समाज | उस साल की बात है

क्या लता मंगेशकर ने भी गोवा की आज़ादी में अपना योगदान दिया था?

19 दिसंबर 1961 को सेना ने गोवा को 450 साल के पुर्तगाली शासन से आजाद कराया था

अनुराग भारद्वाज | 17 अप्रैल 2022

वास्कोडिगामा के कालीकट पहुंचने के 12 साल बाद, यानी 1510 में पुर्तगालियों ने गोवा, दमन, दीव, दादरा और नागर हवेली आदि पर कब्ज़ा कर लिया था. उनका शासन 450 साल तक रहा. यानी पुर्तगाली, अंग्रेज़ों और फ्रांसीसियों से ज़्यादा समय तक हिंदुस्तान में रहे. वे आख़िरी यूरोपीय लोग थे जो यहां से गए.

यूं तो गोवा की आज़ादी की शुरुआत 1946 में ही हो गयी थी. महात्मा गांधी ने तमाम राजनीतिक पार्टियों से एकजुट होकर गोवा को आज़ाद करने का आह्वान किया था. फिर भी हिंदुस्तान के आज़ाद होने के 14 बरस बाद गोवा को पुर्तगालियों से आजाद कराया जा सका. ऐसा इसलिए कि एक तो जवाहरलाल नेहरू सैनिक कार्रवाई नहीं करना चाह रहे थे. दूसरा, 50 के दशक के मध्य से ही वे चीन के साथ बनते-बिगड़ते रिश्तों में उलझ कर रह गए थे.

खैर, अब बात सिलसिलेवार तरीक़े से शुरू की जाए. गोवा की आजादी में पहले कांग्रेसी और फिर धुर समाजवादी राम मनोहर लोहिया का अहम योगदान है.

राम मनोहर लोहिया की भूमिका

गोवा में पुर्तगालियों के राज के अंत की शुरुआत का सेहरा राम मनोहर लोहिया के सर बांधा जाता है. लोहिया गोवा के विद्वान् और शिक्षाविद डॉ जूलिआओ मेंज़ेस के बुलावे पर जून 1946 में वहां गए थे. बाक़ी का हिंदुस्तान आज़ादी के मुहाने पर खड़ा था, महात्मा गांधी कभी दंगे की आग बुझा रहे थे तो कभी मोहम्मद अली जिन्नाह को हिंदुस्तान में रहने के लिए मना रहे थे. गोवा इस सबके बीच बिलकुल अलग-थलग था.

पुर्तगालियों का शासन वहां की जनता के विरुद्ध था. न प्रेस की आज़ादी, न सार्वजनिक सभायें करने की छूट और न ही अन्य नागरिक अधिकार. ऊपर से कोंकणी लोगों को ईसाई बनाने की मुहिम भी ज़ोरों पर थी.

राम मनोहर लोहिया ने जब यह माहौल देखा तो 15 जून, 1946 को जुलिआओ मेंज़ेस के साथ मिलकर सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ दिया. हज़ारों की भीड़ ने उनका समर्थन किया. 18 जून को लोहिया मार्मागाव गए और वहां पुलिस के हाथों धर लिए गए. उन्हें गोवा निकाला दे दिया गया. लेकिन उन्होंने वह अलख जगा दी थी जिसे गोवा के कई राजनेताओं ने आग का रूप दे दिया. गोवा में उस दिन की याद में तख्ती लगाकर उसे 18 जून सड़क का नाम दे दिया गया है.

आज़ाद गोमांतक दल और गोवा लिबरेशन आर्मी का आंदोलन

ये एक क्रांतिकारी समूह थे. आज़ाद गोमांतक के संस्थापकों में विश्वनाथ लवांडे, नारायण हरी नायक और प्रभाकर विट्ठल सिनरी प्रमुख थे. प्रभाकर सिनरी पर लोहियाजी के आंदोलन का बहुत प्रभाव पड़ा. उस वक़्त उनकी उम्र महज़ 13 साल की थी. पुर्तगाल पुलिस की ज़्यादतियों से आहत होकर उन्होंने यह रास्ता इख्तियार किया था. इन सभी ने पुर्तगाल की पुलिस और बैंकों पर हमले किये. सज़ा के तौर पर उन्हें 20 साल कैद सुनाई गयी. लेकिन वे जेल से भाग छूटे और पुर्तगाल पर हमले जारी रखे. उनकी वजह से दादर और नागर हवेली पुर्तगालियों के हाथ से निकल गये.

