जिस तरह लोगों ने नियत समय और तिथि पर दिये जलाये या थालियां बजायी थीं वैसे ही लोग किसी दिन मिलकर पूरे देश में ‘हंसी पर्व’ मनायें
अशोक वाजपेयी | 19 दिसंबर 2021
ग़रीबी में आगे
हिंदी अंचल के बारे में बुरी ख़बरें थमने का नाम नहीं लेतीं. हम पहले नोट कर चुके हैं कि हिंदी अंचल हत्या-हिंसा-बलात्कार आदि अपराधों के मामले में, दुर्भाग्य से, देश में सबसे आगे है. नीति आयोग में ‘बहुआयामी ग़रीबी’ के बारे में जो नया आकलन प्रसारित किया है उससे प्रगट है कि देश की ग़रीबी का एक बड़ा हिस्सा हिंदी अंचल में है. अपराध, ग़रीबी, हिंसा और इस अंचल की बढ़ती साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता में, ज़ाहिर है, परस्पर एक-दूसरे को पोसने-बढ़ाने का संबंध है.
नीति आयोग ने जो आंकड़े प्रकाशित किये हैं उनके अनुसार हिंदी प्रदेशों में ग़रीबी में रह रही जनता का प्रतिशत उनकी जनसंख्या के मान से इस प्रकार है: बिहार 51.91, झारखण्ड 42.16, उत्तर प्रदेश 37.79, मध्य प्रदेश 36.79, और राजस्थान 29.5. इन पांचों प्रदेशों का सम्मिलित प्रतिशत 39.63 आता है. स्पष्ट है कि पांच हिंदी भाषी राज्यों में ग़रीबों की संख्या लगभग 40 प्रतिशत है. ग़रीबी का यह आकलन शिक्षा, स्वास्थ्य, जीने के मानदण्ड, पोषण, स्कूल में उपस्थिति, स्कूल में बिताये वर्ष, पीने का पानी, स्वच्छता, आवास, बैंक खाता आदि के आधार पर किया गया है.
ग़रीबी के इन आंकड़ों के प्रकाशन के बाद इस पर किसी अख़बार का कोई सम्पादकीय या किसी राजनेता का कोई वक्तव्य नहीं आया, मेरे देखने में. इधर सत्तारूढ़ शक्तियों ने ग़ैर-ज़रूरी मुद्दों को इस तरह केंद्र में ला दिया है कि ग़रीबी जैसा भयानक मुद्दा ज़ेरे बहस नहीं रह गया है. इसका एक आशय यह भी है कि हिंदी प्रदेश की 40 प्रतिशत जनता, जोकि उसकी आबादी का लगभग आधा हिस्सा है, राजनीति और विकास के अहाते से बाहर हो गयी है. इस आबादी को धर्म-जाति-सम्प्रदाय आदि के मुद्दों में फंसाकर अपनी असली स्थिति की भयावहता की पहचान से भी दूर किया जा रहा है.
ग़रीबी का यह विस्तार भयानक है पर उससे कम भयानक नहीं है उसकी उपेक्षा, उसको नज़रन्दाज़ करना. इधर लगभग एक साल चले किसान आन्दोलन ने यह तो स्पष्ट किया है कि किसान उन पर जबरन, सुधारों के नाम पर ग़रीबी और मुफ़लिसी लादने-बढ़ाने के उपायों को बरदाश्त नहीं करेंगे. ग़रीबी के विरुद्ध ऐसी ही सामूहिक कार्रवाई और आन्दोलन की ज़रूरत है. जैसे किसानों ने अपना नेतृत्व स्वयं विकसित किया और उसके लिए मध्यवर्ग का मुंह नहीं जोहा वैसे ही ग़रीबों और वंचितों को हिंदी मध्यवर्ग से कोई उम्मीद किये बिना अपना नेतृत्व स्वयं विकसित करना होगा. हिंदी प्रदेशों में ग़रीबी दूर करने के सारे संसाधन मौजूद हैं और उनका ऐसा उपयोग व्यापक तौर पर करने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति और कर्म और ज़रूरत भर है. हिंदी अंचल की राजनीति को ग़रीबी पर केंद्रित होना चाहिये और उसका समय आ गया है.
यह भी नोट करना चाहिये कि इसी आकलन के अनुसार ग़रीबी का प्रतिशत केरल में सबसे कम कुल 0.71 है और तमिलनाडु में 4.89, पंजाब में 5.59, गोवा में 3.76 और सिक्किम में 3.82 है. लगता यह है कि ग़रीबी दक्षिण में घट रही है और उत्तर में बढ़ रही है. इस विषमता के गंभीर राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिणाम हो सकते हैं.
लोरी, रंगोली और भक्तिगीत
संगीत नाटक अकादेमी ने, सुना है, आज़ादी के अमृत महोत्सव मनाने के सिलसिले में लोरी, रंगोली और देशभक्ति गीतों के लिए राष्ट्रीय स्पर्धा करने का निश्चय किया है और प्रस्तुतियां आमंत्रित की हैं. जहां तक मुझे याद आता है इस अकादेमी ने पहले कभी कोई स्पर्धा आयोजित नहीं की थी. संगीत, नृत्य, नाटक आदि को किसी यांत्रिक ढंग से आयोजित की जानेवाली स्पर्धा का विषय नहीं माना जाता रहा है. इस अकादेमी ने कभी लोरी और रंगोली को भी स्पर्श करने की चेष्टा नहीं की. लोरी एक बेहद वत्सल आत्मीय रचना होती है- वह कोई लिखता नहीं है- वह अनाम रहकर पीढ़ी दर पीढ़ी अन्तरित होती रहती है. उसमें सूरज, चन्दा, रात, नींद आदि के बहाने बच्चे को सुलाने की चेष्टा की जाती है. लोरी में देशभक्ति का तत्व बहुत अजनबी होगा. इस सिलसिले में मुझे दशकों पहले का एक प्रसंग याद आता है.
