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यूरोप को योग का प्रेमरोग कैसे लगा?

यूरोप में योग

जर्मनी में जन्मे कार्ल बायर अपने देश के दक्षिणी पड़ोसी ऑस्ट्रिया के वियेना विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं. योग में उनकी भारी रुचि रही है. भारतीय योगविद्या के यूरोप पहुंचने के इतिहास के बारे में उन्होंने एक बहुचर्चित किताब भी लिखी है. उनका कहना है कि भारत के ‘पारंपरिक योग के साथ यूरोप का पहला परिचय यदि स्वयं सिकंदर के समय प्राचीनकाल में नहीं तो मध्ययुग में हो गया था.’ उस समय के यात्रावृतांतों से इसकी पुष्टि होती है. लेकिन, उसकी तरफ लोगों का ध्यान जाना शुरू हुआ 19वीं सदी की शुरुआत में. योगाभ्यास के द्वारा ध्यानसाधना उस समय के विद्वानों और कलाप्रेमियों में एक नई जिज्ञासा जगाने लगी थी.

भगवतगीता का संस्क़ृत से जर्मन भाषा में पहला अनुवाद, 1823 में, जर्मनी के बॉन विश्वविद्यालय में भारतविद्या के प्रोफ़ेसर आउगुस्त विलहेल्म श्लेगल ने किया था. गीता के छठें अध्याय में योगसाधना पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए समस्त भावों में आत्मस्थ रहते हुए आत्म के परमात्म से एकत्व को योग बताया गया है. यानी, योग तन और मन को साधते हुए आत्मा को परमात्मा की ऊंचाई तक ले जाने का मार्ग है. गीता, शकुंतला और उपनिषदों के अनुवादों ने गौएटे, शिलर और शेलिंग जैसे उस समय के बहुत-से जर्मन मनीषियों को चमत्कृत किया. बाद के वर्षों में शोपेनहाउएर, नीत्शे और हेर्मन हेसे जैसे चिंतकों व साहित्यकारों पर भी इस भारतीय रूमानियत का रंग चढ़ता दिखा. लेकिन यह सब उस समय समाज के कुछ विशिष्ट वर्गों के बीच केवल लेखन- वाचन या वाद-विवाद का ही विषय बना रहा. जनसाधारण भारतीय योग-ध्यान-दर्शन से बेख़बर ही रहा.

जब अंग्रेज़ों ने मौका गंवाया

भारत पर उस समय ब्रिटिश राज था. अंग्रेज़ चाहते तो योग और ध्यान के तौर-तरीके भारतीयों से सीख कर यूरोप में प्रचारित कर सकते थे. पर, उन्होंने उपेक्षापूर्ण रुख अपनाने में ही अपना हित देखा. वे सोचते थे कि हम भारतीयों से ऊंचे हैं. उन पर राज करने आये हैं, न कि उन्हें अपना गुरु बनाने. यह भी डर था कि भारतीयों से योगसाधना सीखने से उनका स्वाभिमान बढ़ेगा. राष्ट्रवाद और भी प्रबल हो कर स्वाधीनता की मांग को और भी मुखर कर देगा.

स्थिति ने एक नाटकीय मोड़ तब लिया जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए. वहां, 11 सितंबर 1893 को शिकागो की ‘विश्व धर्म संसद’ में भारत और हिंदू धर्म के बारे में उन्होंने जो ओजस्वी भाषण दिया उससे उनके नाम की धूम मच गई. धूम की चर्चा यूरोप भी पहुंची. धर्म-संसद में तो उन्होंने ‘योग’ शब्द का प्रयोग ही नहीं किया. लेकिन उसके बाद अमेरिका के जिन अन्य शहरों का उन्होंने भ्रमण किया, वहां राजयोग तक सिखाया. योगशास्त्रों में वर्णित यम-नियम आदि के अभ्यास से चित्त को निर्मल कर ज्योतिर्मय आत्मा का साक्षात्कार करना राजयोग कहलाता है.

