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जब 25 साल के गणेश शंकर विद्यार्थी ने तब देश के लिए अजनबी महात्मा गांधी को अपने घर में ठहराया

अगर कहीं सांप्रदायिक दंगा छिड़ा हो तो एक पढ़ा-लिखा समझदार संपादक जैसा व्यक्ति क्या करेगा? वह चुपचाप अपने दफ्तर में बैठा अपनी और अपने परिजनों की सुरक्षा के बारे में सोचेगा. अधिक-से-अधिक वह अपने समाचार-पत्र के माध्यम से हिंसा और उपद्रव शांत करने की अपील करेगा. इससे भी ज्यादा सरोकारी व्यक्ति हुआ तो वह उस संप्रदाय के लोगों को समझाने की कोशिश करेगा जिससे वह जन्म के आधार पर खुद ताल्लुक रखता है.

लेकिन नहीं, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे कुछ दीवाने होते हैं जो इन सभी भय और आग्रहों को पार कर जाते हैं. दंगों में तो सैकड़ों-हज़ारों लोग अपनी जान गंवाते हैं. लेकिन उसमें मिसाल कितने बनते हैं? नाम कितनों के याद रह जाते हैं? इक्के-दुक्कों के ही. क्यों? क्योंकि वे अपनी जान कायरतापूर्वक या निरीह बनकर लाचारीवश नहीं देते. बल्कि वो उस पागलपन से सीधे अहिंसक रूप से टकराते हुए अपनी जान देते हैं. फिर चाहे वे गणेश शंकर विद्यार्थी हों, रज्जब अली लखानी हों, वसंतराव हेंगिस्टे हों, या स्वयं महात्मा गांधी ही हों.

कानपुर दंगों में पागल हो चुके दंगाइयों को समझाते हुए जब गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हुए थे तो उनकी उम्र महज 40 साल थी. अक्सर कहा जाता है कि विद्यार्थी जी और महात्मा गांधी की मुलाकात 1916 के लखनऊ अधिवेशन में पहली बार हुई थी. जबकि स्वयं महात्मा गांधी के शब्दों में उनका आपसी रिश्ता इससे पुराना रहा था. उस समय से जबकि विद्यार्थी जी केवल 25 साल के नौजवान थे. तब तक महात्मा गांधी भी भारत में इतने बड़े नेता के तौर पर नहीं उभरे थे. लेकिन दोनों ने एक-दूसरे में छिपी संभावना को अच्छी तरह देख और पहचान लिया था.

गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत के लगभग तीन साल बाद 24 जुलाई, 1934 को जब महात्मा गांधी कानपुर में तिलक हॉल का उद्घाटन करने पहुंचे, तो उन्होंने विद्यार्थी जी से अपनी पहली मुलाकात का जिक्र करते हुए कहा:

‘आज बहुत सवेरे जब मैंने सुना कि मुझे यहां आना है तो मुझे बीस साल पहले का वह दिन याद आ गया जब मैं पहले-पहल एक अजनबी की तरह कानपुर आया था. स्वर्गीय बाबू गणेश शंकर विद्यार्थी ने तब मुझे अपने प्रेस में, जो उनका घर भी था, ठहराया था. उस समय किसी और व्यक्ति की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह मुझे अपने घर पर ठहराता. वे उन दिनों नौजवान थे और मेरा उनसे कोई परिचय नहीं था. देश के अधिकांश लोगों के लिए तब मैं एक अजनबी था. …न तो लोगों को और न सरकार को ही यह मालूम था कि मुझे यहां क्या करना है. मैं खुद नहीं जानता था कि मेरे भाग्य में क्या है या राष्ट्रीय मामलों में मुझे क्या भूमिका अदा करनी है..’

