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जब धीरूभाई रिलायंस के मुकाबले एक छोटी सी कंपनी के कर्मचारियों से हार गए थे

धीरूभाई अंबानी

जावेद अख्तर की एक नज़्म है, शिकस्त. उसकी लाइनें हैं:

‘…मगर ख़्वाबों के लश्कर में किसे थी इसकी ख़बर

के हर एक किस्से का इख्तेताम होता है,

हज़ार लिख दे कोई फ़तेह ज़र्रे-ज़र्रे पर,

मगर शिकस्त का भी एक मुकाम होता है…’

कॉरपोरेट जगत में इस किस्म के ‘कारोवॉर’ कम ही हुए हैं और इससे भी कम हैं रिलायंस इंडस्ट्रीज के संस्थापक धीरूभाई अंबानी के हारने के किस्से. और हार भी किससे? उस कंपनी से जो रिलायंस इंडस्ट्रीज के मुक़ाबले कहीं छोटी थी. पर अंग्रेज़ी में एक कहावत है; ‘लाइफ इस अ ग्रेट इक्वलाइज़र.’ जिंदगी सब बराबर कर देती है. इस ‘कारोवॉर’ में धीरूभाई अंबानी हार गए, पर इसके बाद उनकी जिंदगी की कहानी फीनिक्स पक्षी की तरह राख में से निकलकर फिर आसमान की बुलंदियों को छूने जैसी है.

यह धीरूभाई अंबानी बनाम लार्सन एंड टुब्रो (एलएंडटी) के कर्मचारियों की जंग थी. इसमें आखिरकार जीत कर्मचारियों की हुई. गीता पीरामल ने अपनी किताब ‘बिज़नस महाराजाज़’ में इस जंग को ‘कॉर्पोरेट डेमोक्रेसी’ का उन्वान (शीर्षक) दिया है.

लार्सन एंड टुब्रो

लार्सन एंड टुब्रो (एलएंडटी) की स्थापना इन्हीं नामों वाले डेनमार्क के दो इंजीनियरों हेन्निंग होल्क लार्सन और क्रिस्टियन टुब्रो ने 1938 में की थी. निर्माण के क्षेत्र में अग्रणी लार्सन एंड टुब्रो बेहद प्रतिष्ठित कंपनी थी. 80 का दशक आते-आते संस्थापकों का कंपनी से सिर्फ भावनात्मक जुड़ाव रह गया. अब ये पेशेवर सीईओ एनएम देसाई और संस्थागत निवेशकों के द्वारा कंपनी बोर्ड में नियुक्त डायरेक्टर्स की निगाहेबानी में शानदार काम रही थी. तभी 1986 की सर्दियों में उबाल आ गया.

कंपनी में खींचतान

इस उबाल की वजह थी उच्च अधिकारियों में मचा सत्ता संघर्ष. बताते हैं कि इस टकराव ने इस कंपनी की चूलें हिलाकर रख दीं. हर गुट रोज़ नये ख़ुलासे करने लगा, मसलन दूसरे गुट के फलां आदमी ने कंपनी से सस्ते दामों पर मुंबई में फ्लैट खरीदा है. कंपनी के जहाजरानी (शिपिंग) व्यवसाय में भी गड़बड़ियों का शोर होने लगा.

उधर, कंपनी पर कोई निश्चित मालिकाना हक़ नहीं था, लिहाज़ा कुछ बड़े घराने इस पर ‘निगाह’ रखने लगे. सबसे पहले इस पर नज़र डालने वाला दुबई में बैठा हुआ एक कारोबारी था जिसका नाम था मनु छाबड़िया. उसने बाज़ार से कंपनी के शेयर ख़रीदने शुरू कर दिए. मकसद था लार्सन एंड टुब्रो पर नियंत्रण हासिल करना.

मनु छाबड़िया की इस कोशिश को नाकाम करने के लिए एनएम देसाई ने दो प्लान बनाये- पहला, कंपनी बाज़ार से शेयर खरीदकर कर्मचारियों में बांट दे जिससे बाज़ार की नज़र उस पर न रहे और दूसरा यह कि किसी भरोसेमंद निवेशक की सहायता ली जाए जो कंपनी के साथ दोस्ताना ताल्लुकात तो रखे पर उस पर ‘ग़लत नज़र’ न डाले. कानून के मुताबिक़ कंपनी बाजार से अपने शेयर नहीं ख़रीद सकती, लिहाज़ा दूसरे प्लान को मंजूरी मिल गयी और देसाई साहब को धीरूभाई अंबानी में ऐसा ही दोस्त नज़र आया

