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गाय हमारी माता है लेकिन भैंस नहीं, क्यों?

गाय

नोएडा के एक प्रतिष्ठित स्कूल में हिंदी के शिक्षक हर्षित रवि को जब ‘कामधेनु गोविज्ञान प्रचार प्रसार परीक्षा’ के बारे में पता चला तो उनका कहना था कि ‘इस परीक्षा को लेकर मुझे ये आशंका है कि स्कूलों में इसमें हिस्सा लेना कंपल्सरी बनाया जा सकता है. हो सकता है कि निजी स्कूल इससे बच जाएं लेकिन सरकारी स्कूलों में तो यह निश्चित तौर पर होने ही वाला है. अगर वैज्ञानिक और तार्किक नज़रिए के साथ इस तरह की कोई परीक्षा आयोजित करवाई जाती है तो इसमें कोई बुराई नहीं है. लेकिन इस परीक्षा पर राजनीति के असर को देख-समझ पाना मुश्किल नहीं है.’

केंद्रीय मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले राष्ट्रीय कामधेनु आयोग की स्थापना साल 2019 में की गई थी. इस आयोग का काम गायों का संरक्षण और संवर्धन करना है. बीते महीने कामधेनु आयोग तब राष्ट्रीय [1] और अंतर्राष्ट्रीय [2] मीडिया में चर्चा बटोरता दिखाई दिया जब इसने ‘कामधेनु गोविज्ञान प्रचार प्रसार परीक्षा’ का आयोजन किए जाने की घोषणा की. कामधेनु आयोग की वेबसाइट पर परीक्षा की जानकारी देते हुए बताया गया था कि इसमें गाय के ‘वैज्ञानिक’ और ‘धार्मिक’ महत्व से जुड़े सवाल पूछे जाएंगे. लेकिन परीक्षा से तीन दिन पहले आयोग ने बिना कोई कारण बताए इसे कुछ समय के लिए टाल दिया [3].

अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि परीक्षा के विषय और उसके आयोजन को लेकर लगातार हो रही आलोचना के चलते यह फैसला लिया गया है. दरअसल आयोग द्वारा जारी की गई 54 पेज़ की स्टडी गाइड [4] में कई ऐसी बातें शामिल हैं जो बहुत तर्कसंगत नहीं लगती हैं. उदाहरण के लिए इसमें देसी और जर्सी गाय का अंतर बताते हुए कहा गया है कि देसी गाय का दूध पीला होता है क्योंकि उसमें सोने के कण होते हैं, देसी गाय केवल साफ-सुथरी जगहों पर ही बैठती है और बुलाने पर हमेशा प्यार से प्रतिक्रिया देती है. इसी तरह एक दावा यह भी किया गया है कि 1984 में हुई भोपाल गैस त्रासदी में वे लोग प्रभावित नहीं हुए थे जिनके घर गोबर से लीपे गए थे क्योंकि गाय के गोबर में एंटीसेप्टिक, एंटी रेडियोएक्टिव और एंटी थर्मल गुण होते हैं. इसके अलावा, पंचगव्य से होने वाले इलाज और गाय के दूध में मौजूद पोषक तत्वों को लेकर इसमें किए गए कई दावे भी तर्कों और तथ्यों पर आधारित नहीं लगते हैं.

गाय से जुड़ी परीक्षा भले ही टल गई हो लेकिन यहां पर यह सवाल अब भी किया जा सकता है कि आखिर गाय में ऐसा क्या है कि उसके बारे में ऐसी परीक्षा आयोजित की जा सकती है? क्यों उनका संरक्षण करते दिखने के लिए कई प्रदेश सरकारें कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं? और अगर इस सवाल का जवाब हिंदू धर्म और आज की धर्म आधारित राजनीति में उसकी स्थिति है तो यह पूछा जा सकता है कि ऐसा क्यों है कि गाय हिंदू धर्म की इतनी बड़ी प्रतीक बन गई? ज़रा और घुमाकर कान पकड़ें तो कहा जा सकता है कि भारत जैसे देश में जहां खेती और पशुपालन ही अर्थव्यवस्था का आधार रहा, वहां गाय को महत्व मिलना स्वाभाविक है. लेकिन सवाल यह है कि इस मामले में भैंस, बकरी, ऊंट, भेड़ जैसे पशु लगभग उतने ही उपयोगी दिखने के बावजूद गाय से इतने पीछे कैसे रह गए?