बुडापेस्ट में पहली बार राजयोग

हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट यूरोप का संभवतः ऐसा पहला शहर था जहां भारत से आए कुछ योगियों ने, 1896 में, पहली बार राजयोग का प्रदर्शन किया. हंगरी को एक देश बने उस वर्ष एक हज़ार साल पूरे हुए थे. इस उपलक्ष्य में बुडापेस्ट में एक ‘राष्ट्रीय सहस्त्राब्दी प्रदर्शनी’ लगी थी. उन योगियों में एक थे भीमसेन प्रताप. उन्होंने दर्शकों को दिखाया कि राजयोग में इंद्रियों के वशीकरण द्वारा इस तरह ध्यानमग्न कैसे हुआ जाता है कि दीन-दुनिया की सुधबुध ही न रहे. भीमसेन प्रताप सचमुच समाधि-अवस्था में पहुंच पाए थे या नहीं मालूम नहीं, लेकिन उनके बारे में प्रचारित हो गया कि वे रात में अपना स्थान छोड़ कर केक खाते और दूध पीते देखे गए.

हंगरी और ऑस्ट्रिया उस समय एक जुड़वां साम्राज्य हुआ करते थे. ऑस्ट्रिया की राजधानी वियेना के कार्ल केलनर कागज़ बनाने वाली एक मिल के मालिक और जानेमाने उद्योगपति थे. वे बुडापेस्ट गए योगियों के संपर्क में थे. उन्हें योगी भीमसेन प्रताप की क्षमताओं पर कोई संदेह नहीं था. इसलिए केलनर ने भीमसेन प्रताप को अपने यहां बुलाया. उन्हीं दिनों जर्मनी के म्यूनिक शहर में तीसरा अंतरराष्ट्रीय मनोविज्ञान सम्मेलन होने वाला था. भीमसेन प्रताप को साथ ले कर केलनर इस सम्मेलन में भाग लेने म्यूनिक भी गए. बाद में उन्होंने योग पर लेखनकार्य भी किया और स्वयं भी योग-ध्यान करने लगे. उनकी लिखी पांडुलिपियों में कहा गया है कि राजयोग करते हुए वे ध्यानमग्नता की स्थिति में ही नहीं, अपने पिछले जन्म में भी पहुंच जाया करते थे.

कार्ल केलनर की धरोहरें बताती हैं कि 19वीं सदी के आखिर तक कम से कम राजयोग यूरोप में बुडापेस्ट और वियेना तक पहुंच चुका था. मनोविज्ञान में मनोविश्लेषण धारा के प्रवर्तक सिगमंड फ्रॉएड भी वियेना के रहने वाले थे. बचपन के अपने एक मित्र के माध्यम से वे भी राजयोग से परिचित हुए. पर ऐसा नहीं लगता कि उन्होंने खुद उसे सीखने और आजमाने का प्रयास किया.

योग की वैश्विक स्वीकार्यता

स्वामी विवेकानंद की भांति ही उनके बाद के श्री ओरोबिंदु, परमहंस योगानंद और स्वामी शिवानंद ने भी योगसाधना की मुख्यतः आध्यात्मिक दिशा यानी राजयोग को ही प्रधानता दी. आध्यात्मिक मनोवृत्ति वाले ईश्वर के खोजियों को तो राजयोग में दिलचस्पी हो सकती थी लेकिन, आम लोगों के लिए वह बहुत दूर की कौड़ी था. साधारण आदमी के लिए मन से अधिक तन, सूक्ष्म से अधिक स्थूल और अमूर्त से अधिक मूर्तिमान ईश्वर बोधगम्य होता है. अमेरिका और यूरोप में योग इस स्तर पर तब उतरा जब योग गुरुओं की एक ऐसी नयी पीढ़ी आई जिसने राजयोग, हठयोग, कर्मयोग, भक्तियोग जैसी भिन्न-भिन्न विधाओं और शैलियों को आपस में पिरोने या आधुनिक समय की मांगों के अनुसार उन्हें नए, सहज और सरल स्वरूप में ढालने का प्रयास किया. योग की वैश्विक स्वीकार्यता के लिए उसे हिंदू धार्मिकता के आक्षेप से मुक्ति दिलाना भी एक प्रश्न था क्योंकि धर्म और अध्यात्म के बीच अंतर करना शेष दुनिया नहीं जानती.

