उत्तर प्रदेश अपनी उजली सांस्कृतिक परम्परा का उत्तराधिकार तज चुका है और इस समय वह देश का सबसे हिंसक-हत्यारा-बलात्कारी प्रदेश बन चुका है
अशोक वाजपेयी | 04 जुलाई 2021 | फोटो: पिक्साहाइव
अपढ़ हिन्दू का राष्ट्र
चिन्तन और विचार की, सौन्दर्यशास्त्र और अध्यात्म की हिन्दू परम्परा बहुत लम्बी और विविध है: तब उसे हिन्दू कहा-माना नहीं जाता था. इस परम्परा का एक अनिवार्य पक्ष था प्रश्नवाचकता, विवाद और संवाद. उपनिषदों से लेकर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ महाकाव्यों तक सभी प्रश्नप्रधान ग्रन्थ हैं: यह माना जाता था कि बिना प्रश्न पूछे ज्ञान तक पहुंचना सम्भव नहीं है. यह अपवाद नहीं है कि नचिकेता यमराज तक से प्रश्न पूछता है और गीता में अर्जुन कृष्ण से. न सिर्फ़ प्रश्न अनेक थे, उसमें से हरेक के उत्तर भी अनेक थे. किसी गुरु का वह शिष्य उपयुक्त नहीं माना जाता था जो प्रश्न न पूछे. इसी प्रश्नवाचक परम्परा का एक और पक्ष था उसकी निर्भयता. प्रश्न पूछनेवाला और उत्तर देनेवाला निर्भयता में एकत्र थे. आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जब अपने एक चरित्र से कहलाया है कि ‘न धर्म से, न वेद से, न लोक से, न गुरु से डरो,’ तो यह इसी परम्परा का एक सत्यापक पक्ष उजागर करना था. इस परम्परा में नये विचार का प्रतिपादन करने के लिए ज़रूरी था कि आप पहले पूर्वपक्ष में यह ईमानदारी से बतायें कि पहले इस विषय पर क्या कहा गया है और फिर उत्तर पक्ष में उसका तार्किक प्रत्याख्यान करते हुए अपना नया विचार रखें. हिन्दू परम्परा भजन-कीर्तन और आंख मूंदकर भक्ति की परम्परा नहीं रही है: उसमें ज्ञान का बहुत ऊंचा स्थान रहा है. विशद और बहुल ज्ञान के बिना हिन्दू परम्परा की कल्पना करना असम्भव है.
अगर हिन्दू परम्परा को ध्यान में रखें तो इधर जो शक्तियां हिन्दू राष्ट्र की स्थापना का लक्ष्य बताते हुए सत्तारूढ़ हो गयी हैं, उनका हिन्दू परम्परा से कोई सम्बन्ध नहीं है. हिन्दुत्व हिन्दू परम्परा की अपढ़ता से उपजी, यूरोप की नकल में विकसित राजनैतिक विचारधारा है और यह आकस्मिक नहीं है कि वर्तमान सत्ता के हर स्तर पर अज्ञान मुखर और सक्रिय है. शीर्षस्थ हिन्दू राजनेता कभी किसी हिन्दू ग्रन्थ या परम्परा का उल्लेख नहीं करते क्योंकि उनका इस परम्परा का कोई ज्ञान या गहरी समझ है ही नहीं. धर्म को निरा अनुष्ठान बनाकर ये हिन्दू धर्म के साथ घोर अन्याय कर रहे हैं. यह दिलचस्प है कि ये राजनेता भारत में हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने की चेष्टा कर रहे हैं. यह राष्ट्र अभी के राष्ट्र से कैसे अलग होगा यह किसी ने स्पष्ट नहीं किया है. जो संकेत हैं वे ये हैं कि उसमें अल्पसंख्यक बहुसंख्यक हिन्दू की अनुकम्पा पर रहेंगे और उनके समान अधिकार जो अभी हैं वे मान्य नहीं होंगे. यह कल्पना किस हिन्दू परम्परा से आयी है? भारतीय परम्परा में केन्द्रीकृत शासन के बजाय विकेन्द्रीकृत शासन ही प्रमुख रहा है जबकि प्रस्तावित हिन्दू राष्ट्र प्रचण्ड रूप से केन्द्रीकृत होगा. संघीय ढांचे को वर्तमान निज़ाम अवमूल्यित लगातार कर रहा है जो विकट केन्द्रीकरण का साक्ष्य है. इसका फिर हिन्दू परम्परा और चिन्तन से कोई समर्थन नहीं मिल सकता. कुल मिलाकर यह कि अपढ़ और अपनी परंपरा से अज्ञानी हिन्दू राष्ट्र बनाने चले हैं. एक अपढ़ हिन्दू राष्ट्र बनेगा, अगर, दुर्भाग्य से, बना!
