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क्या हिंदी केवल बाहुबल में सशक्त हो रही है?

झूठ की लपेट में सच

हमारे समय में रोज़ाना इतना झूठ बोला, फैलाया, समझा, यक़ीन किया जा रहा है कि हममें से कई को अपने सच पर शंका होने लगती है. इस घटाटोप में झूठ के इतने सुंदर-आकर्षक-प्रलोभित करनेवाले इंद्रजाल हैं कि उनमें फंसने से बचना मुश्किल होता जा रहा है. झूठ की वाचालता और चकाचौंध इतनी है कि उसमें सच दुबक सा जाता है – कई बार अंधेरे में ढकिल जाता है. यह संदेह तक होने लगता है कि कहीं सच बचा भी है या कि उसे झूठ ने पूरी तरह अपदस्थ कर दिया है. हमें जो कुल जगह मिली है उसका जो सार्वजनिक हिस्सा है उसमें तो निश्चय ही झूठ छा गया है.

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झूठ के इस विशद व्यापार में राजनेता, धर्मनेता, प्रवक्ता, मीडिया, धार्मिक-जातिवादी-साम्प्रदायिक संगठन, विज्ञापन, विद्वान, विशेषज्ञ, तकनीकी के हुनरमंद आदि सभी शामिल हैं. हमारे इतिहास में झूठ कभी इतना एकजुट नहीं हुआ था, वह इतना आक्रामक-हिंसक-हत्यारा भी पहले नहीं हुआ था जितना कि आज है. उसे माननेवालों की संख्या इतनी विशाल पहले कभी नहीं थी. हमने पारंपरिक रूप से सत्युग की कल्पना तो की थी लेकिन अब हम, बिना कल्पना का सहारा लिये, सचाई में असत्युग में हैं. असत् की सत्ता चतुर्दिक फैलती जा रही है. असत् का भयतंत्र चौबीसों घंटे सक्रिय है और लोकतंत्र में निर्भयों की संख्या घटती जा रही है. हो सकता है कि यह एक अतिरंजित चित्र है: पर बिना अतिरंजना के इस समय को समझना मुश्किल है. चीज़ों, बाज़ारों, झूठ और घृणा, भेदभाव और अन्याय, अत्याचार और अपराधों की अतिशयता है जिसे बयान करते ही अतिशयोक्ति लगने लगती है.

शायद साहित्य ने इतने विराट पाखण्ड, इतने सुसज्जित और हिंसक झूठ का सामना पहले नहीं किया था. जो स्थिति है उसमें झूठ के पास नयी तेज़ रफ़्तार से फैलनेवाली तकनालजी है और एक बेहद पिछड़ी लेकिन प्रतिशोधी मानसिकता है. इनके रहते साहित्य स्थिति को शायद बदल नहीं सकता. पर इसकी यह ट्रैजिक ज़िम्मेदारी है कि वह ऐसी लाचार और अभिशप्त कोशिश, फिर भी, करे. उसकी यह भी ज़िम्मेदारी है कि वह इस स्थिति को दर्ज़ करे और सच को उपस्थित बनाये रखे. यह वह समय है जिसमें उसे अंतकरण का, सच का जासूस होना होगा और ऐसी युक्तियां गढ़नी होंगी जिनसे उसके रिकार्ड और खोज सुरक्षित रह सकें. वह सच को शायद बचा नहीं सकता पर सच कह तो सकता और सच पर अड़ा तो रह सकता है. यह सब करते हुए उसे मुनासिब विनय से काम लेना होगा: सच की कोई ठेकेदारी साहित्य को नहीं मिली है और न वह ऐसी ठेकेदारी कभी चाह सकता है. यह उसकी नैतिक ज़िम्मेदारी है कि वह स्वतःस्फूर्त ढंग से हमारे समय का सत्याग्रह बने. आज यह ज़रूरी है कि लोकतंत्र में लगातार घटती प्रश्नवाचकता का साहित्य में घर और विस्तार हो. इस लगातार भयाक्रांत होते लोकतंत्र में साहित्य हमें निर्भय बना सके तो यह उसका लोकतंत्र को बचाने में योगदान होगा.

टूटी हुई, बिखरी हुई

इधर अमरीकी मार्क्सवादी आलोचक फ्ऱेड्रिक जेम्सन की नयी आलोचना-पुस्तक ‘दि बेन्यामिन फ़ाइल्स’ पढ़ रहा हूं. इस ओर ध्यान गया, उनके विवेचन से ही, कि पश्चिम में जहां बीसवीं शताब्दी में सुव्यवस्थित विचार और ख़ासकर व्यवस्थित और आक्रामक विचारधाराओं का आतंक और प्रभुत्व एक ओर था तो दूसरी टूटे-बिखरे टुकड़ा-टुकड़ा विचार की भी एक सजग सक्रिय परंपरा थी. कहा तो यह भी जा सकता है कि विचारधाराएं प्रायः उन्नीसवीं शताब्दी के विचारों के विन्यास थीं जबकि नया विचार जो बीसवीं शताब्दी का अपना विचार माना जाये वह अव्यवस्थित विचार ही था जो टुकड़ों-टुकड़ों में फ्रांज काफ़्का, विट्गेंस्टा-इन और वाल्टर बेन्यामिन में प्रगट हुआ. काफ़्का तो सर्जनात्मक लेखक-कथाकार थे पर उनके विचार, जैसे कि उनके समकालीन रिल्के जैसे कवि के विचार उनके पत्रों, सूक्तियों में बिखरे हुए हैं पर जीवन-मृत्यु-धर्म-कविता-व्यवस्था-प्रकृति-मानवीय संबंध-प्रेम-राज्य आदि को लेकर हैं और अप्रत्याशित रूप से नये हैं. विट्गेंस्टाइन और बेन्यामिन तो दार्शनिक थे पर उनमें से किसी ने भी कोई वैचारिक पुस्तक विधिवत् नहीं लिखी.

