी मृत्यु है जिसे दरअसल हत्या ही कहना चाहिये.

एक वरिष्ठ-डाक्टर मित्र से बात हो रही थी. वे सपरिवार इस समय कोरोना-पीड़ित हैं. उन्होंने कहा कि आज देश में लोग कोरोना वायरस से नहीं आक्सीजन, वैण्टीलेटर, दवाई की कमी के कारण मर रहे हैं जो सत्ता के कुप्रबन्ध और कल्पनाशून्यता के कारण हुआ है. वे यह भी बताते हैं कि दवाइयां कई गुना दामों पर कालाबाजारी में बेची जा रही हैं और इस कालाबाज़ारी में कंपनियों, दूकानों आदि की मिली-जुली भगत है. एक समाज के रूप में भारत का कितना पतन हो गया है और हमारी सत्ता इस पतन का ही एक उग्र संस्करण है.

मरिहै संसारा

कबीर की प्रसिद्ध उक्ति है: ‘हम न मरैं मरिहै संसारा, हमका मिला जियावनहारा.’ इन दिनों, लगता है, स्थिति इन पंक्तियों का एक भयानक कुपाठ हो गयी है. सत्ताधारी राजनेता अपने लाव-लश्कर के साथ सुरक्षित हैं और बाक़ी भारत मर रहा है. मर न भी रहा हो, मरने के लिए छोड़ दिया गया है. इस सचाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि इस समय भारतीय जन, लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गयी सत्ता द्वारा, अपने हाल पर छोड़ दिये गये जन हैं. लोकतंत्र ही हम पर ऐसा कहर बरपा करेगा हमने सोचा नहीं था.

हमें बड़ा नाज़ था अपने एक खुले और नियमित लोकतंत्र होने पर और उचित नाज़ था. संसार भर के मीडिया द्वारा जब हमारी लोकतांत्रिक सत्ता की प्रशंसा होती थी तो हम फूले नहीं समाते थे. इस समय वही मीडिया भारत में सत्ता द्वारा किये गये ग़ैर ज़िम्मेदार कुप्रबन्ध के लिए हमारी थू-थू कर रहा है. हमारे पास उसका प्रतिकार करने के लिए लफ़्फ़ाजी भर है, सचाई नहीं. संसार में जिन अख़बारों की वस्तुनिष्ठता की बड़ी प्रतिष्ठा और ख्याति है, जिनमें न्यूयार्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट, ल मोन्द, गार्डियन आदि शामिल हैं, भारत में कोरोना की दूसरी लहर की मरणान्तक व्याप्ति के लिए कुप्रबन्धन, सर्वज्ञता के अहंकार, विशेषज्ञों की सलाह की अवमानना, समय रहते आवश्यक प्रबन्ध न कर पाने की चूक, राज्यों के चुनाव और रैलियों और कुम्भ मेले में लाखों के जमावड़े को न रोक पाने को दोषी माना जा रहा है. याद नहीं आता कि इधर तीनेक दशकों में भारत की ऐसी निन्दा विश्व मीडिया में, संपादकीयों और रिपोर्टों के माध्यम से, इतने व्यापक पैमाने पर की गयी हो. षड्यन्त्रकारी मानसिकता इस सबको विश्वव्यापी षड्यन्त्र क़रार देकर इसका दंश झुठलाने की चेष्टा कर रही है. पर विश्वगुरु होने का दम्भ चकनाचूर हो गया है. अनेक देशों ने भारत से हवाई उड़ानें बन्द कर दी हैं और सत्ताधारियों द्वारा अहर्निश वंदित अमरीका ने अपने नागरिकों को इस समय भारत न जाने की सलाह दी है. कहां कोरोना से लड़ने में विश्व की सहायता करने में अग्रणी होने का दम्भ लेकर हम मुखर थे, और कहां अब हम कई देशों से टीका, आक्सीजन आदि लेने पर विवश हैं. हमारे लिए यह मुंह छिपाने का समय है.

अब भी समय है जब हम अपने अहंकारी पूर्वग्रहों से अपने को विनम्रता में मुक्त कर वह सब तेज़ी और ज़िम्मेदारी से करें जो अब भी किया जा सकता है ताकि लोगों की जान बच सके. यह लिखते हुए जी बैठ जाता है जब यह ख़बर आती हैं कि उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव बदस्तूर चल रहे हैं जबकि चुनाव ड्यूटी पर लगे 600 से अधिक शिक्षकों की मृत्यु हो चुकी है. क्या किसी योगी को यह याद दिलाने से कुछ होगा कि हमारी परम्परा में याज्ञवल्क्य ने वर्जित मांस खाया था और कहा था कि जीवन सबसे बड़ा धर्म है!

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