पुलिस, मीडिया और धर्म जैसी गल्पकारी शक्तियों के तुमुल में साहित्य के गल्प की शायद ही कोई हैसियत है
अशोक वाजपेयी | 06 मार्च 2022
हमारे समय के गल्प
दशकों पहले मैंने यह प्रश्न उठाया था कि साहित्य अपनी गल्पता स्वीकार करता है लेकिन दूसरे सामाजिक अनुशासन जैसे इतिहास या समाजशास्त्र अपनी गल्पता क्यों नहीं स्वीकार कर पाते? इस मुकाम पर उस प्रश्न को फिर से उठाने की ज़रूर नहीं लगती. लेकिन यह ज़रूर दर्ज़ करना चाहिये कि हमारे समय में कई गल्पकार हो गये हैं और उनमें से कई के गल्प लगता है कि साहित्य के गल्प से अधिक व्यापक और प्रभावशाली हो रहे हैं. इस पर ध्यान इस बात के चलते गया कि दिल्ली दंगों को लेकर जो एक मुकदमा चल रहा है उसमें पुलिस की ओर से कहा गया है, अदालत के सामने, कि दंगे एक हिन्दू राजनेता के भड़काऊ भाषण से नहीं, एक सुनियोजित षड्यन्त्र के कारण हुए. उस समय जो ख़बरें मीडिया में आयीं थीं उनमें एक राजनेता को पुलिस की मौजूदगी में दंगा-भड़काऊ भाषण देते दिखाया गया था और आम समझ यह बनी थी कि दंगे उसके बाद हुए तो उसमें इस भाषण की भी भूमिका थी. इसके बरक़्स पुलिस ने एक गल्प रच दिया है. पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली और उत्तर प्रदेश की पुलिस ऐसे मामलों में काफ़ी गल्प रचती रही है और कई बार सतर्क और ज़िम्मेदार अदालतों ने उसकी निन्दा कर ऐसे गल्पों को ख़ारिज किया है. पर, हमारे समय में, ख़ासकर, हिंसा और दंगों के मामले में हमारी पुलिस लगातार गल्प रचने से बाज़ नहीं आती.
दूसरी गल्पकारी संस्था अब मीडिया का एक बड़ा हिस्सा है. वह रोज़ घटनाओं और वक्तव्यों को लेकर सत्ता के पक्ष में गल्प रचता और विपक्ष के नेताओं को गरियाता रहता है. देश की सीमा में घुसपैठ, कोविड-19 के सिलसिले में प्रबन्ध-कुप्रबन्ध आदि के उसने, पूरी बेशर्मी से, निस्संकोच गल्प रचे हैं और उसकी गल्पता लगातार बढ़ती गयी है. अब तो हालत यहां तक पहुंच गयी है कि हम, ख़ासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को, आज के झूठ क्या हैं यह जानने के लिए ही देख सकते हैं.
तीसरी गल्पकारी शक्ति है धर्म. हर धर्म एक विराट् गल्प, विशाल कल्पना पर आधारित होता है. उसका प्रयत्न अपने गल्प को लगातार उपस्थित रखने का होता है. यह उपस्थिति अनेक ऐसे प्रसंगों को भी जुटाती रहती है जिनसे गल्पता और सचाई के बीच का भेद ख़त्म हो जाता है. धर्म की गल्पता के मामले में साहित्य से सदियों की स्पर्धा जैसी रही है और वे एक-दूसरे से गल्प उधार भी लेते रहे हैं. ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ हमारे दो कालजयी गल्प-ग्रन्थ हैं, गौरवग्रन्थ होने के साथ-साथ.
इस पर बहस हो सकती है कि इन गल्पकारी शक्तियों के तुमुल में साहित्य का गल्प क्या हैसियत रखता है. क्या उसका गल्प अपनी गल्पता स्वीकार करने के कारण अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय हो जाता है? क्या साहित्य का गल्प सचाई और जीवन को अधिक समग्रता से समो या समेट पाता है? क्या साहित्य का गल्प कभी मनुष्य-विरोधी नहीं हो सकता?