कोरोना में कविता
यह सारी मनुष्यता के लिए कुसमय है: चारों ओर भय, आशंका, बन्दिश, मृत्यु का बेहद त्रस्त करनेवाला वातावरण है. सभी विवश एकान्त में बंद हैं. रोज़-व-रोज़ कुछ मित्रों या परिचित्रों-परिजनों की मृत्यु की भयानक ख़बरें आती रहती हैं. सत्ता और राजनीति, ऐसे अभागे समय में भी नीचता, क्रूरता और हिंसा बरत रही हैं. ऐसे कुसमय में कविता हिचक भले रही हो पर स्थगित नहीं हुई है. यह आपदा में अवसर खोजने की कोशिश नहीं कर रही है- वह इस कुसमय को, उसमें मनुष्य बने रहने की, मृत्यु के इतना निकट होने की विकटता को, मनुष्यता की फिर भी बची गरमाहट, संग-साथ और राहत को दर्ज़ कर रही है. यही कविता का धर्म है: वह ख़राब से ख़राब समय में भी मनुष्य का साथ नहीं छोड़ती. जब मनुष्य पर कालच्छाया हो, तब कविता उसकी छाया बनकर उसके साथ होती है.
पर कविता इस समय में सिर्फ़ लिखी भर नहीं जा रही है. बहुत सारे लोग अपने लाचार एकान्त को सहने के लिए, उसको समझने के लिए कविता पढ़ने-सुनने का सहारा ले रहे हैं. अगर फ़ेसबुक पर जो हो रहा है उसको कुछ साक्ष्य मानें तो स्पष्ट है कि उस पर लगातार कविताएं डाली जा रही हैं, कविता के आयोजन हो रहे हैं, कुछ स्थानीय, कुछ अखिल भारतीय और कुछ अन्तर-राष्ट्रीय. इन सबके पाठक और श्रोता हैं. बहुत सारी पुरानी कविताओं को और इस नाते भूले-बिसरे कई कवियों को याद भी किया जा रहा है. एकाध समूह ऐसा भी इस क्षेत्र में सक्रिय है जिसका काम दूसरों पर, कविताओं के बहाने, लांछन लगाना, उनका चरित्रहनन करना और लगातार कीचड़ उछालना है. उनके भी प्रशंसक हैं. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताएं भी फ़ेसबुक पर लगातार लगायी जा रही है. ज़ाहिर है कि इस सबमें सब कुछ अच्छा या वांछनीय नहीं है. पर एक मुक्त वितान है जिस पर अच्छा-बुरा सब आ रहा है. ख़राब और बुरा थोड़ी देर के लिए कुछ सनसनी, कुछ उत्तेजना पैदा कर सकता है पर अन्ततः वह ध्यान और समर्थन के हाशिये पर ठिल जाता है. कुछ अकाल-परिपक्व या अनर्जित कीर्तियां भी इस दौरान बन रही होंगी. पर वे देर-सबेर ग़ायब हो जायेंगी इसमें शक नहीं. ऐसी कविताएं भी इस दौरान होंगी ही जो कुछ क्षणिक फुरफुरी पैदा करेंगी और फिर फुस्स हो जायेंगी. यह अलक्षित नहीं जाना चाहिये कि इस दौरान बहुत सारे लेखकों और कृतियों को सुनियोजित ढंग से, सार्थक और विचारोत्तेजक रूप में फिर विचार और ध्यान के भूगोल में लाया गया है. यह भी कि बहुत सारी लेखिकाएं, आत्मविश्वास और निर्भीकता से साहित्य के परिदृश्य में सक्रिय और मुखर हुईं.