धीरूभाई की धमाकेदार एंट्री और छाबरिया का हिट-विकेट होना

लार्सन एंड टुब्रो उस वक़्त निर्माण क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक थी. 1988 में कंपनी का कुल कारोबार 500 करोड़ था जो कुछ ही सालों में 33 हज़ार करोड़ हो गया था. कहते हैं कि सरकारी तंत्र में ‘यत्र-तत्र-सर्वत्र’ रहने वाले धीरूभाई ने सरकारी रजामंदी के बाद इसके शेयर खरदीने शुरू कर दिए. देसाई यह मानकर बैठे थे कि रिलायंस इंडस्ट्रीज सहयोगी के तौर पर काम करेगी!

धीरूभाई ने अपने दो विश्वस्त, वकील एमएल भक्त और बड़े बेटे मुकेश अंबानी एलएंडटी के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में शामिल करवा लिए. किसी कंपनी के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में कोई तभी शामिल हो सकता है जब उसके पास एक निश्चित मात्रा में कंपनी की हिस्सेदारी हो. धीरूभाई ने 1987 के अगस्त और सितंबर महीने में 75 से 80 करोड़ रुपये लगाकर लार्सन एंड टुब्रो के 12.4 फीसदी शेयर ख़रीद लिए थे. उधर, मनु छाबड़िया को एलएंडटी से दूर करने के लिए रिलायंस इंडस्ट्रीज ने उसकी कंपनी जंबो इलेक्ट्रॉनिक्स के शेयर्स ख़रीद लिए. बताया जाता है कि इससे डरकर छाबड़िया अपनी कवायद से पीछे हट गए.

एनएम देसाई को हटा धीरूभाई लार्सन एंड टुब्रो के चेयरमैन बन गए

धीरूभाई के बारे में कहा जाता था कि वे जब भी सोचते हैं बहुत बड़ा सोचते हैं. यानी यह संभव नहीं था कि जिस जगह वे हों वहां वे सिर्फ सहयोगी का रोल करें जैसा कि देसाई चाहते थे. गीता पीरामल लिखती हैं कि 1982 से लेकर 1989 के दौरान देसाई के चेयरमैन रहने के दौरान एलएंडटी की परफॉरमेंस लगातार गिरती गई थी. इस दौरान धीरूभाई शेयरों की लगातार खरीद के जरिये अपनी हिस्सेदारी को 18.5 फीसदी तक ले जा चुके थे. इसके बाद उन्होंने ज़्यादा वक्त नहीं लगाया और देसाई को हटाकर खुद चेयरमैन बन गए! शह और मात की बाज़ी पूरी हो चुकी थी. देसाई हतप्रभ रह गये. आख़िर उन्होंने ही तो धीरूभाई को आगे बढ़ाया था.

एलएंडटी का चेयरमैन बनते हैं धीरूभाई ने कई फैसले लिए. इनमें से एक था कंपनी द्वारा रिलायंस इंडस्ट्रीज को 570 करोड़ का सप्लायर्स क्रेडिट देना. एलएंडटी की बैलेंस शीट भी बढ़िया थी. कंपनी के पास खूब कैश था. धीरूभाई ने उससे रिलायंस इंडस्ट्रीज के 76 करोड़ रु के शेयर भी खरीदवाए. उधर, रिलायंस इंडस्ट्रीज के पेट्रोकेमिकल प्रोजेक्ट को बनाने का 300 करोड़ रुपये का ठेका एलएंडटी को मिल गया. रिलायंस इंडस्ट्रीज की चांदी हो गयी थी.

पर कोई था जिसने ऐसा होने से रोक दिया.

इंडियन एक्सप्रेस के एस गुरुमूर्ति की एंट्री

रामनाथ गोयनका के चेले कहे जाने वाले एस गुरुमूर्ति, जो रिलायंस इंडस्ट्रीज बनाम बॉम्बे डाइंग की जंग में अहम किरदार निभा चुके थे, को इन शेयरों के लेन-देन में कुछ गड़बड़ी लगी. लिहाज़ा वे तामझाम लेकर तहकीकात करने जुट गये. जब उन्होंने इस पूरे खेल से पर्दा हटाया तो सरकार भी भौचक रह गयी.