इन सवालों का पहला जवाब तो यह मिलता है कि गाय को मिलने वाली यह वरीयता दुनिया भर में एक जैसी है. उदाहरण के लिए प्राचीन समय में भारत के अलावा मिस्र, ग्रीस, इज़रायल, रोम और जर्मनी में भी धार्मिक दृष्टि से गाय को महत्वपूर्ण माना जाता था. हालांकि समय के साथ आर्थिक-सामाजिक समीकरण बदलते गए और गाय से जुड़ी ज़्यादातर मान्यताएं भी या तो कम हो गईं या खत्म हो गईं. लेकिन आज भी यहूदी, पारसी समेत कई समुदायों से जुड़े साहित्य में गाय का जिक्र और उसकी प्रशंसा मिल जाते हैं.

भारतीय उपमहाद्वीप की बात करें तो यहां हिंदू धर्म के अलावा जैन और बौद्ध धर्म में भी गाय को पवित्र माना जाता है. भारत में ही पैदा हुए इन तीनों धर्मों की बुनियाद अहिंसा के सिद्धांत पर रखी गई है. हिंदू धर्म तो किसी जीवमात्र में ही ईश्वर के दर्शन करने की बात कहता है और अपने किसी भी तरह के फायदे के लिए किसी जीव की हत्या करने को सही नहीं ठहराता है. चौथी-पांचवी सदी में भारत की यात्रा करने वाले मशहूर चीनी यात्री फाह्यान के विवरणों में भी भारतीय समाज की यह विशेषता देखने को मिलती है. फाह्यान के मुताबिक ‘भारत एक अजीब देश है. यहां लोग जीव-जंतुओं को नहीं मारते हैं. वे न तो सुअर और मुर्गियां पालते हैं और न ही ज़िंदा मवेशियों की खरीद-बेच करते हैं.’ इतिहास और समाज के जानकार इसकी व्याख्या कुछ इस तरह करते हैं कि भारतीय समाज में शुरूआत से सहजीवन का सिद्धांत रहा है जिसमें अलग जाति या वर्गों के साथ-साथ पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं को भी बराबरी का दर्जा दिया जाता रहा है. इसीलिए यहां पर गाय और सांप से लेकर बरगद, पीपल, तुलसी जैसे पौधों की भी पूजा की जाती है.

हिंदू धार्मिक ग्रंथों पर आएं तो गाय को महत्व दिए जाने की बात सबसे पहले ऋग्वेद में कही गई बताई जाती है. जानकारों के मुताबिक, ऋग्वेद में गाय को ‘अघन्य’ कहकर संबोधित किया गया है. अघन्य यानी जिसे कभी नहीं मारा जाना चाहिए. हिंदू मिथकों के जानकार और जाने-माने लेखक देवदत्त पटनायक इसे अलग नज़रिए से देखते हुए बताते हैं [5] कि ‘पुराणों में गाय को दिए गए महत्व की जब हम बात करते हैं तो यह बात ध्यान रखने वाली है कि गाय एक रूपक है, यहां पर हम असली गाय की बात नहीं कर रहे हैं. यहां पर गाय का मतलब है आजीविका.’ गाय के आजीविका का पर्याय बन जाने के बारे में बताते हुए पटनायक कहते हैं कि पुराने जमाने में ऋषि-मुनि राजाओं के पास जाकर गाय मांगते थे. ऋषि वे कहलाते थे जो ज्ञान इकट्ठा करते रहते थे या शोध कार्य करते थे और लोगों को शिक्षित करते थे. उनके पास इतना समय नहीं होता था कि वे आजीविका के लिए कोई और काम कर सकें. इसलिए वे राजाओं के पास जाकर गाय मांगा करते थे. राजाओं का अधिक से अधिक गौदान करना भी इसलिए पुण्य का काम बताया जाता है क्योंकि इसका मतलब था कि वह अधिक से अधिक लोगों के लिए आजीविका या रोजगार मुहैया करवा रहा है.