उधर, गोवा लिबरेशन आर्मी ने भी काफ़ी नुकसान पहुंचाया. 1954 में स्थापित सोंशी खदानों को इस संगठन ने उड़ा दिया था. दूसरी तरफ, सत्याग्रही अपने तरीके के शांतिप्रिय आंदोलन कर रहे थे. पर पुलिस उन पर भी टूट पड़ रही थी.

जब लता मंगेशकर ने गोवा की आजादी में हिस्सा लिया

लता मंगेशकर के पिता स्वर्गीय दीनानाथ मंगेशकर गोवा के रहने वाले थे. लताजी को गोवा से ख़ास ज़ज्बाती जुड़ाव था. एक साक्षात्कार में खुद लता मंगेशकर बताती हैं कि जब संगीतकार सुधीर फ़डके उनके पास आये और कहा कि गोवा के क्रांतिकारियों के संघर्ष के लिए धन इकट्ठा करने की ज़रूरत है, तो वे तुरंत ही राज़ी हो गईं. दो मई, 1954 में पुणे में एक कॉन्सर्ट में उन्होंने भाग लिया और उसके ज़रिये पैसों का इंतजाम किया गया.

भारत सरकार की कशमकश

दादरा और नगर हवेली के आज़ाद हो जाने के बाद गोवा के लोगों में उम्मीद जगी कि जवाहरलाल नेहरू और उनकी सरकार अब निर्णायक क़दम उठाकर उन्हें भी आज़ादी दिलवा देंगे. उधर, नेहरू जनसंघ और लेफ़्ट पार्टियों के दबाव में थे. चर्चित इतिहासकार रामचंद्र गुहा ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि गोवा की आज़ादी के लिए भारतीय सेना के हस्तक्षेप पर संघ और लेफ्ट नेहरू के साथ थे. पर दिल्ली ख़ामोश थी.

कोई उम्मीद न आती देख जनसंघ ने जून, 1955 में सत्याग्रह आंदोलन तेज़ कर दिया. 15 अगस्त 1955 को गोवा मुक्ति विमोचन समिति के आह्वान पर देशभर से लगभग 8000 लोग गोवा में घुस गये और उन पर पुर्तगाली पुलिस ने गोलियां चला दीं. लगभग 32 लोग मारे गए. देश में उस दिन आज़ादी मनाई जा रही थी और उधर, गोवा में कत्ले-आम हो गया था. शायद, गोवा के इतिहास में 15 अगस्त का वह दिन सबसे ख़ूनी था.

आख़िर नेहरू चाह कर भी कुछ क्यों नहीं कर पा रहे थे?

लोग हैरान थे कि आख़िर जवाहरलाल नेहरू कुछ कर क्यों नहीं रहे हैं. नेहरू इसलिए पशोपेश में थे क्योंकि पुर्तगाल नाटो समूह का सदस्य था. उनको अंदेशा था कि अगर सैनिक कार्रवाई की गई तो पुर्तगाल गोवा को बचाने के लिए नाटो संधि में शामिल मित्र देशों से भारत पर हमला करवा देगा.

वह शीत युद्ध का दौर था. अमेरिका और रूस क्यूबा पर ही नहीं, बल्कि जहां-जहां एक दूसरे को नीचा दिखाने का मौका पाते, हमला कर रहे थे. आपको बता दें कि अमेरिका नाटो का एक प्रमुख सदस्य है. नेहरू इसलिए बेबस थे.