अपराध की व्याप्ति
एक ख़बर ने यह बताया है कि इस समय लगभग 5000 व्यक्ति ऐसे हैं जिनके विरूद्ध अपराधिक मामले दर्ज़ हैं पर जो संसद और विधानसभाओं में सांसद और विधायक हैं. जिस रिपोर्ट के हवाले से यह तथ्य सामने आया है वह सर्वोच्च न्यायालय में दाखि़ल एक प्रामाणिक रिपोर्ट है. हालांकि सर्वोच्च न्यायालय इन मामलों की मानीटरिंग कर रहा है और उसने इनके जल्दी निपटारे के निर्देश दे रखे हैं, कम से कम 1899 मामले ऐसे हैं जो पांच साल से ज़्यादा पुराने हैं.
रिपोर्ट में यह भी बताया है गया है कि ऐसे व्यक्तियों के संसद या विधानसभाओं के सदस्य बनने की संख्या लगातार बढ़ रही है जो विधायिकाओं में आपराधिकता की उपस्थिति का प्रमाण हैं. दिसम्बर 2018 में संख्या 4110 थी जो अक्टूबर 20 में यह संख्या 4859 हो गयी. दिसम्बर 2018 के बाद 2775 मामले निपटाये गये पर वे 4122 से बढ़कर 4954 हो गये. रिपोर्ट यह स्पष्ट करती है कि आपराधिक लोग विधायिकाओं में बढ़ रहे हैं. यह सिफ़ारिश की गयी है कि मामलों को निपटाने के लिए सख़्त और तात्कालिक निर्देश जारी किये जायें.
स्थिति की भयावहता और गहरी हो जाती है जब हम नोट करें कि ऐसे आपराधिक मामलों में लिप्त लोगों में से कुछ मंत्री आदि भी हैं और होते रहते हैं. हमें इस पर ग़ौर करना चाहिये कि हमारे भाग्यविधाओं में से एक बड़ी संख्या अपराधियों की है. विधायिकाओं से बाहर अपराधियों का हमारे जीवन में बड़ा दबदबा पहले से आज तक बना हुआ है. जो एक श्रेणी आज भारत में जीवन की गति, दिशा-दशा निर्धारित करती है वह अपराधियों की है और लोकतंत्र में जिस क़ानून के शासन का आश्वासन दिया जाता है उसकी लगभग रोज़ धज्जियां उड़ती रहती हैं. हम अपने लोकतंत्र को जैसे-तैसे बचाये रखे हैं जो बड़ी बात है. पर हम उसे दूषित-बाधित करने से अपराधियों को रोक नहीं पाये हैं यह बड़ी विफलता है.
राजनीतिक दल और चुनाव आयोग दोनों ही, अदालतों के अलावा, इस स्थिति और उसकी लगातार बढ़त के लिए ज़िम्मेदार हैं. पर स्वयं मतदाता नागरिकों की ज़िम्मेदारी कम नहीं है. यह किस तरह की नागरिकता विकसित हुई है जो धनबल और बाहुबल के प्रभाव में ऐसे अभियुक्तों को क़ानून बनाने के लिए चुनती है? इस मुद्दे को लेकर जैसा नागरिक जागरण और प्रशिक्षण होना चाहिये उस की भी बेहद कमी रही है. यह विडम्बना है कि आजकल गोदी और पालतू मीडिया, जो अपराध मात्र को बड़ी जगह और समय देता है, इस मुद्दे को लेकर ज़्यादातर चुप ही रहता है. यह भी ज़ाहिर है कि ऐसे अपराधग्रस्तों को या तो सीधे या राजनीतिक दलों को चुनावी चन्दा देकर हमारे पूंजीपति भी प्रश्रय देते रहे हैं. हमारे लोकतंत्र की जिजीविषा का कमाल है कि इस भयानक दुश्चक्र में फंसे होने के बावजूद वह बचा हुआ है.
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