बेहद कम खर्च पर पाली जा सकने वाली गाय दूध देती है, खेती के लिए उपयोगी होती है और इसके गोबर से ईंधन बनता है. इसलिए यह ऋषियों के लिए कई तरह से उपयोगी होती थी और इस वजह से वे जीवनयापन की ज्यादातर चिंताएं छोड़कर अपने अध्ययन-अध्यापन का काम करते रह सकते थे. पटनायक कहते हैं ‘ऋषियों की ज़रूरतें कम होती थीं जो केवल एक गाय से पूरी हो जाती थीं. इसीलिए गाय को सभी इच्छाएं पूरी करने वाली यानी कामधेनु कहा गया है. यह भी एक रूपक है यानी गाय आपकी सब इच्छाएं पूरी नहीं कर सकती लेकिन अगर आपकी इच्छाएं सीमित हैं तो उन्हें ज़रूर पूरा कर सकती है.’

अमेरिका के जाने-माने समाजशास्त्री मार्विन हैरिस ने 1960 के दशक में, लंबे शोध के बाद गाय पर दो प्रसिद्ध निबंध लिखे थे. उनके दूसरे निबंध की चर्चा हम इस आलेख में आगे करेंगे लेकिन अपने पहले निबंध ‘इंडियाज़ सेक्रेड काऊ’ (भारत की पवित्र गाय) में वे बताते हैं कि ‘दूसरी सदी में भारत में जब ब्राह्मणवाद अपनी जड़ जमाने लगा तो देश में एक बड़ा आध्यात्मिक बदलाव हुआ और गाय समेत तमाम तरह के जानवरों का शिकार और उनका मांस खाए जाने को गलत बताया जाने लगा.’ हैरिस बताते हैं कि इसके पीछे कारण यह बताया गया कि हिंदू धर्म का मूल अहिंसा है. कुछ समय बाद ऊंची जातियों में मांस खाना लगभग पूरी तरह से ही प्रतिबंधित हो गया. देवदत्त पटनायक के विश्लेषण और हैरिस के कथन पर एक साथ गौर करें तो यह माना जा सकता है कि चूंकि उस समय गाय ही आजीविका का मुख्य साधन थी इसलिए उसे बचाने पर अधिक जोर दिया गया होगा और यहीं से गाय को विशेष दर्जा दिए जाने की शुरूआत हुई होगी.

गाय से जुड़े विज्ञान के आधार पर अगर गाय को महत्व दिए जाने पर गौर करें तो यह सही है कि गाय का दूध, भैंस के दूध की तुलना में ज्यादा फायदेमंद होता है. दोनों की तुलना करें तो भैंस के एक लीटर दूध में करीब 970 कैलोरी होती हैं वहीं गाय के दूध के लिए यह आंकड़ा 610 ही है. भैंस के दूध में वसा की मात्रा [6] गाय से लगभग दोगुनी होती है जबकि प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट्स दोनों में ही लगभग बराबर मात्रा में होते हैं. एक लीटर गाय के दूध में जहां 45 ग्राम लैक्टोज़ होता है, वहीं भैंस के दूध में इसकी मात्रा 53 ग्राम होती है. इसके अलावा फैट की मात्रा कम और पानी की मात्रा ज्यादा (भैंस – 83 प्रतिशत और गाय – 88 प्रतिशत) होने की वजह से गाय के दूध को पचाना अपेक्षाकृत आसान होता है. इसलिए अक्सर छोटे और नवजात बच्चों को गाय का दूध दिए जाने की सलाह दी जाती है.

गाय के दूध की एक खासियत यह भी है कि इसमें बीटा-कैरटीन पाया जाता है जो एक तरह का एंटीऑक्सीडेंट है. यह दूध में विटामिन ए की प्रचुरता के लिए जिम्मेदार होता है जिसके कारण दूध हल्का पीला दिखाई देता है. यानी कामधेनु आयोग का यह दावा कि गाय के दूध में सोने के कण होते हैं इसलिए यह पीला दिखाई देता है, वैज्ञानिक आधार पर सही नहीं है. यहां पर इस बात का भी जिक्र किया जाना चाहिए कि बीटा-कैरटीन हर नस्ल की गाय के दूध में पाया जाता है.