मध्य प्रदेश के शिक्षा विभाग में 1947 में मैं उपसचिव था और पाठ्यपुस्तकों के पुनरीक्षण करने बैठे शिक्षा-विशेषज्ञों की एक बैठक में शामिल था. मैंने यह सामान्य जिज्ञासा की कि इन दिनों में छात्रों में देशभक्ति के भाव की क्या स्थिति है. सभी विशेषज्ञ एकमत थे कि ऐसी शक्ति छात्रों में बिलकुल नहीं है. तब मैंने ‘बाल भारती’ नामक पाठ्यपुस्तक का छठवीं कक्षा के लिए भाग खोलकर उनके सामने गिनवाया कि उसमें 33 पाठों में से 17 पाठ देशभक्ति से संबंधित थे. उनके पास कोई उत्तर नहीं था.
मैंने सुझाया कि देशभक्ति ऐसे नहीं जगायी जा सकती: छात्र को उस स्तर पर प्रकृति, पर्वत, नदी, पशुओं-पक्षियों से अनुराग करना आसानी से आ सकता है और वही आगे जाकर देशभक्ति में विकसित हो सकता है. अन्यथा इस स्तर पर देश का उनके लिए कोई विशेष अर्थ या अनुभव नहीं होगा. लोरी तो पाठ्यपुस्तक से भी और पहले का मामला है. उसमें देशभक्ति का भाव थोपने या घुसेड़ने की कोशिश से इस भक्ति-भाव के दुधमुंहे या बहुत कम आयु के बच्चे में घर करने की कोई सम्भावना नहीं है और यह एक विफल प्रयत्न होने के लिए अभिशप्त है. यह भी कहा जा सकता है कि अकादेमी का लोरी को अपने क्षेत्र में लाना एक बेहद निजी विधा में हस्तक्षेप करना है जिसका कोई सामाजिक या सांस्कृतिक औचित्य नहीं है. देशभक्ति ऐसे ‘बचकाने’ प्रयोगों से न बढ़ायी जा सकती है और न ही असहमति और प्रश्नवाचकता को देशभक्ति के नाम पर दबाया या अपराध बनाया जा सकता है. किया जा रहा है पर ऐसा करना लोकतंत्र और देश विरोधी कार्रवाई है.
हंसना मना है
हमारे एक बड़े कवि रघुवीर सहाय के एक प्रसिद्ध कवितासंग्रह का नाम था ‘हंसो-हंसो जल्दी हंसो’ और उसकी इसी शीर्षक की पहली कविता की पहली पंक्ति थी: ‘हंसो तुम पर निगाह रखी जा रही है.’ यह महीना रघुवीर जी जन्म और पुण्य तिथियों का महीना है. अज्ञेय की 1996 में लिखी एक कविता का शीर्षक है ‘मुझे आज हंसना चाहिये’ और उसका अंतिम अंश है:
इसलिए तो
जिनका इतिहास होता है
उनके देवता हंसते हुए नहीं होते:
कैसे हो सकते?
और जिनके देवता हंसते हुए होते हैं
उनका इतिहास नहीं होता
कैसे हो सकता?
इसी बात को लेकर
मुझे आज हंसना चाहिये….
हम, दुर्भाग्य से, ऐसे समय में आ गये हैं जहां हंसने पर लगातार रोक लग रही है. जब कोई निज़ाम हंसने से डरने लगे और उस पर रोक लगाने की चेष्टा करने लगे तो तो इसके कई आशय होना लाज़िमी है. पहला तो यह कि आततायी ही हंसने से डरता है- सोवियत संघ में उस समय के शासकों को लेकर चुटकुलों की एक लगभग भूमिस्थ सत्ता ही तैयार हो गयी थी. दूसरा यह कि ऐसा निज़ाम हंसी दबाने के लिए पुलिस, सत्ता के अन्य उपकरणों का निर्लज्य सहारा ले सकता है. तीसरा यह कि जो निज़ाम हंसी से डरने लगे वह अन्ततः भुरभुरा निज़ाम साबित होता है. चौथा यह हो सकता है कि जिस तरह लोगों ने नियत समय और तिथि पर दिये जलाये या थालियां बजायी थीं वैसे ही लोग किसी दिन मिलकर पूरे देश में ‘हंसी पर्व’ मनायें और दो-चार मिनिट ठहाके मारकर हंसें. ऐसी देशव्यापी हंसी, निराला की पंक्ति ‘यह हंसी बहुत कुछ कहती थी’ याद करें, तो प्रतिरोध का एक बेहद दिलचस्प रूप या उपकरण हो सकती है.
हंसी लाचारी तोड़ी भी हो सकती है. हमें इस पर हंसना चाहिये कि हम अपनी स्वतंत्रता निजता में कटौती, समता और प्रतिगति, न्याय में देरी और जी हुजूरी लगातार होते देख रहे हैं और कुछ कारगर करने से लगातार बच रहे हैं. ऐसे अवसर होते हैं जब हंसना रोने का ही एक संस्करण हो जाता है. कबीर तो खुले नयन हंस-हंस सुंदर रूप निहारते थे. हमारे नयन अगर भक्ति में मुंद नहीं गये हैं तो हंस-हंस कर हमारे समय का असुंदर और विद्रूप निहारने की ताब रख सकते हैं.
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