स्वामी शिवानंद और तिरुमलाई कृष्णमाचार्य पारंपरिक योगसाधना के ऐसे ही प्रथम संशोधकों में गिने जाते हैं. कृष्णमाचार्य तो महिलाओं को योग-शिक्षा देते ही नहीं थे. तब भी, यूरोप से आई इंद्रा देवी न केवल उनकी प्रथम शिष्या बनीं, उनके कहने पर पश्चिमी जगत की पहली महिला योग-शिक्षिका भी कहलाईं. यूरोप तो नहीं, पर दोनों अमेरिकी महाद्वीप उनके ‘योगदान’ के आभारी बने.

ज़ारशाही रूस के लातीविया की राजधानी रीगा में जन्मी एवगेनिया पेतरसन तब 15 साल की ही थीं जब रविंद्रनाथ टैगोर और एक अमेरिकी योगी रामचरक की लिखी दो किताबों ने उनके मन में भारत के प्रति आसक्ति जगा दी. 1927 में वे भारत आ गईं और अपना एक नया नाम रख लिया – इंद्रा देवी. बाद में वे योगगुरु तिरुमलाई कृष्णमाचार्य की शिष्या बनीं. जाने-माने योगगुरू पट्टभि जोइस और बीकेएस अयंगर भी कृष्णमाचार्य के ही शिष्य थे.

सोवियत संघ में योग वर्जित था

इंद्रा देवी पांच भाषाएं धाराप्रवाह बोलती थीं – मातृभाषा रूसी के अलावा अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रेंच और स्पेनिश भी. पहले रूस और बाद में जर्मनी छोड़ने के बाद वे यूरोप में रहीं तो नहीं, पर 1960 में मॉस्को जाकर उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट सरकार को मनाने की कोशिश की कि वह भी सोवियत जनता को योग सीखने-करने की अनुमति प्रदान करे. इंद्रा देवी ने कहा कि योग कोई धर्म नहीं है इसलिए उससे डरने का कोई तुक नहीं है. सोवियत संघ में योगसाधना उस समय धर्मपालन के समान ही प्रतिबंधित थी.

हालांकि, लेनिन के नेतृत्व में 1917 की ‘समाजवादी अक्टूबर क्रांति’ से पहले ऐसा नहीं था. अमेरिका और यूरोप की तरह रूसी अभिजात और बुद्धिजीवी वर्ग भी 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में, योग से परिचित हो चुका था. उस समय के वहां के प्रख्यात रंगमंच निदेशक कोन्स्तांतीन स्तानीस्लाव्स्की ने अपने कलाकारों के लिए तनावमुक्ति और एकाग्रता बढ़ाने की एक ऐसी विधि विकसित की थी जो योगासनों पर ही आधारित थी. मंच पर जाने से पहले उसका पालन करना अनिवार्य था.