लार्सन एंड टुब्रो के शेयरों की ख़रीद-फ़रोख्त

रिलायंस इंडस्ट्रीज की एक सहयोगी फर्म थी- तृष्णा इन्वेस्टमेंट्स. बताया जाता है कि उसने और बैंक ऑफ़ बड़ोदा की एक सहयोगी फ़र्म बॉब फ़िस्कल ने सारा खेल रचा था. 1988 के मध्य में रिलायंस की अन्य चार सहयोगी फर्मों- स्काईलैब डिटर्जेंट, ऑस्कर केमिकल्स, मैक्सवेल डाइज़ और केमिकल्स और प्रोलैब सिंथेटिक्स ने 30 करोड़ रुपये एक शेयर दलाल कंपनी वीबी फाइनेंसियल सर्विसेज में जमा करवाए. इस कंपनी ने ये पैसा बॉब फ़िस्कल में जमा करवाया. जुलाई 1988 में बॉब फ़िस्कल ने जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन सहित कुछ बड़े संस्थागत निवेशकों से लार्सन एंड टुब्रो के 30.5 लाख शेयर ख़रीदे. लगभग 40 हज़ार शेयर उसने बाज़ार से उठाये. कुल मिलाकर ये हुए 30 लाख 90 हज़ार .

वीबी फाइनेंसियल सर्विसेज ने ये 30 लाख 90 हज़ार शेयर्स बॉब फ़िस्कल से ख़रीद लिए और बाद में उन्हें रिलायंस की सहयोगी फर्म तृष्णा इन्वेस्टमेंट्स को बेच दिया. इस तरह रिलायंस इंडस्ट्रीज ने एलएंडटी के शेयरों के एक बड़े टुकड़े पर कब्ज़ा कर लिया. यह टुकड़ा रिलायंस की एलएंडटी पर दावेदारी के लिए काफ़ी था. एस गुरुमूर्ति ने लिखा कि संस्थागत निवेशक अपने शेयर किसी निजी पार्टी को नहीं बेच सकते और इस पूरी डील में यही हुआ.

एस गुरुमूर्ति ने इंडियन एक्सप्रेस में एक और लेख लिखा. इसमें उन्होंने कहा कि एलएंडटी के 800 करोड़ रूपये के ऋण पत्र इशू (डिबेंचर इशू) से गुजरात के हजीरा स्थित रिलायंस इंडस्ट्रीज के पेट्रोकेमिकल प्लांट को चलाया जा रहा है. इन लेखों से हंगामा उठना लाज़मी था. उठा भी. मामला कोर्ट तक जा पहुंचा. रिलायंस पर ग़ैर क़ानूनी तरीके से एलएंडटी के शेयर ख़रीदने का इल्जाम लगा.

कोर्ट में खींचतान

सितंबर 1989 में दो याचिकाकर्ताओं ने इस पूरे मामले के ख़िलाफ़ बॉम्बे हाई कोर्ट में अपील दायर की. कोर्ट ने याचिका ख़ारिज कर दी और यह मानने से भी इंकार कर दिया कि रिलायंस इंडस्ट्रीज का एलएंडटी पर कोई मालिकाना हक़ है. याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए और वहां उनके वकील राम जेठमलानी जज को यह समझाने लग गए कि किस तरह से वित्तीय अनिमियतताओं के ज़रिये रिलायंस इंडस्ट्रीज ने कंपनी के शेयर ख़रीदे और यह भी कि बॉब फ़िस्कल के चेयरमैन प्रेमजीत सिंह ने दलाली खाई. इससे पहले कि कोर्ट कोई फ़ैसला देता सरकार हरकत में आ गयी.

जनता दल की सरकार और रिलायंस में 36 का आंकड़ा

दिसंबर 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने. उनके और रिलायंस के बीच 36 का आंकड़ा माना जाता था.
भ्रष्टाचार विरोध की नाव पर बैठकर सत्ता में आने वाले वीपी सिंह की सरकार आते ही हरकत में आ गई. बॉब फ़िस्कल के प्रेमजीत सिंह की छुटी हो गयी और उनके बाद यूटीआई के प्रमुख मनोहर फेरवानी भी गए. उन्हें रिलायंस का करीबी माना जाता था और यूटीआई से भी एलएंडटी के शेयर खरीदे गए थे.

हवा का रुख देखते हुए रिलायंस इंडस्ट्रीज ने नो प्रॉफिट-नो लॉस के आधार पर एलएंडटी के शेयर बॉब फ़िस्कल को वापस बेचने की पेशकश की. सरकार नहीं मानी और रिलायंस इंडस्ट्रीज ने 12 करोड़ रुपये का नुकसान झेलकर शेयर बॉब फ़िस्कल को वापस किये. पर बात यहीं ख़तम नहीं हुई. राम जेठमलानी का असली दांव अभी बाकी था.