कुलमिलाकर अगर इस अपार दृश्यता-सक्रियता-श्रव्यता का आकलन करें तो यह कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी कविता को, ‘भाषा में आदमी होने की तमीज’ को, जैसा कि धूमिल ने कविता को परिभाषित करते हुए कहा था, स्थगित या प्रतिकूल ढंग से प्रभावित नहीं कर पायी यह कविता की और उसके माध्यम से चरितार्थ मनुष्य की अपराजेय जिजीविषा और विवक्षा का सजीव साक्ष्य हैं.
उत्तर प्रदेश की उलझन
मेरे पिता उत्तर प्रदेश के थे: हमारा पैतृक गांव राजापुर गढ़ेया ज़िला उन्नाव में है. पिता ने पढ़ाई बनारस और इलाहाबाद विश्वविद्यालयों में की थी पर नौकरी की मध्यप्रदेश में. मेरा जन्म और बीए तक की शिक्षा मध्यप्रदेश में ही हुई. प्रशासनिक सेवा में आने पर मुझे उत्तर प्रदेश मिला जा रहा था. पर मैंने मध्यप्रदेश का आग्रह किया और वह मिल गया जहां फिर मैंने अपनी नौकरी के 26 वर्ष बिताये.
दुर्भाग्य से इस बीच उत्तर प्रदेश अपनी उजली सांस्कृतिक परम्परा का उत्तराधिकार तज चुका है और इस समय वह देश का सबसे हिंसक-हत्यारा-बलात्कारी प्रदेश बन चुका है. उसकी पुण्यतोया गंगा में 2000 से अधिक शवों का, नामहीन-संख्याहीन, बहना एक दारुण दृश्य की तरह सारी दुनिया ने देखा है. हिन्दू धर्म की राजधानी बनारस में उस्ताद बिसमिल्लाह खां मार्ग का निर्देश करनेवाला सूचनापट कीचड़ और गन्दगी में धंसा है, इसकी तसवीरें भी आयी हैं. हिन्दू धर्म की सबसे हिंसक और अंधेरी अभिव्यक्ति की इसी प्रदेश में प्रायः हर दिन होती रहती है. उत्तर प्रदेश की राजनीति और सत्ता में इसी प्रदेश के साहित्य, संगीत, नृत्य, ज्ञान, वाद-विवाद संवाद, विज्ञान आदि की कोई स्मृति लगभग बची ही नहीं है. जैसा वह आज दुर्भाग्य से, हो गया है उसे प्रेमचन्द, निराला, फ़िराक, जिगर मुरादाबादी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, मजाज़, बेगम अख्तर, राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव, उस्ताद बिसमिल्ला खां आदि का प्रदेश तो कहा ही नहीं जा सकता. इन सबको, एक तरह से, उत्तर प्रदेश ने मानों मरणोत्तर प्रदेश-निकाला ही दे दिया है.
यह टूटा-बिखरा और घृणा-हिंसा में एकत्र प्रदेश अगले वर्ष के शुरू में विधान सभा चुनाव के माध्यम से अपनी राजनैतिक नियति भर नहीं अपनी सांस्कृतिक नियति भी चुनेगा. क्या यह सम्भव होगा कि पूरे धनबल और बेहद संदिग्ध साधनों से लड़े जानेवाले चुनाव में उत्तर प्रदेश के जन, अभिजन, मध्यवर्ग, बेरोज़गार, ग़रीब, दलित, स्त्रियां, अल्पसंख्यक सभी वहां फैले धर्मान्धता-जातिवाद-सवर्णता-हिंसा-हत्या-बलात्कार के दुश्चक्र को तोड़कर अपने लिये अधिक खुली, समावेशी, आगेदूखे नियति चुनें? अगर बंगाल में ऐसा हो सकता है तो उत्तर प्रदेश में क्यों नहीं? क्या हिन्दी अंचल का यह सबसे बड़ा भूभाग अग्रगामी होने के बजाय पश्चगामी होने के लिए अपने ही कर्मों से अभिशप्त है? धूमिल की इस कटूक्ति ‘इस क़दर कायर हूं कि उत्तर प्रदेश हूं.’ का कभी तो प्रत्याख्यान होगा?
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