जहां तक देसी और विदेशी नस्ल की गायों के प्रोटीन में अंतर होने की बात कही जाती है, यह दावा भी बहुत हद तक सही है. दरअसल, मिल्क प्रोटीन व्हे और केसीन से मिलकर बनता है. दूध में पाए जाने वाले केसीन को बीटा केसीन कहते हैं जो रासायनिक रूप से 209 अमीनो एसिड्स की श्रृंखला है. यह श्रृंखला दो तरह की होती है – ए1 और ए2. कई वैज्ञानिक शोधों में पाया गया है कि ए2 श्रृंखला वाले दूध को पचाना आसान होता है जो मुख्य रूप से भारतीय नस्ल की गायों और भैंसों के दूध में मिलता है.

क्विज: गाय हमारी माता है लेकिन उसके बारे में आपको कितना आता है? [7]

कृषि प्रधान देश होने के चलते हमारे यहां बहुत हद खेती-किसानी गायों और कुछ अन्य मवेशियों के पालन पर भी निर्भर करती है. अच्छी बात है कि भारत में ये भारी मात्रा में पाए भी जाते हैं. अगर केवल गायों की बात करें तो भारत में अकेले देसी गाय की कुल 64 किस्में होती हैं. इनमें मुख्य रूप से गिर, ओंगोल, सहिवाल, थारपरकर, हल्लीकर, मालवी, खिल्लारी, कृष्णा वगैरह हैं. अब गाय की कुल किस्मों में से सिर्फ 32 ही ठीक-ठाक संख्या में पायी जाती हैं. बाकी का अस्तित्व या तो खत्म हो चुका है या होने के कगार पर है और शायद इसीलिए देश में गायों के संरक्षण पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है. हालांकि इसके साथ ही अन्य मवेशियों जैसे भैंस, भेड़, बकरी वगैरह का भी संरक्षण किए जाने और उनके पालन को उत्साहित किये जाने की भी लगभग उतनी ही ज़रूरत है. लेकिन चूंकि गाय से जुड़ा मामला धार्मिक होने के साथ-साथ अब राजनीतिक भी बन चुका है इसलिए देश के तमाम ‘पशुप्रेमी’ इस मामले में गाय को ही वरीयता देते दिखते हैं.

आधुनिक समय में गाय के संरक्षण के प्रयासों की बात करें तो यह 19वीं सदी के अंत में शुरू हुई. आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने सन 1879 में पहली गौशाला की स्थापना की थी और सन 1881 में उन्होंने आगरा में गौ-रक्षिणी सभा का गठन किया था. बाद के सालों में ‘हिंदुत्व’ के विकास के साथ गाय का राजनीतिकरण भी बढ़ता गया. साहित्य शोधार्थी और पूर्व पत्रकार अक्षय मुकुल अपनी किताब ‘गीताप्रेस और हिंदू भारत का निर्माण’ में बताते हैं कि ‘बीसवीं सदी के आरंभिक ढाई दशकों में गाय ‘हिंदू समुदाय को संगठित करने वाले उत्तेजक प्रतीक’ के तौर पर उभरी. इस आंदोलन ने गौकशी करने वाले मुसलमानों को निशाना बनाते हुए उन्हें दुश्मन की तरह पेश किया.’

किताब में अक्षय मुकुल विस्तार से बताते हैं कि कैसे इसके बाद गीताप्रेस से प्रकाशित पुस्तकों, पत्रिकाओं और विशेषांकों ने देश में हिंदुत्व का प्रचार करने के साथ-साथ गाय का एक विशेष राजनीतिक दर्जा तय करने में भी बड़ी भूमिका निभाई थी. यहां तक कि साल 1945 में जब इसकी पत्रिका कल्याण का गाय आधारित विशेषांक प्रकाशित किया गया तो उसमें गांधीजी के पुराने लेखों और भाषणों को जोड़कर, उनका भी एक आलेख प्रकाशित किया गया. मुकुल के मुताबिक यह गांधी को अपने अभियान से जोड़ने का प्रयास था. यहां पर इस बात का जिक्र किया जा सकता है कि लगभग 25 वर्षों तक गौरक्षा पर सबसे अधिक मुखर रहने के बाद, अपने जीवन के अंतिम सालों में गांधी ने इसके बजाय गौसेवा और पशु सुधार जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था. इसके पीछे हिंदुत्ववादियों का गाय को लेकर अपनाया जाने वाला अति-आक्रामक रवैया भी एक कारण था.