यहां तक कि सारी सज़ाओं और वर्जनाओं के होते हुए भी, कम्युनिस्ट तानाशाही के अंतिम दशकों में रूस के कुछ उत्साही योग-प्रेमी योग-साहित्य चोरी-छिपे लिखने-पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे थे. सिविल इंजीनीयर विक्तोर बोयको ऐसा ही एक उदाहरण हैं. वे 16 वर्ष की आयु से ही योगगुरु बीकेएस अयंगर के अनुयायी बन गए थे. अयंगर की लिखी एक पुस्तक का उन्होंने 1971 में रूसी भाषा में अनुवाद भी कर डाला. 1980 वाले दशक में जब मिख़ाइल गोर्बाचोव सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता थे तो सोवियत संघ के स्वास्थ्य मंत्रालय को विचार आया कि आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति के अलावा पारंपरिक वैकल्पिक पद्धितियों का भी पता लगाना चाहिये. अतः उसने एलेना फ़ेदोतोवातो नामकी एक शोधछात्रा को योग के बारे में पता लगाने के लिए भारत भेजा. फ़ेदोतोवातो ने भारत में बीकेएस अयंगर से भी मुलाक़ात की और उन्हें मॉस्को आने का निमंत्रण दिया. अयंगर पहली बार, 1989 में और दूसरी बार 2009 में मॉस्को गए. दूसरी यात्रा ‘योगा जर्नल’ पत्रिका के रूसी भाषा संस्करण के निमंत्रण पर हुई थी. उस समय वे 90 वर्ष के हो चुके थे.

रूस में योग की धूम

1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस में योगसाधना की न केवल क़ानूनी अनुमति है बल्कि मास्को जैसे शहरों में योग सीखने-सिखाने की वैसी ही धूम मची हुई है जैसी बर्लिन, लंदन या पेरिस में. अंग्रेज़ी की पत्रिका ‘योगा जर्नल’ के रूसी भाषा संस्करण ने 2015 में अपनी 10वीं वर्षगांठ मनाई. इस उपलक्ष्य में कराए गए अपने एक सर्वेक्षण के आधार पर उसका अनुमान है कि 2014 में, पूरे रूस में एक अरब डॉलर ख़र्च कर 13 लाख लोग योगाभ्यास कर रहे थे. उनमें से 75 प्रतिशत मध्यवर्ग या उच्च-मध्यवर्ग के लोग थे. 64 प्रतिशत के पास विश्वविद्यालयी डिग्री थी और आधे योगाभ्यासी 16 से 34 साल के बीच के थे.

‘योगा जर्नल’ के रूसी भाषा संस्करण की संपादक एलेन फ़ेरबेक का कहना है कि उन्होंने 27 साल पहले मॉस्को के भारतीय दूतावास में योग सीखा था. तब तक कोई योग स्कूल या स्टूडियो वगैरह नहीं थे. इस बीच उनकी पत्रिका मॉस्को के जगप्रसिद्ध ‘लालचौक’ पर सैकड़ों लोगों के साथ दो बार योग-मैराथॉन आयोजित कर चुकी है. मॉस्को में 1999 से अपना ‘अष्टांग योग केंद्र’ चला रहे मिख़ाइल कोन्स्तांतिनोव भी उन लोगों में से एक हैं, जो दो दशक पहले योगाभ्यास सीखने के लिए भारतीय दूतावास में जाया करते थे. अब स्थिति यह है कि उनका अपना केंद्र 1500 लोगों को योग सिखा रहा है. अकेले मॉस्को में इस समय 270 से अधिक योग स्टूडियो हैं. पंचसितारा होटलों तक में योग-शिक्षा के कोर्स चलते हैं. हर 90 मिनट के अभ्यास के लिए 50 डॉलर तक मांगे जाते हैं. इस बीच कई रूसी युवा भारत में गोवा, हरिद्वार या ऋषिकेश जाकर वहां योग सीखते हैं.

रूसी नेताओं को भी योग का चस्का

21 जून को हर वर्ष ‘अंतराष्ट्रीय योग दिवस’ के तौर पर मनाने का अपना प्रस्ताव भारत ने 2014 में जब संयुक्त राष्ट्र महासभा के समक्ष रखा, तब रूस उसके सबसे उत्साही सहप्रायोजकों में से एक था. आज योग दिवस के मौके पर वहां 70 से ज्यादा शहरों में करीब एक लाख लोग योग कर रहे हैं. पूर्व रूसी प्रधानमंत्री द्मित्री मेद्वेदेव सहित कई बड़े नेता उत्साह से योग करते रहे हैं.