‘…सौभाग्य से उसी दिन तिलक महाराज भी उसी दिन इस नगर में पधारे और उनका बड़े उत्साह से स्वागत किया गया था. इस नगर के साथ मेरे मन में गणेश शंकर जी की स्मृति जुड़ी हुई है. बाद में मैं उन्हें और भी निकट से जान पाया और मैंने देखा कि वे एक सरल, निर्भीक, सच्चे और निःस्वार्थ देशसेवक थे. जैसा कि हम सबको विदित है कि उनके उस सेवारत जीवन का अंत उनके बलिदान से हुआ….उनकी मृत्यु के बाद इस नगर की अपनी पहली यात्रा में उनका अभाव मुझे कितना खटक रहा है, यह मैं बता नहीं सकता.’

कानपुर दंगों के दौरान जब गणेश शंकर विद्यार्थी की गुमशुदगी के बाद जब उनके शहीद हो जाने की आशंका सबको होने लगी थी, तो 27 मार्च, 1931 को करांची अधिवेशन में गांधीजी ने कहा था- ‘यह सारा हत्याकांड किसलिए? हम इतने पागल कैसे हो सकते हैं? मुझे आपको यह बताते हुए दुःख हो रहा है कि खबर है कि गणेश शंकर विद्यार्थी लापता हैं; संभवतः वे मार डाले गए हैं. ऐसे सच्चे, उत्साही और निःस्वार्थ साथी की मृत्यु पर किसे शोक नहीं होगा?’

एक अप्रैल, 1931 को गांधीजी ने गणेश शंकर विद्यार्थी के भाई हरिशंकर विद्यार्थी को कराची से ही तार भेजा जिसमें लिखा था- ‘…कलेजा फट रहा है तो भी गणेश शंकर की इतनी शानदार मृत्यु के लिए शोक संदेश नहीं दूंगा. चाहे आज ऐसा न हो, परंतु उनका पवित्र खून किसी दिन अवश्य ही हिंदुओं और मुसलमानों को एक करेगा. …उनकी मिसाल अनुकरणीय सिद्ध हो.’

हालांकि गणेश शंकर विद्यार्थी की असामयिक शहादत गांधीजी के लिए व्यक्तिगत रूप से बहुत पीड़ादायी थी. गांधीजी ने आजीवन कई अवसरों पर उनकी वीरता का जिक्र किया.9 अप्रैल, 1931 के ‘यंग इंडिया’ में वे लिखते हैं- ‘उनका खून अंततोगत्वा दोनों कौमों को एक करेगा. कोई समझौता हमको बांध नहीं सकता. लेकिन जैसी वीरता गणेश शंकर विद्यार्थी ने दिखाई है, उससे एक-न-एक दिन अवश्य ही पाषाण-से-पाषाण हृदय भी पिघल उठेंगे, और पिघलकर एक हो जाएंगे. पर यह जहर, किसी भी तरह क्यों न हो, इतना गहरा पैठ गया है कि कदाचित गणेश शंकर विद्यार्थी के समान महान, आत्मत्यागी और नितांत वीर पुरुष का खून भी, आज हमारे मन से इसे धो डालने के लिए काफी न हो.’

महात्मा गांधी अक्सर कहते थे कि उन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत से ईर्ष्या होती है. वे यह भी कहते थे कि यदि विद्यार्थी जी जैसे उदाहरण बड़ी संख्या में दिखने लगें तो एक दिन सांप्रदायिकता की आग ठंडी पड़कर ही रहेगी. गांधीजी को ऐसे उदाहरण मिले भी तो करीब 15 साल बाद 1946 में.