यहां पर मार्विन हैरिस के दूसरे मशहूर निबंध का जिक्र किया जा सकता है क्योंकि इसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के गौप्रेम का जिक्र है. ‘द कल्चरल ईकोलॉजी ऑफ इंडियाज़ सेक्रेड कैटल’ शीर्षक से लिखे गए इस निबंध में हैरिस ने बताया है कि गाय की उपयोगिता के प्रति गांधी की समझ किसी भी पश्चिमी विशेषज्ञ से बढ़कर थी. गांधी जी के पशुप्रेम की बात करें तो वे शायद भारत की पहली और इकलौती ऐसी राजनीतिक हस्ती थे जिन्होंने दूध देने वाले अन्य जानवरों के लिए भी माता शब्द का इस्तेमाल करना शुरू किया था. अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में वे लिखते हैं कि ‘व्रत का हेतु तो दूधमात्र का त्याग था, पर व्रत लेते समय मेरे सामने गौमाता और भैंसमाता ही थी, इस कारण से तथा जीने की आशा से मैंने मन को जैसे-तैसे फुसला लिया. मैंने व्रत के अक्षर का पालन किया और बकरी का दूध लेने का निश्चय किया. बकरीमाता का दूध लेते समय भी मैंने यह अनुभव किया कि मेरे व्रत की आत्मा का हनन हुआ है.’

गांधीवादी लेखक और चिंतक, अव्यक्त गांधी से जुड़े इसी किस्से का जिक्र करते हुए कहते हैं कि ‘इस समय जो लोग गाय के उत्थान में लगे हैं, वे असल में उसके नाम को खराब कर सकते हैं. ऐसे लोगों के कारण हमें गाय को दोष नहीं देने लग जाना चाहिए, उसमें जो गुण हैं वो तो हमेशा हैं और सबके लिए हैं. जहां तक मां होने की भावना रखने का सवाल है, हिंदू धर्म में हर पोषण करने वाली चीज को उसी भावना से देख जाता है. गांधीजी ने तो भैंस और बकरी को भी माता कहकर संबोधित किया है.’

हिंदू धर्म में गाय के महत्व और उसे लेकर चलने वाली राजनीतिक खींच-तान पर अव्यक्त कहते हैं कि ‘अगर हम समय में थोड़ा पीछे जाकर देखें तो वैदिक काल में जब गाय का महत्व बढ़ा तब खेती और पशुपालन आधारित अर्थव्यवस्था थी. दूसरी तरफ उस युग में कर्मकांडों की भी प्रधानता थी, उसमें गाय की बलि भी जाती थी. अब क्या हुआ है कि एक तरफ गाय को बचाने की बात करने वाले उसका महात्म्य गाते हुए भूल जाते हैं कि वह किस समय की बात थी. दूसरी तरफ इन्ही लोगों को चिढ़ाने के लिए गाय की बलि जैसी बातों को बढ़ा-चढ़ाकर धर्म का मजाक बनाने वाले भी समय को याद नहीं रखते. समझने वाली बात यह है कि उस दौर में हमारे पूर्वज तो सीख ही रहे थे. मनुष्य का तो विकास ही इस तरह हुआ है कि उसने अपनी बुद्धि से काम लेना शुरू किया और जब उसे लगा कि गाय को न मारना उसके लिए ज्यादा फायदेमंद है, तो वह उसे बचाने लगा.’ अव्यक्त आगे जोड़ते हैं कि ‘हमारा समय प्रतिक्रियावाद का समय है. सब गाय से जुड़ी आधी-अधूरी बातें इस्तेमाल कर एक-दूसरे को चिढ़ाने का काम जारी रख रहे हैं. लेकिन गाय में जितनी करुणा होती है, इंसान के साथ इतने लंबे समय तक रहने के बाद वह उनके लिए जिस तरह से अपनी संवेदनाएं दिखाती है, उसके बाद उसे मां के अलावा आप और क्या कह सकते हैं.’