जर्मनी योग की उर्वर भूमि बना

1960 वाले दशक से तत्कालीन पश्चिम जर्मनी में योगसाधना की जड़ें धीरे-धीरे जमने और फैलने लगी थीं. निजी प्रयासों से योग सीखने-सिखाने के नए-नए स्कूल, केंद्र या संस्थान बनने लगे. 1967 में ‘जर्मन व्यावसायिक योगशिक्षक संघ’ (बीडीवाई) की स्थापना हुई. 1969 से यह संघ किसी श्रमिक संगठन की तरह योगशिक्षकों के हितों का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता, उनके व्यावसायिक शिक्षण-प्रशिक्षण की व्यवस्था भी करता है. ‘बीडीवाई’ जैसी ही एक और संस्था है ‘डीवाईजी’ (जर्मन योग समाज), जिसका मुख्य काम जर्मनी में योग संबंधी सभा-सम्मेलनों का आयोजन करना है.

इन दोनों संस्थाओं के प्रयासों से जर्मनी में योगशिक्षा के स्तर और योगशिक्षकों की व्यावसायिक गुणवत्ता में काफ़ी समानता आई है. लोग किसी फ़िटनेस स्टूडियो या किसी छोटे-मोटे हॉल में चल रहे निजी स्कूल में ही नहीं, जन-महाविद्यालय (फ़ोल्क्स होख़शूले) कहलाने वाले सांध्यशिक्षा के सरकारी प्रौढ़शिक्षा केंद्रों, कैथलिक और प्रोटेस्टेंट ईसाई संप्रदायों के शिक्षा संस्थानों, योगशिविरों या फिर विशवविद्यालयों तथा रेड क्रॉस जैसी संस्थाओं द्वारा संचालित कोर्सों में भी योग करना और ध्यान लगाना सीख व सिखा सकते हैं. यहां तक कि बड़ी-बड़ी संस्थाओं, कंपनियों व कारखानों ने भी अपने कर्मचारियों की कार्यक्षमता बढ़ाने के लिए योग-शिक्षकों की सेवाएं लेना शुरू कर दिया हैं.

जर्मन स्कूलों-किंडरगार्टनों में भी योग

शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए योग और ध्यान की उपयोगिता सैकड़ों वैज्ञानिक प्रयोगों और अध्ययनों में सिद्ध हो जाने के बाद अब जर्मनी के सामान्य स्कूलों और किंडरगार्टनों के बच्चों को भी स्वैच्छिक आधार पर हठयोग सिखाने का काम शुरू हो गया है. इसके लिए किसी खेल या संगीत की शौकिया मंडलियों की तरह ही बच्चों की योग-मंडलियां बना कर उन्हें छोटी आयु में ही योग-आसनों से परिचित कराया जाता है. सौभाग्य से जर्मनी के धर्मनिरपेक्षतावादी वामपंथियों को पता नहीं है कि भारत के वामपंथी ऐसी बातों को भाजपा और आरएसएस की ‘भगवाकरण योजना’ कहते हैं. वैसे, योगसाधना का प्रचार-प्रसार यदि ‘भगवाकरण’ है, तो भारत के बाहर इसके लिए स्वामी विवेकानंद और उनके जैसे गुरुओं-स्वामियों को भी, और उनसे भी अधिक यूरोप के उन भारतविदों को दोष देना होगा, जिन्होंने ‘भगवत गीता’ या पतंजलि की ‘योग-सूत्र’ जैसी पुस्तकों का यूरोपीय भाषाओं में अनुवाद कर यूरोपवासियों को पहली बार ‘योग’ शब्द के अस्तित्व की जानकारी दी.