आठ जुलाई, 1946 को अहमदाबाद से हेमन्त कुमार भाई ने महात्मा गांधी को एक पत्र में लिखा- ‘कल अहमदाबाद में एक सांप्रदायिक दंगा बंद कराने के प्रयास में वसन्तराव हेंगिस्टे और रज्जब अली एक ही जगह एक साथ शहीद हो गये हैं. दंगा बंद कराने के लिए वे जैसे ही वे रिची रोड की ओर बढ़ रहे थे, उन्होंने देखा कि हिन्दुओं का एक झुण्ड एक मुसलमान को कत्ल करने पर उतारू है. दोनों ने उत्तेजित लोगों के बीच घुसकर दृढ़ता से कहा, ‘हम दोनों को कत्ल किए बगैर इस बेचारे को नहीं मार सकते.’ उनके प्रतिरोध की वजह से उस मुलसमान की जान बच गई.वहीं उन लोगों को खबर मिली कि जमालपुर के एक हिन्दू मुहल्ले को चारों तरफ के मुस्लिम मुहल्ले के लोगों ने घेर रखा है. वहां के मुसलमानों को समझा-बुझाकर शान्त करने के लिए भागते हुए वे दोनों (वसंतराव और रज्जब अली) वहां पहुंच गए. वहां उन दोनों पर तलवारों से आक्रमण हुआ और वे एक साथ शहीद हो गए. वसंतराव की उम्र 32 के लगभग थी. वे कांग्रेस के सक्रिय सत्याग्रही रहे थे. रज्जब अली की उम्र 25 वर्ष थी और उन्होंने भावनगर के कांग्रेस के सत्याग्रह में भाग लिया था.इस तरह से एक हिन्दू और एक मुसलमान नवयुवक ने दंगा रोकने के लिए अहिंसक प्रतिकार करते हुए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया.’

गांधीजी ने इसके उत्तर में कहा- ‘उनलोगों की मृत्यु से मैं दुखी नहीं हुआ हूँ. यह सूचना पाकर मेरी आंखों में आंसू नहीं आए. गणेश शंकर विद्यार्थी ने भी कानपुर दंगा रोकने के लिए इसी प्रकार अपने प्राण अर्पित किए थे. …उनकी मृत्यु का समाचार पाकर मैं हर्षित हुआ था.मैं आपलोगों से कहना चाहता हूँ कि आप मरने का सबक सीखें, फिर सब ठीक हो जाएगा. यदि गणेश शंकर विद्यार्थी, वसंतराव और रज्जब अली जैसे और भी कुछ नवयुवक निकल पड़ते हैं, तो दंगे हमेशा के लिए मिट जाएंगे.’

वसंतराव और रज्जब अली का स्मृति-स्तंभ आज भी अहमदाबाद में साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रतीक के रूप में खड़ा है. स्मारकों के संदर्भ में गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत के बाद उनके स्मारक बनाने की प्रसंग भी उल्लेखनीय जान पड़ता है. 1931 में ही गणेश शंकर विद्यार्थी का स्मारक बनाने के लिए एक कोष की स्थापना की गई. इसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू और गांधीजी व्यक्तिगत रूप से प्रयास कर रहे थे.

23 जुलाई, 1931 को ‘यंग इंडिया’ में गांधीजी ने एक लेखकर इस स्मारक की रूपरेखा पेश की और चंदे के लिए अपील की. इसमें विद्यार्थी जी के शहादत के स्थल पर ही कोई फव्वारा या स्तंभ जैसा स्मारक-चिह्न बनाने का प्रस्ताव था. साथ ही ‘प्रताप’ अखबार चलाने के लिए विद्यार्थी जी द्वारा बनाए गए ट्रस्ट की सहायता भी इसमें शामिल था. कताई और खादी के प्रचार के लिए विद्यार्थी जी ने कानपुर के अपने गांव नरवल में एक आश्रम की स्थापना की थी और 200 गांवों को इससे जोड़ा था. इस आश्रम को भी सहयोग किए जाने की अपील इसमें की गई थी. एक गणेश शंकर राष्ट्रीय सेवा संघ की स्थापना का भी प्रस्ताव था. इसके लिए अपील करते हुए गांधीजी ने लिखा था:

‘स्मारक-समिति ने केवल एक लाख रुपये की अपील की है. मेरी राय में स्मारक के उद्देश्य के लिए और स्वर्गीय विद्यार्थी जी के स्मारक के लिए यह रकम बहुत ही कम है. इसलिए मैं आशा करता हूं कि जल्दी ही इसका जवाब मिलेगा, जिससे समिति धन-संग्रह का काम बंद करके स्मारक का काम शुरू कर सके.’