राम जेठमलानी का आख़िरी दांव

रिलायंस ने जैसे ही शेयर वापस किये, राम जेठमलानी ने कोर्ट में एलएंडटी की आम सभा (ईजीएम) की दरख्वास्त कर डाली जिसमें रिलायंस के एलएंडटी पर अधिकार का फ़ैसला होना था. इसके पहले कोर्ट फ़ैसला देता, सरकार ने एलआईसी को ईजीएम करवाने का हुकुम दे दिया. 10 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी रखने वाला कोई भी निवेशक ऐसी बैठक बुला सकता है और एलआईसी के पास एलएंडटी की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी थी. सरकार ने साथ-साथ कंपनी के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में से धीरूभाई अंबानी, मुकेश अंबानी, अनिल अंबानी और एमएल भक्त की रवानगी का आदेश दे डाला. अंबानी परिवार ने भी हार न मानने का फ़ैसला कर रखा था. वे भी अब खुलकर सामने आये.

मुकेश अंबानी की प्रेस कांफ्रेंस और धीरूभाई का इस्तीफा

अंबानी परिवार ने प्रेस रिलीज़ जारी करके इस पूरे प्रकरण को अपने खिलाफ़ एक साज़िश बताया. अगले ही दिन मुकेश अंबानी ने एक प्रेस कांफ्रेंस आयोजित की. इसमें उन्होंने सरकार पर निजी कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करने की बात कही. पत्रकार उनसे सवाल पर सवाल पूछे जा रहे थे. तब वे इतने हुए खिलाड़ी नहीं थे, लिहाज़ा विचलित हो गए और प्रेस कांफ्रेंस में पत्रकारों ने काफ़ी हो-हल्ला मचाकर अंबानी परिवार की बात अनसुनी कर दी. धीरूभाई समझ गए थे कि अब और पचड़े में पड़ना बेकार है. लिहाज़ा उन्होंने एलएंडटी के चेयरमैन पद से इस्तीफ़ा दे दिया. उनकी जगह डीएन घोष को चेयरमैन बनाया गया.

डीएन घोष स्टेट बैंक के रिटायर्ड चेयरमैन थे. उन्होंने आते ही एलएंडटी द्वारा रिलायंस को दी सप्लायर क्रेडिट की सुविधा बंद कर दी और एलएंडटी द्वारा ख़रीदेगए रिलायंस के शेयर (कंपनियां समूह की दूसरी कंपनियों के शेयर भी अपने पास रखती हैं और इस हिस्सेदारी को क्रॉस होल्डिंग्स कहा जाता है) बाज़ार में बेच दिए. इससे रिलायंस को नुकसान हुआ. रिलायंस का खेल खत्म होने को ही था कि प्रधानमंत्री बदल गए.

चंद्रशेखर का पीएम बनना भी धीरूभाई के काम न आया

नवंबर 1990 में कांग्रेस की मदद से चंद्रशेखर जब प्रधानमंत्री बने तो रिलायंस को कुछ राहत की सांस मिली. अनिल अंबानी की शादी से कुछ दिन पहले डीएन घोष ने इस्तीफ़ा दे दिया. रिलायंस इंडस्ट्रीज ने राहत की सांस ली. संभावना जगी कि धीरूभाई एलएंडटी के चेयरमैन बन जायेंगे. चंद्रशेखर की सरकार कांग्रेस की बैसाखी के सहारे चल रही थी और दोनों में से कोई भी इस खौलती कड़ाई में हाथ नहीं डालना चाहता था. इसलिए धीरूभाई कुछ ख़ास नहीं कर पा रहे थे. सात महीने बाद यह सरकार भी गिर गई और आम चुनाव की घोषणा हो गयी.

कांग्रेस जीती, धीरूभाई फिर भी हार गए

पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने अर्थव्यस्वस्था में अामूल-चूल बदलाव कर दिए थे. उधर, जब सुप्रीम कोर्ट को भी रिलायंस इंडस्ट्रीज के ख़िलाफ़ कुछ नहीं मिला तो मुकेश अंबानी और रिलायंस के अन्य शुभचिंतकों ने एक बार फिर ईजीएम बुलाने का प्रस्ताव दिया. तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने उनको भरोसा दिलाया कि अगर शेयरधारक धीरूभाई को चेयरमैन बनाना चाहें तो संस्थागत निवेशक जैसे एलआईसी और अन्य कोई हस्तक्षेप नहीं करंगे. ताजपोशी के लिए मंच बन चुका था पर तभी…