यूरोप पूंजीवादी है और पूंजीवाद में धर्म नहीं धन की तूती बोलती है. धनोपार्जन के आगे धर्मोपदेश नहीं चलते. योग का प्रचार-प्रसार इस बीच धनोपार्जन का एक बहुत बड़ा साधन बन गया है. स्वामी विष्णु-देवानंद (जीवनकाल 1927 से 1993) के एक 51 वर्षीय जर्मन शिष्य हैं योगाचार्य सुखदेव ब्रेत्स. सुखदेव बनने से पहले उनका नाम था फ़ोल्कर ब्रेत्स. उन्होंने मैनेजमेंट की पढ़ाई की थी. पारंपरिक हठयोग सिखाने के लिए 1992 में सुखदेव ने फ़्रैकफंर्ट में ‘योग विद्या’ नाम से एक स्कूल खोला. 1995 में सुखदेव ने इसे एक अलाभदेय जनहितकारी पंजीकृत संस्था में बदल दिया.

यूरोप की सबसे बड़ी योग-प्रचारक संस्था

आज अकेले इस संस्था के पास योग सिखाने के 102 केंद्र हैं. चार सुरम्य स्थानों पर ‘सेमिनार सेंटर’ कहलाने वाले ऐसे योगाश्रम भी हैं, जहां किसी अच्छे होटल जैसी सारी सुवधाएं हैं. लोग वहां कुछ दिन रह कर आराम-विश्राम कर सकते हैं, आयुर्वेदिक शाकाहारी भोजन का आनंद भी ले सकते हैं. इस संस्था ने अब तक 13 हज़ार योग-शिक्षक तैयार किये हैं. धीरे-धीरे वह यूरोप की सबसे बड़ी जनहितकारी बहुमुखी अलाभदेय योग-संस्था बन गई है. यौंग हो किम कोरियाई हैं. फ्रैंकफ़र्ट में कोरियाई द्वंद्वकला तैए-क्वॉन-दो सिखाया करते थे. 2007 से योग सिखाने लगे हैं. जर्मनी में ही नहीं, ऑस्ट्रिया और स्विट्ज़रलैंड में भी उनके ‘इनसाइड योगा’ की शाखाएं हैं. हर साल सौ से डेढ़ सौ योग-शिक्षक भी तैयार करते हैं. हर शिक्षक से 3200 यूरो लेते हैं.

आंकड़े बताते हैं कि सवा आठ करोड़ की जनसंख्या वाले जर्मनी में 24 लाख महिलाओं सहित 26 लाख लोगों, यानी 3.3 प्रतिशत जनता को योगाभ्यास का शौक है. 12 प्रतिशत और लोग योग किया करते थे, पर इस समय नहीं कर रहे हैं. देश में इस समय क़रीब 20 हज़ार योग-शिक्षक हैं. यानी, योग एक बहुत बड़ा आर्थिक कारक बन गया है. अकेले योग कक्षाओं की फ़ीस ही दो से तीन अरब यूरो के बराबर आंकी जा रही है. योगाभ्यास के समय लगने वाले पहनावों-प्रसाधनों की क़ीमतों और आश्रमों या विश्रांति स्थलों के किरायों को भी जोड़कर देखने पर अनुमान है, कि जर्मनी का सालाना योग-बाज़ार क़रीब पांच अरब यूरो के बराबर है.

ब्रिटेन जर्मनी से पीछे रह गया

भारत का औपनिवेशिक मालिक होते हुए भी ब्रिटेन योगसाधना के प्रचार-प्रसार में जर्मनी से पीछे रह गया. गीता का पहला अंग्रेज़ी अनुवाद उसके जर्मन अनुवाद से हालांकि 38 वर्ष पहले ही प्रकाशित हो गया था. तब भी भारतीय संस्कृति के वैश्विक महत्व की ओर ब्रिटिश चिंतकों और विद्वानों का ध्यान श्लेगल, शिलर और गौएटे जैसे जर्मन मनीषियों की भारत के प्रति ‘रूमानियत’ से प्ररित हो कर उसके बाद ही गया. जनसधारण के धरातल पर उसका उतरना 1930-40 वाले दशक से पहले गति नहीं पकड़ पाया.

