समाज | तीज-त्यौहार

क्या जैसा पुरखों ने बताया है, दुर्गा को हम वैसे ही याद करते रह सकते हैं?

भावी पीढ़ियां क्या हमारी किसी भक्ति-शक्ति की कल्पना को याद करके कृतज्ञता का अनुभव करेंगी या जो हमें मिला है हम उसे आगे बढ़ाने का साधन मात्र बनकर रह जाएंगे

अपूर्वानंद | 09 अक्टूबर 2021

षष्ठी के दिन मां भगवती के भक्तों की वर्ष भर की प्रतीक्षा पूरी होती है. मां की प्रतिमा में प्राण-प्रतिष्ठा हो चुकी है. वे जीवंत हो उठी हैं. षष्ठी समेत चार दिन उनकी आराधना के दिन हैं. मैं रोज़ अपनी बहन को देखता हूं, चंडी पाठ सुनते हुए. बचपन की मां याद आ जाती है: दशहरा आते ही घर में धूप की एक सुगंध उठने लगती थी. तुरत नहाई मां को दुर्गा की छवि के आगे आंख मूंदे हुए पाठ करते देखता था. उस छवि के आगे रक्तजवा या उड़हुल फूल के अर्पण को नहीं भूलता. शरद की वह गंध-छवि अब तक मन में बसी है.

आरंभ लेकिन षष्ठी से हो, ऐसा नहीं. बचपन से ही महालया (पितृपक्ष का आखिरी दिन या नवरात्रि के पहले दिन से पिछला दिन) की प्रतीक्षा व्यग्रता से होती थी. कुछ साल पहले एक बार भूल ही गया. पिता ने, जो फेसबुक-संसार के सहज नागरिक हैं, महालया के दिन आगाह किया:

‘देवी पक्ष के प्रारंभ होने की सूचना हो गई है. देवघर में हमारी चेतना में यह बात रही है कि दुर्गापूजा के अवसर पर उमा एक साल बाद कैलास से अपने मायके चार दिनों के लिए आती हैं. सप्तमी को उनका आगमन और दशमी को विदाई होती है. आगमनी गीत बेटी के लिए मां की व्यथा की मार्मिक प्रस्तुति हैं.

प्रांतर (वन) में सफेद कास एवम् शिउली के फूलों एवम् आसमान में सफेद मेघ से शरत काल के आगमन की सूचना होते ही कैलास में गिरिराज की पत्नी मयना का मन अपनी पुत्री उमा के लिए व्याकुल हो उठता है. वे गिरिराज से निवेदन करती हैं, ‘एक साल बीत गया. उमा का कोई समाचार नहीं है. श्मशान में भूत-प्रेत के बीच भिखमंगे महादेव के साथ मेरी बेटी किस तरह रह रही है, मन व्याकुल रहता है. अब उसे वापस नहीं जाने दूंगी. भोलानाथ को घरजमाई बनाकर स्थापित कर लूंगी. तुम कैसे पिता हो? अभी कैलास जाकर उमा को लिवा लाओ.’

गिरिराज के कैलास के लिए रवाना होने के बाद मयना की प्रतीक्षा प्रारम्भ होती है. वे नगरवासियों का आह्वान करती हैं, ‘नगरवासियो, उमा आ रही है. तोरणद्वार सजाओ, मंगलघट स्थापित करो. उमा आ रही है.’

फिर सप्तमी तिथि को उमा आती है. मां बेटी को देखकर विह्वल हो जाती हैं. उमा को ‘ओमा, ओमा’ कहते-कहते आनंद विभोर होती रहती हैं. नगरवासी मिलकर मंगलगीत गाते हैं. पूरा नगर उत्सव में डूब जाता है.

अष्टमी तिथि उल्लास से भरी होती है. कहीं कोई अभाव नहीं है, कोई विषाद नहीं है… मां आई है, सारा परिवेश उत्सव मुखरित है. गीत-संगीत वातावरण में गूंज रहे हैं.

अष्टमी की रात के बीतने की सूचना होते ही नवमी की दस्तक सुनाई पड़ती है. मयना आशंका से आतंकित हो जाती है, ‘कल उमा चली जाएगी! काल देवता से प्रार्थना करती हैं, नवमी की रात तुम नहीं बीतना.’