इसके बावजूद स्मारक तो कभी नहीं ही बन सका, बल्कि ऐसे शहीदों का केवल स्मारक बना देकर छुट्टी पाने के समाज के रवैये से गांधीजी को बाद में बड़ी पीड़ा हुई. इसलिए ऐसे स्मारकों से उनका मोहभंग होना शुरू हो गया.तभी तो 1945 में जब एक बार फिर से कानपुर के तिल-कहाल में गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक कमिटी बनी और इसके सचिव हमीद खां ने गांधीजी को इस विषय में पत्र लिखा. तो इस पत्र का बहुत ही तल्ख भाषा में जवाब देते हुए गांधीजी ने लिखा:

‘भाई हमीद खां, गणेश शंकर विद्यार्थी को मैं अच्छी तरह पहचानता था. मेरा आदर भी उनके बारे में बहुत रहा है. स्मारक के बारे में जो मैंने राय जाहिर की है वह तुमको मालूम होना चाहिए. अगर वह नहीं पढ़ी है तो पढ़ लो. स्मारक कोई मकान बनाकर या पैसे से होता नहीं है. पैसा देकर आदमी समझ लेता है कि उसने अपना काम कर दिया. इसलिए मेरा अभिप्राय यह है कि गणेश शंकर का सच्चा स्मारक यही होगा कम-से-कम कानपुर में, और सचमुच तो सारे हिन्दुस्तान में हिंदू-मुसलमान एक हो जावें और एक-दूसरे को काटने के बदले एक-दूसरे के लिए जान दें. ऐसी कोई चीज हो तो मुझे बताइये और इसके लिए आशीर्वाद मांगिए. सिर्फ पैसे इकट्ठे करने में क्या पड़ा है. मुझे यह भी बताइये कि कमिटी में कौन-कौन है. और इतने वर्षों तक जो नहीं बनी वह चीज आज बन सकेगी ऐसा मानने के क्या कारण हैं? स्मारक कमिटी का उद्देश्य मैंने देखा है. उससे मरहूम का नाम अमर तो नहीं ही होगा, लेकिन मजाक जरूर बनेगा. दो-तीन धनी व्यक्ति मिलकर भी ऐसे मकान को बनवाकर, और थोड़े आदमियों को वेतन देकर अपने-आप को और दूसरों को फुसला सकते हैं कि विद्यार्थी जी का स्मारक बना लिया. मगर मैं उसे मजाक ही मानूंगा.’

एक साल बाद जब प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त ने झांसी स्थिति अपने गांव चिरगांव में ‘गणेश शंकर हृदयतीर्थ’ के नाम से उनका स्मारक बनाया और इस बारे में उनके भाई हरगोविन्द गुप्त ने महात्मा गांधी को पत्र लिखा, तो 11 सितंबर, 1946 को उसके जवाब में महात्मा गांधी ने फिर से यही बात दोहराते हुए कहा- ‘भाई हरगोविंद गुप्त, गणेश शंकर जी के लिए मेरे मन में काफी आदर था और है. मैथिलीशरण जी इस काम में हैं इसलिए साहित्य-सृष्टि सुशोभित होगी, लेकिन उनका सच्चा स्मरण तो मरने तक की त्याग शक्ति पैदा करने से ही होगा न?’

महान शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी को याद करते समय हमें ऐसे प्रसंगों की रोशनी में उन्हें याद करने के सच्चे उद्देश्यों को भी ध्यान में रखना चाहिए. करोड़ों-अरबों के खर्चीले स्मारकों और मूर्तियोंके जय-जयकारी दौर मेंऐसी अपेक्षा करना थोड़े साहस का काम है, फिर भी…