ब्रिटेन में पहला योग स्कूल भारत में ब्रिटिश राज के एक अधिकारी रह चुके सर पॉस ड्यूक्स ने 1949 में एपिंग में खोला था. 1960 का दशक आने तक योगाभ्यास एक ‘कल्ट’ (उपासना पद्धति) का रूप लेने लगा था. 1965 में ‘ब्रिटिश व्हील ऑफ़ योगा’ (बीडब्ल्यूवाई) की स्थापना हुई. यह संस्था योग सीखने-सिखाने वाले ब्रिटिश नागरिकों की प्रतिनिधि संस्था है. 1995 से वह ‘यूरोपीय खेल परिषद’ और साथ ही इंग्लैंड की खेल परिषद के भी अधीन है. ब्रिटेन में योग के शिक्षण-प्रशिक्षण के प्रतिमान वही तय करती है और उनके पालन की निगरानी भी करती है. 1970 वाले दशक में स्थानीय प्रौढ़शिक्षा स्कूलों के अंतर्गत पूरे देश में सैकड़ों योग-कक्षाएं भी लगने लगीं. उनके अलावा अनेक प्रइवेट स्कूल भी खुलने लगे थे. इस समय पांच लाख से अधिक ब्रिटिश नागरिक योगाभ्यास करते हैं. योगाभ्यास और उससे जुड़ी वस्तुओं-सेवाओं का ब्रिटिश बाज़ार एक अरब डॉलर से अधिक आंका जाता है.

फ्रांसीसियों को भी योग रास आया

ब्रिटेन की ही तरह फ्रांस में भी योग सीखने और करने की असली लहर 1960 वाले दशक में भारत से नहीं, अमेरिका से आई. अमेरिकी योग-शिक्षकों ने फ्रांस की यात्राएं कीं और दुभाषियों की सहायता से अपने योग-फ़ैशन का प्रचार किया. फ्रांसीसी वैसे तो कसरत या शारीरिक व्यायाम के लिए जाने नहीं जाते, तब भी योग करना उन्हें भी धीरे-धीरे रास आने लगा है. इस बीच वहां पेरिस में ही नहीं, अन्य शहरों में भी अनेक योग-स्टूडियो खुल गए हैं या फिटनेस सेंटरों में योग सीखने-करने की सुविधाएं मिलने लगी हैं. योग-महोत्सवों और कार्यशालाओं का आयोजन होता है, जिनमें सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में लोग आते हैं. पेरिस के आइफल टॉवर या ‘ले ग्रां पाले’ जैसी जगहों पर होने वाले इन आयोजनों का उद्देश्य योगसाधना का प्रचार करना अधिक, लोगों को शिक्षित-प्रशिक्षित करना कम ही होता है. हल्के-फुल्के योगाभ्यासों के साथ सुरम्य स्थानों पर छुट्टियां मनाने के विश्रांति सदन (रिट्रीट) फ्रांस में कुछ ज्यादा ही प्रचलित हैं.

देश की राजधानी और सबसे बड़ा शहर (जनसंख्या 23 लाख) होने के कारण पेरिस में योग-प्रेमियों और योग स्टूडियो का जमघट है. अमेरिका में सबसे अधिक लोकप्रिय तथाकथित ‘पॉवर योगा’ से भिन्न पेरिस में विन्यास या अष्टांग योग की मांग है. अधिकतर स्टूडियो हर बैठक के लिए 20 से 25 यूरो लेते हैं. पेरिस सहित फ्रांस के कई शहरों में योग दिवस के दिन विभिन्न आयोजन होते हैं.