फिर दशमी की ध्वनि सुनाई पड़ती है. मयना को दूर से आती हुई डमरु की आवाज सुनाई पड़ती है. प्रहरियों को पुकार कर कहने लगती हैं, ‘गौरी को लिवा जाने के लिए भोलानाथ आ रहे हैं, डमरु की आवाज निकट से निकटतर होती जा रही है. जाओ, तुम लोग उन्हें रोक दो, मैं उमा को नहीं जाने दूंगी. तीन दिन तो रुकी है मेरे पास. अब वह मेरे ही पास रहेगी.’

गौरी मां को संभालती हैं. कहती हैं, ‘बेटी को तो पतिगृह में ही रहना होता है. तुम अपनी ओर भी देखो. तुम भी तो किसी की बेटी हो. मैं तो फिर भी साल में एक बार आती हूं, तीन दिन तुम लोगों के साथ रहती भी हूं.’

बेटी की बातें सुनकर मां और नगरवासी अभिमान से भर उठते हैं. उसकी भर्त्सना करते हुए ‘दुर ग्गा, दुर ग्गा’ कहते हैं.

अन्ततोगत्वा मान-अभिमान का दौर थमता है. बेटी फिर से उमा हो जाती है, ‘ओ मा, उमा’ से वातावरण मुखरित हो जाता है. नगरवासी मयना के साथ अश्रुपूरित नेत्रों से विदा करते हैं. ‘…आबार एशो’ अगले साल फिर आना, मां!’

बाबूजी ने कथा संक्षेप में ही कही है. जितना बंगाल के लोग इससे परिचित हैं, उतना ही मिथिला वाले भी. प्रत्येक वर्ष ही दुहराई जाती है. उतनी ही तन्मयता से इसे सुना भी जाता है.

महालया को सुबह-सुबह रेडियो पर कलकत्ता स्टेशन लगाया जाता था. रेडियो की सुई को ठीक-ठीक जमाया जाता था कि वह सही फ्रीक्वेंसी पर जा टिके. बांग्लादेश के निर्माण के बाद वहां के रेडियो से भी आगमनी का प्रसारण शुरू हो गया था. लेकिन कलकत्ता से आने वाली बीरेंद्र कृष्ण भद्र की गंभीर स्वर-ध्वनि से अंधकार का झंकृत होना रोमांचकारी लगा करता था.

पूजा के समय देवघर जाता था. अपने दादा को नियमित घर के पूजा गृह में पाठ करते देखता था. शहर भर में पंडाल सज जाते थे. प्रत्येक की अपनी ख्याति थी. कहां की दुर्गा कैसी होंगी, क्या इस वर्ष भी वे पिछले वर्ष जैसी ही हैं या इस बार कारीगर ने कुछ और कमाल किया है! पंडालों का अभिमान उनके कारीगरों की ख्याति के साथ जुड़ा था. इस कौतूहल के साथ हम बच्चे एक पंडाल से दूसरे पंडाल का चक्कर लगाते रहते थे. पूजा की व्यस्तता का कहना ही क्या था! एक-एक दुर्गा को देख कर उसके रूप की विवेचना करना भी तो एक बड़ा काम था!

हर दुर्गा दूसरे से भिन्न होंगी ही, इसमें कोई शक न था. कोई सौम्यरूपा थीं तो कोई रौद्ररूपा. उदात्त और कोमल का संयोग निराला और बाद में मुक्तिबोध में देखा, लेकिन उसके पहले इस मेल की संवेदना का बीजारोपण इन पंडालों में हुआ होगा. पंडाल में उठता और गहराता हुआ धूप का धुआं, जिससे आंखें कड़ुआती अवश्य थीं लेकिन वहां से टलने का मन न होता था. वह धुआं आहिस्ता-आहिस्ता शरीर में जज्ब हो जाता था. एक रहस्यमय भाव का उदय होता था. धीरे-धीरे ढाक की ध्वनि और उस पर देवी की प्रतिमा के आगे दोनों हाथों में धूपाधार लेकर नृत्य करते भक्त एक कलात्मक वातावरण रच देते थे. भक्ति सुंदर ही होती है और अनिवार्यतः कलात्मक, यह बात साल-दर साल भद्र महाशय को सुनते हुए और देवघर के पंडालों में घूमते हुए मन में बैठ गई.