इधर अफ़्रीकी और अन्य एशियाई मुल्कों में नेहरू पर इस बात का दवाब बनाया जाने लगा. कहा गया कि एक तरफ़ तो वे संयुक्त राष्ट्र के कहने पर अन्य मुल्कों में अपनी सेना भेजकर कर वहां के लोगों को बचा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ अपने घर में हो रहे हाहाकार को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं.

इसी बीच जवाहरलाल नेहरू को रूस ने सहारा दे दिया. रूस के भारत के साथ खड़े हो जाने के बाद अमेरिका भी चुप हो गया. अब नेहरू के लिए राह आसान थी. उन्होंने समय ज़ाया किये बिना निर्णय ले लिया और 18 दिसंबर, 1961 को भारतीय सेना ने गोवा की मुक्ति के लिए ‘ऑपरेशन विजय’ शुरू कर दिया.

ऑपरेशन विजय

यूं तो भारतीय सेना की कार्रवाई 11 दिसंबर को ही शुरू हो गयी थी पर 18 दिसंबर को सेना ने तीनतरफ़ा आक्रमण कर दिया. उत्तर गोवा में सावंतवाडी से, दक्षिण में कारवार से और पूर्व में बेलगाम की तरफ़ से.

उधर, अफ्रीका के कुछ उपनिवेश देशों में पुर्तगाल की सेना मौजूद थी. किसी भी संभावित हमले को रोकने के लिए भारतीय जल सेना (नेवी) ने अरब सागर में आईएनएस विक्रांत को तैनात कर दिया. उसके साथ साथ आईएनएस बेतवा और आईएनएस ब्यास भी खड़े कर दिए गए थे.

पुर्तगाल की हवाई सेना की गोवा में उपस्थिति लगभग न के बराबर थी. लिहाज़ा, हवाई हमले की आशंका नहीं थी. कुल मिलाकर, भारतीय सेना का पलड़ा ज़्यादा मज़बूत था और इसकी कमान थी मेजर जनरल केपी कन्देथ के हाथों में.

भारतीय हवाई जहाजों ने गोवा के लोगों से शांति और धैर्य बनाये रखने की अपील वाले पर्चे गिराने शुरू कर दिए. लोगों ने सेना को उन स्थानों की जानकारी भी दी जहां-जहां पुर्तगाली सेना ने माइंस बिछा रखी थीं.

बेहद कम संघर्ष हुआ. पुर्तगाली सेना ने जल्द ही समर्पण कर दिया. 36 घंटों के भीतर गोवा के गवर्नर जनरल मैन्युअल वैसेलो ई सिल्वा ने बिना शर्त समर्पण कर दिया.

हालांकि बताते हैं कि तत्कालीन पुर्तगाली प्रधानमंत्री अंतोनियो डी ओलिवेइरा सलाज़ार ने गवर्नर जनरल को अंतिम समय तक लड़ने का आदेश दिया था. ऐसा न करने पर मैन्युअल वैसेलो ई सिल्वा को काफ़ी बेइज्ज़त किया गया था.

पश्चिमी देश और वहां का मीडिया जवाहरलाल नेहरू पर ख़ासा नाराज़ हुआ. उन पर दोहरे मापदंडों को अपनाने का इल्ज़ाम भी लगाया गया. इस कार्रवाई को उन्होंने अंतरराष्ट्रीय कानून की ख़िलाफ़त माना. रामचंद्र गुहा लिखते हैं, ‘हद तब हो गयी जब पश्चिमी देशों ने इसे गोवा में ईसाइयों और ईसाइयत के लिए ख़तरा माना.’ तब न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा था कि भारतीय सेना के एक तबके में इस ऑपरेशन की जीत पर ख़ुशी इसलिए भी थी कि चीन से लगी सीमा पर भारत द्वारा हो रही लगातार रणनैतिक ग़लतियों ने उसका उत्साह कम कर रखा था.

संयुक्त राष्ट्र में रूस ने भारत की तरफ़दारी की. चीन ने भी भारतीय सैन्य कार्यवाही को सही ठहराया. चीन की ये एक रणनीति थी. वो नेहरु का ध्यान भटका रहा था.1962 अब नज़दीक आ चुका था.

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