चेक गणराज्य में भी योग का जोश

पूर्वी यूरोप के चेक गणराज्य की राजधानी प्राग की जनसंख्या केवल 12 लाख है. पर चेक भाषा के ‘गूगल सर्च’ में ‘योगा प्राहा’ लिखते ही हजारों परिणाम मिलते हैं. प्राग में भी योग की धूम है. वहां भी वह अमेरिका और पश्चिमी यूरोप से हो कर आया है. पूर्वी यूरोप के अन्य भूतपूर्व कम्युनिस्ट देशों की तरह भूतपूर्व चेकोस्लोवाकिया में भी योग-ध्यान वर्जित था. 1989 में कम्युनिस्ट तानाशाही के अंत और 1993 में स्लोवाकिया के अलग हो जाने के ढाई दशकों के भीतर ही लगता है कि चेक गणराज्य में योग की जड़ें गहराई तक जम गयी हैं. वास्तव में पूर्वी या पश्चिमी यूरोप में अब शायद ही ऐसा कोई देश बचा है, जहां योग अभी तक नहीं पहुंचा हो.

यूरोपीय मीडिया का योगदान

पिछले दो-तीन दशकों के भीतर योग के चतुर्दिक विस्तार में यूरोपीय पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो-टेलीविज़न, पुस्तक प्रकाशनगृहों और फि़ल्म निर्माताओं का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है. हर देश और हर भाषा में खूब लिखा-पढ़ा गया है, खूब कार्यक्रम प्रसारित हुए हैं और कई फ़िल्में तो सिनामाघरों में कई-कई सप्ताह चली हैं. 2010 में एक ऑस्ट्रियाई फिल्म निर्माता पीए स्ट्राउबिंगर की डॉक्यूमेट्री फ़िल्म ‘(सृष्टि के) आरंभ में प्रकाश था’ ने काफ़ी खलबली मचा दी थी. उसमें गुजरात के प्रहलाद जानी और उन्हीं के जैसे यूरोप, रूस और चीन के ऐसे कई लोगों के साथ बातचीत और डॉक्टरों-वैज्ञानिकों के मतों के आधार पर दिखाया गया था कि योग-ध्यान जैसी विधियों से, बिना भोजन के भी, सामान्य जीवन जीना संभव है. ऐसे लोग संभवतः सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा को अपनी त्वचा से ग्रहण कर प्राण-ऊर्जा में बदल देते हैं.

जनवरी 2012 में रिलीज़ हुई ‘सांस लेता ईश्वर’ (द ब्रीदिंग गॉड) में उसके निर्माता, जर्मनी के यान श्मिट-गारे, इस प्रश्न का उत्तर खोजते हैं कि योग कहां से आया. कब उसकी उत्पत्ति हुई? उत्तर वे आधुनिक योग के जनक कहे जाने वाले और इंद्रा देवी के गुरु रहे स्वयं तिरुमलाई कृष्णामाचार्य और उनके शिष्यों के कई मूल ऐतिहासिक फ़िल्मांकनों के साथ देते हैं 105 मिनट की इस फ़िल्म को 90 हज़ार लोगों ने देखा. 2012 में ही आई 52 मिनट की ‘योग– जीवन जीने की कला’ एक फ्रेंच-जर्मन साझा रचना थी. इस फ़िल्म में चेन्नई के एक योगगुरु और दार्शनिक, श्रीराम के माध्यम से, योगसाधना के दार्शनिक-मर्म और श्रीराम के गुरु रहे स्वामी शिवानंद की धरोहर को दर्शाया गया है. योग पर 2015 में आई ‘जागो – योगानंद का जीवन’ (अवेक – द लाइफ़ ऑफ़ योगानंदा) भी खूब चर्चित रही. डेढ़ घंटे की इस डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म में अमेरिका की दो महिला फ़िल्मकारों पाओला दि फ्लोरियो और लीज़ा लीमैन ने परमहंस योगानंद की जीवनी और योगसाधना के लिए उनके योगदान का वर्णन किया है. योगानंद ने 1920 वाले दशक में अमेरिका में योगसाधना का प्रचार किया था.