मुझे याद आया कि हमारे एक मूर्धन्य आधुनिक शमशेर ने अपनी एक प्रसिद्ध कविता ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ शीर्षक से लिखी और दशकों पहले मैंने उनका एक संचयन इसी नाम से संपादित किया था. उनकी कई कविताएं टूटे-बिखरे सौन्दर्यशास्द्ध से उपजी हैं और उनका आलोचनात्मक गद्य अधिकांशतः ऐसा ही अव्यवस्थित है. फिर मुक्तिबोध ने तो कई अधूरी कविताएं लिखने में एक तरह से महारत ही हासिल किया. उनका बीहड़ शिल्प भी एक तरह से टूटे-बिखरे शास्त्र का प्रतिफलन है. दिलचस्प संयोग यह है कि बेन्यामिन, शमशेर और मुक्तिबोध अपनी आस्था में मार्क्सवादी थे जिसकी सुव्यवस्थित विचारधारा उन्हीं दिनों सत्तारूढ़ थी जिन दिनों ये तीनों उस विचारधारा की सुव्यवस्था से अलग वैचारिक अव्यवस्था को प्रश्रय दे रहे लगते हैं. शायद यह मार्क्सवाद का एक अलग विस्तार था जिसकी ओर हमने कम ध्यान दिया. जब उनकी आस्था के अनुरूप एक पूरी विचारधारा उपलब्ध थी तो इन दिनों से उससे अलग राह चुनने का जोखिम क्यों कर उठाया? इसका एक उत्तर तो यह हो सकता है और काफी हद तक उचित होगा कि उन्हें विचारधारा अपर्याप्त लगती थी और उनके यहां विचार की जो बढ़त थी वह धारा या सत्ता नहीं, सचाई की तरह ही अव्यवस्थित अभिव्यक्ति की मांग कर रही थी.

यह भी उल्लेखनीय है कि कम से कम बेन्यामिन और मुक्तिबोध को उनकी कम उम्र में मृत्यु के कारण विचारधारा ने जो नरसंहार और अत्याचार किये उनकी जानकारी नहीं हो पाई थी. जो हो, हमारे प्रगतिशील आलोचकों ने ज्यादातर अगर विचारधारा के प्रति एक तरह की आज्ञा पालक स्वामिभक्ति दिखायी तो हमारे दो सृजनात्मक मूर्धन्यों ने उस धारा से प्रतिबद्ध रहते हुए नवाचार और नवविचार का जोखिम उठाया.

दुर्दशा में शोध

अगर हिंदी की सार्वजनिक अभिव्यक्ति में हिंसा-घृणा-भेदभाव लगातार बढ़ते जा रहे हैं और उसके मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा धर्मांधता-साम्प्रदायिकता और जातिविद्वेष में सक्रिय नज़र आता है तो हिंदी का अध्यापन और शोधकार्य इन वृत्तियों से अप्रभावित नहीं रह सकता. अगर बहुत बड़ी संख्या में हिंदी पढ़े लोग इन वृत्तियों का उत्साहपूर्वक अनुकरण कर रहे हैं तो स्पष्ट है कि हिंदी अध्यापन धीरे-धीरे उदार तत्वों को अपने छात्रों में अंतरित और उत्साहित करने में विफल हो रहा है. उसका, फिर, एक बड़ा हिस्सा इन तत्वों को हिंदी के जातीय स्वभाव और उसके उत्तराधिकार का हिस्सा मानता ही नहीं है. समूचे हिंदी अंचल में शिक्षा का स्तर बुरी तरह से नीचे आ गया है: हिंदी बाहुबल में सशक्त हो रही है और सांस्कृतिक स्मृति और विवेक में निरंतर विपन्न.

यह बात अलक्षित नहीं गयी है कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग, अक्सर संस्कृत विभाग के साथ, सबसे आज्ञापालक और सत्ता के चापलूस विभाग होते हैं. उनमें से अधिकांश में किया जा रहा शोध कार्य इतना सतही और अध्यवसायहीन है कि उसे किसी तरफ़ से शोध कहा ही नहीं जा सकता. एक अध्यापक-मित्र ने बताया कि दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग ने हाल ही में भूतपूर्व मानव संसाधन मंत्री निशंक और लोकप्रिय कवि कुमार विश्वास पर पीएचडी स्तर पर शोध करने को मंजूरी दी है. मुझे याद आया कि इसी हिंदी विभाग के बहुत शक्तिशाली अध्यक्ष हिंदी आलोचक डॉ. नगेन्द्र ने, पिछली सदी के सत्तर के दशक के शुरू में, शोध विषयों की कमी की सार्वजनिक शिकायत की थी. इतने दशकों बाद उनके विभाग ने नये विषय खोजकर इस कमी को दूर करने की कोशिश की है.

अज्ञेय, रेणु, मुक्तिबोध, शमशेर, रघुवीर सहाय, श्रीकान्त वर्मा, निर्मल वर्मा आदि पर शोध कार्य हुआ है. पर याद नहीं आता कि इस शोध का कुछ भी इन लेखकों को समझने, उनके महत्व और प्रासंगिकता को देख पाने में सहायक या समर्थ साबित हुआ है. मैं अपने ज्ञान की सीमा स्वीकार करता हूं, पर मुझे इधर किसी शोधकर्ता के ऐसे शोध पर आधारित पुस्तक याद नहीं आती जिसे पढ़ना हमारे महत्वपूर्ण लेखकों या कृतियों को समझने में मदद करे.