भीतरपड़ा और बंगलापर की दुर्गा पुरानी थीं. प्रतिष्ठा उनकी थी. लेकिन पंडा घरों के इस आयोजन के आगे वैद्यनाथ मंदिर में स्थित भीतरखंड की दुर्गा का रहस्य और रुआब कुछ और ही था. नवमी के दिन हर जगह बलि चढ़ाई जाती थी. भीतरखंड में भैंसे की बलि होती है, सुना था. देख कभी नहीं नहीं पाया. लेकिन नवमी को बलि के रक्त से देवघर की अधिकांश भूमि लाल हो उठती थी. प्रत्येक घर की अपनी बलि होती थी. उस बलि के प्रसाद की प्रतीक्षा क्या सिर्फ बच्चे ही करते थे? वैसे, देवघर में मांस को आमतौर पर प्रसाद ही कहते हैं. शायद ही कोई पंडा घर हो, जो मांसाहारी न हो. आखिर मां के प्रसाद को ठुकराया कैसे जा सकता है!

पंडालों में कुछ ऐसे होते थे जो कोने में बैठे हुए पाठ करते रहते थे. किंचित विस्मय के साथ हम उन्हें स्वर में पाठ करते सुनते थे जो अष्टमी और नवमी को अश्रु से कंपित हो उठता था. लेकिन हममें से भी किसी को संदेह न था कि षष्ठी और सप्तमी को देवी का मुख प्रसन्न रहता है, अष्टमी से वह मुरझाना शुरू होता है और नवमी को वह मायके से वापसी का समय आ गया, जानकर दुखी हो उठता है. अपने भाव को ही प्रतिमा पर आरोपित करके भक्त हृदय संतोष लाभ करता है, समझने की उम्र बाद में आई.

दशमी को लेकिन मां की विदाई के आयोजन में अपने दुख को भुलाकर नाचते गाते नगरवासी उसे पतिगृह को रवाना करते हैं. इस समय कोई रुलाई नहीं. विविधरूपा दुर्गा को उसके मायके वाले अलग-अलग नाम से पुकारते हुए उसके साथ चलते हैं. एक टुकड़ा मन में अटका रह गया है और दशमी को कहीं भी रहूं, बज उठता है – ओ, मां दिगंबरी नाचो, गो!

यह भक्ति और स्मृति टकराती है आज किसी और चीज से भी. जो स्वयं को महिषासुर के वंशज मानते हैं, उनके दस दिनों के शोक से. वे दुर्गा का मुख भी नहीं देखते. कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ के नेता मनीष गुंजाम पर किसी ने मुकदमा कर दिया था क्योंकि उन्होंने महिषासुर को मारे जाने की कथा की दूसरी व्याख्या प्रसारित कर दी थी.

तो दुर्गा को अब कैसे देखा जाए – महिषमर्दिनी के रूप में उन्हें आराध्य माना जाए या सार्वभौम पुत्री के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करने की कोशिश की जाए. बेटी भी अब वह बेटी नहीं है, मायके के मायने भी बदल गए हैं, पतिगृह अब उतना ही स्त्री का घर है. तो क्या अब पुरानी स्मृतियां अर्थहीन हो गई हैं?

दुर्गा से जुड़े भावों की तीव्रता और सांद्रता के सच को मैं जानता हूं. लेकिन आज जो क्षुद्र होता दीख रहा है, उस समय में मैं उन्हें कैसे याद करूं?

‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना’ यह चुनौती निराला के राम को मिली थी. आज हम सबके सामने यह चुनौती है. पुरखों ने जो कल्पना की, उसकी स्मृति को रखते हुए, उन्हें इसका श्रेय देते हुए हम अपने बाद की सोचें. हमारे बाद आने वाली पीढ़ियां क्या हमारी किसी भक्ति और शक्ति की कल्पना की याद करके हमारे प्रति कृतज्ञता का अनुभव करेंगी? या हम मात्र माध्यम रह जाएंगे, जो मिला उसे वैसे ही आगे पहुंचाने का? हमने कौन सी छवि गढ़ी?

>> सत्याग्रह को ईमेल या व्हाट्सएप पर प्राप्त करें

>> अपनी राय mailus@satyagrah.com पर भेजें

  • आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    समाज | धर्म

    आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

    सत्याग्रह ब्यूरो | 19 अगस्त 2022

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    समाज | उस साल की बात है

    जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

    अनुराग भारद्वाज | 14 अगस्त 2022

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    समाज | विशेष रिपोर्ट

    प्रेम के मामले में इस जनजाति जितना परिपक्व होने में हमें एक सदी और लग सकती है

    पुलकित भारद्वाज | 17 जुलाई 2022

    संसद भवन

    कानून | भाषा

    हमारे सबसे नये और जरूरी कानूनों को भी हिंदी में समझ पाना इतना मुश्किल क्यों है?

    विकास बहुगुणा | 16 जुलाई 2022