होल्क लार्सन और क्रिस्टियन टुब्रो की वापसी

बताते हैं कि मुकेश, अनिल और रिलायंस के अन्य सहयोगी, सबने मिलकर होने वाली मीटिंग में धीरूभाई की ताजपोशी की मुकम्मल योजना बना ली थी. वे सब अपने पक्ष में वोटिंग करवाने के लिए प्रॉक्सी बनाने में जुट गए. 800 लोगों की मदद से उन्होंने 83000 प्रॉक्सी फॉर्म जमा कर लिए. संस्थागत निवेशक धीरूभाई के ख़िलाफ़ थे. मीटिंग के दिन हाल में भयंकर हंगामा हो गया. अधिकतर लोग धीरूभाई के ख़िलाफ़ थे. माहौल गर्माता हुआ देखकर एलआईसी ने मीटिंग स्थगित करके आगे की तारीख तय कर दी. पर धीरूभाई के समर्थकों ने हाल ख़ाली करने से मना कर दिया.

इस हंगामे के बाद वित्त मंत्रालय हरकत में आया. उसने तृष्णा इन्वेस्टमेंट पर दबाव डालते हुए ईजीएम न होने देने के लिए राज़ीनामा करवा लिया. धीरूभाई एलएंडटी की कुर्सी के बिलकुल नज़दीक पहुंचकर भी फिर दूर हो गए.

अब एलएंडटी बिना चेयरमैन के चल रही थी. कोई नतीजा निकलता न देख होल्क लार्सन और क्रिस्टियन टुब्रो ने सरकार को सलाह दी कि कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर यूवी राव को चेयरमैन बना दिया जाए. यूवी राव धीरूभाई की भी पसंद भी थे और उनके नज़दीकी भी. उनके चेयरमैन बनते ही रिलायंस कैंप में उमंगें उठने लगीं. लेकिन यूवी राव ने मौके की नज़ाकत को भांपते हुए और होल्क लार्सन और क्रिस्टियन टुब्रो के उनके प्रति विश्वास को देखते हुए धीरूभाई से हमेशा के लिए दूरी बना ली. धीरूभाई का एलएंडटी का चेयरमैन बनने का ख्वाब हमेशा-हमेशा के लिए टूट गया.

इसके बाद धीरूभाई अगले 10 साल तक एलएंडटी में निष्क्रिय निवेशक की तरह रहे. ऐसा लगा कि अब सब कुछ सामान्य हो गया है. लेकिन उनका आखिरी दांव बाकी था. नवंबर 2001 में उन्होंने कंपनी में अपनी बची हिस्सेदारी (10.5 फीसदी) कुमार मंगलम बिड़ला की कंपनी ग्रैसिम को बेच दी. ग्रैसिम सीमेंट के धंधे में एलएंडटी की सीधी प्रतिद्वंदी थी और कहा जाता है कि इसीलिए वह एलएंडटी को अपने झंडे तले लाना चाहती थी.

लेकिन यह दांव भी असफल हो गया और ऐसा हुआ तीन साल पहले ही एलएंडटी के सीईओ और एमडी बने एएम नाइक की वजह से. गुजरात से ही ताल्लुक रखने वाले नाइक ने सबसे पहले तो एलएंडटी के सभी कर्मचारियों को अपने साथ मिलाया. उन्होंने कर्मचारियों से कहा कि वे ही कंपनी के असल मालिक हैं. नाइक ने कंपनी में बिड़ला की एंट्री का पुरजोर विरोध किया. साथ ही उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री से लेकर एलआईसी के शीर्ष नेतृत्व तक सबके साथ मुलाकात की और अपील की कि एलएंडटी की पेशेवर संस्कृति को बचाया जाए. महीनों की खींचतान के बाद बिड़ला ने 2003 में एलएंडटी में अपनी हिस्सेदारी कर्मचारियों के ही एक ट्रस्ट को बेच दी. इसके एवज में उन्हें एलएंडटी की सीमेंट इकाई दी गई जिसे उन्होंने अल्ट्राटेक नाम दिया.

देखा जाए तो अब एलएंडटी की कमान अब इसके कर्मचारियों के हाथ में ही है. उनके ट्रस्ट के पास कंपनी के करीब 12 फीसदी शेयर हैं और इसका मतलब यह भी है कि वे किसी की भी ‘बुरी नजर’ से इसे बचा सकते हैं.